शिक्षण सीखने की प्रक्रिया एक व्यापक सतत एवं जीवन प्रयत्न चलने वाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ ना कुछ सीखता रहता है धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभव से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है, इसे ही सीखना कहते हैं।
सीखना शब्द का स्पष्ट अर्थ है कि हम अध्ययन और कक्षा से संबंधित गतिविधियों के बारे में सीखते हैं। फिर हम विभिन्न विषयों और कौशलों के बारे में सोचते हैं, जिन्हें हम स्कूल के माध्यम से सीखते हैं लेकिन सीखना केवल स्कूल तक सीमित नहीं है, जो हमारे दैनिक जीवन में हो रहा है उन सभी गतिविधियों से सीखा जा सकता है।
शिक्षण सीखने की प्रक्रिया की परिभाषा
पाठ से सीखने में एक बहुआयामी परिप्रेक्ष्य शामिल होता है जिसमें छात्रों का ज्ञान, पाठक लक्ष्य, रुचियां, पाठक रणनीतियां और समझ के स्तर शामिल होते हैं। एक पाठ का मूल विचार इसे एक माध्यम या उपकरण के रूप में पहचानता है जिसका उपयोग ज्ञान प्रदान करने और विचारों को संप्रेषित करने के लिए किया जाता है। पाठ्य-आधारित अधिगम कक्षाकक्ष अधिगम तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सामाजिक संदर्भ भी शामिल है। यह प्रक्रिया अनिवार्य रूप से कौशल का एक संश्लेषण है जिसके लिए पाठकों को अर्थ के निर्माण और व्याख्या में रणनीतिक रूप से संलग्न होने की आवश्यकता होती है। पाठक की पृष्ठभूमि, पाठ की शैली, और सामग्री की उत्पत्ति संज्ञानात्मक रुचियों में योगदान करती है जब पाठ पाठकों के मन और विचारों को पकड़ लेता है।
“सीखना वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यवहार की उत्पत्ति होती है या अभ्यास या प्रशिक्षण के माध्यम से परिवर्तन होता है।”
-Kingsley and R. Garry (1957)
“सीखना व्यवहार क्षमता में एक अपेक्षाकृत स्थाई परिवर्तन है जो प्रबलित अभ्यास के परिणाम स्वरूप होता है।”
-kimble
“सीखना नए व्यवहार का अधिग्रहण या अनुभव के परिणाम के रूप में पुराने व्यवहार के उपयोग को मजबूत या कमजोर करना है।”
-Henery P Smith (1962)
सीखना व्यवहार में एक अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन है जो अनुभव का परिणाम है। यह सूचना, ज्ञान और कौशल का अधिग्रहण है। जब आप सीखने के बारे में सोचते हैं, तो बचपन और प्रारंभिक वयस्कता के दौरान होने वाली औपचारिक शिक्षा पर ध्यान देना आसान होता है। लेकिन सीखना एक सतत प्रक्रिया है जो जीवन भर चलती रहती है और यह कक्षा तक ही सीमित नहीं है।
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सीखना स्थायी परिवर्तन की ओर ले जाता है
सीखने का मतलब है कि आपने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसे बनाए रखना। यदि आप उस नए शब्दावली शब्द को दूसरे संदर्भ में देखेंगे, तो आप उसका अर्थ समझ जाएंगे। यदि भविष्य में शौचालय फिर से चलना शुरू हो जाता है, तो आपको इसे ठीक करने के तरीके पर अपनी याददाश्त को ताज़ा करने के लिए वीडियो को फिर से देखने की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन आपको इसका कुछ ज्ञान है कि क्या करना है।
सीखना अनुभव के परिणाम के रूप में होता है
सीखने की प्रक्रिया तब शुरू होती है जब आपके पास एक नया अनुभव होता है, चाहे वह एक नया शब्द पढ़ना हो, किसी को किसी अवधारणा की व्याख्या करना हो, या किसी समस्या को हल करने के लिए एक नई विधि का प्रयास करना हो। एक बार जब आप अंडे उबालने या काम करने के लिए एक अलग मार्ग के लिए एक तकनीक की कोशिश कर लेते हैं, तो आप यह निर्धारित कर सकते हैं कि यह आपके लिए काम करता है या नहीं और फिर भविष्य में इसका इस्तेमाल करें।
सीखना दृष्टिकोण, ज्ञान या व्यवहार को प्रभावित कर सकता है
“किताबों से सीखने” की तुलना में सीखने के लिए और भी बहुत कुछ है। हां, आप नए शब्द, अवधारणाएं और तथ्य सीख सकते हैं। लेकिन आप यह भी सीख सकते हैं कि चीजों को कैसे करना है और चीजों के बारे में कैसा महसूस करना है।
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि सीखने में लाभकारी और नकारात्मक दोनों तरह के व्यवहार शामिल हो सकते हैं। सीखना जीवन का एक स्वाभाविक और निरंतर चलने वाला हिस्सा है जो बेहतर और बुरे दोनों के लिए लगातार होता रहता है।
शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जो सीखने को आसान बनाती है। शिक्षा एक व्यक्ति को और समाज की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अद्वितीय सेवा प्रदान करने के लिए डिजाइन किए गए ज्ञान, कौशल और विशेषताओं का विशिष्ट अनुप्रयोग है। शिक्षण सीखने की प्रक्रिया की प्रभावशीलता शिक्षक के शिक्षण कौशल और विद्यार्थी के सीखने के कौशल का पालन करती है।
इस इंटरएक्टिव कौशल मैम शिक्षण सीखने की प्रक्रिया में पारस्परिक कौशल, प्रभावी बोलने का कौशल और प्रस्तुत कौशल शामिल है।
शिक्षक को विषय वस्तु को संभालने के लिए पर्याप्त आत्मविश्वास होना चाहिए और विद्यार्थियों द्वारा किए गए प्रश्नों को समझाने और उत्तर देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
शिक्षकों द्वारा शिक्षार्थियों की जरूरतों और रुचि को ध्यान में रखते हुए शिक्षण के लिए पूर्ण नियोजन गतिविधियों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षक के लिए टीम और समूह में काम करने का कौशल कौशल होना चाहिए।
यह शिक्षक अति आवश्यक कौशल है क्योंकि प्रेरक प्रक्रिया छात्रों को पढ़ाए जा रहे विषय के प्रति रूचि और दृष्टिकोण प्राप्त करने के लिए मदद करता है।
शिक्षक को छात्र के साथ विश्वास और तालमेल बनाने का प्रयास करना चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि वह जटिल विषय में छात्रों की भावनाओं को महसूस करें और लक्ष्य की दिशा में उनके साथ मिलकर काम करें।
रचनात्मक सोच कौशल खुला आविष्कार और भावनाओं की खोज है। जब लोग सही दिमाग, गतिविधि की बात करते हैं तो उनमें से अधिकांश का मतलब रचनात्मक सोच से होता है। शिक्षण प्रक्रिया को इतना रोचक बनाया है जाए जिससे कि रचनात्मक दृष्टिकोण में विकास हो सके जिससे छात्रों की बौद्धिक क्षमता में और विकास हो सके। रचनात्मक विकास एक ऐसा विकास है जिसके माध्यम से दूसरी अन्य समस्याओं की गुत्थी अपने आप सुलझती जाती है।
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक
A. विद्यार्थी से संबंधित कारक (Factors Related to Students):
1- शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)
किसी भी कार्य को सीखने में विद्यार्थी का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत ही महत्वपूर्ण होता है यदि बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ होगा तो वह अपने अधिगम में रुचि लेगा इसके विपरीत यदि बालक को कोई शारीरिक कष्ट होता है तो उसका पूरा ध्यान उसी में लगा रहता है और वह अपने कार्य में समंग रूप से ध्यान नहीं लगा पता अतः अधिगम(learning) के लिए बालक का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है।
2- मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)
किसी भी कार्य को सीखने के लिए शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी अति आवश्यक होता है यदि बालक मानसिक रूप से स्वस्थ है तो वह किसी भी कार्य या बात को जल्दी सीख लेता है नहीं तो वह कार्य को सीखने में ज्यादा समय लगाता है वह उसे ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता।
3- सीखने की इच्छा (Willingness to Learn)
शारीरिक स्वास्थ्य या मानसिक स्वास्थ्य के सही होने पर बालक में किसी कार्य को सीखने की इच्छा होनी चाहिए। यदि उसमें कार्य सीखने की इच्छा होती है तब वह कार्य को शीघ्रता से सीखने में सफल हो जाता है इसके लिए बालकों में कुछ पाने की चाह या इच्छा होनी चाहिए।
4- सीखने की समय (Learning Time)
यदि बालक को कोई किरिया ज्यादा देर तक सिखाई जाती हैं तो वह थकान महसूस करने लगता है इस स्थिति में बालक में क्रिया को सीखने के प्रति उदासीनता आ जाती हैं अतः बालक को कोई भी क्रिया सिखाते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि बालक को लगातार ज्यादा समय तक कोई कार्य न कराया जाए इसके बीच थोड़ा समय अंतराल होना चाहिए।
5- सीखने में तत्परता (Readiness to Learn)
जब बालक से सीखने(learning) के लिए तत्पर या तैयार होता है तो उस स्थिति में बालक किसी भी कार्य को जल्दी सीख लेता है एवं उसे ज्यादा समय तक अपने मास्तिष्क में धारण रखता है। लेकिन यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर नहीं होता तो वह या तो उस कार्य को सीख नहीं पाएगा और यदि सीख भी लेता है तो शीघ्रता से भूल जाएगा। अतः किसी कार्य को बालक को सिखाने के लिए उस कार्य के प्रति तत्परता या रुझान उत्पन्न करना चाहिए।
6- विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता (Basic Ability of the Student)
प्रत्येक पालक की अपनी कुछ ना कुछ मूलभूत क्षमताएं होती है जिसको आधार बनाकर के क्रियाओं को सिखाना चाहिए। इसके अंतर्गत बालक की अंतर्निहित शक्ति संवेगात्मक दृष्टि आते हैं। यदि बालकों को कोई कार्य उसकी मूलभूत क्षमता के अनुसार सिखाया जाता है तो वह कार्य में शीघ्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। अतः कार्यों का प्रशिक्षण देने से पूर्व बालक की मूलभूत क्षमताओं की जानकारी ले लेनी चाहिए नहीं तो उपयुक्त परिणाम प्राप्त नहीं होगा।
7- बुद्धि स्तर (Intelligence Level)
सभी विद्यार्थी या बालक भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले होते हैं सामान्य प्रतिभाशाली मूर्ख मंदबुद्धि आदि विद्यार्थी को कोई कार्य सिखाने से पहले उसके बुद्धि स्तर को जान लेना चाहिए। इसके उपरांत ही उसी की कारें सिखाना चाहिए। जब विद्यार्थी को उसके बुद्धि स्तरीय क्षमता के अनुसार कोई कार्य सिखाया जाता है तो उसे समझने में सरलता होती है या सहायता मिलती है एवं इस स्थिति में कार्यों को जल्दी सीख लेता है।
8- रूचि (Interest)
जिस प्रकार विद्यार्थी या बालक को कोई कार्य सिखाने(Learning) में अभिप्रेरणा(motivation) आवश्यक होती है उसी प्रकार कार्य के प्रति विद्यार्थी की रूचि का होना आवश्यक है सुरुचिपूर्ण कार्यों को बालक जल्दी सीख लेता है वह इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है।
9- अभिप्रेरणा का स्तर (Motivation Level)
प्रत्येक बालक को सीखने की प्रक्रिया(Process of Learning) के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए। जिससे बालक को कार्य के प्रति प्रेरित किया जा सकता है इसके अनुपस्थिति में बालक कार्य तो करता है लेकिन लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।
B. शिक्षक से संबंधित कारक (Factors Related to Teacher)
1- विषय का ज्ञान (Subject Knowledge):
कोई भी अध्यापक अपने छात्रों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होने पर ही प्रभावित कर सकता है। ज्ञान विहिन शिक्षक ना तो छात्रों से सम्मान या आदत प्राप्त कर सकता है और ना ही उनके मस्तिष्क का विकास कर सकता है। अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होने पर ही शिक्षक आत्मविश्वास पूर्वक बालकों को नवीन ज्ञान प्रदान करते व्वे उनके मस्तिष्क का विकास कह सकता है।
2- शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य(Physical and Mental Health):
शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होने पर ही शिक्षक बालकों का ध्यान केंद्रित कर प्रभावशाली ढंग से शिक्षण प्रदान कर सकता है।
3- समय सारणी का निर्माण (Timetable Creation):
विद्यालयों में समय सारणी का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान आवश्य रखना चाहिए कि एक साथ लगातार दो कठिन विषयों को ना लगाया जाये वह कठिन विषयों को समय सारणी में प्रथम चरण में रखना चाहिए क्योंकि प्रथम चरण बालक में तरोताजगी एवं फूर्ति होती है एवं व शारीरिक एवं मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार रहते हैं।
4- व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान (Knowledge of Individual Differences)
अध्यापक को व्यक्तिगत विभिन्नताओं(Individual Differences) के संबंध में जानकारी होनी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान के प्रदुर्भाव के क्षेत्र में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को महत्व प्रदान किया जा रहा है। इसलिए आज बालक की रुचि अभिरुचि योग्यता क्षमता इत्यादि को ध्यान में रखकर ही उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान होने पर ही शिक्षक अपने शिक्षण को सफल बना सकता है।
5- शिक्षण पद्धति (Teaching Method):
अधिगम प्रक्रिया से शिक्षण पद्धति का प्रत्यक्ष संबंध होता है। समस्त बालकों को एक ही शिक्षण विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक छात्र दूसरे छात्र से भिन्न होता है। अतः शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण पद्धति अधिक प्रभावी वा मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए तभी अधिगम की प्रक्रिया सफल हो सकती है।
6- शिक्षक का व्यक्तित्व(Teacher’s Personality):
शिक्षक का व्यक्तित्व सफल शिक्षण का आधार होता है। उत्तम शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि उत्तम अध्यापक आत्म विश्वास एवं इच्छा शक्ति वाला चरित्रवान कर्तव्यनिष्ठ एवं निरोगी होता है उसके गुणों एवं आदतों का प्रभाव बालकों पर इतना अधिक पड़ता है की उसकी समग्र रुचियां एवं अभिरुचियां ही बालकों की अभिरुचियां बन जाती हैं।
7- अध्यापक का व्यवहार(Teacher’s Behavior):
यदि शिक्षक का व्यवहार समस्त छात्रों के साथ समान है प्रेम सहयोग सहानुभूति आदि गुणों से युक्त हैं तो छात्र भली प्रकार से पाठ सीख लेंगे। इसके विपरीत शिक्षक का व्यवहार होने पर छात्रों में शिक्षक के प्रति गलत अवधारणा बन जाएगी जो अधिगम में अत्यंत बाधक सिद्ध होगी।
8- पढ़ाने की इच्छा(Desire to Teaching):
पाठ को पढ़ाने की इच्छा होने पर ही शिक्षक किसी पाठ को रूचि पूर्वक पढ़ा सकता है और छात्रों में भी पढ़ने के प्रति रुचि विकसित कर सकता है।
9- व्यवसाय के प्रति निष्ठा(Loyalty to Business):
व्यवसाय के प्रति निष्ठा भी अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं और विषय में रुचि पैदा करती हैं। अतः शिक्षक को अपना कार्य उत्साह व तत्परता पूर्वक करना चाहिए।
10- अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था:
शिक्षक को चाहिए कि वह जिन कार्यों को विद्यार्थियों को सिखा रहा है उसको बार-बार उनसे दोहराए। इससे विद्यार्थियों में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होती हैं वह बार-बार उसी कार्य को करने से वह उसे अच्छी तरह से सीख लेते हैं। वह उसको ज्यादा लंबे समय तक अपने मस्तिष्क में धारण रखते हैं।
11- बाल केंद्रित शिक्षा पर बल:
आज बाल केंद्रित शिक्षा पर अत्याधिक बल दिया जा रहा है। अतः शिक्षक के के लिए या आवश्यक है कि वह छात्रों को जो भी ज्ञान प्रदान करें, वह उनकी रूचि स्तर के अनुकूल होना चाहिए।
12- मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान:
अध्यापक को शिक्षण से संबंधित मनोविज्ञान की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान होना भी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान का ज्ञान होने पर ही अध्यापक अपने शिक्षण को सफल बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक को बालक की प्रकृति का भी ज्ञान होना चाहिए।
C. विषय वस्तु से संबंधित कारक (Factors Related to Content)
1- विषय वस्तु की प्रकृति(Nature of Subject Matter)
विषय वस्तु की प्रकृति सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। सीखे जाने वाले विषय वस्तु यदि सरल है। तो माध्यम श्रेणी का छात्र भी उसे सरलता से सीख सकता है। और यदि विषय वस्तु कठिन है तो छात्रों को सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है इसलिए विषय वस्तु की प्रकृति जितनी सरल होगी सीखने की प्रवृत्ति उतनी ही अच्छी होगी।
2- विषय वस्तु का आकार
विषय वस्तु का आकार एवं उसकी मात्रा छात्रों की अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। देखने में आया है कि छात्र पहले उन पाठ्य का अध्ययन करता है जो छोटे होते हैं तथा जिसका विषय वस्तु कम होता है। वह लंबे पाठों से बचना चाहते हैं और यही कारण है कि विद्यार्थी को ऐसे पाठों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है। अतः विषय वस्तु का आकार छोटा होना चाहिए ताकि वह किसी भी चीज़ को अच्छे तरीके से सीख ले।
3- विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता
यदि विषय वस्तु उद्देश्यपूर्ण है तथा छात्रों की आवश्यकताओं की संतुष्टि करता है तो छात्र उसे सरलता से सीख लेते हैं। अतः विषय वस्तु छात्रों के उद्देश्य के अनुरूप बनाए जाने चाहिए।
4- भाषा शैली
सीखने में भाषा शैली का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विभिन्न लेखकों के द्वारा सरल भाषाओं का उपयोग किया जाता है। बच्चे उस किताब को पढ़ने में ज्यादा मन लगाते हैं अतः किसी भी विषय वस्तु को तैयार करने के लिए सरल भाषा शैली का होना अति आवश्यक है।
5- श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री
अधिगम को रोचक बनाने के लिए श्रव्य दृश्य सामग्री का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कठिन से कठिन पाठ्यवस्तु को ही श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री के द्वारा आसान बनाया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ या नहीं है कि जबरदस्ती सहायक सामग्री का प्रयोग पाठ्यवस्तु में किया जाए। इसका प्रयोग विषय वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। अतः विषय वस्तु से संबंधित एक कारक में श्रव्य दृश्य सामग्री का होना अति आवश्यक है।
6- रुचिकर विषय वस्तु
यदि पाठ्यपुस्तक रुचिकर है तो छात्र उसे खूब मन लगाकर पढ़ते हैं और यदि विषय वस्तु रुचिकर नहीं है तो छात्र सीखने में ध्यान नहीं देते हैं और शीघ्र ही उब जाते हैं या थक जाते हैं। इस दृष्टि से पाठ्यवस्तु का रुचिकर होना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षण ही एक कला है। अतः अध्यापक को कक्षा शिक्षण करने से पूर्ण छात्रों को विषय के प्रति गहन रूचि उत्पन्न करनी चाहिए तथा अपनी सूझबूझ से विषय को रूचि बनाने के घातक प्रयास करना चाहिए।
D. वातावरण से संबंधित कारक (Environmental Factors)
1- विद्यालय की स्थिति(School Status)
बहुत से विद्यालय ऐसी जगह है जहां वाहनों का शोर ज्यादा मात्रा में होता है या कुछ विद्यालय ऐसी जगह पर होते हैं जहां पर निरंतर दुर्गंध आती है इन दोनों स्थितियों में बालक या विद्यार्थी का ध्यान कार्यों को सीखने में भंग होता है अतः विद्यालय का निर्माण उपयुक्त जगह होनी चाहिए।
2- कक्षा का पर्यावरण(Classroom Environment)
किसी विद्यालय में कक्षा का अनुशासन इतना अधिक होता है कि वहां कार्यों के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य कोई बातें नहीं की जाती तो कहीं इतनी अधिक अनुशासनहिनता पाई जाती है कि वहां कार्यों के अलावा सभी बातों को स्थान दिया जाता है तो या दोनों ही स्थितियां सही नहीं होती हैं। इन दोनों स्थितियों में तालमेल बैठाए जाने पर अपेक्षित परिणाम की प्राप्ति होती है।
3- परिवारिक वातावरण(Family Environment)
कक्षा का वातावरण भी बालक के लिए आवश्यक नहीं होता अपितु परिवार का वातावरण ही अहम होता है जिन परिवारों का वातावरण उत्तम होता है उन परिवारों के बालक पढ़ाई में रुचि लेते हैं और कठिन पाठ को भी सरलता से सीख लेते हैं इसके विपरीत जिन परिवारों का वातावरण अच्छा नहीं होता उन परिवारों के बालकों की अधिगम के गति अत्यंत मंद होती हैं। अर्थात अगर किसी परिवार के सदस्यों के बीच लड़ाई झगड़े रहते हैं तो वहां पर पढ़ रहे बच्चों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है अतः बालकों को इस वातावरण से बचाने के लिए परिवार में स्नेह पूर्ण वातावरण होना चाहिए।
4- भौतिक वातावरण(Physical Environment)
भौतिक वातावरण के अंतर्गत तापमान वातावरण प्रकाश वायु कोलाहल इत्यादि का प्रमुख स्थान है अतः कक्षा का भौतिक वातावरण उपयुक्त ना होने पर छात्रा भी थकान अनुभव करने लगेंगे और सीखने में भी उनकी अरुचि उत्पन्न होने लगेगी।
5- सामाजिक वातावरण(Social Environment)
छात्रों के अधिगम पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है सामान्यतः सांस्कृतिक वातावरण का आशय व्यक्ति द्वारा निर्मित या प्रभावित उन समस्त नियमों विचारों विश्वासो एवं भौतिक वस्तुओं को पूर्णतः से है जो उनके जीवन को चारों तरफ से गिरे हुए हैं संस्कृतिक वातावरण मानवीय होते हुए भी मानवीय का एवं सामाजिक विकास एवं बालक के अधिगम को सबसे अधिक प्रभावित करता है।
6- विशेष सामग्री की प्रकृति
बालकों को कोई भी कार्य सिखाने के लिए ऐसी विषय सामग्री प्रयुक्त करनी चाहिए जो वातावरण में सुगमता से प्राप्त हो जाए। ऐसे विषय सामग्री के साथ विद्यार्थियों को तालमेल या उसे समझने में सहायता मिलता है।
7- मनोवैज्ञानिक वातावरण(Psychological Atmosphere)
अधिगम की प्रक्रिया पर मनोवैज्ञानिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। यदि छात्रों में परस्पर सहयोग सद्भावना मधुर संबंध है तो अधिगम की प्रक्रिया सुचारू रूप से आगे बढ़ती हैं।
शिक्षा का मुख्य लक्ष्य अधिगम को प्रभावित करना है। जहाँ शिक्षण किया जाता है वहाँ अधिगम क्रियाएँ अवश्य होती हैं। शिक्षण के जरिए विद्यार्थियों को सीखने की सुविधा मिलती है। आधुनिक विद्वानों के विचारानुसार शिक्षण अधिगम एक ही प्रत्यय है। शिक्षण तब तक अधूरा है जब तक अधिगम प्रत्यय का उसके साथ सम्बन्ध न जोड़ा जाये। निम्न वर्णित विभिन्न विद्वानों के विचारों से शिक्षण तथा अधिगम के प्रत्यय को और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-
बी.ओ. स्मिथ के अनुसार, शिक्षण व अधिगम के बीच संबंध
“शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अधिगम का जन्म होता है। जहाँ शिक्षण है वहाँ अधिगम जरूर होगा, परन्तु यह जरूरी नहीं कि जहाँ अधिगम हो वहाँ शिक्षण भी हो। स्मिथ महोदय शिक्षण तथा अधिगम को दो अलग-अलग प्रत्यय मानते हैं लेकिन साथ-साथ उनका ऐसा भी विचार है कि शिक्षण की क्रियाओं का विश्लेषण अधिगम के स्वरूपों के अभाव में सम्भव नहीं है।”
क्लार्क महोदय के अनुसार, शिक्षण व अधिगम के बीच संबंध
” अधिगम के द्वारा व्यवहार में स्थायी परिवर्तन किए जा सकते हैं, जिस पर परिपक्वता एवं अभिप्रेरणा का प्रभाव नहीं होता। उन्होंने शिक्षण को एक ऐसी प्रक्रिया बताया है जिसके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में स्थायी परिवर्तन लाया जा सकता है। इसलिए शिक्षण की उपलब्धि का आधार अधिगम ही है ।”
एन. एल. गेज के मतानुसार, शिक्षण व अधिगम के बीच संबंध
“शिक्षण तथा अधिगम के प्रत्ययों में अन्तर किया जा सकता है लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि जब तक शिक्षण की प्रक्रिया का समन्वय अधिगम के साथ नहीं होगा तब तक उसे प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। इसलिए शिक्षण अधिगम को एक प्रत्यय ही मानकर चलना चाहिए।”
बी. एस. ब्लूम के अनुसार, शिक्षण व अधिगम के बीच संबंध
“शिक्षण की क्रियाओं, गृह-कार्य, वाद-विवाद, व्याख्यानों आदि का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों के क्रियात्मक, ज्ञानात्मक एवं भावात्मक पक्षों के स्तरों को विकसित करना होता है ।”
इस प्रकार का विकास अधिगम का ही स्वरूप होता है। इसलिए शिक्षण के लिए अधिगम आवश्यक प्रत्यय है और प्रभावशाली शिक्षण के लिए अधिगम के स्वरूपों को ध्यान में रखना जरूरी है।
BY : TEAM KALYAN INSTITUTE
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