मनोविज्ञान का आशय प्राणी के व्यवहार का अध्ययन है तथा शिक्षा को प्राणी के विकास की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है। बाल्यावस्था एवं विकास जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनोविज्ञान का विशेष महत्व है। बौद्धिक, शारीरिक, संवेगात्मक और सामाजिक दृष्टि से मानव के द्वारा जितने भी कार्य किए जाते हैं, उन समस्त कार्यों को मनोविज्ञान की शब्दावली से “मानव व्यवहार” के नाम से जाना जाता है। मानव का यह व्यवहार ही किसी व्यक्ति के समुचित विकास अथवा समाज की सतत एवं सर्वोत्कृष्ट प्रकृति का प्रमुख आधार होता है।
वाटसन के अनुसार – “मनोविज्ञान व्यवहार का सकारात्मक विज्ञान है।”
स्किनर के अनुसार – “मनोविज्ञान व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है।”
गुडवर्थ के अनुसार – “मनोविज्ञान वातावरण के संबंध में व्यक्ति के क्रियाकलापों का वैज्ञानिक अध्ययन है।”
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शिक्षा को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में वांछित परिवर्तन किए जाते हैं। अर्थात् शिक्षा का उद्देश्य, व्यक्ति के मानसिक, भावात्मक एवं शारीरिक पक्षों से संबंधित व्यवहारों में अपेक्षित परिवर्तन लाना है। दूसरी ओर मनोविज्ञान की परिभाषा ओं से यह स्पष्ट होता है कि मनोविज्ञान, ज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो मानवीय व्यवहार का अध्ययन करने में सहायक है। मनोविज्ञान के अंतर्गत मानव के,, व्यवहार से संबंधित जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है उन सिद्धांतों के आधार पर ही शिक्षा की प्रक्रिया के माध्यम से प्राणी के व्यवहार में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन संभव होते हैं।
मनोविज्ञान का आशय प्राणी के व्यवहार का अध्ययन है तथा शिक्षा को प्राणी के विकास की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है। इन दोनों ही शब्दों के योग के आधार पर हम कह सकते हैं की प्राणी के व्यवहार का अध्ययन करने वाला वह विज्ञान जो उनके विकास की प्रक्रिया में सहायक होता है, शिक्षा मनोविज्ञान के रूप में जाना जाता। इस विज्ञान के माध्यम से शिक्षा से संबंधित विभिन्न समस्याओं का समाधान किया जाता है। एवं मानव व्यवहार से संबंधित एक ऐसा महत्वपूर्ण विषय है जिसमें खोज एवं निरीक्षण पर आधारित तथ्यों को संकलित किया जाता है तथा शिक्षा के क्षेत्र में इनका व्यवहारिक रूप में प्रयोग करते हुए प्राणी के विकास की प्रक्रिया को सहज, सुगम एवं गतिशील बनाया जाता है।
शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषाएं
कालसनिक के अनुसार – “शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा के क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक सिद्धांत एवं निष्कर्षों का प्रयोग।”
स्किनर के अनुसार – शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत उन्हें निष्कर्षों का उपयोग किया जाता है जो विशेष रूप से शैक्षिक परिस्थितियों में मानव के व्यवहार तथा अनुभवों से संबंधित होते हैं।”
1; वंशानुक्रम और वातावरण
शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत बालक के वंशानुक्रम और वातावरण का अध्ययन किया जाता है और इस अध्ययन से यह जानने का प्रयास किया जाता है कि उस पर वंशानुक्रम का अधिक प्रभाव पड़ा है या वातावरण का जिसके बाद उसमें सुधार करने का प्रयत्न किया जाता है।
2; बालक का विकास
शिक्षा मनोविज्ञान में बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाएं- शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था की विशेषताओं और उन में होने वाले शारीरिक, मानसिक और सामाजिक आदि परिवर्तनों और उनके अनुरूप प्रदान की जाने वाली शिक्षा का अध्ययन किया जाता है।
3; वैयक्तिक विभिन्नताएं
संसार में कोई भी व्यक्ति सम्मान नहीं होते हैं कुछ ना कुछ विभिन्नताएं जरूर होती है और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी विशेषताएं होती है जो उनको दूसरों से अलग करती है। बालकों में पाई जाने वाली इस विभिनता का शिक्षा में बहुत महत्व है और इन व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर ही उनके विकास को वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सहायता मिलती है।
4; अधिगम
अधिगम की प्रक्रिया को ठीक से समझने और अधिक दक्षता से निर्देशित करने के लिए जिस ज्ञान और जिस तकनीकी का संबंध है उन सबका ज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र है। अधिगम शिक्षा मनोविज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण प्रत्यय है। इसके अंतर्गत अधिगम के सिद्धांत, अधिगम के प्रकार, अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक आदि का अध्ययन किया जाता है।
5; पाठ्यक्रम निर्माण
पाठ्यक्रम निर्माण के संबंध में भी शिक्षा मनोविज्ञान में अध्ययन किया जाता है। मनोविज्ञान के द्वारा इस बात का प्रयास किया जाता है कि पाठ्यक्रम का निर्माण ऐसे सिद्धांतों के आधार पर किया जाए, जो बालकों के लिए उपयोगी हो, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने वाला हो और जिसे वे सरलता और सहजता से ग्रहण कर सके।
6; मनोवैज्ञानिक प्रयोग
शिक्षा मनोविज्ञान में यह प्रयास किया जाता है कि विद्यार्थियों को अधिगम के दौरान मनोवैज्ञानिक प्रयोग किए जाए जिससे अधिगम के दौरान छात्रों को बीच उचित समन्वय स्थापित किया जाए।
7; शिक्षण विधियां
शिक्षण की नवीन विधियों का विकास करना और उनको मान्यता प्रदान करना शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत आता है। शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षण विधियों कि उपयोगिता और अनुपयोगिता का अध्यन करता है और यह बताता है कि शिक्षा विधि इस प्रकार की होनी चाहिए जो बालकों के विकास के लिए सर्वोपरि हो।
8; मानसिक स्वास्थ्य
व्यक्ति को संतुलित जीवन व्यतीत करने के लिए, पारिवारिक जीवन में संतुलन स्थापित करने के लिए, स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए शैक्षिक जगत में प्रगति करने के लिए और व्यवसायिक कुशलता प्राप्त करने के लिए उत्तम मानसिक स्वास्थ्य का होना आवश्यक है। शिक्षा मनोविज्ञान में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित विषयों का अध्ययन किया जाता है जिससे शिक्षकों और छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा बने तथा वे मानसिक रोगों, तनाव और संघर्षों से दूर रहे।
9; व्यक्तित्व और समायोजन
आज शिक्षा का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। जिससे व्यक्ति उच्च आदर्श युक्त एवं गौरवशाली स्वरूप में अपना जीवन व्यतीत कर सकें।
10; मापन एवं मूल्यांकन
शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत समय-समय पर व्यक्ति के गतिविधियों का मूल्यांकन किया जाता। जिसके अंतर्गत शैक्षिक उपलब्धियों और मानसिक योग्यताओं के मापन और मूल्यांकन के लिए प्रयोग की जाने वाले प्रशिक्षण का अध्ययन भी शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।
1; बालक के विकास की जानकारी
बालकों का विभिन्न अवस्थाओं में निरंतर विकास होते रहता है जिसमें की बालक क्रमशः शैशवास्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और अंततः प्रौढ़ावस्था से गुजरता है। इन प्रत्येक अवस्थाओं में बालक में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों को ध्यान में रखें बिना किसी भी बालक की विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत बालक के इन विभिन्न अवस्थाओं के दौरान हो रहे विकासात्मक परिवर्तनों का पता चलता है और यह निर्धारित किया जाता है कि शिक्षार्थियों को किस आयु में किस प्रकार का ज्ञान प्रदान किया जाए जो विद्यार्थी के लिए उपयुक्त रहे।
2; वैयक्तिक विभिनता की जानकारी
वैयक्तिक विभिन्नताओं की जानकारी का शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में विशेष महत्व है। शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत किस प्रकार की अनेक विधिओ हो का विकास किया जा चुका है जिसके द्वारा छात्रों में निहित योग्यताओं के संबंध में विश्वसनीय जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन जानकारी के आधार पर शिक्षक को यह पता हो जाता है कि किस विद्यार्थी के लिए किस प्रकार की शिक्षण व्यवस्था की जाए।
3; शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक
विद्यार्थी को जो भी शिक्षा प्रदान की जाती है उसके कुछ ना कुछ अपने उद्देश्य होते हैं। उन शैक्षिक उद्देश्यों को शिक्षा मनोविज्ञान के द्वारा बड़ी ही सरलता से प्राप्त किए जा सकते हैं।
4; मापन एवं मूल्यांकन की विधियों का विकास
बालकों की योग्यताओं के मापन एवं मूल्यांकन के अभाव में यह ज्ञात कर पाना कठिन है कि उनका विकास कहां से प्रारंभ किया जाए। विशेषकर आज के समय में छात्रों की संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण यह और भी आवश्यक हो गया है कि उनकी योग्यताओं एवं उपलब्धियों के संबंध में कम से कम समय में अधिक से अधिक विश्वसनीय जानकारी प्राप्त की जाए। शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत मूल्यांकन एवं मापन की अनेक विधियों का विकास किया जा चुका है। विभिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठ, निरीक्षण और साक्षात्कार प्रशिक्षण के माध्यम से छात्रों की योग्यताओं का मूल्यांकन एवं मापन आब संभव है।
5; बाल केंद्रित शिक्षा का उदय
मनोविज्ञान के विकास से पूर्व तक शैक्षिक प्रक्रिया के अंतर्गत बालक के स्थान पर शिक्षक एवं पाठ्यक्रम को ही अधिक महत्व प्रदान किया जाता था। परंतु मनोविज्ञान की खोज के द्वारा यह स्पष्ट हो गया है कि शिक्षा का केंद्र बिंदु बालक है तथा उसी के अनुरूप शिक्षा की समस्त व्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए। किसी का परिणाम है कि शिक्षण अधिगम की समस्त प्रक्रिया में व्यापक स्तर पर परिवर्तन किए गए हैं।
6; मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित पाठ्यक्रम
शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत पाठ्यक्रम के निर्धारण एवं व्यवसाय से संबंधित विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। इन समस्त सिद्धांतों के आधार पर बालकों की रूचियां, स्तर एवं योग्यताएं है। इसमें कुछ सिद्धांत है-रुचि का सिद्धांत, समन्वय का सिद्धांत, उपयोगिता का सिद्धांत आदि।
7; पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का महत्व
शिक्षा मनोविज्ञान में निहित निष्कर्षों के आधार पर यह प्रमाणित हो चुका है कि बालक के समस्त पक्षों का समन्वित विकास करने से ही उनके जीवन को संतुलित बनाया जा सकता है। आज की शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत छात्रों के ज्ञानात्मक विकास के साथ ही उनके शारीरिक एवं संवेगात्मक विकास पर भी समान रूप से बल दिया जाने लगा है। विभिन्न सामाजिक गुणों के विकास का राष्ट्रीय एकता की भावना की विकास हेतु विविध प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना तथा शारीरिक विकास हेतु व्यायाम, और खेल प्रतियोगिताओं को प्रोत्साहन देना इसी का परिणाम है।
8; विद्यालय वातावरण में सुधार
विद्यालय वातावरण का शिक्षार्थियों के अधिगम से गहन संबंध होता है। विद्यालय में उपलब्ध फर्नीचर, प्रकाश, वायु एवं तापमान की व्यवस्था, आवश्यक सहायक सामग्री आदि छात्रों के अधिगम को प्रभावित करती है। भौतिक वातावरण के साथ ही विभिन्न माननीय अंगों के मध्य सहयोग एवं सहानुभूति पर आधारित वातावरण भी छात्रों को वांछित विकास में सहायक होता है।
9; अनुशासन से संबंधित समस्याओं का समाधान
मनोविज्ञान के विकास से पूर्व तक छात्रों की अनुशासनहीनता का एकमात्र उपाय दंड ही था। शिक्षकों की यह धारणा थी कि दंड के बिना छात्रों का विकास असंभव है। बालकों के छोटे-छोटे अपराधों पर कठोर दंड दिया जाना एक साधारण सी बात थी। विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि के फलस्वरुप कठोर दंड के माध्यम से ज्ञान प्रदान करना अब बहुत ही कठिन हो गया था। मनोविज्ञान के द्वारा यह स्पष्ट हुआ कि भय से विद्यार्थियों का विकास असंभव है। इसके स्थान पर विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता के कारणों की खोज की जानी चाहिए तथा शिक्षण व्यवस्था एवं शिक्षक व्यवहार में ही अपेक्षित सुधार किए जाने चाहिए।
10; अनुसंधान के क्षेत्र में वृद्धि
शिक्षा मनोविज्ञान में की गई खोजों के आधार पर शैक्षिक अनुसंधान के क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई जिसके माध्यम से अधिगम प्रक्रिया को और ज्यादा रोचक बनाया जाने लगा जिसका प्रत्यक्ष लाभ विद्यार्थियों को होने लगा।
बच्चों की शिक्षा में परिवार की भूमिका
1; स्नेह का केंद्र
प्रत्येक घर विशेषकर बच्चों के लिए स्नेह का केंद्र होता है परिवार का पर प्रमुख या बुजुर्ग दूसरों के लिए स्नेह का स्रोत होता है। वे अपना प्रेम और उसने छोटे के प्रति प्रदर्शित करते हैं परंतु अब परिवार विघटन के कारण स्थिति बदल गई है। कुछ बच्चे अपने बड़ों के प्रति नफरत और घृणा के भाव लिए हुए हैं। फलस्वरूप स्नेह संबंधों का विकास अवरुद्ध हो गया है। शिक्षा प्रणाली द्वारा ही अब प्राचीन रिवाजों जैसे बड़ों का सम्मान आदि जीवित और सुरक्षित रख सकते हैं।
2; सामाजिकता का विकास
प्रत्येक घर अपने बच्चों को अधिक से अधिक सामाजिक बनाना चाहता है। जब घर के सदस्य आपस में तथा पहाड़ के लोगों के साथ सामाजिकता के भाव से कार्य करते हैं तो बच्चे भी इन क्रियाओं का अनुकरण करते हैं जिससे धीरे धीरे बच्चों मे यह क्रिया विकसित होने लगती है और वह अपने दोस्तों के साथ सामाजिकता के मूल्यों साथ रहने लगता है।
3; नैतिक शिक्षा प्रदान करना
घरवालों को नैतिक शिक्षा प्रदान करता है बालक सत्य और ईमानदारी का महत्व परिवार से ही सीखता है। बालक परिवार में घटित होने वाली क्रियाओं को बड़ी ही ध्यान से देखता है और सुनना है तो इस कारण वह अपने माता-पिता और बुजुर्गों से नैतिकता का भाव सीखता है।
4; आवश्यकताओं की पूर्ति
घर वालों की आर्थिक एवं अन्य बहुत सी आवश्यकताओं को पूरा करता है। विभिन्न क्रियाओं के लिए बालक को धन की आवश्यकता पड़ती है और उसे उचित पोषण देने के लिए धन की जरूरत पड़ती है यह सब सुविधाएं उसे माता-पिता द्वारा प्रदान की जाती है। एक अच्छा उधर उसे धन के वास्तविक मूल्य से अवगत कराता है जिससे बालक उचित ढंग से धन अर्जन करता है और उसका उचित प्रयोग करता है।
5; मनोरंजन
मनोरंजन वीर बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यंत ही आवश्यक है। बालक को विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न मनोरंजन की आवश्यकता पड़ती है तो वह मनोरंजन की पूर्ति भी परिवार ही भलीभांति से पूरा करता है।
6; शारीरिक विकास में सहायक
माता पिता अपने बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में सदैव सजग रहते हैं। वे उन्हें उचित भोजन प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं तथा उनमें सफाई, स्वास्थ्य संबंधी आदतों का विकास करते हैं। वे उन्हें खेलने के समय खेलने और पढ़ने के समय पढ़ने की आदत डालते हैं इस प्रकार माता-पिता बच्चों के उचित शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
7; मानसिक विकास में सहायक
बच्चों के मानसिक विकास में विशेषकर सावधानी बरती जाती है। यहां मानसिक विकास से अभिप्राय मानसिक शक्तियों जैसे- सोचना, भाषा विकास आदि के विकास से है। माता-पिता बच्चों को अपनी मातृभाषा का सही उच्चारण करने और उन्हें सही प्रकार से व्यक्त करने में सहायता करते हैं इस स्तर पर बच्चों में बौद्धिक विकास आगे चलकर उनकी शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
8; भावनात्मक विकास में सहायक
भावनात्मक विकास बालक के उचित विकास के लिए अति आवश्यक है। इस संदर्भ में माता-पिता पुनः महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। घर में बालक भावनात्मक स्थिरता सीखता है और स्वस्थ एवं उचित भावनाएं जैसे- दया, साहस, स्नेह आदि सीखता है।
9; धार्मिक विकास में सहायक
धर्म एवं धार्मिक विश्वास बालक के व्यक्तित्व में सुधार लाते हैं। घर धार्मिक और नैतिक विश्वास का मूलभूत आधार है। धर्म नैतिक परिवार का आधार होता है बुद्धिमान माता-पिता जिस का ध्यान रखते हैं। इसलिए परिवार को बालक के धार्मिक विकास की ओर भी विशेष ध्यान देना चाहिए बालक को अवश्य ही किसी परम वस्तु के साथ स्थापित करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। धार्मिक प्रशिक्षण विचारों की शुद्धता, नम्रता, दयालुता तथा भाईचारे की भावना जैसे गुण दिखाएगा।
10; सांस्कृतिक विकास
सांस्कृतिक विकास बालक की संपूर्ण शिक्षा का एक अनिवार्य भाग है। घर या परिवार, बढ़ती हुई पीढ़ी में जाति की सांस्कृतिक धरोहर को सहेज कर रखने का एक माध्यम है। परिवार बच्चों को अपनी परंपरा और आचरण से परिचित करवाता है जिससे बालक सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित होता है और अपने आपको समाज के साथ जोड़ कर देखता है।
बच्चों की शिक्षा में समाज की भूमिका
1; सांझा प्राकृतिक वातावरण
समाजिक साझा प्राकृतिक वातावरण होता है इस प्रकार के वातावरण में बहुत सी चीजें शामिल है जिसमें की सभी मैदान, पर्वत और नदियां आदि साझे वातावरण में शामिल है। उनका सम्बन्ध समाज में रहने वाले सभी लोगों से इस प्रकार से है कि किसी निश्चित समाज में रहने वाले सभी लोगों की उनके साथ बहुत ज्यादा समानता होती है। बच्चे इस साझा प्राकृतिक वातावरण का अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए प्रयोग करते हैं।
2; शिक्षा का वित्त प्रबंध
शिक्षा का प्रसार करने के लिए समाज का अपने आप में बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान है समाज शिक्षा संबंधी खर्चों के लिए वित्त का प्रबंधन करता है जिसमें की समाज की सर्वोपरि भूमिका रहती है। इस तरह से बच्चों की शिक्षा में समाज की वित्त के संबंध में बहुत बड़ी भूमिका रहती है।
3; सुसंगठित जनसंख्या
सुसंगठित जनसंख्या समाज की अनिवार्य विशेषता है। समाज की जनसंख्या में वे लोग शामिल है जो इकट्ठे रहते हैं और उस समाज के अस्तित्व के लिए मिलकर काम करते हैं। वास्तव में समाज में रहने वाले सभी लोग समाज की विफलता के लिए गतिशील शक्तियों के रूप में कार्य करते हैं। बच्चों में समाज के द्वारा सुसंगठित रहने की भावना जागृत होती है।
4; आपसी सहयोग
आपसी सहयोग समाजों का एक बहुत महत्वपूर्ण गुण है। कोई भी समाज सदस्यों के आपसी सहयोग के बिना नहीं चल सकता है। समाज की प्रगति भी उनके सदस्यों के आपसी सहयोग पर ही निर्भर करती है। यह आपसी सहयोग पहले परिवार के सदस्यों से शुरू होता है, फिर यह और वृद्धि तो हो जाता है और क्षेत्र में युवाओं देश के सभी सदस्यों में आपसी सहयोग और फिर विश्व राष्ट्र के सभी सदस्यों तक प्रस्तुत हो जाता है। इस प्रक्रिया का अनुकरण बालक भी परिवार और परिवार से बाहर निकलने के बाद समाज में करता है जिससे बालक में आपसी सहयोग की भावना पैदा होती है।
5; प्राकृतिक संसाधन
समाज में बहुत से प्राकृतिक संसाधन होते हैं जो समाज का गुप्त खजाना है। खटीक संसाधनों के बहुत से उदाहरण है जैसे कि खनिज पदार्थ, वनस्पतियां, जंगल और पशु आदि। प्राकृतिक संसाधन समाज के विकास में बहुत योगदान देते हैं वह समाज में रहने वाले लोगों की बहुत सी जरूरतों को पूरा करते हैं। समाज इन संसाधनों का प्रयोग बड़ी जिम्मेदारी के साथ करता है जिससे इन संसाधनों का दुरुपयोग ना हो सके। बालक भी बचपन से ही समाज के इस गुणों को सीखता है।
6; समानता की भावना
समानता की भावना समाज का एक महत्वपूर्ण तत्व है। इस प्रकार की भावना से मित्रता पैदा होती है यह समाज के सदस्यों में मित्रता की स्थिति को व्यक्त करता है। बालक समाज से यह उसी का है कि किस तरह से एक दूसरे के साथ मिलकर तथा समानता पूर्वक रहना है और यह भावना बचपन से ही बालक के मन में जागृत होती है।
बच्चों की शिक्षा में विद्यालय का महत्व
1; बौद्धिक शिक्षा का माध्यम
विद्यालय मूलतः बौद्धिक शिक्षा का एक माध्यम होता है यह शिक्षा कक्षा में, प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों, अध्ययन समूह, कार्यशाला, सेमिनारों आदि में दी जाती है। किस कारण स्कूल की नीति और अभ्यास को सदा ही ऐसा आकार दिया जाना चाहिए जहां बौद्धिक शिक्षा को बढ़ाने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान किए जा सके। बच्चों के विकास में बौद्धिक शिक्षा का अपने आप में काफी महत्वपूर्ण योगदान होता है।
2; शारीरिक शिक्षा का माध्यम
विद्यालयों में बौद्धिक शिक्षा के साथ-साथ शारीरिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है जिससे बच्चों का शारीरिक विकास होने लगता है। स्कूलों में विभिन्न प्रकार के शारीरिक गतिविधियों के माध्यम से बच्चों में एकाग्रता की शक्ति को बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयास की जाती है जिससे विद्यार्थी शारीरिक रूप से स्वस्थ रह सकें।
3; नैतिक शिक्षा का माध्यम
विद्यालयों में नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त प्रयास किए जाते हैं जिसमें यह विद्यालय की ओर से प्रयास किए जाता है कि ऐसे तत्वों का चयन किया जाए जो छात्रों को नैतिक हानि पहुंचा रहे हैं उनसे छात्रों को बचाया जा सके। आज के समय में अनैतिक कार्य अनेक है जैसे कि मदिरा सेवन और जुआ खेलना आदि इन सब अनैतिक कार्यों की वजह नैतिक कार्यों की ओर छात्रों का रुझान विकसित करना विद्यालयों की प्राथमिकता रहती है।
4; देशभक्ति की भावना जागृत करना
विद्यालय बच्चों में देशभक्ति की भावना जागृत करने के लिए समय-समय पर इससे संबंधित कार्यक्रम कराते रहते हैं जिन कार्यक्रमों में विद्यार्थी प्रति भग लेकर अपने आप में देश भक्ति की भावना जागृत करता है। इस तरह से विद्यालय देशभक्ति को जागृत करने का भी एक केंद्र है।
5; संस्कृति का संरक्षण एवं बढ़ावा देना
बालक विद्यालय से पाठ्यक्रम के माध्यम से अपनी संस्कृति के संदर्भ में परिचित होता है साथ ही साथ दूसरों की संस्कृति के बारे में भी परिचित होता है। संस्कृति के संरक्षण एवं उनके प्रसार के संदर्भ में वह अवगत होता है।
बच्चों की शिक्षा में अध्यापक की भूमिका
1; बच्चों को मार्गदर्शन के रूप में
अध्यापक बच्चों को मार्गदर्शन को काम करता है जिससे विद्यार्थियों को आगे सही राह पर जाने में सहूलियत होती है। अध्यापक विद्यार्थियों के एक गाइड के रूप में कार्य करता है। अध्यापक हर समय बच्चों के मार्गदर्शन के रूप में कार्य करता है।
2; बच्चों को प्रेरित करने में
विद्यार्थी अपने लक्ष्य को हासिल करते हुए कई बार हताश जाता है उसे लगता है कि अब इसे निरंतर करना काफी मुश्किल है तो ऐसी स्थिति में अध्यापक का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अध्यापक बच्चों को हताशा की स्थिति में प्रेरित करने का काम करता है।
3; आत्मविश्वास का विकास
जब जब विद्यार्थियों में आत्मविश्वास की कमी देखी जाती है तो ऐसी स्थिति में अध्यापक बच्चों में आत्मविश्वास का विकास करने में सहायता करता है।
बच्चों की शिक्षा में NGOs की भूमिका
1; बालश्रम से बाहर निकालना
बहुत सी जगह में यह देखा जाता है कि जहां पर छोटे बच्चों को काम पर रखा जाता है। उनसे बाल मजदूरी करवाई जाती है जोकि अपराधिक क्रियाएं है। बाल श्रम एक तरह से बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जाता है। जिस समय बच्चों का शिक्षा ग्रहण करने तथा शारीरिक विकास का समय होता है उस वक्त उनसे मजदूरी करवाई जाती है। इस स्थिति को रोकने के लिए सरकार के द्वारा भी अनेक कदम उठाए जाते हैं लेकिन सरकार इन बच्चों तक नहीं पहुंच पाती है ऐसी स्थिति में NGOs अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। NGOs बच्चों को बाल मजदूरी के गिरोह से बाहर निकालने का भरपूर प्रयास करते हैं जिससे ऐसे बच्चों का भविष्य उज्जवल होता है।
2; शिक्षा को प्रसारित करना
भारत में आज भी बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित है यह वर्ग आर्थिक तंगी के चलते शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते हैं जिससे कि यह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में NGOs निर्धन वर्गों के बच्चों के लिए शिक्षा प्रदान करने का भरपूर प्रयास करते हैं जिससे इन बच्चों को शिक्षा से वंचित ना किया जा सके। निम्न वर्गों के बच्चों को भी मुख्यधारा के साथ जोड़ने का प्रयास NGOs द्वारा किया जाता है।
3; बच्चों को कुपोषण की समस्याओं से बाहर निकालना
हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी आज भी कुपोषण का शिकार है जिन्हें उचित पोषण युक्त आहार नहीं मिल पाता है जिससे वह अनेक बीमारियों से जूझते हैं। ऐसी स्थिति में NGOs बढ़-चढ़कर आगे आता है और झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के लिए उचित पोषण युक्त भोजन का वितरण करता है जिससे बच्चों को कुपोषण की समस्याओं से बाहर निकाला जाता है।
बच्चों की शिक्षा में मीडिया की भूमिका
1; दैनिक घटनाओं से अवगत
विद्यार्थी मीडिया के माध्यम से दैनिक घटनाओं से अवगत होता है जिससे उसे यह पता चलता है कि देश और समाज में क्या घटनाएं घटित हो रही है। उन घटनाओं के आधार पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करता है।
2; प्राकृतिक घटनाओं से जागृति
विद्यार्थी को जब मीडिया के माध्यम से प्राकृतिक घटनाओं की जानकारी पहुंचती है तो विद्यार्थी प्राकृतिक घटनाओं से अपने आप को प्रकृति के साथ समन्वित करता है। विद्यार्थी प्राकृतिक संसाधनों की महत्वता को जानने लगता है और प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग करने से उसके अंनजामो उसे भली भांति परिचित होता है।
3; सांस्कृतिक मूल्यों की जानकारी
विद्यार्थी को मीडिया के माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों की जानकारी प्राप्त होती है। हमारा देश सांस्कृतिक विविधता वाला देश है जिसमें अनेक सांस्कृतिक विभिन्न टाइम पाई जाती है। विद्यार्थी इन सांस्कृतिक विविधताओं को मीडिया के माध्यम से परिचित होता है।
4; राष्ट्रीय सूचनाओं की जानकारी
मीडिया के माध्यम से विद्यार्थी अंतर्राष्ट्रीय सूचनाओं की जानकारी रखता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या घटनाएं घटित हो रही है सब की जानकारी विद्यार्थियों तक मीडिया के माध्यम से पहुंचती है।
5; अर्थव्यवस्था की जानकारियों से अवगत
देश की अर्थव्यवस्था में तथा विश्व की अर्थव्यवस्था में क्या-क्या घटनाएं घटित हो रही है और अर्थव्यवस्था से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णयों के बारे में विद्यार्थियों को मीडिया के माध्यम से पता चलता है।
वृद्धि और विकास दोनों शब्द का एक ही अर्थ में प्रयोग किए जाते हैं, किंतु मनोविज्ञानिकों के अनुसार इस में कुछ अंतर होता है। वृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यतः शरीर और उसके अंगों के आकार तथा भार में वृद्धि के लिए किया जाता है। इस वृद्धि को मापा और तोला जा सकता है। विकास का संबंध वृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।
व्यक्ति की शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक, शरीर के विभिन्न अंगों के आकार में परिवर्तन के साथ-साथ शरीर की ऊंचाई, चौड़ाई तथा भार भी परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति के शरीर की रचना में परिवर्तन होने का प्रमुख कारण ब्राय वातावरण से अंतः क्रिया करना है। व्यक्ति के शरीर की कोशिकाओं का निर्माण एवं विघटन, सामाजिक वातावरण, भोजन तथा जलवायु आदि के फलस्वरूप होता है। व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि को मापा जा सकता है और यह वृद्धि व्यक्ति के शरीर से संबंधित होती है।
सोरेंन्सन के अनुसार – “वृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यतः शरीर और उसके अंगों के आकार तथा भार में वृद्धि के लिए किया जाता है। इस वृद्धि को मापा और तोला जा सकता है। विकास का संबंध वृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।”
मुनरो के अनुसार– “वृद्धि से तात्पर्य शरीर, आकार और भार में पाई जाने वाली वृद्धि अर्थात बालक की शारीरिक लंबाई, चौड़ाई और भार की वृद्धि से होता है।”
(1) अभिवृद्धि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है।
(2) अभिवृद्धि का संबंध केवल सजिव या मूर्त जीवो या वनस्पति से ही है।
(3) अभिवृद्धि, विकास को भी प्रभावित करती है।
(4) अभिवृद्धि की एक निश्चित सीमा है।
(5) अभिवृद्धि की प्रक्रिया गर्भावस्था से 18-20 वर्ष की आयु तक चलती है।
(6) अभिवृद्धि में मनुष्य के शरीर के आकार, भार व कार्यक्षमता में वृद्धि होती है, जो सामान्यतः 18-20 वर्ष की आयु तक लगभग पूर्ण हो जाती है।
(7) सभी अंगों की वृद्धि समान रूप से नहीं होती।
(8) भिन्न-भिन्न आयु स्तर पर अभिवृद्धि की गति भिन्न-भिन्न होती है।
(9) अभिवृद्धि मात्रात्मक होती है, इसका मापन गणितीय विधियों से किया जा सकता है।
(10) अभिवृद्धि बालक के वंशानुक्रम और पर्यावरण, दोनों पर निर्भर करती है।
व्यक्ति में हर समय होने वाली विभिन्न परिवर्तनों को ही विकास कहा जाता है। विकास के अंतर्गत व्यक्ति में मानसिक, सामाजिक तथा शारीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है अर्थात् व्यक्ति में होने वाले समस्त परिवर्तनों को विकास कहा जाता है। व्यक्ति में होने वाली परिवर्तन पर व्यक्तिक विभिन्नता का प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के विकास में एक निश्चित दिशा होती है अथवा परिवर्तन एक निर्धारित क्रम की दिशा में होता है।
गैसेल के अनुसार – विकास प्रयत्न से अधिक है। इसे देखा, जांचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं- शरीर अंक विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है… इस सब में व्यवहारिक संकेत ह सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्ति को व्यक्त करने का माध्यम है।
बोरिंग के अनुसार– “विकास हमारा तात्पर्य आवृत्ति या रूप में परिवर्तन से होता है। शारीरिक संरचना या ढांचे में परिवर्तन का कारण वृद्धि है।”
(1) विकास एक प्राकृतिक एवं सामाजिक प्रक्रिया है ।
(2) विकास एक अनवरत प्रक्रिया है।
(3) विकास एक विशेष क्रम में होता है और भिन्न-भिन्न आयु स्तर पर विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है।
(4) व्यक्तित्व के सभी पक्षों (संवेगात्मक, सामाजिक आदि) का विकास समान गति से नहीं होता।
(5) विकास की कोई सीमा नहीं होती।
(6) विकास में मात्रात्मक वृद्धि और गुणात्मक उन्नयन, दोनों होते हैं।
(7) विकास के गुणात्मक उन्नयन को गणितीय विधियों से नहीं मापा जा सकता।
(8) विकास का मापन नहीं किया जा सकता, बल्कि इसका निरीक्षण किया जाता है। इसका मापन अप्रत्यक्ष रूप में व्यवहार के द्वारा किया जाता है।
(9) विकास एकीकृत एवं बहुआयामी है ।
(10) विकास वंशानुक्रम और वातावरण, दोनों पर निर्भर करता है।
प्रायः यह भी देखने को मिलता है की बालक की शारीरिक वृद्धि के अनुपात में उसकी कार्यकुशलता में प्रगति नहीं होती है। ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि बालक की वृद्धि तो हो गई है किंतु उसका विकास नहीं हुआ है।
वृद्धि |
विकास |
1. वृद्धि का संबंध शरीर के बाहरी स्वरूप से है। 2. वृद्धि एक समय के बाद रुक जाती है। 3. वृद्धि का प्रयोग संकुचित अर्थों में होता है। 4. वृद्धि में कोई निश्चित क्रम नहीं होता है। 5. वृद्धि की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। 6. वृद्धि का कोई लक्ष्य नहीं होता है। 7. वृद्धि को बड़ी सरलता से मापा जा सकता है। वृद्धि के मापक ऊंचाई और बाहर है। |
1. विकास का संबंध शरीर के आंतरिक स्वरूप से होता है।
2. विकास जीवन प्रयत्न चलता रहता है। 3. विकास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में होता है। 4. विकास में एक निश्चित क्रम होता है। 5. विकास की एक निश्चित दिशा होती है। 6. विकास का कोई ना कोई लक्ष्य होता है। 7. विकास को बड़ी सरलता से मापना संभव नहीं है, क्योंकि बुद्धि को मापा नहीं जा सकता। |
1- सतत विकास का सिद्धांत
मानव के विकास का क्रम गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक सतत रूप से चलता रहता है। विकास की गति कभी तीव्र या कभी धीमी हो सकती है। मानव का विकास सतत रूप से धीरे-धीरे चलता रहता है। इस सिद्धांत की पुष्टि के लिए बालकों के दांतों उदाहरण लिया जा सकता है। लगभग 6 महीने की आयु पर शिशु के दूध के दांत निकलने पर अनुभव होता है। इन दांतों का विकास 5 माह के भ्रूणावस्था से प्रारंभ हो जाता है, किंतु वे जन्म के बाद 6 माह की आयु में मसूढो से बाहर निकलना प्रारंभ होते हैं।
2- परस्पर संबंध का सिद्धांत
इस सिद्धांत से तात्पर्य है कि बालक के विभिन्न गुण परस्पर संबंधित होते हैं। एक गुण का विकास जिस प्रकार हो रहा है अन्य गुण भी उसी अनुपात में विकसित होंगे।
3- शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति में विभिन्नता का सिद्धांत
शरीर के सभी अंगों का विकास एक गति से नहीं होता है। इसके विकास की गति में विभिन्न ता पाई जाती है। यही बात मानसिक विकास पर भी लागू होती है। शरीर के कुछ अंग तेज गति से विकसित होते हैं और कुछ धीमी गति से विकसित होते हैं।
4- विकास की दशा का सिद्धांत
किसी को केंद्र परिधि की और विकास का सिद्धांत भी कहा जाता है, इसमें विकास सिर से पैर की ओर एक दिशा के रूप में होता है। बालक का सिर पहले विकसित होता है और पैर सबसे बाद में। यही बात उसके अंगों पर नियंत्रण पर भी लागू होती है।
5- व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धांत
बालकों के विकास के क्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताएं भी अपना प्रभाव दिखाती है, इनके प्रभाव के कारण विकास की गति में अंतर आ जाता है। किसी के विकास की गति तीव्र और किसी के विकास की गति धीमी होती है। यह अवश्य नहीं है कि सभी बालक एक निश्चित अवधि पर ही किसी विशिष्ट अवस्था की परिपक्वता को प्राप्त कर ले।
6- विभिनता का सिद्धांत
विकास का क्रम एक सम्मान हो सकता है, किंतु विकास की गति एक समान नहीं होती है। विकास की गति शैशवावस्था एवं किशोरावस्था में तीव्र रहती है। किंतु बाल्यावस्था में मंद पड़ जाती है। इसी प्रकार बालक एवं बालिकाओं के विकास की गति में भी विभिन्नताएं पाई जाती है।
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (Cognitive Development Theory of Piaget)
जीन पियाजे (1896-1980) ने मनोविज्ञान की किसी अवधारणा को नहीं दिया और न किसी अध्ययन के उपक्रम को संपन्न किया फिर भी बच्चों के मनोवैज्ञानिक अन्वेषण करने वाले विद्वानों में उनका नाम अग्रणी है। वे स्विट्जरलैंड के एक जीव विज्ञानी थे। 22 वर्ष की आयु में उन्होंने Mullusks of Vlios पर जंतुविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। सन् 1920 में वे पेरिस की विनेट टैस्टिंग लेबोरेट्री के साथ जुड़े। बच्चों के साथ प्रेक्षण, विच्छेदन तथा प्रयोग करते हुए उन्होंने ज्ञानात्मक विकास या बाल बोध ग्रहण के सम्बन्ध में अपने शैक्षणिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया पियाजे (Piaget) ने कला विकास का अपना अध्ययन अपनी ही तीन संतानों का प्रेक्षण करते हुए आरम्भ किया। इस शुरुआत के क्रम में उन्होंने आगे अन्य बच्चों का अन्वेषण भी किया।
पियाजे के अनुसार, किशोरावस्था से बालकों का संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) एक नया रुख अपनाता है। पियाजे ने यह बताया कि किशोरावस्था से ही संज्ञानात्मक विकास की एक विशेष अवस्था प्रारम्भ होती है जिसे औपचारिक परिचालन की अवस्था कहा जाता है। बालक इस अवस्था में किसी समस्या का समाधान करने में उस समस्या के सभी पहलुओं की परख करता है, सभी संभावित समाधानों को मन में एकत्र करता है तथा किसी वस्तु के सभी तरह के गुणों के बीच संबंधों की जाँच भी करता है। किसी समस्या के समाधान में बालक क्रमबद्ध निगमनात्मक चिन्तन करता है जो स्पष्टतः इस प्रकार का वैज्ञानिक चिन्तन है क्योंकि इसमें समस्या के सभी संभावित समाधान होते हैं और बालक तार्किक रूप से सभी अनुपयुक्त समाधानों को छाँटते हुए एक अन्तिम वैज्ञानिक निष्कर्ष पर पहुँचता है। किशोरों में औपचारिक परिचालन का गुण बहुत हद तक उनके शैक्षिक स्तर द्वारा प्रभावित होता है। उनके द्वारा किए गए मनोवैज्ञानिक प्रत्ययों के क्रमिक विकास को संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त कहा जाता है।
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ
पियाजे ने पर्यावरण के साथ मानव ज्ञानात्मक विकास की शुरुआत को अंतर्क्रिया करने के जीवविज्ञानी अंतर्निहित तरीकों से खोजा है। उन्होंने बच्चे के ज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं को निम्नलिखित 4 श्रेणियों में बाँटा है-
(1) संवेदी गामक अवस्था (Sensory Motor Period)
(2) प्राक् संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Period)
(3) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational Period)
(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational Period)
(1) संवेदी गामक अवस्था (Sensory Motor Period)
यह जन्म से 2 वर्ष तक की अवस्था हैं। इसमें बालक अपनी इन्द्रियों द्वारा प्राथमिक अनुभव प्राप्त करते हैं। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक का संज्ञानात्मक विकास निम्नलिखित 6 अवस्थाओं में होता है-
(1) सहज क्रियाओं की अवस्था
यह अवस्था जन्म से 3 दिन तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक केवल सहज क्रियायें करते हैं। इन क्रियाओं में बालक किसी भी वस्तु को मुँह में लेकर चूसने की क्रिया सबसे अधिक करते हैं।
(ii) प्राथमिक वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था
यह अवस्था 1 माह से 4 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालकों की सहज क्रियायें कुछ सीमा तक उनकी अनुभूतियों द्वारा परिवर्तित होती हैं, दोहरायी जाती हैं और एक-दूसरे के साथ समान्वित होती हैं। इन अनुक्रियाओं को प्राथमिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये बालकों के शरीर की प्रमुख अनुक्रियायें होती हैं और इनको वृत्तीय इस लिए कहा जाता है क्योंकि बालक इनको बार-बार दोहराते हैं।
(iii) गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था
यह अवस्था 4 माह से 6 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं को स्पर्श करने और उनको इधर-उधर करने की अनुक्रियायें करते हैं। वे कुछ ऐसी अनुक्रियायें भी करते हैं, जिनसे उनको सुख मिलता है।
(iv) गौण स्कीमेटा के समन्वय की अवस्था
यह अवस्था 8 माह से 11 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक लक्ष्य और उसको प्राप्त करने के साधन में अन्तर करने लगते हैं और अपने से बड़ों की क्रियाओं का अनुकरण करने लगते । इस अवस्था में बालक जो स्कीमा सीखते हैं, उनका सामान्यीकरण करने लगते हैं।
(v) क्षेत्रवृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था
यह अवस्था 11 माह से 18 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखकर जानते हैं।
(vi) मानवीय संयोग द्वारा नए साधनों के खोज की अवस्था
यह अवस्था 18 माह से 24 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक देखी गयी वस्तु की अनुपस्थिति में भी उसके अस्तित्व को समझने लगते
(2) प्राक् संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Period)
यह 2 वर्ष से 7 वर्ष तक की अवस्था है। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक का संज्ञानात्मक विकास निम्नलिखित 2 अवस्थाओं में होता है-
(i) पूर्व कार्यात्मक संक्रियात्मक अवस्था
यह अवस्था 2 वर्ष से 4 वर्ष तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक अपने आसपास की वस्तुओं और प्राणियों में वस्तुओं और शब्दों में सम्बन्ध स्थापित करने लगते हैं। वे यह सब प्रायः अनुकरण और खेल के द्वारा सीखते हैं।
(ii) अन्तर्दर्शी कार्यात्मक संक्रियात्मक अवस्था
यह अवस्था 4 वर्ष से 7 वर्ष तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक भाषा सीखने लगते हैं और चिन्तन तथा तर्क करने लगते हैं, लेकिन उनके चिन्तन एवं तर्क में कोई क्रमबद्धता नहीं होती। इस अवस्था में बालक भाषा की दृष्टि से सीखी हुई बातों को अपने ही ढंग से अभिव्यक्त करना सीख लेते हैं। इसी अवस्था में उनके मस्तिष्क में वस्तुओं के बिम्ब भी बनने लगते हैं अर्थात् उनकी कल्पना-शक्ति काम करने लगती है।
(3) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational Period)
यह 7 वर्ष से 11 वर्ष तक की अवस्था है। यह अवस्था मूर्त क्रियाओं के ज्ञान की अवस्था है। बालक इन्हें तथा इनसे सम्बन्धित तथ्यों को समझने लगते हैं। इस अवस्था में बालक यह भी समझने लगते हैं कि वस्तु का आकार या रूप भले ही बदल जाए परन्तु उसके भार आदि में कोई कमी नहीं आती। इसी प्रकार वस्तु के आयतन, संख्या, राशि, वजन, मात्रा आदि में भी कोई परिवर्तन नहीं आता।
इस अवस्था में बालक अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी होते । उनमें तर्क एवं समस्या समाधान की क्षमता का विकास होने लगता है। वे मूर्त समस्याओं का समाधान तो तलाशने लगते हैं लेकिन अमूर्त समस्याओं के विषय में नहीं सोच पाते।
(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational Period)
यह 11 वर्ष से वयस्क होने तक की अवस्था है। इस अवस्था में बालकों के चिन्तन में क्रमबद्धता आनी शुरू हो जाती है। वे तर्कपूर्ण क्रियाकलाप करने लगते हैं। वे भावात्मक और अमूर्त स्तर पर चिन्तन, बौद्धिक क्रियायें तथा समस्या समाधान करने लगते हैं। अब वे किसी भी तार्किक विवाद की वैधता को उसके प्रत्पक्ष विषयगत सन्दर्भ से हटकर भी औपचारिक स्तर पर प्रमाणित कर सकने की क्षमता रखते हैं। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक प्रतीकात्मक शब्दों, रूपकों एवं उपमानों का अर्थ भी समझने लगते हैं और अमूर्त प्रत्ययों के निर्माण में ऊँची-ऊँची उड़ान भरने लगते हैं।
ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (Bruner’s Theory of Cognitive Development)
ब्रूनर के अनुसार, शिशु अपनी अनुभूतियों को मानसिक रूप से 3 तरीकों द्वारा बताता है जो कि निम्नलिखित हैं—
(i) सक्रियता (Activeness)
(ii) दृश्य प्रतिमा (Iconic)
(iii) सांकेतिक (Symbolic)
यह एक ऐसा तरीका है जिसमें शिशु अपनी अनुभूतियों को क्रिया द्वारा व्यक्त करता है; जैसे- दूध की बोतल देखकर शिशु द्वारा मुँह चलाना, हाथ-पैर फेंकना एक सक्रियता विधि का उदाहरण है। इसके द्वारा वह दूध पीने की इच्छा की अभिव्यक्ति कर रहा है। यह अवस्था जन्म से 18 महीनों तक की होती है।
इसमें बालक अपने मन में कुछ दृश्य प्रतिमाएँ बनाकर अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है। यह अवस्था डेढ़ वर्ष से 2 वर्ष की उम्र तक की होती है।
इसमें बालक भाषा के व्यवहार द्वारा अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है। यह अवस्था 7 वर्ष की उम्र से होती है।
ब्रूनर का सीखने का सिद्धान्त (Bruner’s Theory of Learning)
जीरोम ब्रूनर (Jerome Bruner, 1960) का सीखने का सिद्धान्त आधुनिक संगठनात्पद सिद्धान्त की श्रेणी में रखा गया है।
ब्रूनर के सिद्धान्त के अनुसार, सीखना – सक्रिय रूप से सूचना को प्रक्रियाबद्ध करना है और इसका संगठन और संरचना प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने अनोखे ढंग से किया जाता है। संसार के सम्बन्ध में ज्ञान, न ही व्यक्ति में उँडेल दिया जाता हैं, वरन् व्यक्ति चयनित रूप से वातावरण की प्रक्रिया की ओर ध्यान केन्द्रित करता है और जो सूचना प्राप्त करता है, उसे संगठित करता है और इस सूचना का संकलन अपने अनूठे ढंग से वातावरण के प्रतिमानों में करता है, तथ्य अर्जित किये जाते हैं तथा संचित किये जाते हैं सक्रिय प्रत्याशाओं के रूप में, न कि निष्क्रिय सम्बन्धों में। बहुत कुछ सीखना खोज के द्वारा होता है और इस छानबीन के दौरान कौतूहल द्वारा अनुप्रेरित होता है।
प्रत्यक्षीकरण संगठित होते हैं और सक्रिय रूप से अनुमानात्मक होते हैं। नये ज्ञान का रेखाचित्र विभिन्न वर्गों में खींचा जाता है ताकि यह तर्कपूर्ण रूप से नये ज्ञान के साथ सम्बन्धित हो जाए। अन्तिम रूप से जब ज्ञान का चित्रण एक बड़ी संरचना में किया जाता है जो व्यक्ति का अपना निजी यथार्थता का मॉडल बन जाता है। इसमें बाहरी वातावरण का ज्ञान और साथ-साथ आत्म-सम्बन्धी ज्ञान तथा व्यक्तिगत अनुभव सम्मिलित होते हैं, जिससे सबका संगठन एक गेस्टाल्ट या पूर्ण इकाई में हो जाता है।
ब्रूनर सीखने में स्वायत्तता पर बल देता है। यह सुझाव देता है कि जब विद्यार्थी की क्रिया द्वारा सिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, तो यह सीखने के लिए अधिक प्रयास करेगा। स्वायत्तता में उसे आनन्द आएगा और सीखने की स्वतन्त्रता स्वयं में ही उसका पुरस्कार बन जाएगी। संक्षेप में, इस सिद्धान्त को निम्नलिखित सोपानों के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है-
(1) अन्तर्दशी चिन्तन (Intutive Thinking)
ब्रूनर का मत है कि कक्षा शिक्षण में शिक्षकों द्वारा अन्तर्दशी चिन्तन पर विश्लेषणात्मक चिन्तन की अपेक्षा बहुत कम ध्यान दिया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि अन्तर्दशी चिन्तन का महत्व विषय-वस्तु का सीखने में कहीं अधिक है। किसी विषय वस्तु के तात्कालिक बोध या संज्ञान को ही अन्तदर्शन (Intuition) कहा जाता है। ब्रूनर के अनुसार अन्तर्दशी समझ या ज्ञान को शिक्षक प्रोत्साहित न करके. हतोत्साहित करते देखे गए हैं। ब्रूनर (Bruner, 1960) के शब्दों में, अन्तदर्शन से तात्पर्य वैसे व्यवहार से होता है, जिसमें अपने विश्लेषणात्मक उपायों पर बिना किसी तरह की निर्भरता दिखाए ही किसी परिस्थिति या समस्या की संरचना, अर्थ एवं महत्त्व से समझा जाता है। अक्सर देखा गया है कि शिक्षक छात्रों में विश्लेषणात्मक चिन्तन पर अधिक बल डालते हैं। वे छात्रों को कोई समस्या के समाधान करने के लिए देते हैं और उसके तात्कालिक उत्तर देने के प्रयास को प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि उसे सोच-समझकर एक-एक कदम आगे बढ़कर समस्या का समाधान करने पर बल डालते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षक छात्रों में अन्तदशी चिन्तन को हतोत्साहित करते हैं तथा विश्लेषणात्मक चिन्तन को प्रोत्साहित करते हैं। इससे कक्षा के शिक्षण की गति मन्द हो जाती है।
(2) विषय-विशेष की संरचना (Structure of Particular Discipline)
ब्रूनर का मत है कि प्रत्येक विषय या पाठ के कुछ विशेष संप्रत्यय, नियम तथा प्रविधियाँ होती हैं जिसे छात्रों को सीखना आवश्यक है, क्योंकि तब ही वे उन चीजों का सही-सही प्रयोग कर सकते हैं। इस तरह ब्रूनर का मत था कि प्रत्येक विषय की अपनी एक संरचना होती है और स्कूल के छात्रों के लिए इस संरचना को सीखना आवश्यक है। शिक्षकों को इन संरचनाओं को अर्थात् उसके संप्रत्यय, नियम एवं प्रविधियों को सिखाने पर अधिक बल डालना चाहिए।
(3) अन्वेषणात्मक सीखना (Discovery Learning)
ब्रूनर ने इस बात पर बल दिया है कि कक्षा में किसी विषय या पाठ को सीखने की सबसे उत्तम विधि अन्वेषणात्मक सीखना है। दूसरे शब्दों में, छात्र को किसी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर स्वयं ही आगमनात्मक चिन्तन करके विषय से सम्बन्धित संप्रत्ययों (Concepts) एवं सम्बन्धों की खोज (Discovery) करनी चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षकों को इस नियम में विश्वास रखना चाहिए कि ज्ञान आत्म-अन्वेषित होता है। ऐसा ज्ञान जो छात्रों द्वारा आत्म-अन्वेषित होते हैं, उनके लिए अधिक सार्थक होते हैं तथा साथ-ही-साथ वे अधिक दिनों तक याद रखे जाते हैं। ब्रूनर ने तो यहाँ कहा है कि ऐसी कक्षा जिसमें छात्रों द्वारा कोई आत्म-अन्वेषित सीखना नहीं होता है, उसमें शिक्षण प्रक्रिया के मूल तत्त्व की तो होती ही है, साथ-ही-साथ पढ़ाए गए विषय का सीखना भी ठीक ढंग से नहीं हो पाता है।
(4) संबद्धता का महत्त्व (Importance of Relevance)
ब्रूनर के अनुसार स्कूल शिक्षण का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य छात्रों को भविष्य में लाभ पहुँचाना होता है। दूसरे शब्दों में, छात्रों को भविष्य में उपयोगी कार्य करने में मदद करने से है। ब्रूनर के अनुसार शिक्षा सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के भी अनुयप होनी चाहिए। उनका मत था कि स्कूल में दिए जाने वाले शिक्षण का सम्बन्ध व्यक्तिगत संबद्धता तथा सामाजिक संबद्धता, दोनों से होता है।
(5) तत्परता (Readiness)
ब्रूनर ने बालकों के सीखने की तत्परता की एक भिन्न दृष्टिकोण से व्याख्या की है। उनका विचार है कि प्रत्येक वर्ग के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार करके छात्रों को उस पाठ्यक्रम के अनुसार तत्पर बनाना या उस पाठ्यक्रम के अनुसार उनमें क्षमता विकसित करना एक स्वस्थ प्रथा नहीं है, बल्कि उन्होंने इस बात पर अधिक बल दिया है कि किसी भी उम्र या वर्ग के छात्र को कोई भी विषय सीखने के लिए तत्पर किया जा सकता है। अतः ब्रूनर के अनुसार शिक्षकों का प्रमुख कार्य छात्रों के अनुरूप पाठ्यक्रम को तैयार करना होता है।
(6) सक्रियता (Activeness)
ब्रूनर का कहना था कि छात्रों को सीखने की परिस्थिति में निष्क्रिय न होकर सक्रिय डंग से भाग लेना चाहिए। इसके दो लाभ होते हैं पहला तो यह कि छात्र विषय या पाठ को ठीक ढंग से समझ जाता है तथा दूसरा यह कि उसे वह जल्द सीख लेता है तथा अधिक दिनों तक याद किए रहता है। बिना सक्रियता के छात्र से किसी भी कार्य को संतोषजनक रूप से किए जाने की आशा नहीं की जा सकती है।
व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया नैसर्गिक, स्वाभाविक और प्राकृतिक है। गर्भावस्था में बालक का विकास क्रम प्रारम्भ हो जाता है। जन्म से लेकर किशोरावस्था तक विकास की गति अत्यधिक तीव्र होती है। यद्यपि किशोरावस्था के पश्चात् विकास की गति में उतनी तीव्रता नहीं रहती तथापि मृत्यु तक यह विकास क्रम थोड़ा बहुत किसी न किसी रूप में गतिशील रहता है। व्यक्ति के विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसकी विकास-प्रक्रिया पर समुचित ध्यान दिया जाये। विकास की विभिन्न अवस्थाओं में उसे इस प्रकार का शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण प्रदान किया जाये जिसमें बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक आदि विकास भली प्रकार से हो सके।
विकास के विभिन्न सिद्धान्तों और अवस्थाओं का ज्ञान माता-पिता और शिक्षक के लिए बड़ा उपयोगी है। बालक के व्यक्तित्व के सन्तुलित विकास के लिए माता-पिता को यह देखना होगा कि उनके बालक को उचित वातावरण प्राप्त हो, उसे सन्तुलित भोजन मिले, अच्छी संगति मिले, उसे खेलने की स्वतन्त्रता हो, उसे उचित मात्रा में स्नेह प्राप्त हो, उसे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार मिले, उसकी जिज्ञासा की सन्तुष्टि हो, उसे आत्म-प्रदर्शन के अवसर मिलें, उसके संवेगों का दमन न हो और उसमें पराजय भावना, अन्तर्द्वन्द और हीनता की भावना का विकास न हो। मनोवैज्ञानिकों की यह धारणा है बालक के गति विकास भाषा सम्बन्धी कौशलों तथा विविध संवेगात्मक प्रवृत्तियों पर परिवार तथा समाज के वातावरण का भारी प्रभाव पड़ता है। अतः माता-पिता के लिए बालक की विकास-प्रक्रिया का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है, जिससे वह यह ध्यान रख सके कि उनका बालक विकास की किसी अवस्था में पिछड़ तो नहीं रहा।
शिक्षा का मुख्य कार्य बालक के विकास में सहायता देना है। अतः शिक्षक को बालक के विकास की अवस्थाओं का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए विकास के सिद्धान्तों और अवस्थाओं का पूर्ण ज्ञान होने पर ही शिक्षक बालक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार अपने पाठ्यक्रम की व्यवस्था कर सकता है, सहगामी क्रियाओं का आयोजन कर सकता है और अपनी शिक्षण पद्धति को विकसित कर सकता है। अतः विकास की अवस्थाओं से परिचित शिक्षक ही अनुकूल शिक्षण-पद्धति का प्रयोग कर सकता है। 12 वर्ष की आयु वाले बालक का पाठ्यक्रम 5 वर्ष की आयु वाले बालक के पाठ्यक्रम से भिन्न होगा। इसलिए विकास के सिद्धान्तों से परिचित शिक्षक ही उनके अनुकूल पाठ्यक्रम का अध्ययन करा सकता है। बाल-विकास की गतियों की जानकारी रखने वाला शिक्षक ही बालकों के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास के अनुकूल सहगामी क्रियाओं का आयोजन कर सकता है और उनके विकास स्तर के अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि विकास के विभिन्न सिद्धान्तों और अवस्थाओं के ज्ञान से ही शिक्षक का दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक और गत्यात्मक हो सकता है।
मनोवैज्ञानिकों के विचारों के अनुसार, बच्चों के विकास में, शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास, सामाजिक विकास, संवेगात्मक विकास को जीवन का आधार माना गया है। जिससे बालक के भावी जीवन का निर्माण होता है। इन सब का विशेलषण निम्न प्रकार हैं—
शारीरिक विकास (Physical Development)
शारीरिक विकास की नींव शिशु काल में ही रखी जाती है। इसी आयु में बालक स्वयं उठना, बैठना तथा चलना सीखता है। फ्रायड के अनुसार, “जीवन के पहले 4-5 वर्ष में बालक भावी जीवन की नींव रख लेता है।”
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह समय बालक के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस दौरान की प्रमुख शारीरिक विकास सम्बन्धी विशेषताएं निम्नलिखित हैं—
- शारीरिक विकास में तीव्रता-आकार एवं भार
- अनुपात में परिवर्तन
- दाँतों का विकास
- हड्डियों तथा मांसपेशियों का विकास
- नाड़ी संस्थान
- पाचन प्रणाली
बौद्धिक विकास (Intellectual Development)
बौद्धिक विकास की प्रक्रिया भी बालकों में बचपन में ही विकसित होने लगती है। इसमें भाषा विकास, स्मरण शक्ति, कल्पना, तर्क-शक्ति, रुचियाँ, आदतें, बुद्धि, संवेदन तथा समस्या समाधान आदि पक्ष सम्मिलित होते हैं। इनमें से सभी पक्ष बचपन में विकसित नहीं होते बल्कि निरंतर विकसित होने लगते हैं। बच्चों में बौद्धिक विकास का विवरण निम्नलिखित है-
- भाषा का विकास
- प्रश्न पूछना
- ज्ञान-इन्द्रियों का विकास
- रुचियों का विकास
- कल्पनाशक्ति का विकास
- संवेगात्मक विकास
सामाजिक विकास (Social Development)
बच्चे धीरे-धीरे अपने आप को समाज के साथ सहज महसूस करते हैं जिससे उनमें सामाजिकता का काफी गहरा प्रभाव पड़ता है। बालक की सामाजिक विकास सम्बन्धी विशेषताएं इस प्रकार हैं-
- पर्यावरणीय मूल्यों से परिचित
- सामाजिक खेल का विकास
- स्पर्धा की भावना
- मैत्री और सहयोग
- सामाजिक स्वीकृति
संवेगात्मक विकास (Emotional Development)
बालक के जीवन में संवेगों का महत्वपूर्ण स्थान है। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि समस्त संवेग जन्मजात नहीं होते हैं, उनका विकास क्रमशः धीरे-धीरे होता है। बच्चों के संवेगात्मक विकास तथा व्यवहार के विषय में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय है-
- बच्चे जन्म के समय से ही संवेगात्मक व्यवहार, जैसे- रोना, चिल्लाना, हाथ-पैर पटकना आदि।
- उसका संवेगात्मक व्यवहार अत्यधिक अस्ति होता है। इच्छापूर्ति में बाधा पड़ने से संवेगात्मक उत्तेजना होती हैं और इच्छापूर्ति होते ही यह उत्तेजना समाप्त होती है।
- संवेगात्मक अभिव्यक्ति में धीरे-धीरे परिवर्तन हो जाता है। जैसे छोटे बच्चों में आरम्भ में वह प्रसन्न होने पर केवल मुस्कराता है। धीरे-धीरे जोर से हँसकर प्रसन्नता प्रकट करता है।
- प्रारम्भ में बच्चों के संवेग अस्पष्ट होते हैं, किन्तु धीरे-धीरे उनमें स्पष्टता आती है।
बाल विकास की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Child Development)
यदि हम चाहते हैं कि हम अपने बालकों को अच्छी तरह समझ लें और उनके अनुरूप उनके साथ व्यवहार करें, उनके विकास के लिए कार्य करें और उनके सुखद भविष्य की सफल योजना बनाये तो हमें बाल विकास के अध्ययन की आवश्यकता होगी। इसके अध्ययन के द्वारा ही बालकों का सन्तुलित शारीरिक विकास किया जा सकता है, उनको शुद्ध और समयानुकूल भाषा को बोलना और लिखना सिखाया जा सकता है, उनकी मानसिक योग्यताओं और रुचियों विकास किया जा सकता है, उनमें स्वस्थ संवेगों का विकास किया जा सकता है और उनमें समाज में समायोजन करने की क्षमता से विकसित किया जा सकता है। सच तो यह है कि बाल विकास की प्रक्रिया का कुशल सम्पादन इसके ज्ञान के अभाव में नहीं किया जा सकता।
बाल विकास की आवश्यकता महत्व, उपयोगिता को निम्नलिखित बिन्दुओं में दर्शाया जा सकता है-
(1) विकास की अवस्थाओं को समझने में सहायक
बाल विकास के अध्ययन से बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। इसके ज्ञान से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार बालक शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था की ओर विकसित होता है। इन अवस्थाओं में कौन-कौन से शारीरिक, भाषा सम्बन्धी, सांवेगिक और सामाजिक परिवर्तन होते हैं।
(2) बालकों के विकास को समझने में सहायक
बालकों की अभिवृद्धि और विकास कुछ विशेष सिद्धान्तों और नियमों के आधार पर होता है। सभी बालकों का विकास समान रूप से और समान गति से नहीं होता। उनमें वैयक्तिक भिन्नतायें पायी जाती है। जिससे ज्ञात किया जा सकता है कि विभिन्न विकास अवस्थाओं और आयु-स्तरों पर बालक में किन विशिष्ट व्यवहारों की अभिव्यक्ति होती है। भिन्न-भिन्न आयु स्तरों पर बालकों की शारीरिक और मानसिक विशेषताओं के मानक भी उपलब्ध हैं, जिनसे भिन्न-भिन्न आयु के बालकों के विकास को समझा जा सकता है।
(3) बालकों के स्वभाव को समझने में सहायक
बाल विकास के अध्ययन से बालकों की विभिन्न शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं तथा उनकी अन्तःक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान के आधार पर ही बालकों के स्वभाव और प्रकृति को भली प्रकार से समझा जा सकता है।
(4) बालकों के व्यक्तित्व के विकास में सहायक
बाल विकास के अध्ययन से बालकों के व्यक्तित्व का विकास बहुत आसानी से किया जा सकता है। बालकों के अन्दर सन्निहित शारीरिक और मानसिक योग्यताओं, क्षमताओं और शक्तियों का उचित विकास करके, सहज सामान्य प्रवृत्तियों को सही दिशा में विकसित करके, बुद्धि और प्रतिभा को सही दिशा देकर तथा अच्छी आदतों का विकास करके उनके व्यक्तित्व के अनेक गुणों को विकसित किया जा सकता है।
(5) शैक्षिक प्रक्रिया में सहायक
शैक्षिक प्रक्रिया को सरल और उपयोगी बनाने में बाल विकास का अध्ययन बहुत उपयोगी है। यद्यपि बालक में सीखने की प्रक्रिया जन्म के कुछ दिन बाद से ही प्रारम्भ हो जाती है। जैसे-जैसे उसकी परिपक्वता बढ़ती जाती है, उसमें सीखने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। वह विभिन्न कौशलों को भी सीखता है और उनका अभ्यास भी करता है। कुछ बातों को वह सामाजिक अन्तः क्रियाओं के कारण भी सीखता है तथापि उसे अनेक विशेषताओं और गुणों को सिखाना भी पड़ता है। बालक को सिखाने में, उसको प्रशिक्षित करने में, अभ्यास कराने में बाल विकास का ज्ञान बहुत उपयोगी होता है।
समता एवं समानता का अर्थ (Meaning of Equity and Equality)
समता का सामान्य अर्थ है– सबको एक समान परिस्थितियां उपलब्ध कराना इसका अर्थ यह नहीं कि सभी को एक जैसा बना दिया जाए, सभी को एक समान वेतन देना, सभी को एक जैसा घर देना, सभी को एक जैसा सामान देना, आदि समता के उदाहरण हैं. समता के लिए एक शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, वह है निष्पक्षता, न्यायपूर्ण, समान एवं सच्चा व्यवहार. समता एक व्यापक शब्द और प्रत्यय है जो न्याय और निष्पक्षता के आधार पर समान परिस्थितियां उत्पन्न करने पर बल देता है।
समानता का अर्थ है समान व्यवहार करना. समानता का वास्तविक अर्थ है सभी को एक जैसी परिस्थितियां देना. हम सभी को बिल्कुल सामान नहीं बना सकते लेकिन सामान परिस्थितियां तो दी जा सकती हैं. जैसे- शिक्षा प्राप्त करने के लिए समाज के सभी लोगों को चाहे वो किसी भी जाति, धर्म या लिंग के हों, सभी को समान अधिकार दिया गया है. कानून भी सबके लिए समान एवं सभी को उपलब्ध है. लोकतांत्रिक परिस्थितियाँ उत्पन्न करना भी समाज के लिए आवश्यक होता है. लोकतंत्र बिना समानता के अधूरा है लेकिन जब समाज में किसी खास वर्ग को विशेष अधिकार मिल जाता है तथा विशेष लाभ मिलने लगता है तब समानता का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है और असमानता की स्थिति पैदा हो जाती है. उदाहरण के लिए- “सभी को एक जैसी गुणवत्ता युक्त शिक्षा मिले यह समता है.” सभी को शिक्षा प्राप्त करने की समान परिस्थितियां उपलब्ध हो- यह समानता है।
समता और समानता में अंतर (Difference Between Equity and Equality)
समानता का अर्थ सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करना है जिससे कि कोई भी अपनी विशेष परिस्थिति का अवांछित लाभ ना ले सके। सभी को समान अवसर मिलते हैं जिसमें सभी अपनी-अपनी प्रतिभा के आधार पर आगे बढ़ते हैं। समता शब्द का प्रयोग करते समय यह माना जाता है कि सभी एक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी होते हैं जो अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक शोषित या पिछड़े होते हैं। जैसे कि विकलांग व्यक्ति. इन्हें सामान्यजनों के समान अवसर प्रदान करने पर इनके साथ अन्याय होगा। इनके लिए अवसरों की अधिकता होनी चाहिए जिससे वह अन्य के साथ एक ही प्लेटफार्म पर आ सकें।
किशोरावस्था का अर्थ (Meaning of Adolescence)
किशोरावस्था को अंग्रेजी भाषा में ‘एडोलसेन्स’ (Adolescence) कहते हैं। यह शब्द लैटिन भाषा की ‘एडोलेसियर’ (Adolescere) क्रिया से बना है, जिसका अर्थ है ‘परिपक्वता की ओर बढ़ना’
किशोरावस्था में व्यक्ति के अंदर कुछ अलग करने की भावना होती है। वह यह महसूस करता है कि अब वह बच्चा नहीं रह गया है। लेकिन साथ ही वह यह भी अनुभव करता है कि अभी उसे एक वयस्क का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। ऐसा उन अनुभवों के कारण होता है जो कि समाज के अन्य सदस्यों तथा अभिभावकों के द्वारा उसे प्रदान किए जा रहे हैं। इस अवस्था में किशोर बालक, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था दोनों अवस्थाओं में रहता है।
स्टेनले हॉल के अनुसार — “किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था है।”
क्रो एण्ड क्रो ने कहा है—“किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है।”
किशोरावस्था में विकास प्रक्रिया
(1) शारीरिक विकास (Physical Development)
किशोरावस्था में शारीरिक विकास अत्यन्त द्रुत गति से होता ग्यारह-बारह की आयु में लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा लम्बाई और वजन में आगे होती हैं लेकिन चौदह-पन्द्रह वर्ष की आयु में लड़कों की शारीरिक वृद्धि अत्यन्त तेजी से होती है और वे लड़कियों से अधिक शारीरिक वृद्धि प्राप्त करते हैं। पन्द्रह से उन्नीस वर्ष के बीच में लड़कों की लम्बाई और वजन लड़कियों की लम्बाई और वजन से अधिक हो जाता है। लड़कियाँ लगभग सौलह वर्ष की आयु पर और लड़के किशोरावस्था के अन्त तक अपनी सम्पूर्ण लम्बाई को प्राप्त कर लेते हैं। चौदह वर्ष की आयु में किशोर का औसत वजन छियानवें पौंड होता है। सोहलवें वर्ष में उसका यह वजन बढ़कर एक सौ सत्रह पौंड हो जाता है। बालकों की लम्बाई और वजन में भिन्नताएँ होती हैं।
(2) मानसिक विकास (Mental Development)
इस अवस्था में चंचलता समाप्त होकर ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता विकसित हो जाती है तथा स्मरण शक्ति भी बढ़ जाती । लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा रटने की शक्ति अधिक होती है। किशोर कल्पना जगत में अधिक घूमते हैं तथा दिवा स्वप्न के भी शिकार हो जाते हैं। कल्पना का विकास लड़कों में लड़कियों से अधिक होता है। तर्क-शक्ति बढ़ जाती है तथा अनेक रुचियाँ भी पैदा हो जाती हैं। लड़के फुटबॉल, कबड्डी तथा लड़कियाँ नाच-गाने, ड्रामा व संगीत में अधिक रुचि लेती हैं। इस अवस्था में शरीर प्रदर्शन की भावना भी विकसित हो जाती है। लड़के शरीर को अधिक मजबूत तथा लड़कियाँ शृंगार पर अधिक ध्यान देती हैं। किशोरों में हास्य, कहानी, कविता, व्यंग्य, देश-प्रेम, रोमांच, प्रेम कहानियाँ व सैक्स सम्बन्धी साहित्य पढ़ने में रुचि उत्पन्न हो जाती है। कुछ सिनेमा, होटल, रेडियो, फिल्मी गाने आदि के शौकीन हो जाते हैं। सामाजिक चेतना भी विकसित हो जाती है तथा उनका बातचीत करने का क्षेत्र भी निर्धारित हो जाता है। लड़के, लड़कियों के बारे में तथा लड़कियाँ, लड़कों के बारे में बात करने में रुचि लेते हैं। इस अवस्था में किशोर भविष्य सम्बन्धी योजनायें भी बनाते हैं।
(3) सामाजिक विकास (Social Development)
सामाजिक विकास की दृष्टि से अब किशोर की रुचि परिवार से हटकर बाहरी दुनिया की तरफ मुड़ जाती है। वह एक बार को अपने माता-पिता के प्रति कठोर व्यवहार अपना सकता है लेकिन अपने संगी-साथियों को नहीं छोड़ सकता। माता-पिता की सलाह में उसे अपनी आलोचना ही दिखाई पड़ती है। वह आसानी से आत्म-समर्पण नहीं करता बल्कि अपनी बात मनवाने के लिए जिद पर अड़ा रहता है। वह उनकी विचारधाराओं से समझौता नहीं करता तथा उन्हें चुनौती देता है, साथ ही साथ उसमें धार्मिक भावनायें तथा सामाजिक चेतना का भी उदय होने लगता है। वह समूह बनाता है तथा अपने आपको उसी में अधिक संतुष्ट पाता है। इसीलिये वह अपना अधिकांश समय घर से बाहर ही गुजारता है, लेकिन कुछ किशोर अपने भविष्य के प्रति अधिक सजग रहते हैं तथा अधिकांश समय पढ़ने, लिखने में ही लगाते हैं। इस अवस्था में किशोर अपने लिये ‘आदर्श’ चुनता है जो अध्यापक, खिलाड़ी, विद्वान या फिल्मी कलाकार कोई भी हो सकता है। उसकी इस भावना को सही दिशा न मिलने पर उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।
(4) संवेगात्मक विकास (Emotional Development during Adolescence)
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास विचित्र रूप से होता है। किशोर की संवेगात्मक अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर आ जाता है, क्योंकि उनका ज्ञान क्षेत्र व्यापक हो जाता है और संवेग उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी बदल जाती हैं। किशोरावस्था में विरोधी मनोदशाएँ दिखाई देती हैं। किसी परिस्थिति विशेष में वह अत्यधिक प्रसन्न तथा दूसरे अवसर पर उसी प्रकार की परिस्थिति में वह अवसादपूर्ण दिखाई देता है।
इस अवस्था में प्रत्येक संवेग की अभिव्यक्ति विशिष्ट प्रकार की होती है। किशोर अपनी मातृ-भूमि पर विदेशी आक्रमण, समाज की कुरीतियों, कठोर अनुशासन व नियन्त्रण रखने वाले अधिकारियों, अन्यायी व्यक्तियों, अपनी प्रतिष्ठा पर थोड़ी-सी भी चोट पहुँचने पर और निद्रा, अध्ययन या आवश्यक कार्यों में बाधा डाले जाने पर क्रोध की अभिव्यक्ति करता है।
(5) संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development)
जीन पियाजे (1896-1980) ने मनोविज्ञान की किसी परीक्षा को नहीं दिया और न किसी अध्ययन के उपक्रम को संपन्न किया फिर भी बच्चों के मनोवैज्ञानिक अन्वेषण करने वाले विद्वानों में उनका नाम अग्रणी है। वे स्विट्ज़रलैंड के एक जीव विज्ञानी थे। बाईस वर्ष की आयु में उन्होंने Mullusks of Vlios पर जंतुविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। सन् 1920 में वे पेरिस की विनेट टेस्टिंग लेबोरेट्री के साथ जुड़े। बच्चों के साथ प्रेक्षण, विच्छेदन तथा प्रयोग करते हुए उन्होंने ज्ञानात्मक विकास या बाल बोध ग्रहण के सम्बन्ध में अपने शैक्षणिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। पियाजे (Piaget) ने कला विकास का अपना अध्ययन अपनी ही तीन संतानों का प्रेक्षण करते हुए आरम्भ किया। इस शुरुआत के क्रम में उन्होंने आगे अन्य बच्चों का अन्वेषण भी किया।
(6) नैतिक विकास (Moral Development)
इस अवस्था में किशोर अपने व्यवहार और आचरण को अपने समूह और समाज की प्रत्याशाओं के अनुसार सीखता है। वह सही और गलत, उचित और अनुचित व्यवहार से सम्बन्धित कारणों को समझने लग जाता है। अनुचित और गलत बात वह सहन नहीं कर पाता और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तत्पर रहता है। वह अपने व्यवहार को निर्देशित करने के लिए वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का निर्माण करता है और दूसरे व्यक्तियों से वार्तालाप करके अपने विचारों, मूल्यों, विश्वासों, धारणाओं और दृष्टिकोणों आदि की तुलना करता है। इस अवस्था में किशोर एक आदर्श व्यक्ति की कल्पना करके, उसके समान बनने का प्रयास करता है।
किशोरावस्था की विशेषतायें (Characteristics of Adolescence)
किशोरावस्था की विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(I) शारीरिक पक्ष (Physical Aspect)
शारीरिक पक्ष से सम्बन्धित किशोरावस्था की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
- लम्बाई और भार
किशोरावस्था में लम्बाई अत्यन्त तीव्र गति से बढ़ती है। 16 वर्ष की आयु तक लड़कियों की लम्बाई पूर्ण हो जाती है लेकिन लड़कों की लम्बाई 18 वर्ष की आयु के बाद भी बढ़ती है। इस अवस्था में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों के भार में अधिक वृद्धि होती है। किशोरावस्था की समाप्ति पर लड़कियों की तुलना में लड़कों का वजन लगभग 25 पौंड ज्यादा देखा गया है।
- हड्डियाँ और माँसपेशियाँ
किशोरावस्था में हड्डियों का विकास भी बहुत तेजी से होता है। लड़कों की माँसपेशियाँ सख्त हो जाती हैं लेकिन लड़कियों की माँसपेशियाँ कोमल ही रहती हैं।
- सिर एवं मस्तिष्क
किशोरावस्था में सिर एवं मस्तिष्क का विकास सतत् रूप से होता रहता है। 16 वर्ष की अवस्था में सिर का विकास लगभग पूरा हो जाता है।
- अन्य शारीरिक परिवर्तन
किशोरावस्था में शरीर के विभिन्न अंगों में परिवर्तन होते हैं। लड़कों का सीना, कन्धे तथा कूल्हे पूर्ण रूप से विकसित होकर चौड़े हो जाते हैं। लड़कियों की कूल्हे की हड्डियों के पास चर्बी एकत्र होने लगती है और उनमें भारीपन आने लगता हैं उनके वक्षस्थल में उभार आना आरम्भ हो जाता है।
(II) मानसिक या बौद्धिक पक्ष (Mental or Intellectual Aspect)
मानसिक या बौद्धिक पक्ष से सम्बन्धित किशोरावस्था की विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
- बुद्धि का अधिकतम विकास
किशोरावस्था में बुद्धि का अधिकतम विकास हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि 16 वर्ष की अवस्था में बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है, उसके बाद बालक अनुभवों से सीखता है।
- तर्कशक्ति एवं अमूर्त चिन्तन का विकास
इस अवस्था में किशोर और किशोरी किसी भी. बात से एकदम सहमत नहीं होते वरन् उसके बारे में तर्क-वितर्क करने लगते हैं और इसी के आधार पर बात को स्वीकार करते हैं। इस अवस्था में चंचलता का लोप हो जाता है और वे किसी भी वस्तु के सन्दर्भ में अमूर्त चिन्तन करने लगते हैं।
- अवधान केन्द्रित करने और स्थायी स्मृति का विकास
किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में अपने अवधान को किसी भी वस्तु पर केन्द्रित करने की शक्ति विकसित हो जाती है। इस अवस्था में उनमें स्थायी स्मृति का भी विकास हो जाता है। वे शीघ्र ही स्मरण कर लेते हैं और अधिक समय तक स्मरण रख सकते हैं। अब किसी भी बात को रटने की बजाय उसकी स्मृति को वे अपने मस्तिष्क का स्थायी अंग बना लेते हैं।
- विचार-विमर्श करने की योग्यता का विकास
इस अवस्था में किशारों में विचार-विमर्श करने की योग्यता विकसित हो जाती है। बौद्धिक विचार-विमर्श के आधार पर वह अपनी पहिचान स्वयं बना लेते हैं और स्वयं में निहित प्रतिमानों के संबंध में चिन्तन करने और विचार-विमर्श और बहस करने सदैव तत्पर रहते हैं।
- भावी जीवन के प्रति सचेत
किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकायें अपने भावी जीवन के प्रति बहुत सचेत हो जाते हैं और भावी जीवन से सम्बन्धित विभिन्न योजनाऐं बनाने लगते हैं। वे अपने व्यक्तित्व के प्रति भी सजग हो जाते हैं। वे जानना चाहते हैं कि दूसरे लोग उनके विषय में क्या सोचते हैं। वे परिवार, पड़ौस, विद्यालय, समाज तथा अन्य स्थानों पर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव देखना चाहते हैं।
- कल्पना शक्ति का विकास
किशोरावस्था में कल्पना शक्ति व्यापक रूप से विकसित हो जाती है। वे प्रत्येक वस्तु, घटना, व्यक्ति या विषय के संबंध में विस्तार से सोचने लगते हैं और कल्पनायें करते हैं। कल्पना शक्ति के आधार पर ही वे अपनी दूसरी आन्तरिक शक्तियों को विकसित करते हैं। इस अवस्था में ही अधिकतर, कलाकार, लेखक, कवि, दार्शनिक और वैज्ञानिक बनना शुरू होते हैं।
- अभिव्यक्ति का विकास
किशोरावस्था में अभिव्यक्ति का विकास बहुत हो जाता है। किशोर और किशोरियाँ मौखिक रूप से और लिखित रूप से अपने विचारों और भावनाओं को दूसरों के सामने व्यक्त करना चाहते हैं। इसके लिए वे वाद-विवाद, निबन्ध, भाषण, कहानी, काव्य आदि प्रतियोगिताओं में भाग लेना चाहते हैं।
किशोरावस्था पर सामाजिक परिवेश का प्रभाव
किशोरावस्था में किशोर एवं किशोरियों का सामाजिक परिवेश अत्यंत विस्तृत हो जाता है। शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक परिवर्तनों के साथ-साथ उनके सामाजिक व्यवहार में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है। किशोरावस्था में सामाजिक विकास का स्वरूप निम्नांकित होता है
- समूहों का निर्माण (Formation of Groups)
किशोरावस्था में किशोर एवं किशोरियाँ अपने अपने समूहों का निर्माण कर लेते हैं। परन्तु ये समूह बाल्यावस्था के समूहों की तरह अस्थायी नहीं होते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन करना होता है। पर्यटन, नृत्य, संगीत पिकनिक आदि के लिए समूहों का निर्माण किया जाता है। किशोर किशोरियों के समूह प्रायः अलग अलग होते हैं।
- मैत्री भावना का विकास (Development of Friendsship)
किशोरावस्था में मैत्रीभाव विकसित हो जाता है। प्रारम्भ में किशोर किशोरों से तथा किशोरियाँ किशोरियों से मित्रता करती हैं परन्तु उत्तर किशोरावस्था में किशोरियों की रुचि किशोरों से तथा किशोरों की रुचि किशोरियों से मित्रता करने की भी हो जाती है। वे अपनी सर्वोत्तम वेशभूषा श्रृंगार व सजावट के साथ एक दूसरे के समक्ष उपस्थित होते हैं।
- समूह के प्रति भक्ति (Devotion to the Group)
किशोरों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्तिभाव होता है। समूह के सभी सदस्यों के आचार-विचार, वेशभूषा तौर तरीके आदि लगभग एक ही जैसे होते हैं। किशोर अपने समूह के द्वारा स्वीकृत बातों को आदर्श मानता है तथा उनका अनुकरण करने का प्रयास करता है।
4 सामाजिक गुणों का विकास (Development of social qualities)
समूह के सदस्य होने के कारण किशोर-किशोरियों में उत्साह, सहानुभूति, सहयोग, सद्भावना, नेतृत्व आदि सामाजिक गुणों का विकास होने लगता है। उनकी इच्छा समूह में विशिष्ट स्थान प्राप्त करने की होती है, जिसके लिए वे विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास करते हैं।
- सामाजिक परिपक्वता की भावना का विकास (Development of the Feel ings of Social Maturity)
किशोरावस्था में बालक बालिकाओं में वयस्क व्यक्तियों की भाँति व्यवहार करने की इच्छा प्रबल हो जाती है। वे अपने कार्यों तथा व्यवहारों के द्वारा समाज में सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। स्वयं को सामाजिक दृष्टि से परिपक्व मान कर वे समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने का प्रयास करते हैं।
- विद्रोह की भावना (Feeling of Revolt)
किशोरावस्था में किशोर किशोरियों में अपने माता- पिता तथा अन्य परिवारजनों से संघर्ष अथवा मतभेद करने की प्रवृत्ति आ जाती है। यदि माता-पिता उनकी स्वतंत्रता का हनन करके उनके जीवन को अपने आदर्शों के अनुरूप डालने का प्रयत्न करते हैं अथवा उनके पास नैलिक आदर्शों का उदाहरण देकर उनका अनुकरण करने पर बल देते हैं तो किशोर-किशोरियाँ विद्रोह कर देते हैं।
- व्यवसाय चयन में रुचि (Interest in Selection of Vacation)
किशोरावस्था के दौरान किशोरों की व्यावसायिक रुचियाँ विकसित होने लगती हैं । वे अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिए सदैव चिन्तित से रहते हैं। प्रायः किशोर अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अधिकार सम्पन्न व्यवसायों को अपनाना चाहते हैं।
- बहिर्मुखी प्रवृत्ति (Extrovert Tendency)
किशोरावस्था में बहिर्मुखी प्रवृत्ति का विकास होता है। किशोर किशोरियों को अपने समूह के क्रियाकलापों तथा विभिन्न सामाजिक क्रियाओं में भाग के अवसर मिलते हैं जिसके फलस्वरूप उनमें बहिर्मुखी रुचियाँ विकसित होने लगती है। वे लिखने-पढ़ने संगीत कला, समाजसेवा जनसम्पर्क आदि से संबंधित कार्यों में रुचि लेने लगते हैं।
- राजनीतिक दलों का प्रभाव (Influence of Political Parties)
किशोरावस्था में राजनीतिक दलों की विचारधाराओं का किशोरों पर प्रभाव पड़ता है। किशोर प्रायः किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित होकर किसी राजनीतिक दल के अनुयायी बन जाते हैं। दल के सम्मान प्रतिष्ठा तथा प्रशंसा प्राप्त करने के लिए किशोर अदम्य उत्साह तथा समर्पण भाव से जनकल्याण के कार्य करते हैं। इससे एक ओर जहाँ किशोरों को अपने सामाजिक विकास में सहायता मिलती है, वहीं दूसरी ओर दूषित राजनीतिक वातावरण में पड़कर गलत रास्ते पर चलकर किशोरों के दादा बन जाने की सम्भावना भी रहती है। किशोरावस्था में होने वाले सामाजिक विकास की उपरोक्त वर्णित मुख्य विशेषताओं के अवलोकन से स्पष्ट है कि किशोरावस्था सामाजिक विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवस्था है।
किशोरावस्था पर आर्थिक परिवेश का प्रभाव
किशोरावस्था अवस्थाओं में बच्चों की अनेक गतिविधियां तथा उनका स्वभाव कहीं ना कहीं आर्थिक परिवेश में होने वाली सामाजिक गतिविधियों बच्चों को प्रभावित करती है जिसका विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं के परिपेक्ष में किया गया है।
(1) आर्थिक स्थिति
बालक की सामाजिक आर्थिक स्थिति में अन्तर होने के कारण व्यक्तिगत भिन्नताओं का भी आविर्भाव होता है। एक प्रतिष्ठित आर्थिक स्थिति वाले सम्पन्न परिवार के किशोर एवं निम्न सामाजिक-आर्थिक वर्ग वाले अभावग्रस्त परिवार के किशोर एवं किशोरियों में कई प्रकार की व्यक्तिगत भिन्नताएँ दृष्टिगोचर होने लगती हैं।
(2) आर्थिक परिपक्वता
किशोरावस्था में प्रत्येक किशोर व किशोरी अपने आप को वयस्क स्त्री पुरुषों की भाँति प्रस्तुत करने की होड़ में धर्नाजन करना सीख जाता है। वह चाहता है कि उसे समाज में अन्य प्रतिष्ठित लोगों की तरह प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकें। इस प्रकार की भावना से किशोरों में सामाजिक व आर्थिक गुणों का तीव्र विकास होता है।
(3) सामाजिक-आर्थिक रुचियों का विकास
किशोरावस्था में बालकों में सामाजिक-आर्थिक रुचियों का तीव्रता से विकास होता है। जैसे- मौजमस्ती एवं वार्तालाप में वे रुचि लेने लगते हैं। इस समाज में जीवनयापन करने के लिए धन की कितनी आवश्यकता हैं, वह इसे भली-भाँति समझते है और अपने आप को समाज के अनुसार समायोजित करने का प्रयास करते है।
(4) आर्थिक कुसमायोजन
यदि किशोर धनवान परिवार का है और बाल्यकाल से उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही हैं तो अपने भविष्य में भी वह ऐसा चाहेगा, परन्तु यदि किसी कारणवश उसकी किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है तो उसमें आपराधिक प्रवृत्ति की भावना का जाग्रत होना स्वाभाविक है। वह अपने कार्य की पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार का प्रयास कर सकता है। अतः यह कहा जा सकता है कि वह आर्थिक रूप से कुसमायोजित हो जाता है।
(5) प्रौद्योगिकी में क्रान्ति
मानव शक्ति में के लिए सुधार संचार प्रौद्योगिकी में क्रान्ति, ज्ञान में विस्फोट, कार्य और अधिगम की शैली में परिवर्तन, शिक्षा को चुनौती आदि अनिवार्य हैं। किशोर को इस दृष्टि से प्रौद्योगिकी के ज्ञान में दक्षता हासिल करनी होगी तभी वह अपने जीवन स्तर को भीतर बन पानी में समर्थ हो सकेगा। इसके साथ ही साथ औद्योगिक क्रांति के फल स्वरुप किशोरावस्था में अनेक परिवर्तन देखे जाते हैं जो की प्रौद्योगिकी की वजह से ही होता है।
किशोरावस्था पर सांस्कृतिक व्यवस्था का प्रभाव
किशोर विकास की कुछ विशेषताएँ हैं जो मानव जीव विज्ञान या संख्या की तुलना में संस्कृति में अधिक निहित हैं। संस्कृति सीखी जाती है और सामाजिक रूप से साझा की जाती है, और यह किसी व्यक्ति के जीवन के सभी सिद्धांतों को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, सामाजिक जिम्मेदारियाँ, यौन अभिव्यक्ति और विश्वास-प्रणाली विकास, सभी संस्कृतियों के आधार पर भिन्नता की संभावना है। इसके अलावा, किसी व्यक्ति की कई विशिष्ट विशेषताएं (जैसे पोशाक, रोजगार, मनोरंजन और भाषा) सभी संस्कृति के उत्पाद हैं।
सफ़ाई के विकास को आकार देने वाले कई कारक संस्कृति के अनुसार अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, जिस व्यक्ति को जब तक स्वावलंबी या स्वतंत्र प्राणी माना जाता है, वह अलग-अलग शैली में व्यापक रूप से भिन्न होता है, जैसे कि व्यवहार जो इस उभरती हुई स्वावलंबीता का प्रतिनिधित्व करता है। किसी भी संस्कृति में एक किशोर के किरदार की गहराई से लेकर उन पात्रों की विशेषताएं भी शामिल हैं।
किसी भी संस्कृति द्वारा किसी विशेष विषय पर अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण की सीमा, जीवन शैली और धारणाओं को प्रभावित किया जाता है, और उनके विकास पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ सकते हैं।
किशोरावस्था पर शहरीकरण का प्रभाव
(1) आर्थिक समृद्धि (Economic Enrichment)
शहरीकरण के कारण व्यवसाय के नये-नये अवसर उत्पन्न हुए। इन्होंने उत्पादकता को बढ़ावा दिया जिससे आर्थिक प्रगति हुई। यही कारण है कि शहरों में लोग आर्थिक दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध दिखलाई पड़ते हैं।
(2) सहिष्णुता व लचीलापन (Co-operation and Flexibility)
शहरी जीवन बड़े समुदाय का जीवन है। अपने आस-पास दूसरे समुदाय के लोग रहते हैं जिनके रीति-रिवाज, धर्म व भाषा सब भिन्न हो सकते हैं पर एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता का भाव रहता है। इसी कारण सामन्जस्य स्थापित हो सकते हैं।
(3) व्यापकता (Comprehensiveness)
शहर में क्योंकि विभिन्न समुदाय के लोग एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं और उनमें सामन्जस्य स्थापित होता रहता है इसलिये वे एक-दूसरे से प्रभावित भी होते रहते हैं। यही कारण है कि शहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण में व्यापकता होती है।
(4) आत्मनिर्भरता (Self-dependency)
क्योंकि शहरी व्यक्ति जनसमुदाय में रहता हुआ भी अकेला होता है, इसलिये उसे संघर्षशील जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इसी संघर्ष व प्रतिस्पर्धा के कारण व्यक्ति में आत्मनिर्णय की क्षमता का विकास हो जाता है।
(5) तार्किकता (Logical)
शहरी जीवन परिवर्तनशील होता है इस कारण उसमें परम्पराओं के प्रति वह आग्रह नहीं रह जाता जो ग्रामीण जीवन की विशेषता है। इस कारण शहरी व्यक्ति के सोचने के ढंग में तार्किकता आ जाती है व अन्धविश्वासों की समाप्ति हो जाती है।
(6) स्त्रियों की स्थिति में सुधार (Improvement in Women Status)
शहरी जीवन बहुत परम्परावादी नहीं है। जीवन की जटिलता के कारण बहुत से पारिवारिक व सामाजिक निर्णय पति-पत्नी को सहमति के आधार पर लेने पड़ते हैं। शहरी जीवन में पति व पत्नी के कर्तव्यों व दायित्वों में भी उतनी जड़ता नहीं रहती है।
किशोरावस्था के लिए मार्गदर्शन और परामर्श
किशोरों का निर्देशन एवं परामर्श- किशोरावस्था को ‘समस्या काल’ कहा जाता है। इस अवस्था में बहुत तेजी से होने वाली शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक परिवर्तनों के कारण किशोर और किशोरी के जीवन में अस्थिरता, अस्त-व्यस्तता, उतार-चढ़ाव और हलचल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके भीतर नयी-नयी आकांक्षाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और कई प्रकार की आवश्यकता और समस्याओं से वह घिर जाता है। इस विषम स्थिति में जब उसकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति होती है, तब उसे संतुष्टि प्राप्त होती है, परन्तु सभी आवश्यकताओं, आकांक्षाओं की पूर्ति गरीबी, अभावग्रस्तता, सामाजिक बंध आदि के कारण नहीं हो पाती। ऐसी दशा में किशोर का व्यवहार कभी-कभी असामान्य होने लगता है, वह कुण्ठा का शिकार हो जाता है और उसमें हीन ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
परिवार, समाज और विद्यालय के भीतर रहने वाले किशोर की समस्याओं का हल करने के लिए आवश्यक है कि उसकी आवश्यकताओं, समस्याओं और आकांक्षाओं का सतर्कतापूर्वक अध्ययन करके उसके व्यवहार को समुचित दिशा देने के लिए निर्देशन और परामर्श की व्यवस्था की जाये। इस कार्य में माता-पिता और विद्यालय की भूमिका सबसे प्रमुख है। समुचित निर्देशन और परामर्श के कारण समस्याग्रस्त किशोर को सन्तुष्टि प्राप्त होती और वह अस्थिरता के काल में अपने को सुव्यवस्थित करने में सक्षम सिद्ध होगा। किशोर और किशोरियों को निर्देशन और परामर्श देने की दृष्टि से निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं।
किशोरावस्था में मार्गदर्शन और परामर्श की भूमिका
(1) अभिभावकों की भूमिका (Role of Parents or Guardians)
इस सम्बन्ध में अभिभावकों का जो मुख्य कार्य है, वह यह है कि वे इन विद्यार्थियों को ठीक से समझें। वे यह समझने की कोशिश करें कि विद्यार्थियों का ऐसा व्यवहार किस वजह से है। विद्यार्थी ऐसा क्यों करते हैं। उनको हाई स्कूल के विद्यार्थियों की परिपक्वता हासिल करने वाली प्रक्रिया को समझना होगा। सभी अभिभावकों को उस छात्र विशेष के बारे में अच्छी प्रकार से जानना होगा, जिसको वह सहायता प्रदान करने की कोशिश करने जा रहे हैं। उनको उस छात्र विशेष की समस्या, उसके उद्देश्य उसका संसार सभी चीजों के बारे में उसके नजरिये से जानना होगा कि वह चीजों को किस प्रकार से देखता व समझता है। आज के समय में कठोर तथा अधिकारपूर्ण दृष्टिकोण वाले अभिभावक सफल नहीं माने जा सकते हैं। सफल तथा प्रभावी अभिभावक वे हैं जो विद्यार्थियों के साथ सहानुभूति रखें तथा उनको समझने की कोशिश करें। अभिभावकों को यह समझना चाहिए कि हाई-स्कूल के विद्यार्थी अत्यन्त संवेदनशील होते हैं। इस समय उनके अंदर भावनाओं का ज्वार चढ़ाव पर होता है तथा उनके अंदर संवेदनशीलता बढ़ती जाती है। उनके स्वभाव में काफी चिड़चिडापन तथा उदासीनता आ जाती है तथा अपने भावात्मक विचारों के प्रदर्शन में वे काफी अस्थिर हो जाते हैं। वे अपने आपको जानने के प्रति काफी गंभीर हो जाते हैं तथा उनके अंदर अपने आपको बड़ा साबित करने की इच्छा बलवती होती जाती है। वे यह चाहते हैं कि परिपक्व पक्ति का दर्जा प्रदान किया जाए। अतः अभिभावकों को हाई-स्कूल स्तर के विद्यार्थियों को इन विशेषताओं अथवा लक्षणों के साथ अपनाना चाहिए तथा उनके साथ सहानुभूति, विश्वास तथा समझदारी रा सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए।
(2) शिक्षक की भूमिका
किशोरों को निर्देशन और परामर्श देने में शिक्षक की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है। शिक्षक ही एक प्रकार से किशोर को सही मार्गदर्शक हैं और परामर्शदाता है। किशोर का विश्वास भी अपने अध्यापक पर सबसे अधिक होता है, इसलिए अध्यापक को निर्देशन सम्बन्धी अपनी अहम् भूमिका का निर्वाह कुशलतापूर्वक करना चाहिए। विद्यालय परिस्थिति में बालक के सामाजिक व्यवहारों और निषेधात्मक संवेगों के उपरान्त होने के कारण है, इसका उसे ज्ञान होना चाहिए। अवांछित व्यवहारों और संवेगों के उत्पन्न होने पर उन्हें किस प्रकार मार्गान्तरित या शोधित किया जा सकता है, इसका ज्ञान शिक्षक को अवश्यमेव होना चाहिए। वह सदैव इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि कहीं भी बालकों की भावनाओं का अवदमन न हो। उसे बालकों को मर्यादा के भीतर मुक्त अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करना चाहिए तथा अवदमन को प्रभावित करने वाले दण्ड, डॉट-डपट का निषेध करना चाहिए। शिक्षक अपने स्नेह, प्यार और आत्मीयता से किशोर को सही राय एवं परामर्श दे सकता है।
(3) विद्यालय की भूमिका (Role of School)
छात्रों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करने वाली दूसरी संस्था स्कूल या विद्यालय है। आज के समय में विद्यालय को केवल ज्ञान व सूचना प्रदान करने वाला स्थान ही नहीं माना जाता, बल्कि यह एक ऐसा स्थान माना जाता है, जहाँ पर छात्र को उसके सम्पूर्ण विकास के लिए अच्छी-से-अच्छी सुविधाएँ अवसर प्राप्त हों। हाई-स्कूल का विद्यार्थी किशोरावस्था की दहलीज पर होता है। कुछ विभिन्न विद्यालय-परिस्थितियाँ छात्र के उचित संवेगात्मक विकास को रोकती हैं। ऐसी कई सारी परिस्थितियाँ हैं, जो छात्र में संवेगात्मक असंतुलन पैदा करती हैं, जिनसे छात्र निराशा, क्रोध, भय आदि महसूस करता है । विद्यालय में पाठ को समझने में आई परेशानियों या पाठ को समझने में असफल रहना, खेल तथा काम में पीछे रह जाने अथवा फेल होने का डर, विद्यालय प्रशासन तथा कठोर (Strict) अध्यापकों के साथ समायोजन सम्बन्धी समस्या, वांछनीय तथा सहानुभूति न रखने वाले साथ के विद्यार्थियों के साथ समायोजन सम्बन्धी समस्या तथा इसी प्रकार के अन्य कई डर व समस्याएँ जो कि विद्यालय से सम्बन्धित होती हैं, छात्र को संवेगात्मक रूप से असंतुलित बनाती हैं। एक किशोर बच्चा इन विभिन्न प्रकार के डर व भय के कारण बराबर निराश व शक्तिहीन (Nervous) होता जाता है। इन कक्षा-कक्ष परिस्थितियों से कुछ छात्र तो इतने ज्यादा घबरा जाते हैं कि सवाल का जवाब जानते हुए भी वे कक्षा में बोल नहीं पाते हैं। कभी-कभी बहुत अच्छा विद्यार्थी भी परीक्षा के नाम पर बहुत ज्यादा घबरा जाता है। कुछ विद्यार्थी अध्यापकों के द्वारा दिये गए अपने गृह कार्य को लेकर चिन्तित रहते हैं। इन डरों व चिंताओं की वजह से विद्यालय जाने वाले विद्यार्थी संवेगात्मक रूप से असंतुलित हो जाते हैं।
किशोरावस्था के लिए मार्गदर्शन और परामर्श की आवश्यकता
किशोरावस्था को तनाव और तूफान की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था को जीवन की सबसे कठिन अवस्था कहा गया है। यही वह अवस्था है जब किशोर न तो बालक रहता है और न पूर्ण प्रौढ़ बन पाता है। इसे परिवर्तन की अवस्था भी कहा गया है क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनों का अम्बार लग जाता है। किशोर बालक-बालिकाओं में अनेक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं। उनके संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वरूप बदल जाता है। बाल्यावस्था की विशेषताओं का लोप होने लगता है और नये-नये लक्षण जन्म लेने लगते हैं। यही वह अवस्था है जिसमें उनमें अदम्य उत्साह और अपूर्व शक्ति होती है, जिसमें वे अपना अधिकतम विकास भी कर सकते हैं और अपना सर्वस्व गवां भी सकते हैं। किशोरावस्था को समस्याओं की आयु या समस्याओं की अवस्था भी कहा गया है क्योंकि इस अवस्था में जहाँ स्वयं किशोर बालक-बालिकायें अपने परिवार, विद्यालय, स्वास्थ्य, व्यवसाय, मनोरंजन, भविष्य, यौन आदि से सम्बन्धित समस्याओं से जूझते हैं, वहीं माता-पिता, संरक्षक, अध्यापक, समाज और राष्ट्र के लिए वे भी एक समस्या होते हैं। इस अवस्था में किशोर और किशोरियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं उसके लिए मार्गदर्शन और परामर्श की आवश्यकता पड़ती है जिसको निम्नलिखित बिंदुओं के समक्ष विस्तृत तरीके से समझाया गया है।
(1) स्वतंत्रता की समस्या (Problem of Independence)
किशोरावस्था में आत्मप्रकाशन की। भावना बड़ी प्रबल होती है। वे समाज की रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का घोर विरोध करते हैं। वे माता-पिता के बन्धन में बंधकर रहना नहीं चाहते। यदि उन पर नियन्त्रण लगाया जाता है तो वे विद्रोह करने के लिये तैयार रहते हैं। किशोरों को घूमना-फिरना बहुत अच्छा लगता है। वे नये-नये स्थानों पर जाना पसन्द करते हैं। उन्हें एक स्थान पर बंधकर रहना अच्छा नहीं लगता। जो माता-पिता किशोरों की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को अनुचित रूप से दबाते हैं, उनके बालकों में बैचेनी और निराशा उत्पन्न हो जाती है और वे उच्छृंखल और आवारा हो जाते हैं। कॉलसनिक (Kolesnik) ने कहा है कि, “किशोर प्रौढ़ों को अपने मार्ग की बाधा समझता है, जो उसे अपनी स्वतंत्रता का लय प्राप्त करने से रोकते हैं। ”
(2) स्थिरता और समंजन की समस्या (Problem of Stability and Adjustment)
जिस प्रकार शिशु की मनःस्थिति स्थिर नहीं होती, उसी प्रकार किशोर बालक-बालिकाओं में भी अस्थायित्व होता है। उनका व्यवहार बहुत ही परिवर्तनशील होता है। रॉस ने किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है। शिशुओं की तरह किशोर चंचल होता है उसे यह भ्रान्ति होती है कि वह दूसरे व्यक्तियों के आकर्षण का केन्द्र है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। शिशु की भाँति उसे अपने चारों ओर के वातावरण से समंजन करना पड़ता है। वातावरण से समंजन में कठिनाई उसके शारीरिक और मानसिक विकास के कारण भी होती है। समंजन की समस्या कभी-कभी उसके लिए दुखदायी हो जाती है जो उसको चिन्तित कर देती है। समजन की समस्या के कारण कभी-कभी उनका व्यवहार अवांछनीय और अशोभनीय हो जाता है।
(3) विरोधी मनोभावों की समस्या (Problem of Contradictory Feelings)
किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकाओं में विरोधी मनोभाव चरमसीमा पर होते हैं किसी क्षण वे बहुत ही सक्रिय दिखायी देते हैं और किसी क्षण अत्यधिक आलसी और निष्क्रिय। कभी वे अत्यधिक उत्साह से परिपूर्ण आत्म विरोध के द्योतक होते हैं और इसका कारण संवेगात्मक ज्ञान योग का अभाव होता है।
(4) प्रबल जिज्ञासा की समस्या (Too Much Curiosity)
किशोरावस्था के उत्तरार्द्ध में जिज्ञासा की प्रबलता हो जाती है, जब किशोर बालक-बालिकायें प्रौढ़ जीवन विषयक ज्ञान की खोज में लग जाते हैं। इस अवस्था में होने वाले नये-नये परिवर्तन उनकी जिज्ञासा को उद्दीप्त करने का कार्य करते हैं। विपरीत लिंग के लोगों के संबंध में उनकी जिज्ञासा बढ़ती जाती है क्योंकि उनके विषय में प्राप्त होने वाले अनुभव रुचिपूर्ण और आनंददायक होते हैं। किशोरों की जिज्ञासा का उचित समाधान अति आवश्यक है।
(5) आत्म गौरव की समस्या (Problem of Self- Respect)
किशोरावस्था में आत्म गौरव भावना का विकास होता है। इसका प्रमुख कारण उनके अन्दर नवीन दृष्टिकोणों का विकसित होना है। वे जहाँ भी होते हैं, अपना सम्मान चाहते हैं। परिवार में, विद्यालय में, समूह में वे अपना अधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं। कक्षा में मानीटर, खेलों में कप्तान, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिषदों और कार्यक्रमों में वे कोई न कोई पद प्राप्त करना चाहते हैं, जिससे उनकी आत्म गौरव की भावना की सन्तुष्टि हो। ऐसा की न होने पर वे संघर्ष और विद्रोह पर उतारु हो जाते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए किशोरों को उनका उचित साथ दिये जाने की आवश्यकता है।
(6) आत्म निर्भरता की समस्या (Problem of Self-Support)
इस अवस्था में किशोर आत्मनिर्भर और स्वाबलम्बी बनना चाहते हैं क्योंकि एक तो उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की आवश्यकता होती है दूसरे वे यह मानने लगते हैं कि वे अब बड़े हो गये हैं और उन्हें माता-पिता पर बोझ नहीं बनना चाहिए। अनेक किशोर धन प्राप्ति के लिये अनैतिक और अपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए उनको समुचित निर्देशन दिया जाना चाहिए।
(7) कल्पनाशील क्रियाओं की समस्या (Imaginative Activities)
किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकायें कल्पना जगत में विचरण करते रहते हैं। वास्तविक संसार से उनका कोई सरोकार नहीं रहता। वे अपना अलग ही कल्पना का संसार संजोये रहते हैं और दिवास्वप्नों में खोये रहते हैं। कल्पना के द्वारा वे अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश करते हैं। जिन वस्तुओं का उनको अभाव होता है, उनको वे कल्पना के द्वारा पूरा कर लेते हैं। माता-पिता और शिक्षकों को चाहिए कि उनकी कल्पना को सृजनात्मक कार्य में लगायें।
(8) व्यवसाय के चयन की समस्या (Problem of Selection of Profession)
किशोरों की एक प्रमुख समस्या व्यवसाय का चुनाव करने की होती है। इस अवस्था में वे अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश प्राप्त करने और उसमें उन्नति करने के लिए अत्यधिक चिन्तित रहते हैं। लेकिन व्यवसाय के सम्बन्ध में उनका चिन्तन बड़ा अवास्तविक होता है। वे साधारण व्यवसायों को पसन्द नहीं करते अपितु ऐसे व्यवसायों को चुनना चाहते हैं, जो उनकी योग्यता से बहुत ऊँचे होते हैं।
(9) नैतिक और सामाजिक मूल्यों की समस्या (Problem of Moral and Social Values)
किशोर बालक-बालिकाओं के सामने नैतिक और सामाजिक मूल्यों की समस्या भी अत्यन्त कठिन होती है। वे इन मूल्यों में बंधन महसूस करते हैं और इनकों अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं। माता-पिता, अध्यापक और समाज किशोरों से इन मूल्यों का पालन करने की अपेक्षा रखते हैं और किशोर अपनी और अपने साथियों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। जिससे इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई आती है और वे दुविधा में फंस जाते हैं। माता-पिता और शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे किशोरों के आत्म सम्मान को बनाये रखकर उनकी उचित इच्छाओं व आकांक्षाओं के अनुरूप उनकी सहायता करें।
(10) यौन समस्यायें (Sex Problems)
इस अवस्था में किशोर बाल-बालिकाओं में काम प्रवृत्ति की प्रबलता उनके लिए एक बड़ी समस्या है। कोई भी किशोर लड़का-लड़की इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। रॉस (Ross) कहते हैं कि, “यौन, यदि समस्त जीवन नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तत्व । एक विशाल नदी के अतिप्रभाव के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भागों को सींचता है और उपजाऊ बनाता है।”
सामान्यतया मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है, मानसिक रोगों एवं दोषों का अभाव तथा मानसिक कार्य व्यवस्था का सम्यक् संचालन। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि वह व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ है जिसमें मानसिक रोगों, उलझनों, निराशाओं, अविश्वास, ग्रन्थियों आदि से मुक्त होता है।
मानसिक स्वास्थ्य में हमारा भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कल्याण शामिल होता है। यह हमारे सोचने, समझने, महसूस करने और कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है।
गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) अपनी स्वास्थ्य की परिभाषा में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी शामिल करता है।
लेडेल के अनुसार — “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है— वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य करने की योग्यता।”
हेडफील्ड के अनुसार — “सम्पूर्ण व्यक्तित्व की पूर्ण एवं सन्तुलित क्रियाशीलता को मानसिक स्वास्थ्य कहते हैं।”
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की विशेषताएं
सामान्यतया मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति उसे कहते हैं जो समाज में अच्छी तरह व्यवहार करता जीवन व्यतीत करता है तथा नैतिक आदशों का पालन एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। संक्षेप में यह हुआ कहा जा सकता है कि मानसिक रूप से स्वस्थ मनुष्य कुशल, सामाजिक एवं नैतिक होता है। मनोवैज्ञानिकों ने मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के निम्नलिखित गुण बताए हैं-
(1) सहनशीलता (Tolerance)
सहनशीलता मानसिक स्वास्थ्य का एक प्रमुख लक्षण है। सहनशील व्यक्ति जीवन में आने वाले संघर्षों, निराशाओं, असफलताओं आदि का सामना पूर्ण क्षमता के साथ करता है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी वह अपना संतुलन न खोकर समायोजन की स्थापना करता है।
(2) आत्मविश्वास (Self-confidence)
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में आत्मविश्वास का भाव होता है। उसे अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं पर विश्वास होता है आत्मविश्वास के बल पर वह 1 अपने समस्त कार्यों को सफलतापूर्वक करने में सफल होता है।
(3) संवेगात्मक परिपक्वता (Emotional Maturity)
सामान्यतया मानसिक रूप से स्वस्य व्यक्ति में बौद्धिक एवं संवेगात्मक परिपक्वता दिखाई देती है। ऐसे व्यक्तियों में अपने संवर्गा-मद्य, प्रेम, काय, घृणा, इर्ष्या आदि पर नियंत्रण रखने की क्षमता होती है। ऐसे व्यक्ति अपने संवेगों को उचित ढंग से व्यक्त करने में सक्षम होते हैं। अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने के कारण ऐसे व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में अपने समायोजन में सफल होते हैं।
(4) सामंजस्य की योग्यता (Ability to Adjust)
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने वातावरण से समायोजन रखने की क्षमता रखता है। वह विभिन्न विचारों एवं परिस्थितियों से समायोजित होने के लिए अपने कार्य एवं व्यवहार में अभीष्ट परिवर्तन करके सफलतापक उनमें अपना समायोजन प्राप्त करता है।
(5) नियमित जीवन (Systematic Life)
ऐसे व्यक्ति जीवन में प्रत्येक कार्य को एक निश्चित समय एवं ढंग से करते हैं। इनके जीवन की एक निश्चित शैली होती है। खान-पान, रहन-सहन, सोचने की प्रक्रिया, आचार-विचार के क्षेत्र में इनका एक निश्चित जीवन-दर्शन होता है। इसी जीवन-दर्शन के अनुसार ये व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों एवं जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हैं।
(6) निर्णय करने की क्षमता (Ability to Decide)
जो व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं उनमें निर्णय लेने की क्षमता होती है। ये किसी भी कार्य की प्रणाली और उसके परिणाम तक पहुँचने में संशयात्मक या संदेहमयी वृत्ति नहीं रखते। दुविधा और विरोधी विचारों के शिकार न होकर ये अपने कार्य में शीघ्र निर्णय लेकर उसको सफलतापूर्वक करते हैं।
(7) आत्म-सम्मान की भावना (Sense of Self-respect)
ऐसे व्यक्ति अपने व्यवहार को दूसरों के समक्ष इस ढंग से प्रस्तुत करते हैं जिससे उन्हें यश और कीर्ति प्राप्त हो सके। ऐसे व्यक्ति दूसरों के प्रति अपने व्यवहारों में त्याग, नैतिकता, उपकार आदि की प्रवृत्ति का समावेश रखते हैं।
(8) आत्म-मूल्यांकन की क्षमता (Capacity of Self-evaluation)
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों में अपने व्यवहार, चिन्तन, आचरण, क्षमताओं आदि के मूल्यांकन की क्षमता होती है। ऐसी मूल्यांकन क्षमता से ये अपने व्यवहार में उचित-अनुचित के निर्णय लेने में समर्थ होते हैं।
(9) व्यक्तिगत सुरक्षा की भावना (Sense of Personal Safety)
ऐसे व्यक्तियों में व्यक्तिगत सुरक्षा की भावना पाई जाती है। वह अपने समूह में अपने को सुरक्षित रखता है। वह यह भी ज्ञान रखता है कि उस निश्चित समूह में उसका क्या स्थान है। अतः वह उसी के अनुसार अपना व्यवहार करता है।
बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक
(1) परिवार से सम्बन्धित कारण (Causes Related to Family)
परिवार से सम्बन्धित कई प्रकार के कारक बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं, जैसे—
(i) पारिवारिक निर्धनता
परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण प्रायः बालक उग्र एवं कठोर हो जाते हैं। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति न होने के कारण उनमें असुरक्षा एवं हीनता का भाव घर कर जाता है। वह अपने को दूसरों की अपेक्षा हीन समझने लगता है जिसका मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(ii) परिवार का कठोर शासन
जिन परिवारों में बालकों को अति कठोर शासन में रखा जाता है बालक को छोटी-छोटी बातों पर फटकार पड़ती है उनमें पलने वाले बालकों में आत्महीनता की भावना पैदा हो जाती है जो बालक को मानसिक रूप से अस्वस्थ रखती है।
(ii) माता-पिता का पक्षपातपूर्ण व्यवहार
यदि माता-पिता किसी बालक को दूसरे की अपेक्षा उसकी कुरूपता, बुद्धिहीनता, अस्वस्थता आदि के कारण कम स्नेह करने लगते हैं तो बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। वह अन्य भाई-बहनों के प्रति ईष्यालु हो जाता है और उसमें झगड़ालूपन तथा दूसरों को हानि पहुँचाने की भावना उत्पन्न हो जाती है।
(iv) माता-पिता की अत्यधिक ममता
बहुत से माता-पिता बच्चे को इकलौता होने के कारण या अमीरी आदि के कारण आवश्यकता से अधिक दुलार देने लगते हैं। ऐसी स्थिति में बालक सदैव अपने माता-पिता पर ही निर्भर रहना चाहता है। उसमें आत्म-निर्भरता की भावना उत्पन्न नहीं हो पाती। ऐसे बालक जीवन में कठिनाइयों का सामना करने में अपने को सदैव असमर्थ पाते हैं।
(v) माता-पिता के ऊँचे आदर्शों का प्रभाव
जिन बालकों के माता-पिता ऊंचे नैतिक आदर्शों वाले होते हैं उनके बच्चे भी यदा-कदा मानसिक अस्वस्थता का शिकार बन जाते हैं। ऐसे माता-पिता अपने पुत्र-पुत्रियों से भी वैसे ही उच्च आदशों के पालन की अभिलाषा रखते हैं। बालक यदि उन आदर्शों के पालन में अपने को अक्षम पाने लगता है तो वे आदर्श उसके लिए बोझ बन जाते हैं और बालक यथार्थ जीवन से भागने लगता है। आदर्श और यथार्थ में वह सदा द्वन्द्व की अनुभूति करता है। परिणामतः उसमें भावना-ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और वह यथार्थ धरातल पर अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाता।
(2) विद्यालय से सम्बन्धित कारण (Causes Related to School)
परिवार के अतिरिक्त लक के मानसिक स्वास्थ्य पर विद्यालय सम्बन्धी कारणों का भी प्रभाव पड़ता है।
(i) विद्यालय का वातावरण
यदि विद्यालय में अनुशासन व्यवस्था कठोर हुई और बालक को पाठ्य सहगामी क्रियाओं आदि में भाग लेने का अवकाश नहीं मिलता है तो बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।
(ii) अनुचित पाठ्यक्रम
यदि विद्यालय में कक्षा का पाठ्यक्रम बालक की रुचियों, अभिरुचियों और क्षमताओं के विपरीत होता है तो बालक पाठ्यक्रम से अपना लगाव स्थापित नहीं कर पाता। वह सदा चिन्तित रहता है और ऐसी स्थिति में रहने लगता है।
(iii) दोषपूर्ण शिक्षण विधियां
बालकों में क्षमताओं एवं रुचियों के स्तर पर भिन्नता पाई जाती है। यदि अध्यापक इन वैयक्तिक भिन्नताओं पर ध्यान न देकर केवल विषय-वस्तु को विद्यार्थी में उतार देने का प्रयास करता है तो भी बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक द्वारा मनोवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग न होने के कारण बालक को विषय-वस्तु के ग्रहण करने तथा धारण करने में कठिनाई होती है।
(iv) दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली
आजकल जो आत्मनिष्ठ परीक्षाएँ प्रचलित हैं उनमें कई दोषों के कारण बालकों की योग्यता और क्षमता का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं हो पाता। परिणाम यह होता है कि अयोग्य और कमजोर बालक अच्छे अंकों से परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं और कई योग्य और परिश्रमी बालकों को असफलता का मुँह देखना पड़ता है। ऐसी स्थिति में योग्य बालकों में कुण्टा उत्पन्न हो जाती है।
(v) शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव
शिक्षक के व्यक्तित्व का बालकों के मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि शिक्षक में संवेगात्मक अस्थिरता, उत्तेजनशीलता, निराशा आदि की ग्रन्थियाँ होती हैं तो बालकों के प्रति उसका व्यवहार कठोर होता है। वह बालकों को छोटी-छोटी बातों पर कठोर दण्ड देता है और बालक ऐसी स्थिति में उग्र और प्रतिशोधी हो जाते हैं।
(3) समाज से सम्बन्धित कारण (Causes Related to Society)
जिस समाज में आन्तरिक कलह, द्वन्द्व, ईर्ष्या, संघर्ष, परस्पर सहयोग तथा स्वतंत्रता का अभाव, कार्य करवाने में बल का प्रयोग, पूर्वाग्रह आदि का पर्याप्त प्रचलन होता है उनमें पलने वाले बालकों में उक्त रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार बुरा समाज बालकों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है।
(4) व्यक्तिगत कारण (Personal Causes)
यदि बालक का स्वास्थ्य उचित नहीं होता है अर्थात् उसका शारीरिक विकास ठीक नहीं हुआ है अथवा किसी रोग से वह ग्रस्त है तो बालक मानसिक रूप से अस्वस्थ रहने लगता है। यदि उसके शरीर का कोई अंग विकृत हुआ तो भी उसमें हीनता की ग्रन्थि उत्पन्न हो जाती हैं। ये हीनता की ग्रन्थियाँ बालक को उसके वातावरण से समायोजन स्थापित करने में बाधक होती हैं।
व्यक्तित्व क्या है? यह विवादग्रस्त प्रश्न है। विभिन्न विद्वानों एवं मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। ‘व्यक्तित्व’ शब्द अंग्रेजी भाषा के “Personality’ शब्द का पर्याय है। अंग्रेजी शब्द ‘Personality लैटिन भाषा के पर्सोना (Persona) शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है, बाहरी नकाब या वेशभूषा इस प्रकार Personality की Personal शब्द से उत्पत्ति यह प्रकट करती है कि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके बाह्य गुणों से मापा जाता है, परन्तु व्यक्तित्व का यह अर्थ एकांगी है। यद्यपि बाह्य गुणों का व्यक्ति के व्यक्तित्व में महत्त्वपूर्ण योगदान है किन्तु केवल बाह्य गुणों को ही व्यक्तित्व नहीं कहा जा सकता। व्यक्तित्व में उसके संवेग, आचार-विचार, सिद्धान्त, मनोवृत्ति, व्यवहार, क्रियाएं, रुचियाँ, अभिरुचियाँ और बुद्धि सभी कुछ समाहित है। इस प्रकार व्यक्तित्व में व्यक्ति की आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की क्रियाओं का संगठन सम्मिलित है।
मोर्टन प्रिंस (Morton Prince) — “व्यक्तित्व व्यक्ति की सभी जन्मजात तथा अर्जित प्रवृत्तियों, इच्छाओं और भावनाओं का संग्रह है।”
केम्फ (Kemph)- “व्यक्तित्व आदत की उन व्यवस्थाओं का समन्वय है जो पर्यावरण के साथ व्यक्ति के विशिष्ट अभियोजन का प्रतिनधित्व करता है।”
वारेन (Warren ) — “व्यक्तित्व व्यक्ति का समग्र मानसिक संगठन है जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।”
बालक के व्यक्तित्व का विकास उसके जन्म से पूर्व अर्थात् गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है लेकिन उसके व्यक्तित्व के विकास की गति जीवन भर एक-सी नहीं रहती। किसी अवस्था में विकास की गति बहुत तीव्र होती है और उसके व्यक्तित्व में असाधारण परिवर्तन देखने में आते हैं, जबकि किसी अवस्था में व्यक्तित्व परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है।
शैशावस्था में व्यक्तित्व विकास (Personality Development in Infancy)
शैशवावस्था नवजात शिशु की ज्ञानेन्द्रियों के लिए बहुत क्रियाशील अवस्था है। वह अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित होता है। लगभग आठ माह का शिशु बिना सहारे के स्वयं बैठने योग्य हो जाता है। धीरे-धीरे वह पेट के बल सरकना सीख जाता है। ग्यारह-बारह माह का शिशु सहारा लेकर खड़ा होने और चलने का प्रयत्न करने लगता है और पन्द्रह माह तक वह बिना सहारे के चलना सीख जाता है। जिन शिशुओं को गोद में अधिक रखा जाता है, स्वतन्त्रता न मिल पाने के कारण ऐसे शिशुओं की विकास की गति धीमी हो जाती है और वे उठना-बैठना, चलना देर से सीख पाते हैं। जन्म के समय शिशु देख तो सकता है लेकिन किसी को पहचानता नहीं है। दो माह की आयु में सर्वप्रथम वह अपनी माँ को पहिचानने लगता है क्योंकि माँ से ही उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और उसी के सम्पर्क में ही वह सबसे अधिक जाता है। माँ शिशु को थपथपाकर, गोदी खिलाकर, स्तनपान कराकर, चुम्बन लेकर आदि क्रियाओं द्वारा अपने प्यार को प्रदर्शित करती है। इन सब बातों का शिशु के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
बाल्यावस्था में व्यक्तित्व विकास (Personality Development in Childhood)
बाल्यावस्था में बालक की सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ पूर्णतः विकसित हो जाती हैं और वह शारीरिक गति पर पूर्ण नियन्त्रण रखने के योग्य हो जाता है। इस अवस्था में भाषा विकास की गति बहुत तीव्र होती है। आठ वर्ष की आयु तक बालक में बोलने का अच्छा अभ्यास हो जाता है। बाल्यावस्था में बालक अपने वातावरण से भली प्रकार परिचित हो जाता है, उसमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति अत्यधिक हो जाती है, वह अकेला नहीं रहना चाहता। वह अपने आप में इतनी रुचि नहीं लेता जितनी अपने मित्र, पड़ौसी या खेल में लेता है। उसके सम्बन्धों का दायरा परिवार से बाहर पड़ोस और विद्यालय के सहपाठियों तक व्यापक हो जाता है। इस अवस्थ में बालक को समूह में अपना स्थान बनाना होता है। बालक जिस समूह का सदस्य बनता है उसकी अच्छाइयों एवं बुराइयों से तो प्रभावित होता ही है, साथ ही समूह में मिलने वाला कार्य और स्थान भी उसको प्रभावित करता है, जिससे बालक का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। समूह से समायोजन द्वारा वह मैत्री, सहानुभूति, प्रेम, त्याग, कर्त्तव्यपरायणता आदि गुणों को सीखता है, उसमें आत्मविश्वास पैदा होता है और यदि समूह ऐसा नहीं कर पाता तो उसमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है, कुटा, निराशा पैदा हो जाती है और समाज विरोधी भावनाएँ भी पैदा हो जाती हैं। मिशेल (Mischel) ने अपने अध्ययन में पाया कि लोग बालकों से आशा करते हैं कि वे साहसी, दृढ़ इच्छाशक्ति वाले और महत्वाकाक्षी बने जबकि बालिकाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे घरेलू, साफ-सुथरे चरित्र वाली, सामाजिक व अच्छे व्यवहार और व्यक्तित्व वाली बनें।
किशोरावस्था में व्यक्तित्व विकास (Personality Development in Adolescence)
किशोरावस्था में बालक में शारीरिक परिवर्तन बड़ी तीव्रता से होते हैं। इन सबका प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर भी पड़ता है। यौवन के आगमन के साथ-साथ उसमें नयी रुचियाँ विकसित होती हैं। विपरीत लिंगियों के प्रति उसका आकर्षण बढ़ जाता है। मानसिक विकास की दृष्टि से भी इस अवस्था में उसमें काफी परिवर्तन होते हैं। विचार करने की शक्ति और चिन्तन के तरीकों में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। वह कल्पना जगत में विचरण करता रहता है। वह आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी बनना चाहता है। इस अवस्था में वह नेतृत्व सम्बन्धी प्रवृत्तियों को भी प्रदर्शित करने लगता है। वह निडरता और साहस का परिचय देना चाहता है। खेलों और अन्य क्रियाओं में अपना स्थान बनाना चाहता है। इस अवस्था में उसमें संवेदनशीलता बहुत अधिक बढ़ जाती है। इन सब बातों का सीधा प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। जहाँ एक ओर यदि बालक की उपेक्षा की जाती है, तिरस्कार किया जाता है तथा उसकी निरन्तर अवहेलना की जाती है और दूसरी ओर यदि उसकी ओर अत्यधिक ध्यान दिया जाता है, उसकी गलत की अनदेखी की जाती है और उसको अनुचित प्रोत्साहन दिया जाता है तो उसके व्यक्तित्व का सही विकास नहीं हो सकता।
प्राचीन काल से ही अनेक आधारों पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया गया है। प्राचीन धर्मशास्त्रों ने सात्विक, राजसी और तामसिक तीन प्रकार की मानसिक प्रवृत्तियों का वर्णन किया था और उसी प्रकार के आधार पर तीन प्रकार के व्यक्ति बताये। हिप्पोक्रेट्स और उसके बाद गॉलिन ने शारीरिक द्रव्यों के आधार पर व्यक्तियों को चार प्रकार के समूहों में विभाजित किया।
(1) कफप्रवृत्ति (Philgmatic) — जिन व्यक्तियों में कफ की प्रधानता होती है। ऐसे व्यक्ति धीमे, निर्बल और निरुत्तेजित होते हैं।
(2) काले पित्त वाले (Melancholic) — ऐसे व्यक्ति निराशावादी होते हैं, जिनमें काले पित्त की प्रधानता होती है।
(3) पीले पित्त वाले (Choleric) – जिनमें पीले पित्त की प्रधानता होती है। ऐसे व्यक्ति बहुत शीघ्र क्रोधित होते हैं।
(4) रुधिर वाले (Sanguine) — जिनमें रुधिर की प्रधानता होती है। ऐसे व्यक्ति प्रसन्न रहते हैं और शीघ्र कार्य करते हैं।
जुंग (Yong) ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्तित्व के तीन प्रकार बताए हैं—
(1) बहिर्मुखी व्यक्तित्व (Extrovert Personality)
बहिर्मुखी व्यक्तित्व उन लोगों का होता है। जो बाह्य जगत् में विशेष रुचि रखते हैं और सामाजिक हित के लिये अपने हितों का बलिदान करने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। जो व्यक्ति अकेले रहना पसंद नहीं करते, वे व्यवहारकुशल और आशावादी होते हैं। वे बहादुरी के कार्यों में रुचि रखते हैं। इनका ध्यान सदैव बाह्य समाज की ओर लगा रहता है और वे स्वयं को पीड़ा आदि की कोई चिन्ता नहीं करते। ये आत्म-प्रशंसा के भूखे, अहंवादी और अनियंत्रित होते हैं। ये पर्यावरण और परिस्थिति के अनुसार अपने आपको समायोजित करने वाले होते हैं। ये सदैव प्रसन्न रहते हैं और उदार हृदय वाले होते हैं। इस प्रकार का व्यक्तित्व अधिकांशतः राजनीतिज्ञों, समाजसेवियों और देशोद्धारकों का होता है।
(2) अन्तर्मुखी व्यक्तित्व (Introvert Personality)
अन्तर्मुखी व्यक्तित्व उन लोगों का होता है जो एकांतप्रिय होते हैं और जिनकी रूचि स्वयं में होती है। वे स्वयं के लिये हर समय चिंतित रहते हैं। इनका ध्यान सदैव अपने कष्टों और समस्याओं की ओर लगा रहता हैं ये कम बोलने वाले, संकोची, लज्जालु चिंताग्रस्त और शीघ्र घबराने वाले होते हैं। इनका स्वभाव आज्ञाकारी होता है। इनमें आत्मचिंतन की प्रधानता होती है और पुस्तकों और पत्रिकाओं के पढ़ने में ही लगे रहते हैं। ये व्यवहार कुशल भी नहीं होते और किसी भी उत्तरदायित्व को लेने से डरते हैं। इस प्रकार का व्यक्तित्व अधिकांशतः वैज्ञानिकों, विचारकों और महात्माओं का होता है।
(3) उभयमुखी व्यक्तित्व (Ambivert Personality)
वस्तुतः बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों प्रकार के व्यक्तित्व के गुण एक दूसरे के विपरीत है। यथार्थ-जगत में इस प्रकार के व्यक्ति बहुत ही कम है जो पूर्णतया बहिर्मुखी हो या पूर्णतया अन्तर्मुखी। अधिकांशतः व्यक्तियों में बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों की ही कुछ न कुछ विशेषताएँ पायी जाती हैं। इन मध्यवर्ती व्यक्तियों को ही जुंग ने उभयमुखी बतलाया है। अतएव उभयमुखी व्यक्तित्व उन व्यक्तियों का होता है जिनमें बहिर्मुखी व अन्तर्मुखी दोनों प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं।
व्यक्तित्व के गुण (Traits of Personality)
मनोवैज्ञानिकों का व्यक्तित्व के गुण से तात्पर्य व्यवहार के ढंग से हैं। वुडवर्थ (Woodworth) ने व्यक्तित्व के गुण की परिभाषा देते हुए कहा है- “व्यक्तित्व के गुण हमारे व्यवहार का एक मुख्य प्रकार का ढंग है।” व्यक्ति जिस प्रकार का व्यवहार करता है उसमें उसके गुणों की अभिव्यक्ति होती है। ये व्यक्तित्व गुण ही एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से भिन्नता प्रदान करते हैं। व्यक्तित्व के गुणों के विषय में कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ये गुण सामान्य प्रवृत्ति के होते हैं, इसलिये ये स्थायी होते हैं। इसके विपरीत, कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत हैं कि व्यक्तित्व के दो गुण सामान्य प्रकृति के न होकर विशिष्ट प्रकृति के होते हैं, इसलिये ये अस्थायी होते हैं और पर्यावरण से प्रभावित होकर बदलते रहते हैं। में एवं हार्टशोर्न के चरित्र अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जिन विद्यार्थियों ने एक परिस्थिति में बेईमानी का प्रदर्शन किया, उन्हीं विद्यार्थियों ने दूसरी परिस्थिति में सत्यनिष्ठा को प्रदर्शित किया। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इन दोनों मतों में समन्वय स्थापित करते हुए कहा है कि व्यक्तित्व के कुछ गुण सामान्य प्रकृति के होते है और कुछ विशिष्ट प्रकृति के । अतएव, व्यक्तित्व के कुछ गुण स्थायी हो सकते है और कुछ अस्थायी। व्यक्तित्व के मुख्यशील गुण निम्नलिखित हैं—
- संवेगात्मक स्थिरता (Emotional Stability)
इस गुण के होने पर व्यक्ति अत्यन्त कठिन और संकटपूर्ण परिस्थितियों में भी अपना मानसिक सन्तुलन नहीं खोता। वह अपने विवेक के अनुसार परिस्थितियों का सामना करता है। ऐसा व्यक्ति दिवास्वप्नों में लीन नहीं होता, वह वास्तविकता से भागता नहीं हैं अपितु दृढ़तापूर्वक उसका सामना करता है। वह अपने परिवार, व्यवसाय और समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ व्यवहार में सन्तुलन और अनुकूलन का परिचय देता है। जिन व्यक्तियों में यह गुण नहीं पाया जाता हैं, वे चंचल स्वभाव के होते हैं। आगामी दुखों की आशंका मात्र से ही चिन्तित हो जाते हैं। दुख के वास्तविक कारणों के अभाव में भी वे दुखी रहते हैं।
- प्रसक्ति (Persistence)
इस गुण को धारण करने वाले व्यक्ति जब किसी कार्य को अपने हाथ में ले लेते हैं तो उसको पूरा करने के लिये जी-जान से जुट जाते हैं। ऐसे व्यक्ति कठिनाइयों और बाधाओं की परवाह न करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। संसार के अनेक नेता केवल इस प्रसक्ति के गुण के कारण ही अपने व्यक्तित्व को महान बना सके हैं। जिन व्यक्तियों में यह गुण नहीं पाया जाता, वे कठिनाइयों को देखकर, निराश हो जाते हैं और घबराकर अपने कार्य को बीच में छोड़ देते हैं।
- प्रभुत्व (Ascendance)
जिस व्यक्ति में यह गुण पाया जाता है, वह अन्य व्यक्तियों पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता है। ऐसा व्यक्ति यह चाहता है कि अधिक से अधिक व्यक्ति उसके नियन्त्रण में रहे, उसकी आज्ञाओं का पालन करें और उसके निर्देशों के अनुसार कार्य करें। उसमें आत्मविश्वास होता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति में अधीनता (Submission) की प्रवृत्ति पायी जाती है, वह सरलता से दूसरे व्यक्तियों की बातों को मान लेता है और उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है।
- सत्यनिष्ठा (Honesty)
सत्यनिष्ठा का गुण आदर्श व्यक्तित्व के लिये आवश्यक है। इस गुण के होने पर व्यक्ति सदैव ही सत्यनिष्ठा का परिचय देता है और सभी का विश्वास प्राप्त करता है। जिन व्यक्तियों में यह गुण नहीं पाया जाता वे दूसरे व्यक्तियों के विश्वास भाजन नहीं रहते और समाज में उनका कोई सम्मान नहीं होता।
- चिन्तनशीलता (Reflectiveness)
इस गुण से युक्त दार्शनिक विचारों में खोया रहता है। यह गुण व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित कर देता है और उसकी प्रवृत्ति को दार्शनिक बना देता है। चिन्तनशीलता ऐसे व्यक्ति के जीवन का अंग बन जाती हैं। इसके विपरीत, जिन व्यक्तियों में यह गुण नहीं पाया जाता, वे अपने विचारों को दूसरों के सामने स्पष्टता के साथ प्रकट करते हैं और दूसरों की बातों पर विशेष ध्यान देते हैं।
- सामाजिकता (Sociability)
इस गुण के फलस्वरूप व्यक्ति समाज में व्यक्तियों के प्रति विशिष्ट रूप से व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति का ध्यान समाज के कल्याण की ओर बराबर बना रहता है। वे सामाजिक क्रियाओं में अधिक भाग लेते हैं। जिन व्यक्तियों में यह गुण नहीं पाया जाता, उनमें समाज से अलग रहने की प्रवृत्ति प्रबल रूप से पायी जाती है। ऐसे व्यक्ति सामाजिक संस्थाओं में जाने और सामाजिक कार्यों में भाग लेने में घबराते हैं।
व्यक्तित्व मापन [Measurement of Personality]
व्यक्तित्व को मापने का प्रयत्न प्राचीन काल से ही किया गया है। व्यक्तित्व मापन के लिए अनेक परीक्षणों और विधियों का निर्माण किया गया है। आरम्भ में ये विधियाँ अमनोवैज्ञानिक और आत्मगत थीं, किन्तु जैसे-जैसे मनोविज्ञान विज्ञान बनने का प्रयत्न करने लगा, वैसे-वैसे व्यक्तित्व मापक विधियों में भी सुधार आता गया। व्यक्तित्व को मापने के लिए अनेक परीक्षण बन चुके हैं, और बन रहे हैं। व्यक्तित्व मापन की कुछ अधिक प्रचलित और विश्वसनीय विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) व्यक्तिगत राय (Personal Opinion)
हम किसी व्यक्ति के सम्पर्क में आने पर उसके विषय में अपनी कुछ धारणा बना लेते हैं जैसे अधिक फैशन करने वाले बालक या बालिका को देखकर हम यह धारणा बना लेते हैं कि यह चित्त के चंचल होंगे। मोटे व्यक्ति को देखकर हम यह राय बना लेते हैं कि यह व्यक्ति आतसी होगा। यह विधि वैज्ञानिक विधि नहीं है क्योंकि हमारी धारणा गलत भी हो सकती है।
(2) जीवन-कथा (Biography)
इस विधि के अनुसार मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के व्यक्तित्व को आवश्यकतानुसार कुछ शीर्षकों में बाँट देता है, जिनके आधार पर व्यक्ति स्वयं अपनी जीवन कहानी लिखता है और मनोवैज्ञानिक उस जीवन्त कहानी के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में कुछ निष्कर्ष निकालता है। इस विधि में व्यक्ति अपनी जीवन की सभी घटनाओं को नहीं लिख पाता क्योंकि वह बहुत-सी घटनाओं को भूल जाता है। दूसरे सामान्यतः व्यक्ति अपने गुणों और अच्छाइयों का तो वर्णन कर देता है परन्तु अपने दोषों और बुराइयों को नहीं बतलाना चाहता है। जिससे व्यक्ति के बारे में सही जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती।
(3) व्यक्ति इतिहास (Case History)
इस विधि के द्वारा व्यक्ति के वंश इतिहास, सामाजिक स्थिति, शिक्षा, व्यवहार, शारीरिक विशेषताओं, संवेगात्मक स्थिरता, व्यक्तिगत अभिवृत्तियों, रुचियों और समायोजन की समस्याओं का विस्तृत अध्ययन किया जाता है। यह विधि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाले सम्पूर्ण तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा करती है। यह विधि मानसिक चिकित्सा के लिए अधिक उपयोगी है। इस विधि में सूचनायें, अनेक दिशाओं से स्वयं व्यक्ति, माता-पिता, पड़ोसियों, सम्बन्धियों, मित्रों और अध्यापकों आदि के द्वारा एकत्रित की जाती है। किसी व्यक्ति का इतिहास तभी प्रमाणिक हो सकता है जबकि प्राप्त की गयी जानकारी सत्य हो। चूँकि यह विधि भी स्मृति पर आधारित है इसलिए यथार्थ नहीं है। इस विधि की सफलता प्रयोग करने वाले मनोवैज्ञानिक की निष्पक्षता और सूझ-बूझ पर बहुत कुछ निर्भर है। व्यक्ति इतिहास विधि एक यथार्थ विधि न होते हुए भी निदानात्मक मनोविज्ञान (Clinical Psychology) में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
(4) साक्षात्कार (Interview)
यह विधि व्यक्तित्व की परीक्षा के लिए सबसे अधिक व्यावहारिक विधि समझी जाती है। व्यक्तित्व की जिन बातों का पता आत्मकथा, व्यक्ति इतिहास तथा प्रश्नावली से नहीं लग पाता, उनको आमने-सामने की बातचीत से जाना जा सकता है। इसमें परीक्षक और परीक्षार्थी आमने-सामने होते हैं और परीक्षार्थी परीक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर देता है। परीक्षक परीक्षार्थी के उत्तरों, उसके हाव-भाव, तौर-तरीको, उत्तर की शैली तथा अन्य बातों से उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता है।
(5) परिस्थिति परीक्षण (Situation Test)
इस विधि में बालकों के सामने कोई परिस्थिति उत्पन्न कर दी जाती है। इस परिस्थिति में बालक की जो प्रतिक्रिया होती है उसके आधार पर उसके व्यक्तित्व की माप की जाती है। मे (May) और हार्टशोर्न (Hartshorne) ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। इसमें बालकों को ईमानदारी और बेईमानी प्रकट करने की पूरी गुंजाइश थी। उन्होंने एक कमरे में एक सन्दूक रख दिया और कुछ बालकों को थोड़े सिक्के दिये और कहा कि वे इन सिक्कों को सन्दूक में डाल आयें। ये सिक्के गरीबों को दान में दिये जायेंगे। कुछ ईमानदार बालकों ने मिले हुये सभी सिक्के सन्दूक में डाल दिये और कुछ बेईमान बालकों ने सन्दूक में पैसे रखने के बजाय उसमें से कुछ सिक्के निकाल लिये यह विधि निर्माण परीक्षण विधि जैसी है। अन्तर केवल इतना है कि निर्माण परीक्षण विधि में बालक को कुछ कार्य करने के लिये दिया जाता है जबकि इस विधि में उसे एक परिस्थिति में रखा जाता है। इस विधि का क्षेत्र बड़ा सीमित है। इसका प्रयोग बालकों पर तो किया जा सकता है लेकिन प्रौढ़ व्यक्तियों पर नहीं।
(6) श्रेणी मूल्यांकन (Rating Scale)
व्यक्तित्व के विभिन्न गुणों के मूल्यांकन और मात्रात्मक मापन के लिए श्रेणी मूल्यांकन विधि एक महत्वपूर्ण विधि है। इस विधि में व्यक्तित्व के उस विशिष्ट गुण को जिसका मूल्यांकन किया जाता है, कई श्रेणियों में विभाजित कर लिया जाता है और फिर व्यक्ति के व्यक्तित्व को पेश कर उसका स्थान निश्चित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए यदि हमें किसी व्यक्ति की सुन्दरता की जाँच करनी है तो हम सुन्दरता की कई श्रेणियों में बाँटकर एक मानदण्ड बना लेंगे—यह मानदण्ड तीन, पाँच, सात, नौ श्रेणियों का हो सकता है।
BY: TEAM KALYAN INSTITUTE
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