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Fundamental Rights मौलिक अधिकार

Fundamental Rights मौलिक अधिकार

अधिकार में दो पक्ष होते हैं, जिसमें की एक प्रदान करने वाला होता है दूसरा प्राप्त करने वाला होता है। अधिकार किसी समूह, सरकार, संस्था व्यक्ति के विरुद्ध प्राप्त होते हैं।

अधिकार व्यक्ति का अन्य के विरुद्ध दावा अथवा गारंटी होती है। ताकि वह अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।

अधिकार को परिभाषित करते हुए एक ब्रिटिश विद्वान प्रोफेसर लासकीन ने अपनी पुस्तक ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स में लिखा है- 

“अधिकार सामाजिक जीवन की ऐसी परिस्थितियां है जिसके बिना साधारण मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता है।”

प्राचीनकाल व मध्यकाल में अधिकारों की कोई संकल्पना नहीं थी क्योंकि वहां व्यक्तियों को कोई महत्व नहीं था। उस समय वहां पर राज्य व राजा को महत्व दिया जाता था। राजा को ही सब कुछ माना जाता था अगर राजा कुछ व्यक्तियों को देना चाहे अधिकार के संदर्भ में तो दे सकता है अगर ना देना चाहे तो नहीं दे सकता था वह सब उसकी मर्जी पर निर्भर करता था लोगों के पास कोई अधिकार नहीं होते थे।

https://youtu.be/GlLrazKTTYs

अधिकारों का विकास

आधुनिक युग सर्वप्रथम 15वी  16वी शताब्दी में अधिकारों की मांग उठी।

लिखित रूप में सर्वप्रथम ब्रिटेन की राजा ने 1215 में वहां के नागरिकों को कुछ अधिकार प्रदान किए अधिकारों को पहली बार संस्थागत रूप से दिए गए इसलिए इसे अधिकारों का मैग्नाकार्टा 1215 कहा गया ।

ब्रिटेन में 1688 में नागरिकों की स्वतंत्रता, अधिकारों, समानता के लिए क्रांति हुई किसे गौरवपूर्ण क्रांति कहा जाता है इस क्रांति में लोग अपने अधिकारों की मांग कर रहे थे।

1688 की गौरवपूर्ण क्रांति के दौरान ही ब्रिटिश विद्वान जार्न ला ने अपनी पुस्तक में लिखा लोगों को अधिकार मिलना चाहिए।

इस क्रांति के परिणाम स्वरूप 1689 में ब्रिटिश संसद ने यह कानून पास किया तथा अधिकारों को विधिक दर्जा दिया गया। अधिकारों के लिए इसे अधिकारों का घोषणा पत्र कहा जाता है या बिल ऑफ राइट्स के माध्यम से ब्रिटेन में कानूनी दर्जा प्राप्त हुआ। वहां की संसद ने अपने विरुद्ध कानून बना कर दिया।

संयुक्त राज्य अमेरिका में मौलिक अधिकार

पहली बार USA में 1776 में जो क्रांति हुई उसके बाद संविधान सभा का गठन किया गया अमेरिका की संविधान सभा ने 1787 में संविधान बनाया अमेरिका का संविधान 1789 में लागू किया गया अमेरिका के मूल संविधान में कोई भी मौलिक अधिकार नहीं दिए गए थे। प्रथम 10 संशोधन के मध्यम से मौलिक अधिकार दिए गए प्रथम 10 संशोधन ही मौलिक अधिकार से संबंधित है। इसलिए इन प्रथम 10 संशोधनों को बिल ऑफ राइट्स कहा जाता है। दुनिया का पहला देश बना जिसने संविधान में लोगों को मौलिक अधिकार दिए।

इसके बाद समय-समय पर दुनिया के अन्य देशों ने भी मौलिक अधिकारों को अपने संविधान में जगह दी।

भारत में ब्रिटेन औपनिवेशिक शासन काल चल रहा था उस समय औपनिवेशिक शासन काल के दौरान ब्रिटिश सरकार भारतीयों का अनेक प्रकार से शोषण करती थी सामाजिक, आर्थिक शोषण करती थी। इस शोषण के क्रम में भारतीय अपने शोषण के विरुद्ध में आंदोलन चला रहे थे तथा भारतीयों के द्वारा अनेक संगठन बनाएंगे सामाजिक, राजनीतिक संगठन के माध्यम से आंदोलन चलाए गए इन सभी संगठनों का उद्देश्य था कि हम भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई लड़े। इन संगठनों की मांग कई बार ब्रिटिश सरकार स्वीकार कर लेती कई बार अस्वीकार करती इसलिए एक के बाद एक आंदोलन चलाए गए।

1916 में होमरूल आंदोलन

1920 में असहयोग आंदोलन

1930 में सविनय आंदोलन

1940 में  सवज्ञया आंदोलन

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन।

मौलिक अधिकारों की मांग पहली बार 1931 में जो कांग्रेस का कराची अधिवेशन हुआ उसमें की गई जिसके अध्यक्ष सरदार पटेल थे। सरदार पटेल ने यह प्रस्ताव रखा कि भारतीयों को मौलिक अधिकार मिलने चाहिए जिसे कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को पास कर दिया लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इन अधिकारों को नहीं दिया।

1946 में कैबिनेट मिशन की रिपोर्ट के आधार पर संविधान सभा का गठन किया गया उस संविधान सभा में एक कमेटी बनाई, मौलिक अधिकार कॉमेटी जिसके अध्यक्ष सरदार पटेल थे इसमें सिफारिश की गई थी अब भारत आजाद हो रहा है अब भारत के नागरिकों , व्यक्तियों को मौलिक अधिकार दिए जाने चाहिए इसी की सिफारिश के आधार पर संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकार का प्रावधान किया गया।

मौलिक अधिकार

भारतीय संविधान का भाग- 3 

मौलिक अधिकारों का प्रावधान भारतीय संविधान के भाग 3 में है जोकि अनुच्छेद 12 से 35 तक है।

मौलिक अधिकार व्यक्ति तथा नागरिकों के राज्यों के विरुद्ध ऐसे मुलभुता हुए हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।

अनुच्छेद– 12, राज्य की परिभाषा

संघ की विधायका , संघ की कार्यपालिका तथा राज्य की विधायिका , राज्य की कार्यपालिका तथा स्थानीय निकाय राज्य के अंतर्गत आते हैं।

अनुच्छेद -13, विधि की परिभाषा

मौलिक अधिकारों को असंगत तथा अल्पीकरण करने वाली विधि उस सीमा तक शून्य माना जाएगा जिस सीमा तक मौलिक अधिकार का हनन हो रहा हो।

अनुच्छेद 13 में विधि की परिभाषा दी गई है तथा यह प्रावधान है कि कोई भी विधि मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकती है।

अनुच्छेद-13:1

 यदि राज्य कोई विधि बनाता है यदि उस विधि से मौलिक अधिकार का हनन होता है तो मौलिक अधिकार को प्रभावित करने वाली विधि उस सीमा तक शून्य मानी जाएगी जिस सीमा तक मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है।

अनुच्छेद -13: 2

 राज्य कोई ऐसी विधि नहीं बनाएगा जिससे मौलिक अधिकार प्रभावित होते हैं अगर ऐसी विधि बनाई जाती है तो ऐसी विधि उस सीमा तक शून्य होगी जिस सीमा तक मौलिक अधिकार का हनन हो रहा हो।

अनुच्छेद-13:3

 विधि का अर्थ है विधि का बल रखने वाले अधिनियम, अध्याय देश, आदेश, परंपरा रूड़ी है।

अनुच्छेद -13: 4

संविधान संशोधन विधि नहीं है, (24वे संविधान संशोधन 1971 द्वारा जोड़ा गय)

इसका अर्थ है कि मौलिक अधिकार विधि के सापेक्ष अधिक महत्वपूर्ण है।

न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धांत

विधायक का द्वारा बनाया गया कोई अधिनियम तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किया गया कोई आदेश यदि इससे मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है तो सर्वोच्च न्यायालय इसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

पृथक करीयणता का सिद्धांत

यदि कोई अधिनियम अथवा देश का कोई एक अंश या भाग मौलिक अधिकार का हनन करता है तो उस अंश या भाग को शून्य समझा जाएगा ना कि पूरा अधिनियम को।

आच्छादन का सिद्धांत (ग्रहण का सिद्धांत)

किसी विधि अथवा अधिनियम पर कुछ समय के लिए ग्रहण लग जाता है या वह प्रचलन में ना हो, क्योंकि इससे मौलिक अधिकारों का हनन होता है। किंतु बाद में किसी कारण उस विधि तथा अधिनियम से मौलिक अधिकार प्रभावित ना हो तो ग्रहण हट जाता है और वह विधि, अधिनियम लागू हो जाते हैं।

शंकरी प्रसाद वाद 1951

हमारे मौलिक अधिकार कहते हैं कि इसमें संशोधन नहीं हो सकता है लेकिन अनुच्छेद 368 संशोधन की प्रक्रिया बताता है, जब 1951 में मौलिक अधिकारों में पहली बार संशोधन हुआ तो 1951 में सर्वोच्च न्यायालय में यह केस पहुंचा।

शंकरी प्रसाद केस 1951 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 13 में लिखा है कि कोई भी विधि या कानून मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकती है यह सही है और अनुच्छेद 368 में लिखा है कि मौलिक अधिकारों में कहीं भी संशोधन किया जा सकता है यह भी सही है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम रूप से कहा कि मौलिक अधिकारों को विधि परभावित नहीं कर सकती है बल्कि संशोधन हो सकता है इसीलिए यह संशोधन संवैधानिक है।

गोलकनाथ वा 1967

इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय में मौलिक अधिकारों का महिमामंडन करते हुए निर्णय दिया कि-

कोई भी विधि  या कानून मौलिक अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगा (जो कि अनुच्छेद 13 भी कहता है,)

और ना ही अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों में संशोधन हो सकता है।

क्योंकि अनुच्छेद 368 संविधानिक संशोधन की प्रक्रिया का उल्लंघन करता है ना की शक्ति का, आपको यह शक्ति  नहीं दी जाती है की मौलिक अधिकारों में छेड़छाड़ करे बल्कि 368 में प्रक्रिया का ही उल्लेख है।

24 वा संविधानिक संशोधन 1971

इसके अंतर्गत सरकार ने अनुच्छेद 368 में संशोधन करके जोड़ा कि

368-संविधान संशोधन की प्रक्रिया और शक्ति को जोड़ा गया।

इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 13 में खंड 4 करके जोड़कर लिखा गया कि संविधान संशोधन विधि नहीं है।

फिर इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में एक केस आया जो कि ये है

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्यवाद 1973

यह अब तक सर्वाधिक और ऐतिहासिक वाद है क्योंकि इस वाद में 13 जजों की एक बेंच बैठी और निर्णय दिया कि 24 व संशोधन संवैधानिक है और कहा कि-

* कोई भी विधि या कानून मौलिक अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकती है।

* अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों सहित संविधान में कहीं भी संशोधन हो सकता है।

* किंतु मूलभूत ढांचे में संशोधन नहीं हो सकता है।

मूलभूत ढांचे का सिद्धांत

मूलभूत ढांचे का उल्लेख संविधान में नहीं है यह न्यायिक निर्णयों का एक परिणाम है। पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद वाद 1973 में मूलभूत ढांचे का सिद्धांत दिया और अपने निर्णय में कहा कि संविधान के मूलभूत ढांचे को ना कोई विधियां, कानून और ना ही कोई संवैधानिक संशोधन मूलभूत ढांचे को प्रभावित कर सकते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने मूलभूत ढांचे की परिभाषा दी की मूलभूत ढांचा वह है जिन मूल्यों और उद्देश्यों पर संविधान निर्भर करता है जो कि संविधान की आत्मा है, जो संविधानिक मूल्य है तथा हमारे संविधान निर्माताओं के जो उद्देश्य थे वह  मूलभूत ढांचा है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मूलभूत ढांचे की अंतिम परिभाषा नहीं दी जा सकती है समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय यह बताएगा कि मूलभूत ढांचा क्या है सर्वोच्च न्यायालय ने निम्न को मूलभूत ढांचा माना है।

* संसदीय लोकतंत्र

* गणतंत्र

* धर्मनिरपेक्षता

* विधि का शासन

* न्यायिक पुनरावलोकन आदि, आदि, आदि।

42वां संविधान संशोधन 1976

इस संविधान संशोधन के तहत अनेकों संशोधन किए गए इसलिए इसे मिनी कॉन्स्टिट्यूशन भी कहा जाता है इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड 4 व 5 जोड़ा गया और उल्लेख किया गया कि संविधान में कहीं भी संशोधन किया जा सकता है और उसे किसी भी आधार पर न्यायालय में चैलेंज नहीं किया जा सकता है।

मिनरवा मिलस वाद 1980

इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि 24 वे संविधान संशोधन द्वारा जो अनुच्छेद 368 मे खंड 4 व 5 जोड़ा गया है वह असंवैधानिक है क्योंकि इससे संविधान का मूलभूत ढांचा प्रभावित होता है इस वाद में वही निर्णय आया जो केशवानंद भारती वाद में था-

* कोई भी विधि या कानून मौलिक अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकते हैं।

* अनुच्छेद 368 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों में संशोधन हो सकता है।

* लेकिन मूलभूत ढांचे को ना ही कोई विधि और ना ही कोई कानून प्रभावित कर सकता है तथा ना ही कोई संवैधानिक संशोधन करके इसे प्रभावित किया जा सकता है ‌।

https://youtu.be/OXYoD1RX4Vo

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