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Green Revolution हरित क्रांति

Green Revolution हरित क्रांति

हरित क्रांति का संबंध कृषि से है जिसमें कृषि उपज को बढ़ाने (विशेष रूप से गेहूं और चावल) पर जोर दिया गया। जिसके लिए उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीज High-yielding varieties (HYV) वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किए गए जिसके परिणाम स्वरूप उत्पादन में बेहताशा वृद्धि हुई।

हरित क्रांति 1960 के दशक में नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) द्वारा शुरू की गई उन्हें विश्व में हरित क्रांति के जनक के रूप में भी जाना जाता है।

1970 में नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) को उच्च उपज देने वाली किस्मों को विकसित करने के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

भारत में हरित क्रांति का नेतृत्व मुख्य रूप से एम. एस. स्वामीनाथन द्वारा किया गया तथा इन्हें ही भारत में हरित क्रांति का जनक के रूप में माना जाता है।

 

आप इस वीडियो के माध्यम से हरित क्रांति को और अच्छी तरीके से समझ सकते हैं—

https://youtu.be/qVwbC-FCiv4

विश्व स्तर पर हरित क्रांति

द्वितीय विश्वयुद्ध जो कि 1939 से 1945 तक चला इस दौरान पूरा विश्व अजीब से अवसाद और तनाव से गुजर रहा था। इस समय सबसे अधिक नुकसान जापान को हुआ था जापान की स्थिति सुधारने के लिए अमेरिका ने पहल की अमेरिका की सेना में एक कृषि वैज्ञानिक एस. सिसिल सेलमेन थे उन्होंने कहा कि जापान की स्थिति सुधारने के लिए एक रास्ता कृषि का विकास करना है।

एस. सिसिल सेलमेन ने विभिन्न शोध और तकनीकों का प्रयोग करके एक विशेष प्रकार की गेहूं की किस्म तैयार की जिसका दाना काफी बड़ा था। उन्होंने इस गेहूं की किस्म को आगे शोध के लिए मेक्सिको, नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) के पास भेजा।

नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) मेक्सिको के रहने वाले थे उन्होंने भी एक गेहूं की किस्म को विकसित किया था तथा जिसे उन्होंने एस. सिसिल सेलमेन की किस्म के साथ संकरित/प्रजनन करके एक नई किस्म की खोज कर दी। जिसकी यह विशेषता थी कि गेहूं का पौधा काफी बोना तथा गेहूं की बाली बड़ी थी।

इन शोध के परिणाम स्वरूप पूरे विश्व में कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि दिखाई दी तो इस तरह से कृषि क्षेत्र में हुए अभूतपूर्ण शोध विकास, तकनीकी परिवर्तन को हरित क्रांति का नाम दिया गया। इसके अंतर्गत न केवल फसलों के लिए नए और विकसित संसाधित बीजों का ही प्रयोग किया गया बल्कि नवीनतम तकनीक का भी काफी इस्तेमाल किया गया।

भारत में हरित क्रान्ति

आजादी से पहले पश्चिम बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था जिसमें करीब 20 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई थी। जिसका मुख्य कारण कृषि को लेकर औपनिवेशिक शासन की कमजोर नीतियां थी।

जब हमारा देश 1947 को आजाद हुआ तो उस समय के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कृषि क्षेत्र के विकास पर जोर दिया। इस समय तक कृषि पुराने तरीकों से की जाती थी जिससे उत्पादन बहुत ही कम होता था और हमें खाद्यान्न के लिए अन्य देशों पर निर्भर रहना पड़ता था।

इन सब को देखते हुए जवाहरलाल नेहरू ने पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56 ) में कृषि पर अत्यधिक जोर दिया। अब भारत को कृषि उपज को बढ़ाने की जरूरत बहुत ही ज्यादा महसूस होने लगी।

1963 में नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) अपनी नई किस्मों को लेकर जलवायु पर काम कर रहे थे, तो इस दौरान वह भारत आए जिससे उनकी मुलाकात एम.एस. स्वामीनाथन से हुई।

1966 की भारी सूखे के कारण भारत खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था तथा इसी समय एम.एस. स्वामीनाथन ने नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) के साथ मिलकर ‘पूसा कृषि संस्थान’ में उन्नत किस्म की फसलों के विकास पर काम किया।

1965 में भारत में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे तथा उस समय के कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम थे उन्होंने गेहूं की नई किस्म के 18 हजार टन बीज को आयात किया तथा कृषि क्षेत्र में जरूरी सुधार लागू किया। 

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का कहना था कि “यह समय की मांग है”।

सरकार ने कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से किसानों को जानकारी उपलब्ध करवाई तथा सिंचाई के साधनों के विकास पर जोर दिया और किसानों को उचित दामों की गारंटी दी जिससे किसान उत्पादन के लिए प्रोत्साहित हो सके और भारत खाद्यान्न की दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सकें।

इस दौरान सरकार ने देश के 7 राज्यों के 7 चयनित जिलों में यह नए बीज प्रयोग किए जिसे गहन कृषि जिला कार्यक्रम नाम दिया गया और यह प्रयोग सफल रहा तथा वर्ष 1966- 67 में भारत में हरित क्रांति को औपचारिक तौर पर अपनाया गया जिससे देखते ही देखते भारत अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा करने लगा।

हरित क्रांति के प्रमुख घटक

हरित क्रांति विभिन्न उपायों को अपनाए जाने का परिणाम है जो कि निम्नलिखित-

1- उन्नत किस्म के बीज

हरित क्रांति के अंतर्गत High-yielding varieties (HYV) के किस्मों के बीजों का प्रयोग किया गया जिससे खाद्यान्न उत्पादन में भारी वृद्धि हुई। इन बीजों के प्रयोग से लगभग 4 से 5 गुना उत्पादन में वृद्धि होने लगी।

2- रासायनिक उर्वरक की आपूर्ति

ऊंची उत्पादकता वाले बीजों के अतिरिक्त यह रासायनिक उर्वरक ही थे जिन्होंने उत्पादन बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई वास्तव में हरित क्रांति को लाने वाली टेक्नोलॉजी को बीज एवं उर्वरक पर आधारित टेक्नोलॉजी का नाम दिया गया।

नए बीजों के विकास तथा उत्पादन को बढ़ाने के लिए उर्वरक के माध्यम से ही पौधों को बड़ी तेजी के साथ ग्रोथ किया जा सकता है जिससे उत्पादन क्षमता में भी वृद्धि होगी।

3- सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि

ऊंची उत्पादकता वाले बीज तथा उसमें रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने से पानी की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है पानी के लिए वर्षा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है। इसलिए हरित क्रांति के अंतर्गत सिंचाई सुविधाओं का विकास अहम है।

4- रासायनिक कीटनाशक एवं जीवाणुनाशी

पौधों का अच्छा विकास हो इसके लिए उर्वरक एवं सिंचाई के बाद रासायनिक कीटनाशक के प्रयोग से पौधों को विभिन्न प्रकार की बीमारियों एवं जीवाणुओं से बचाया जा सकता है।

5- मशीनीकरण

उच्च पैदावार के लिए मशीनों का प्रयोग करना अति आवश्यक है जोकि कहीं ना कहीं श्रम शक्ति को कम करता है और मशीनों के प्रयोग से कार्य क्षमता में वृद्धि होने से उत्पादन में बड़ी तेजी के साथ वृद्धि होने लगती है।

6- कृषि साख, भंडारण एवं वितरण

उचित ब्याज दर पर कृषि के लिए साख की आपूर्ति करना जिससे कृषक कृषि की नई टेक्नोलॉजी को अपनाने के लिए प्रोत्साहित होता है। जिससे कृषक नए बीज, नए उपकरण, उर्वरक एवं कीटनाशक खरीद सके।

हरित क्रांति के फलस्वरूप यह देखा गया है कि उत्पादन में बहुत बड़ी मात्रा में वृद्धि होने लगी तो इसके भंडारण की उचित व्यवस्था होना आवश्यक है जिससे खाद्यान्न को बर्बादी से भी बचाया जा सके।

जब खाद्यान्न उत्पादन एवं भंडारण समुचित तरीके से हो तो इसका वितरण की भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कि जिन जिन क्षेत्रों में खाद्यान्न की कमी है वहां पर खाद्यान्न की आपूर्ति की जा सके।

हरित क्रांति के सकारात्मक परिणाम

इसमें कोई दोराय नहीं है कि हरित क्रांति के फलस्वरुप कृषि क्षेत्र में एक नए क्रांतिकारी परिवर्तन लाएं-

1- खाद्यान्न के उत्पादन में वृद्धि

हरित क्रांति के परिणाम स्वरूप खाद्यान्न उत्पादन में बेहताशा वृद्ध हुई। उच्च गुणवत्ता युक्त बीजों एवं तकनीकी वजह से खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि होने लगी।

2- कृषि एवं गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर

कृषि क्षेत्र में नई टेक्नोलॉजी के कारण कृषि एवं गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा होने लगे।

उन्नत बीजों तथा रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि हुई जिससे कहीं ना कहीं फसलों की कटाई, सफाई एवं रखरखाव के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता पढ़ती है और एक वर्ष में, एक ही वजह दो फसलों के उगाने के कारण भी श्रम की मांग में काफी वृद्धि रहती है।

इसी तरह से यदि दूसरी ओर देखा जाए जो उद्योग कृषि पर आधारित है वहां पर श्रम की मांग बढ़ने लगती है और औद्योगिक क्षेत्र में रासायनिक खाद, कीटनाशक तथा कृषि के लिए मशीनों का निर्माण करने वाली इकाई का विकास हुआ है वहां भी रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं। और जब उत्पादन बढ़ने लगता है तो परिवहन एवं मंडियों में भी रोजगार के नए नए अवसर प्राप्त होते हैं।

3- ग्रामीण विकास

हरित क्रांति के परिणाम स्वरूप ग्रामीण विकास में तेजी आई है। ग्रामवासियों की बढ़ती हुई आय के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कई प्रकार के सार्वजनिक तथा निजी निर्माण कार्यों को प्रोत्साहन मिला है। जैसे कि स्कूल, चिकित्सा सेवाएं, सड़कें, बैंकिंग सुविधाएं आदि।

4- विदेशी मुद्रा की बचत

हरित क्रांति से पहले खाद्यान्न आपूर्ति को पूरा करने के लिए जो दूसरे देशों से आयात पर विदेशी मुद्रा खर्च होती थी अब हरित क्रांति के बाद उस विदेशी मुद्रा की बचत की जाने लगी।

5- आय में वृद्धि

कृषि की नई टेक्नोलॉजी को अपनाने के कारण उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ कृषकों की आय में भी वृद्धि हुई है। जिससे उनके जीवन स्तर में भी वृद्धि दिखाई देती है।

6- औद्योगिकरण को प्रोत्साहन

हरित क्रांति के फलस्वरूप कृषि उपकरणों की मांग बढ़ने से उन उपकरणों को बनने वाले उद्योगों का विकास हुआ है।

 साथ ही ऐसी उद्योग जो कृषि पर आधारित है उत्पादन बढ़ने पर उन उद्योगों का भी विकास हुआ है।

हरित क्रांति के नकारात्मक परिणाम

इसमें कोई संदेह नहीं है हरित क्रांति एक क्रांतिकारी स्तर पर लाभप्रद रही है परंतु इसके साथ ही हरित क्रांति के कुछ नकारात्मक परिणाम भी देखे जा सकते हैं-

1- कृषि के विकास में असंतुलन

हरित क्रांति के फलस्वरूप प्रतीत होता है कि कृषि के विकास में द्वैतवाद आ गया है। एक ओर वह उपखंड जहां पर सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध है तथा जो जलवायु की दृष्टि से गेहूं एवं चावल की खेती के लिए पूर्णत उपयुक्त है ये उपखंड तो कृषि के विकास के पथ पर निरंतर बढ़ते चले गए।

लेकिन दूसरी और वह उपखंड जहां पर सिंचाई सुविधाओं का विकास नहीं हुआ तथा गेहूं एवं चावल के लिए वहां की जलवायु उपयुक्त नहीं है। उन उपखंडों की कृषि लगभग गति हीन रही। जिसके परिणाम स्वरूप भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के कृषकों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ने लगी।

जैसा कि भारत में हरित क्रांति से हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृषि के विकास में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। लेकिन दूसरी ओर बिहार, असम, राजस्थान आदि राज्यों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है।

2- आय वितरण में भारी असमानताएं

जिन क्षेत्रों की जलवायु गेहूं एवं चावल के लिए उपयुक्त है और जहां पर सिंचाई का पर्याप्त विकास हुआ है वहां के लोगों की आय में वृद्धि हुई है। इसके विपरीत के उपखंडो में इस तरह से आय में वृद्धि नहीं हुई है।

बड़े किसान को छोटे किसानों की तुलना में हरित क्रांति से अधिक लाभ हुआ है क्योंकि बड़े किसानों को नई टेक्नोलॉज को अपनाने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध है। इसलिए टेक्नोलॉजी को अपनाने की भिन्न-भिन्न क्षमता के कारण छोटे एवं बड़े किसानों के उत्पादकता में अंतर बढ़ता जाता है इसलिए बड़े किसान एवं छोटे किसानों के बीच असमानता में निरंतर वृद्धि होती रहती है।

3- रोजगार के अवसरों में कमी

हरित क्रांति के फलस्वरूप टेक्नोलॉजी के विकास से कहीं ना कहीं रोजगार के अवसरों में कमी आई है। मशीनीकरण के प्रयोग से फसलों की बुवाई, कटाई और सफाई में श्रम की मांग को कम करता है।

4- भिन्नभिन्न फसलों के उत्पादन की वृद्धि में असंतुलन

हरित क्रांति के अंतर्गत विशेषकर गेहूं एवं चावल पर विशेष ध्यान दिया गया और इसमें उन्नत किस्म के बीजों के माध्यम से उत्पादन में भरमार वृद्धि हुई। जबकि दूसरी फसलों को नजरअंदाज किया गया। जैसे कि दलहन, तिलहन फसलों के उत्पादन में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई

5- उत्पादन लागत में वृद्धि

नई टेक्नोलॉजी के प्रयोग से उत्पादन लागत में वृद्धि होने लगी, नई नई मशीनें महंगी होने के कारण तथा छोटे खेतों में तकनीक प्रयोग करने से उत्पादन लागत में वृद्धि होने लगी।

https://youtu.be/OXYoD1RX4Vo

 

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