समावेशी स्कूल का निर्माण देश और समाज के लिए काफी महत्वपूर्ण है जिसमें सभी लोगों का समावेश होता है। जब सभी लोगों को वह चाहे किसी भी धर्म जाति, संप्रदाय, लिंग से हो बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों को शिक्षा प्रदान की जाती है तथा सभी लोगों शिक्षा के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं तो उससे समावेशी स्कूल का निर्माण हो सकेगा।
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विशेष शिक्षा अध्ययन का एक क्षेत्र है जो उन छात्रों से संबंधित है जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक या किसी भी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त हैं उन्हें शिक्षा की उचित अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं। जिसके अंतर्गत उन बच्चों को शिक्षा दी जाती है जो सामान्य बच्चों से शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक विशेषताओं में थोड़े अलग होते हैं। सामान्य बच्चों की तुलना में ऐसे बच्चों की आवश्यकताएँ भी विशिष्ट होती है। इसलिए वे ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चे’ कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, यह सभी प्रकार के विकलांग शिक्षार्थियों से संबंधित है।
विशेष शिक्षा का तात्पर्य केवल विद्यार्थी को पढ़ाना नहीं है। यह सुनिश्चित करता है कि छात्र को अपने जीवन में सफल होने के लिए सभी प्रकार के संसाधनों और अवसरों तक पहुंच प्राप्त हो।
विशेष शिक्षा के अंतर्गत सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक बच्चे को, उनकी क्षमताओं की परवाह किए बिना, सीखने, बढ़ने और सफल होने का अवसर मिले।
1- बेहतर शैक्षिक प्रदर्शन
विशेष शिक्षा सेवाएँ और आवास विकलांग छात्रों को उनके शैक्षणिक प्रदर्शन को बेहतर बनाने और उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करता हैं।
2- समाजीकरण में वृद्धि
विशेष शिक्षा सेवाएँ विकलांग छात्रों को सामाजिक कौशल विकसित करने और अपने साथियों के साथ संबंध बनाने में मदद कर सकती हैं।
3- समावेशिता को बढ़ावा देना
समावेशन में विशेष शिक्षा का काफी महत्व है। एक समावेशी समाज वह है जहां सभी क्षमताओं के लोगों का स्वागत किया जाता है, उन्हें महत्व दिया जाता है और सक्रिय रूप से भाग लिया जाता है। विशेष शिक्षा दिव्यांग छात्रों को उनके समुदायों के सक्रिय सदस्य बनने के लिए तैयार करके समावेशिता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
4- विशिष्ट छात्रों की योग्यताओं और क्षमताओं का विकास
विशेष शिक्षा के माध्यम से विशिष्ट छात्रों की समस्याओं के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे उनकी योग्यताओं और क्षमताओं का भरपूर विकास किया जाता है।
5- शारीरिक एवं मानसिक विकास
विशेष शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास करने का भरपूर प्रयास किया जाता है और इसके अतिरिक्त उनकी शारीरिक क्षमताओं को विकसित करने का प्रयास किया जाता है।
एकीकृत शिक्षा, वह शिक्षा है जिसके अंतर्गत शारीरिक रूप से बाधित या असक्षम बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ सामान्य कक्षा में एक साथ शिक्षा दी जाता है, एकीकृत शिक्षा में विकलांग बच्चों के लिए विशेष सुविधा नहीं होती है। दुसरे शब्दों में कहे तो, एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें विशिष्ट बालकों (Special Child) को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।
1- मितव्ययिता पर आधारित
विशिष्ट शिक्षा देने के लिए विशेष अध्यापक, विशेष प्रकार की शिक्षण विधियाँ, विशेष पाठ्यक्रम व विशेष शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता होती है जो काफी खर्चीली होती है। इसके विपरीत एकीकृत शिक्षा सामान्य विद्यालयों में प्रदान की जाती है जो कम खर्चीली है।
2- प्राकृतिक वातावरण
सामान्य विद्यालयों में असमर्थ बच्चों को प्राकृतिक वातावरण प्राप्त होता है। असमर्थ बच्चे समर्थ बच्चों के साथ रहते-रहते अपने आपको सहजता से उनके साथ समायोजित कर लेते हैं।
3- सामाजिक मूल्यों का विकास
समाज में सभी प्रकार के (समर्थ व असमर्थ) बच्चे होते हैं। समन्वित शिक्षा द्वारा समर्थ व असमर्थ दोनों प्रकार के बच्चों को समान शिक्षित किया जाता है। सभी प्रकार के वर्गों के बालक आपस में मिलते हैं। इस प्रकार उनमें सामाजीकरण की भावना का विकास होता है। उनमें सहयोग, सहायता, समायोजन विभिन्न प्रकार के सामाजिक मूल्यों का विकास होता है।
4- मानसिक विकास
विशिष्ट बच्चों को विशेष विद्यालयों प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। इससे उनमें हीन भावना पैदा होती है कि हमें सामान्य बच्चों के साथ क्यों नहीं पढ़ाया जा रहा। इस बात का उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है लेकिन एकीकृत शिक्षा, विशिष्ट बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ सामान्य विद्यालयों में प्रदान की जाती है, इससे उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।
5- समानता का सिद्धांत पर आधारित
एकीकृत शिक्षा समानता के सिद्धांत पर आधारित है जिसमें सभी छात्रों के साथ समान व्यवहार किया जाता है बिना किसी भेदभाव के सभी विद्यार्थियों को एक समान शिक्षा और शिक्षा के अवसर प्रदान की जाती है।
सभी स्कूलों में सभी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा के उचित अवसर उपलब्ध करवाना। विशेष छात्रों के लिए जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक या किसी भी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त हैं उनके लिए विद्यालय में उचित सुविधा प्रदान करके बाकी छात्रों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।
1- शिक्षा का सार्वभौमीकरण
शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्त करने के लिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता है। सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के अनुसार : समावेशन के बिना शिक्षा का सार्वभौमीकरण हासिल नहीं किया जा सकता। इसमें सभी लोगों को शिक्षा के उचित अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं।
2- समाजीकरण का विकास
समावेशी शिक्षा सेवाएँ विकलांग छात्रों को सामाजिक कौशल विकसित करने और अपने साथियों के साथ संबंध बनाने में मदद कर सकती हैं। जिसमें सामान्य छात्रों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।
3- समावेशिता को बढ़ावा देना
समावेशन में समावेशी शिक्षा का काफी महत्व है। एक समावेशी समाज वह है जहां सभी क्षमताओं के लोगों का स्वागत किया जाता है, उन्हें महत्व दिया जाता है और सक्रिय रूप से भाग लिया जाता है। विशेष शिक्षा दिव्यांग छात्रों को उनके समुदायों के सक्रिय सदस्य बनने के लिए तैयार करके समावेशिता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
4- विशिष्ट छात्रों की योग्यताओं और क्षमताओं का विकास
समावेशी शिक्षा के माध्यम से विशिष्ट छात्रों की समस्याओं के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे उनकी योग्यताओं और क्षमताओं का भरपूर विकास किया जाता है।
5- शारीरिक एवं मानसिक विकास
समावेशी शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास करने का भरपूर प्रयास किया जाता है और इसके अतिरिक्त उनकी शारीरिक क्षमताओं को विकसित करने का प्रयास किया जाता है।
समावेशन एक ऐसे वातावरण को संदर्भित करता है जहां हर कोई सम्मानित और मूल्यवान महसूस करता है, और उनकी पृष्ठभूमि या पहचान की परवाह किए बिना समान अवसर प्राप्त होते हैं। इसमें हर एक लोगों का समावेश किया जाता है बिना किसी भेदभाव के सब के साथ सम्मान व्यवहार एवं उन्हें उचित अवसर प्राप्त होते हैं।
1- व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत
समावेशन में व्यक्तिगत विविधता देखी जाती है और इसमें व्यक्तिगत विविधता का भरपूर मात्रा में समावेश होता है और इस विविधता का ही इसमें सम्मान किया जाता है। इसमें अनेक प्रकार की व्यक्तिगत विभिन्नता का संयुक्त समावेशन होता है।
2- समानता का सिद्धांत
समावेशन समानता के सिद्धांत पर आधारित है जिसमें हर एक जाति, वर्ग, समुदाय के लोगों के साथ समान पूर्वक व्यवहार किया जाता है। इसमें बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों का समावेश होता है जिसमें सभी लोगों को उचित एवं समान अवसर प्राप्त होते हैं।
3- भागीदारी का सिद्धांत
सभी लोगों की भागीदारी यानी की चाहे किसी का धर्म कुछ भी क्यों ना हो तथा जाति, समुदाय, लिंग की प्रवाह किए बिना सभी लोगों की उचित भागीदारी होती है जिसमें किसी भी तरह का बैरियर नहीं होता है जो समावेशन में संभव है।
4- सशक्तिकरण का सिद्धांत
समावेशन में हर एक लोगों के हितों को संरक्षित करने का प्रयास किया जाता है जिसमें सभी लोगों को सशक्त करने के लिए भरपूर प्रयास एवं उन्हें उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं जिसकी सहायता से लोगों का सशक्तिकरण किया जा सके।
समावेशन के लाभ
समावेशन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हर एक लोगों का समावेश होता है। समावेशन के इनके अनेक लाभ है जो निम्नलिखित प्रकार से है-
1- सामाजिकता का विकास
यदि सभी लोगों का समावेश होता है बिना किसी भेदभाव के तो इससे लोगों में सामाजिकता का विकास हो पता है। लोग एक दूसरे के महत्वता के बारे में अवगत होते हैं और समाज में बंधुत्व के भाव से रहने लगते हैं।
2- सर्वांगीण विकास
जब जब बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों का समावेश होता है तो इससे लोगों के व्यक्तित्व का विकास हो पता है क्योंकि उन्हें बिना किसी भेदभाव के उचित से उचित अवसर अपने विकास के लिए मिल पाते हैं।
3- समानता पर आधारित
समावेशन में समानता पाई जाती है जिसमें किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का कोई भी भेदभाव नहीं किया जाता है। इसमें सभी लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाता है जिसके तहत सभी लोगों के डेवलपमेंट को प्रोत्साहन मिलता है।
4- विकास के लिए उचित अवसर
समावेशन के तहत विकास के उचित अवसर उपलब्ध होते हैं क्योंकि इसमें सभी लोगों को बड़ी आसानी से बिना किसी भेदभाव के उनके विकास के लिए उचित अवसर मिल पाते हैं जिससे लोगों का विकास सुनिश्चित हो पता है।
5- बंधुत्व की भावना को बढ़ावा
जब समावेशन में सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के समावेशित किया जाता है तो इसे स्वाभाविक है कि बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहन मिलता है जिसमें लोग भाईचारे की भावना के साथ रहने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।
सभी स्कूलों में सभी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा के उचित अवसर उपलब्ध करवाना। विशेष छात्रों के लिए जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक या किसी भी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त हैं उनके लिए विद्यालय में उचित सुविधा प्रदान करके बाकी छात्रों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व
समावेशी शिक्षा की आवश्यकताएं एवं महत्व निम्नलिखित प्रकार से है-
1- शिक्षा का सार्वभौमीकरण
शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्त करने के लिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता है। सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के अनुसार : समावेशन के बिना शिक्षा का सार्वभौमीकरण हासिल नहीं किया जा सकता। इसमें सभी लोगों को शिक्षा के उचित अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं।
2- समाजीकरण का विकास
समावेशी शिक्षा सेवाएँ विकलांग छात्रों को सामाजिक कौशल विकसित करने और अपने साथियों के साथ संबंध बनाने में मदद कर सकती हैं। जिसमें सामान्य छात्रों के साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।
3- समावेशिता को बढ़ावा देना
समावेशन में समावेशी शिक्षा का काफी महत्व है। एक समावेशी समाज वह है जहां सभी क्षमताओं के लोगों का स्वागत किया जाता है, उन्हें महत्व दिया जाता है और सक्रिय रूप से भाग लिया जाता है। विशेष शिक्षा दिव्यांग छात्रों को उनके समुदायों के सक्रिय सदस्य बनने के लिए तैयार करके समावेशिता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
4- विशिष्ट छात्रों की योग्यताओं और क्षमताओं का विकास
समावेशी शिक्षा के माध्यम से विशिष्ट छात्रों की समस्याओं के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे उनकी योग्यताओं और क्षमताओं का भरपूर विकास किया जाता है।
5- शारीरिक एवं मानसिक विकास
समावेशी शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास करने का भरपूर प्रयास किया जाता है और इसके अतिरिक्त उनकी शारीरिक क्षमताओं को विकसित करने का प्रयास किया जाता है।
6- विविधता की पहचान
समावेशी शिक्षा बच्चों के विभिन्न विकारों, जैसे-शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदि की पहचान की जाती है। विभिन्न विकारों के आधार पर बच्चों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, संवेगात्मक एवं सृजनात्मक विकास के अवसर प्रदान किया जाता है।
7- सामाजिक समानता की भावना जागृत करने हेतु
सामाजिक समानता का पहला पाठ स्कूलों में पढ़ाया जाता है। समावेशी शिक्षा इसके लिए अत्यन्त उपयुक्त है।
8- शिक्षा का स्तर बढ़ाने हेतु
समावेशी शिक्षा न केवल ‘सबके लिए शिक्षा बाल्कि यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर आधारित है। इस ‘शिक्षा प्रणाली में सभी बच्चों के मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के मूलभूत सिद्धान्त पर पाठ्यक्रम लचीला बनाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। तो स्पष्ट है कि ऐसी शिक्षा प्रणाली से गुणात्मक शिक्षा का विकास होगा।
सामान्य अर्थों में विकलांगता ऐसी शारीरिक एवं मानसिक अक्षमता है जिसके चलते कोई व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों की तरह किसी कार्य को करने में अक्षम होता है। विकलांगता एक व्यापक शब्द है जो किसी व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक विकास में किसी प्रकार की कमी को बताता है।
विकलांग व्यक्तियों की अधिगम में समस्याएं
विकलांगता के प्रभाव बड़े ही कष्टदायक होते है। जो कि विकलांगों के प्रति प्राय लोगों में शिष्टाचार और सत्यता का भाव दिखाई देता है। विकलांगों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं दिखाते हैं। तो उन पर व्यंग्य कसते हैं।उनका मजाक उड़ाते हैं। उनको अपनी भावनाओं का शिकार बनाते हैं समाज में घोर निराशा का वातावरण बन जाता है। लोगों में विकलांगों के प्रति कोई सहानुभूति और संवेदना नहीं रह जाता है। इस प्रकार विकलांगता के प्रति समाज सजग नही रहता है। व्यक्तियों को अधिगम एवं उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करने में अनेक प्रकार की समस्याएं आती है जो समस्याएं निम्नलिखित प्रकार से है-
1- सामाजिक समायोजन संबंधी समस्याएँ
विकलांग व्यक्तियों के संदर्भ में यह देखा जाता है कि वह अन्य व्यक्तियों एवं समाज से करता जाता है क्योंकि समाज में अनेक प्रकार से उनके साथ भेदभाव किया जाता है जिसके चलते वह व्यक्ति समाज में उचित समायोजन स्थापित नहीं कर पता है जो विकलांग व्यक्ति के लिए अधिगम की सबसे बड़ी समस्या का कारण बन जाता है।
2- संप्रेषण समस्याएँ
श्रवण-विकलांगता वाले यानी बहरे व्यक्तियों में संप्रेषण की मुख्य समस्या पाई जाती है, और इस समस्या के बहुत से परिणाम निकलते हैं। इससे समाजीकरण यानी मिलनसारिता और अनुशासन की समस्या उत्पन्न होती है। जिसके चलते उन्हें अधिगम में समस्याएं उत्पन्न होती है।
3- पर्याप्त संसाधनों की कमी
यदि विकलांग व्यक्तियों के लिए पर्याप्त संसाधनों का अभाव रहता है तो इसके चलते उन्हें अधिगम में समस्याएं होती है क्योंकि विकलांग व्यक्तियों को अधिगम के लिए विशेष संसाधनों की आवश्यकताएं होती है।
4- हीन भावना की समस्याएं
विकलांग व्यक्ति को समाज में हीन भावना से देखा जाता है जिसके चलते उन्हें आगे बढ़ाने में अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना होता है क्योंकि जब एक विकलांग व्यक्ति कुछ चीज सीखना है या समाज में वह प्रवेश करता है उसके साथ अच्छा बर्ताव न होने पर वह दोबारा सीखने की इच्छा जाहिर ही नहीं करेगा।
5- शरीर की अपर्याप्तता
विकलांग व्यक्तियों को शरीर की अपर्याप्तता भी अधिगम में समस्या का कारण बनती है जिनके चलते वह सामान्य व्यक्ति की तरह सीख नहीं पाते हैं, जो हर संभव उनके साथ यह समस्या रहती है।
आकलन प्रदर्शन को मापने की एक प्रक्रिया है। यह छात्रों के ज्ञान का भी परीक्षण करता है। इसके तहत छात्रों के अध्ययन के दौरान उनकी परफॉर्मेंस का आकलन किया जाता है और इसी आकलन के अनुसार शिक्षण प्रक्रिया में भी सुधार किया जाता है आकलन सूचनाओं को एकत्रित करने की प्रक्रिया है जिसमें विद्यार्थियों के संदर्भ में किसी विषय के बारे में निर्णय प्रदान करता है। आकलन में छात्रों को बिना अंक अथवा ग्रेडिंग के फीडबैक दिया जाता है ताकि शैशिक उद्देश्यों की प्राप्ति में पूर्व सुधार सभव हो सके। आकलन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी ज्ञात उद्देश्य या लक्ष्य के सापेक्ष जानकारी प्राप्त की जाती है। आकलन के द्वारा ही छात्रों की क्षमताओं के बारे में जानकारी मिल पाती है और छात्रों को किस क्षेत्र में ओर ज्यादा सुधार की आवश्यकता है यह सब आकलन के द्वारा ही संभव होता है जो वास्तव में छात्र को बेहतर बनाने के लिए अग्रसर होता है।
बच्चों की प्रोफाइल जानने में आकलन का महत्व
बच्चों की संपूर्ण प्रगति की प्रोफाइल को जानने में आकलन का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहता है जिसके द्वारा बच्चों के बारे में संपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है जिसके तहत बच्चों के बेहतर संदर्भ में कार्य किया जाता है। इस तरह से बच्चों की प्रोफाइल जानने में आकलन का निम्नलिखित महत्व है-
1- छात्र की प्रगति के बारे में सूचित
आकलन के तहत छात्र की प्रगति के बारे में जानकारी मिल पाती है जिससे यह मालूम हो पता है कि छात्र की वास्तविक प्रगति क्या है और किस तरह से आगे इस पर कार्य करने की आवश्यकता है तो इस तरह से छात्र की संपूर्ण प्रगति के बारे में जानकारी मिल पाती है।
2- आकलन के तहत छात्र की क्षमताओं से अवगत
छात्र के कार्य करने की क्षमताओं का पता आकलन के तहत बड़ी ही बखूबी से लगा पाता है की छात्रा किस-किस कार्य को भीतर तरीके से कर सकता है और उन कार्यों को करने की उनमें क्षमता विद्यमान है तो यह सब आकलन के द्वारा ही पता कर पाना संभव है।
3- छात्र कमियों को दूर करने के संदर्भ में
आकलन के द्वारा छात्रों की कमियों को चिन्हित किया जाता है और उसके बाद उन कमियों को दूर करने का प्रयास निरंतर किया जाता है जिससे छात्रा को और भीतर बनाया जाता है।
4- छात्र व्यवहार की जानकारी
आकलन के द्वारा छात्रों के संपूर्ण व्यवहार की जानकारी प्राप्त होती है और उन व्यवहारों को आकलन के द्वारा ही इस तरह से उपयोगी बनाया जाता है की जो छात्रों के लिए सीखने के संदर्भ में सकारात्मक हो और छात्रों में अनुशासन एवं नैतिकता के गुणों को विकसित किया जा सके।
5- शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों से अवगत
छात्रों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति भिन्न-भिन्न होती है और इन इन बिन बिन स्थितियों को आकलन के द्वारा ही समझा जा सकता है की किन-किन छात्रों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति क्या है जिसके आधार पर शिक्षण कार्य सार्थकता के साथ संपन्न करवाया जा सकता है।
पाठ योजना से आशय शिक्षक की उस तैयारी से है जिसमें वह कक्षा में प्रवेश करने से पहले यह निश्चित कर लेता है कि उसे विद्यार्थियों को क्या, क्यों, कैसे और किसकी सहायता से पढ़ाना हैं। शिक्षक पाठ योजना के माध्यम से वह संपूर्ण रूप से यह खाका तैयार कर लेता है कि मुझे किस तरह से शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करना है जिससे संपूर्ण शिक्षण सार्थकता के साथ संपन्न हो सके।
पाठ्यचर्या के अनुकूल पाठ योजना कैसे बनाई जाए
पाठ्यचर्या के अनुकूल पाठ योजना को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है
- पाठ्यचर्या के Topic का चयन
एक शिक्षक सबसे पहले पाठ योजना को तैयार करने के दौरान पाठ्यचर्या के अनुकूल टॉपिक का चयन करता है जिस टॉपिक के आधार पर आगे शिक्षण कार्य संचालित किया जाता है।
- शिक्षण सहायक सामग्री का चयन
पाठ्यचर्या के अनुकूल पाठ योजना तैयार करने में एक शिक्षक, शिक्षण सहायक सामग्री का उचित प्रयोग करता है जिसमें शिक्षक पहले से ही उपयुक्त शिक्षण सामग्री का चयन कर लेता है।
- शिक्षण विधि का चयन
शिक्षक के द्वारा पाठ योजना तैयार करने के दौरान यह सुनिश्चित किया जाता है कि शिक्षण कार्य में किस विधि का प्रयोग किया जाएगा जिससे शिक्षण कार्य भीतर तरीके से संपन्न हो सके।
पाठ योजना की आवश्यकताएं/महत्व/उद्देश्य
पाठ योजना की आवश्यकताएं/महत्व/उद्देश्य को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है-
- निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति
पाठ योजना शिक्षक कार्य को संपन्न करने से पहले एक शिक्षक के द्वारा बनाई जाती है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि शिक्षक के उद्देश्य को किस तरह से प्राप्त करना है।
- शिक्षण विधि चयन में सहायक
एक शिक्षक के द्वारा पाठ योजना को बनाने के दौरान यह पहले से सुनिश्चित किया जाता है कि शिक्षण के दौरान किस विधि का प्रयोग करना है जिससे सार्थकता के साथ शिक्षण कार्य संपन्न किया जा सके।
- शिक्षण सहायक सामग्री चयन में सहायक
पाठ योजना को तैयार करने के दौरान शिक्षक के द्वारा शिक्षण सहायक सामग्री का चयन पहले से किया जाता है जिसके द्वारा शिक्षण कार्य बेहतर तरीके से संपन्न हो सके।
- समय का सदुपयोग
जब पाठ योजना शिक्षण कार्य को शुरू करने से पहले एक शिक्षक के द्वारा तैयार की जाती है तो इसमें शिक्षण के उद्देश्य को ध्यान में रखकरके सभी प्रकार के रणनीतियां तैयार की जाती है जिससे समय का वास्तव में सदुपयोग हो पाता है।
- प्रभावशाली शिक्षण में सहायक
पाठ योजना के माध्यम से यह प्रयास किया जाता है कि किस तरह से प्रभावशाली तरीके से शिक्षण कार्य को संपन्न किया जा सके जिसमें शिक्षण की विधियां तथा शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग उचित तरीके से किया जाता है।
- आत्मविश्वास की प्राप्ति
जब पाठ योजना के माध्यम से शिक्षण के उद्देश्यों के अनुरूप संपूर्ण शिक्षण कार्य संचालित किया जाता है तो इसे वास्तव में छात्र एवं शिक्षकों की आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। क्योंकि इससे छात्रों को केंद्र में रख करके सभी प्रकार के शिक्षण गतिविधियां संचालित होती है।
शिक्षण अधिगम सामग्री (Teaching Learning Material)
शिक्षण अधिगम सामग्री वह सामग्री है जिसका प्रयोग शिक्षक शिक्षण कार्य को बेहतर तरीके से संपन्न करने में करता है। शिक्षण सहायक सामग्री शिक्षकों के ऐसे साधन है जिसके माध्यम से वह अपनी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को स्थाई एवं रोचक बनाने का कार्य करते है। शिक्षण अधिगम सामग्री के द्वारा शिक्षण कार्य को बड़ी सरलता से तथा सार्थकता के साथ पूरा किया जाता है क्योंकि इसकी सहायता से शिक्षण आसान और सुविधाजनक होता है। शिक्षण अधिगम सामग्री के अंतर्गत चित्र, ग्लोब, चार्ट, मॉडल, वास्तविक घटनाएं आदि शामिल होता है।
शिक्षण अधिगम सामग्री का महत्त्व
शिक्षण अधिगम सामग्री के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है-
1- पाठ से सम्बन्धित तथ्यों को समझाने में सरलता
प्रत्येक विषय में कुछ न कुछ क्लिष्ट अंश ऐसे होते ही हैं, जिन्हें विद्यार्थी सरलता से नहीं समझ पाते; यथा दर्शनशास्त्र एवं हिन्दी के कुछ पाठों में आये हुए शब्दों आत्मा, मन, संवेदनशीलता, भावुकता आदि को उदाहरण देकर समझाना तो भूगोल एवं सामाजिक अध्ययन जैसे विषयों में अलग- अलग स्थानों की अलग जलवायु के आधार पर वहाँ के लोगों के खान-पान, वेश-भूषा तथा रहन-सहन को स्पष्ट करना।
2- समझी हुई विषयवस्तु को आत्मसात् करना
किसी बात को समझना एक बात है। और उसे आत्मसात् करना एक अलग बात है। समझना बुद्धि का विषय है तो आत्मसात् करने का आशय उसे इस प्रकार ग्रहण करना है कि वह बात आचरण का एक अंग बन जाय। शिक्षा एवं शिक्षण का उद्देश्य भी यही है। इस उद्देश्य की पूर्ति में शिक्षण अधिगम सामग्री अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है।
3- स्पष्टीकरण में सहायक
शिक्षण सामग्री के प्रयोग से बालकों को कठिन- से-कठिन पाठ्य-सामग्री का स्पष्टीकरण हो जाता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि बालक जो कुछ सुनते हैं उसी को आँख से देख भी लेते हैं।
4- अर्थयुक्त अनुभव की प्राप्ति
शिक्षण सामग्री द्वारा बालकों को पाठ स्थूल रूप से पढ़ाया जाता है। प्रत्येक बालक वस्तु को देखकर, छूकर तथा पूछकर हर प्रकार से ठीक-ठाक समझने का प्रयास करता है। इससे पाठ सरल, रोचक तथा मनोरंजक बन जाता है और सभी बालक ज्ञान को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेते हैं।
5- शिक्षण में कुशलता
शिक्षण सामग्री का प्रयोग करने से शिक्षण में कुशलता आती है । साथ ही शिक्षण और अधिक प्रभावशाली बन जाता है। दूसरे शब्दों में, जिन सूक्ष्म बातों तथा कठिन भावों को बालक चॉक और ‘टाक’ (Talk) की सहायता से नहीं समझ सकते, उन्हें वे सहायक सामग्री के प्रयोग से सरलतापूर्वक समझ सकते हैं।
6- प्रत्यक्ष अनुभव
श्रव्य-दृश्य सामग्री द्वारा शिक्षार्थियों को प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान किया जाता है । जिस पाठ्य-वस्तु या प्रक्रिया को हम अनुभव नहीं कर सकते उनको चित्र या फिल्म की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं।
सार्वभौमिक एवं समावेशी शिक्षा के संदर्भ में शिक्षकों की भूमिका
यूनिवर्सेलाइजेशन (Universalization) के लिए हिन्दी में सार्वभौमीकरण शब्द का प्रयोग किया जाता है। कतिपय लोग इसके लिए सार्वजनीकरण, सर्वव्यापीकरण और लोकव्यापीकरण आदि शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। शिक्षा के सार्वभौमीकरण का अर्थ है— शिक्षा को जनसाधारण के लिए सुलभ बनाना अर्थात् जाति, रंग, धर्म, लिंग या योग्यता की भिन्नताओं के बावजूद सभी को शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराना।
शिक्षा का सार्वभौमीकरण राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने के लिए, साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के लिए, लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए, राजनीतिक जागरूकता पैदा करने के लिए, सामाजिक समानता व सामाजिक न्याय की स्थापना करने के लिए, राष्ट्रीय एकता और भावात्मक एकता के भाव का विकास करने के लिए और अपने क्षुद्र व संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर समाज और राष्ट्र के लिए समर्पण की भावना को विकसित करने के लिए आवश्यक है।
19वीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि बालकों में वैयक्तिक भिन्नताएँ होती हैं और इस भिन्नता के कारण उनकी योग्यताओं, क्षमताओं और आवश्यकताओं में भारी भिन्नताएँ पायी जाती हैं, इसलिए उनकी शिक्षा की व्यवस्था में भी भिन्नता होनी चाहिए। व्यापक रूप में समावेशन को एक ऐसे सुधार के रूप में लिया जाता है जिसमें सीखने वालों की भिन्नता का आदर किया जाता है। जिसमें एक शिक्षा स्तर के सभी बालकों को बिना किसी भेदभाव के एक साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।
सार्वभौमिक एवं समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। शिक्षक का उत्तरदायित्व बालकों को शिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उनका मार्गदर्शन भी करना है। अतः उसे योग्य, दक्ष, कुशल, परिश्रमी, अनुशासित, कर्मठ, कर्त्तव्यशील और विनोदप्रिय होना चाहिए। शिक्षक की महती भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) शिक्षक को विभिन्न प्रकार के बालकों की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।
(2) शिक्षक को कक्षा में बालकों की संख्या पन्द्रह-बीस से अधिक नहीं रखनी चाहिए।
(3) शिक्षक को विशेष आवश्यकता वाले बालकों की पहिचान करनी चाहिए और उनकी आवश्यकताओं को भली प्रकार से समझना चाहिए।
(4) शिक्षक को समावेशी कक्षा में बालकों के बैठने की सीटों की व्यवस्था ध्यानपूर्वक करनी चाहिए। विकलांग बालकों को सीटों का आवंटन इस प्रकार से करना चाहिए कि उनको चलने-फिरने और अपनी सीट पर उठने-बैठने में कोई परेशानी न हो। श्रवण बाधित, दृष्टि बाधित और अस्थि बाधित बालकों को आगे की सीटों पर बिठाना चाहिए। शेष बालकों को उनके कद के अनुसार बिठाया जाना चाहिए।
(5) शिक्षक को सामान्य और विशिष्ट बालकों को आस-पास बिठाना चाहिए जिससे वे एक-दूसरे को सहयोग कर सकें।
(6) शिक्षक को अपने शिक्षण में सभी बालकों से सक्रिय सहयोग प्राप्त करना चाहिए।
(7) शिक्षक को सभी बालकों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सभी का सहयोग लिया जाना चाहिए।
(8) शिक्षक को सभी बालकों की समस्याओं का समाधान तत्काल करना चाहिए, तभी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया सुचारू रूप से चलेगी और बालक अध्ययन में रूचि लेगे।
(9) शिक्षक को सभी बालकों—सामान्य और बाधित—के साथ प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण व्यवहार करना चाहिए जिससे बालकों को उनमें अपने माता-पिता की छवि दिखायी दें।
(10) शिक्षक को समावेशी विद्यालयों, समावेशी कक्षाओं, शिक्षण, अधिगम क्रियाओं और विद्यार्थियों के संबध में माता-पिता, अभिभावकों और समुदाय के साथ निरन्तर सम्पर्क में रहना चाहिए और उनका साक्रिय सहयोग प्राप्त करना चाहिए।
शिक्षा का अधिकार [Right to Education]
स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण करने के लिए जिस संविधान सभा का गठन किया गया था, उसके सदस्य वे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष जेलों की कोठरियों में बिताए थे, जिन्होंने आजादी प्राप्त करने के लिए अनेकानेक त्याग और बलिदान किए थे। वे दिल से चाहते थे कि संविधान के द्वारा भारतवासियों को वे सब अधिकार, सुविधाएँ और अवसर प्राप्त हो जायें जो उनकी उन्नति और विकास के लिए आवश्यक हैं, लेकिन उस समय स्वतंत्र भारत की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी और यह सम्भव नहीं था कि देश के बच्चों, स्त्रियों, पिछड़े वर्गों, दलितों, जनजातियों आदि को वे सब सुविधाएँ संवैधानिक अधिकारों के रूप में मिल जायें, जिनके लिए अपार धनराशि की आवश्यकता थी। अतएव संविधान निर्माताओं ने नागरिकों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक आदि के विकास और जीवन की सुरक्षा के लिए संविधान में मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया, जिनको राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर रखा गया और यह प्रावधान किया गया कि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो व्यक्ति इनकी रक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है। नागरिकों के स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, कृषि, कुटीर उद्योग, आर्थिक सुरक्षा आदि से सम्बन्धित विषयों के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में नीति निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लेख किया।
देश में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हीं नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया कि “राज्य संविधान के लागू होने से दस वर्ष की कालावधि के अन्दर चौदह वर्ष तक के बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।”
सन् 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद-21(ए) जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि-
“राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बालकों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, उस प्रकार की रीति से जैसा राज्य विधि द्वारा अवधारित करे, की व्यवस्था करेगा।”
इस प्रकार शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बना दिया गया। इसी के साथ-साथ इसी 86वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग 4(A) में वर्णित मौलिक कर्त्तव्यों में एक नया मौलिक कर्त्तव्य 51 (A) में जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि—
“माता-पिता या अभिभावक 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले बालकों अथवा आश्रितों की शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करें।”
इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए उपरोक्त अनुच्छेद के प्रकाश में भारत सरकार ने शिक्षा का अधिकार विधेयक संसद में प्रस्तुत किया। संसद के दोनों सदनों— लोकसभा और राज्यसभा-द्वारा इसे करने के बाद 26 अगस्त, 2009 को राष्ट्रपति ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर कर, इसे कानून बना दिया। इसे “बालकों का निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 (Right of Children to Free and Compulsory Education Act-2009)” के नाम से जाना जाता है। संक्षेप में इसे “शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009” कहा जाता है। सरकार ने इस ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ को 1 अप्रैल, 2010 से सम्पूर्ण देश में लागू कर दिया है।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 की विशेषताएँ
(1) निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार
6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। बालक की यह शिक्षा पूर्णतः निःशुल्क होगी। ऐसी कोई भी फीस या अन्य खर्चे बालक से नहीं लिए जाएंगे, जिनसे उसकी शिक्षा प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो ।
(2) प्रवेश प्राप्त न करने वाले या प्राथमिक शिक्षा को पूर्ण करने वाले बालकों के लिए विशेष व्यवस्था
यदि कोई बालक 6 वर्ष की आयु पर किसी विद्यालय में प्रवेश नहीं ले पाता, तो वह बाद में भी अपनी आयु के अनुरूप कक्षा में प्रवेश प्राप्त कर सकता है। यदि वह निर्धारित 14 वर्ष की आयु तक अपनी प्राथमिक शिक्षा को पूर्ण नहीं कर पाता है, तो वह उसके बाद भी अपनी पढ़ाई पूरी कर सकता है।
(3) अन्य विद्यालयों में स्थानान्तरण
यदि किसी विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने की व्यवस्था नहीं है, तो बालक को किसी दूसरे विद्यालय में स्थानान्तरण लेने का अधिकार है। किसी अन्य कारण से भी बालक एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय में स्थानान्तरण ले सकता है। ऐसी स्थिति में विद्यालय प्रमुख को स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र तुरन्त जारी करना होगा।
(4) विद्यालय स्थापना का उत्तरदायित्व
उन स्थानों पर, जहाँ विद्यालय नहीं हैं, अधिनियम लागू होने के तीन वर्षों की कालावधि में विद्यालय स्थापित करने का उत्तरदायित्व राज्य सरकार और उसके अधिकारियों का होगा।
(5) वित्तीय एवं अन्य उत्तरदायित्व
इस अधिनियम की पूर्ति करने के लिए केन्द्रीय और राज्य सरकारें मिलकर आवश्यक फण्ड की व्यवस्था करेंगी। केन्द्रीय सरकार इस पर आने वाले खर्चों का अनुमान तैयार करेगी और राज्य सरकारों को आवश्यक संसाधन एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध कराएगी।
(6) राज्य सरकारों का उत्तरदायित्व
राज्य सरकारों का यह उत्तरदायित्व होगा कि 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बालक को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो तथा कमजोर और वंचित वर्गों के बालकों के साथ कोई भेदभाव न हो। राज्य सरकारें विद्यालय भवन, शिक्षक, शिक्षण सामग्री सहित आधारभूत संरचना की उपलब्धता सुनिश्चित करेंगी और बालकों को गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने तथा शिक्षकों के लिए प्रभावशाली प्रशिक्षण की व्यवस्था करेंगी।
(7) स्थानीय अधिकारियों के उत्तरदायित्व
स्थानीय अधिकारी राज्य सरकार के सभी उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य करेंगे, उन क्षेत्रों में विद्यालय खोलेंगे, जहाँ विद्यालय नहीं हैं। 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के बालकों का अभिलेख रखेंगे, विद्यालयों की व्यवस्था की देख-रेख करेंगे और शैक्षणिक कलेण्डर तैयार करेंगे।
(8) माता-पिता और अभिभावकों का उत्तरदायित्व
प्रत्येक माता-पिता और अभिभावक का यह उत्तरदायित्व होगा कि वह 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के अपने बालकों का विद्यालय में नामांकन कराये।
(9) प्रवेश के लिए आयु का प्रमाण
जन्मतिथि सम्बन्धी प्रमाण-पत्र के अभाव में किसी भी बालक को विद्यालय में प्रवेश देने से मना नहीं किया जाएगा।
(10) प्रवेश तिथि के बाद भी प्रवेश से इंकार नहीं
प्रवेश तिथि निकल जाने के बाद भी विद्यालय द्वारा किसी भी बालक को प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जाएगा।
(11) रोकने और निष्कासन का निषेध
विद्यालय द्वारा किसी भी बालक को किसी भी कक्षा में न तो रोका जाएगा और न ही उसे विद्यालय से निष्काषित किया जाएगा।
(12) शारीरिक दण्ड और मानसिक प्रताड़ना का निषेध
विद्यालय में किसी भी बालक को न तो शारीरिक दण्ड दिया जाएगा और न ही उसको मानसिक यातना दी जाएगी।
सर्व शिक्षा अभियान [Sarva Shiksha Abhiyan]
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-45 में यह कहा गया है कि राज्य इस संविधान के लागू किए जाने के समय से दस वर्षों के अन्दर चौदह वर्ष तक के सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने अनेकानेक प्रयास किए। कोठारी आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता पर बल दिया और सरकार का ध्यान पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों के बालक और बालिकाओं की शिक्षा की ओर आकर्षित किया।
अक्टूबर 1998 में सम्पन्न हुए राज्यों के शिक्षा मन्त्रियों के सम्मेलन में लिए गए निर्णयों के आधार पर ‘सर्वशिक्षा अभियान’ योजना विकसित की गई, जिसमें सभी बालक-बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। इसे नवम्बर 2000 में स्वीकार किया गया। सर्वशिक्षा अभियान प्रारम्भिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है।
सर्व शिक्षा अभियान की प्रकति/स्वरूप
- प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण
- समयबद्ध कार्यक्रम
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
- सामाजिक न्याय की प्रस्थापना
- राष्ट्रीय एकता की स्थापना
- सामुदायिक सहभागिता
- केन्द्र एवं राज्य स्तर पर सहयोग
- मूल्य आधारित शिक्षा
सर्व शिक्षा अभियान की विशेषताएं
(1) प्रारम्भिक शिक्षा का अधिकार ।
(2) जन-सामान्य की भागीदारी की अनिवार्यता ।
(3) प्रत्येक बच्चे के मानसिक अधिगम स्तर के अनुसार शिक्षण के लिए सूक्ष्म योजना।
(4) विद्यालय/ग्राम/वार्ड स्तर पर भौगोलिक/सामाजिक परिवेश की समस्याओं की पहचान कर, उनके निराकरण हेतु ग्राम/वार्ड शिक्षा समितियों को सुदृढ़ कर, स्थानीय स्तर पर ही समस्याओं के हल का प्रयास करना ।
(5) ग्राम/वार्ड शिक्षा समितियों के माध्यम से नवीन विद्यालय भवन निर्माण/पुनर्निर्माण कक्षा-कक्षों का निर्माण कराना।
6-14 वर्ष की आयु के बच्चे-
- 2003 तक स्कूल / शिक्षा गारन्टी योजना/ब्रिज कोर्स में प्रवेश लें।
- 2007 तक सभी बच्चे पाँच वर्ष की प्राथमिक शिक्षा पूरी करें।
- 2010 तक सभी बच्चे कक्षा आठ तक प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करें।
- जीवन के लिए शिक्षा पर बल देते हुए गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा पर बल देना।
- सभी बालक-बालिकाओं में सामाजिक असमानता व विभेद को 2007 तक प्राथमिक शिक्षा स्तर पर और 2010 तक उच्च प्रारम्भिक शिक्षा स्तर पर समाप्त करना।
- 2010 तक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाना।
सर्वशिक्षा अभियान के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रस्तावित मानदण्ड
(1) विद्यालय स्थापना
प्राथमिक विद्यालय
प्राथमिक विद्यालय स्थापना हेतु 300 की आबादी और परिषदीय विद्यालय से 1.5 किमी० की परिधि के बाहर स्थित बस्तियों को असेवित मानना ।
उच्च प्राथमिक विद्यालय
उच्च प्राथमिक विद्यालय स्थापना हेतु 800 की आबादी एवं परिषदीय उच्च प्राथमिक विद्यालय/सहायतित/अनुदानित विद्यालय से 3.0 किमी० की परिधि के बाहर स्थित बस्तियों को असेवित मानना।
(2) कक्षा-कक्ष
प्रत्येक कक्षा छात्र संख्या के आधार पर न्यूनतम एक कक्ष की उपलब्धता।
(3) वैकल्पिक शिक्षा
विद्यालय स्थापना हेतु मानक में न आने वाली असेवित बस्तियों के बच्चों हेतु वैकल्पिक शिक्षा हेतु केन्द्रों की स्थापना।
(4) शिक्षक छात्र अनुपात
विद्यालय स्तर पर न्यूनतम दो अध्यापकों की सुनिश्चितता एवं छात्र संख्या के आधार पर समुचित उपलब्धता।
(5) पाठ्य-पुस्तकें
कक्षा एक से कक्षा आठ तक के अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति वर्ग के समस्त बालक एवं बालिकाओं हेतु निःशुल्क पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध कराना।
(6) शिक्षण अधिगम उपकरण
असेवित बस्तियों में नवनिर्मित विद्यालयों हेतु विद्यालय स्तरानुसार धनराशि उपलब्ध कराना।
(7) अध्यापक प्रशिक्षण
शिक्षण अधिगम सम्प्राप्ति के उन्नयन हेतु शिक्षकों को आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण की व्यवस्था।
(8) बालिका शिक्षा
बालिका शिक्षा हेतु अभिनव क्रियाकलाप, प्रारम्भिक शिशु देखभाल व शिक्षा, अनुसूचित जाति की बालिकाओं हेतु ब्रिज कोर्स, कम्प्यूटर शिक्षा उपलब्ध कराना।
(9) ब्लॉक एवं न्याय पंचायत स्तर पर सुदृढ़ीकरण
विद्यालयों में संसाधनों की उपलब्धता समस्याओं के निराकरण हेतु सहायता के लिए ब्लॉक एवं न्याय पंचायत स्तर पर सूक्ष्म नियोजन करना।
(10) विद्यालयों में नामांकन
विद्यालयों में नामांकन वृद्धि हेतु परिवार सर्वेक्षण कराकर सूक्ष्म नियोजन कराना।
कक्षा में ‘गुणात्मक सुधार हेतु उपाय
- बाल मनोविज्ञान के आधार पर शिक्षण
- शिक्षकों में शिक्षण के प्रति उत्प्रेरणा एवं विषय-वस्तु का ज्ञान
- समुदाय द्वारा विद्यालय स्तरीय सहयोग
- शिक्षकों द्वारा शिक्षण सामग्री का निर्माण एवं उपयोग
- बच्चों का आधारभूत विकास।
सर्वशिक्षा अभियान के घटक या योजनाएँ
प्रारम्भ में यह अभियान स्वतंत्र रूप से चलाया गया था; लेकिन बाद में वे सभी कार्यक्रम और योजनाएँ इससे जोड़ दी गयीं जो प्राथमिक शिक्षा के प्रसार और विकास के लिए चलायी जा रहीं थीं। ये योजनाएँ अग्रलिखित हैं-
(1) शिक्षा गारन्टी योजना
जिन असेवित बस्तियों में मानकनुसार प्राथमिक विद्यालय की स्थापना सम्भव नहीं है, उनमें 6-8 आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने हेतु न्यूनतम 25 बच्चों पर एक शिक्षा गारन्टी केन्द्र की स्थापना की जाती है। इन केन्द्रों पर बच्चों को कक्षा 1-2 उत्तीर्ण करने पर विद्यालय में प्रवेश कराया जाता है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार इनको प्राथमिक विद्यालयों में बदले जाने का प्रावधान किया गया है।
(2) वैकल्पिक शिक्षा केन्द्र
जिन बस्तियों में 9-14 आयु वर्ग के कामकाजी बच्चों की संख्या न्यूनतम 25 है, उन बस्तियों में वैकल्पिक शिक्षा केन्द्र खोले जाते हैं। इन केन्द्रों में बच्चों की सुविधानुसार पठन समय निर्धारित किया जाता है। इन केन्द्रों में बच्चों को कक्षा 5 तक की शिक्षा दी जाती है।
(3) गैर आवासीय सेतु पाठ्यक्रम
उन बच्चों को, जो विद्यालय की शिक्षा बीच में ही छोड़ देते हैं, पुनः औपचारिक शिक्षा से जोड़ने के लिए सेतु पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गई है। यह पाठ्यक्रम न्याय पंचायत स्तर पर संचालित किए जाते हैं। इन कोर्सेज में कक्षा एक से तीन तक की शिक्षा छः माह में पूर्ण कराकर विद्यालय में प्रवेश दिलाया जाता है।
(4) ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड योजना
सन् 2003 में ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड योजना को भी सर्वशिक्षा अभियान का घटक बना दिया गया। इस योजना के लिए अलग से बजट का प्रावधान किया जाता है। इसके द्वारा प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों की अधिसंरचना (Infrastructure) में सुधार किया जा रहा है। सन् 2014-15 तक लगभग 90 प्रतिशत प्राथमिक और 80 प्रतिशत उच्च प्राथमिक विद्यालयों को इस योजना का लाभ पहुँचाया जा चुका है।
(5) जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम
इस कार्यक्रम को सन् 1994 में प्रारम्भ किया गया था और सन् 2009 में इसको भी सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया। इसके लिए भी अलग से बजट की व्यवस्था है। यह कार्यक्रम शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े जिलों में चलाया जा रहा है।
(6) मध्याह्न भोजन योजना
इस योजना का आरम्भ 15 अगस्त, 1995 को किया गया था और 2007 में इसे भी सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया। इसके लिए भी अलग से बजट का प्रावधान है। 2014-15 तक यह योजना 11.58 लाख प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों एवं शिक्षा गारन्टी केन्द्रों में लागू की जा चुकी थी और इससे 10-45 करोड़ बालक-बालिकाएँ लाभान्वित हो रहे थे।
(7) कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना
बालिकाओं की शिक्षा के विकास के लिए यह योजना जौलाई 2004 से शुरू की गई और 2007 में इसको भी सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया। इसके लिए भी अलग से बजट का प्रावधान है। वर्तमान में केन्द्रीय और राज्यों की सरकारें 50:50 के अनुपात में इस योजना पर व्यय कर रही हैं। 2014-15 तक 3,593 कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय देश के अन्दर खोले जा चुके थे।
सर्वशिक्षा अभियान के तहत विशेष प्रावधान
(1) विशेष आवश्यकता वाले (विकलांग) बच्चों के लिए विद्यालय में स्वास्थ्य परीक्षण कराकर उनकी विकलांगता का पता लगाया जाता है, जिससे उन बच्चों को विशेष आवश्यकता के आधार पर शिक्षण कराया जा सके।
(2) बालिकाओं पर, खासकर अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग की बालिकाओं पर, ध्यान देना बालिका शिक्षा से सम्बन्धित प्रयोगात्मक परियोजनाओं पर विशेष ध्यान देना।
(3) अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों की शिक्षा में नामांकन को बढ़ाने और उसे कायम रखने के लिए प्रयास करना।
समावेशी शिक्षा (अंग्रेज़ी: Inclusive education) से आशय उस शिक्षा प्रणाली से है जिसमें सभी लोगों का समावेश होता है और शिक्षा के उचित अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं। जिसमें एक शिक्षा स्तर के सभी बालकों को बिना किसी भेदभाव के एक साथ शिक्षा प्रदान की जाती है। जिसमें की जाति, धर्म, लिंग, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक-मानसिक विविधताओं का समावेश होता है। सभी प्रकार की व्यक्तिगत विविधताओं का शिक्षा में समावेश होता है। सीखने वालों की भिन्नता का आदर किया जाता है।
समावेशी शिक्षा के निम्नलिखित गुण या लाभ है जिसको विस्तार स्वरूप में समझा जा सकता है-
1- विविधता और सहिष्णुता को बढ़ावा देना
समावेशी शिक्षा एक ऐसा वातावरण तैयार करती है जहाँ विविधता का जश्न मनाया जाता है और उसे अपनाया जाता है। विभिन्न पृष्ठभूमियों, क्षमताओं और संस्कृतियों के छात्रों को एक साथ लाकर, समावेशी शिक्षा सहिष्णुता और समझ की भावना पैदा करती है। हमेशा जुड़े रहने वाले वैश्विक समाज में, ये गुण एक तेजी से विविध दुनिया में नेविगेट करने में सक्षम पूर्ण व्यक्तियों के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण हैं।
2- विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को सशक्त बनाना
समावेशी शिक्षा के प्राथमिक लाभों में से एक विशेष आवश्यकता वाले छात्रों पर इसका सकारात्मक प्रभाव है। समावेशन यह सुनिश्चित करता है कि इन छात्रों को मुख्यधारा की कक्षाओं में आवश्यक समर्थन और संसाधन प्राप्त हों, जिससे अपनेपन की भावना को बढ़ावा मिले। यह न केवल उनके शैक्षणिक परिणामों को बढ़ाता है बल्कि उन्हें आवश्यक जीवन कौशल से भी सुसज्जित करता है, स्वतंत्रता और आत्मविश्वास को बढ़ावा देता है।
3- शैक्षिक प्रदर्शन बेहतर करना
आम गलतफहमियों के विपरीत, समावेशी शिक्षा से सभी छात्रों को लाभ होता है, न कि केवल विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को अनुसंधान इंगित करता है कि समावेशी कक्षाओं में छात्र शैक्षणिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ऐसे वातावरण में मौजूद विविध सीखने की शैलियाँ और दृष्टिकोण विचारों की एक समृद्ध टेपेस्ट्री बनाते हैं, जो सभी छात्रों के बीच महत्वपूर्ण सोच और समस्या-समाधान कौशल को बढ़ावा देते हैं।
4- सामाजिक का विकास
समावेशी शिक्षा छात्रों को विभिन्न पृष्ठभूमि के साथियों के साथ बातचीत करने के लिए एक मंच प्रदान करती है, जिससे महत्वपूर्ण सामाजिक कौशल के विकास को बढ़ावा मिलता है। समावेशी परिवेश में बनी मित्रताएं अक्सर कक्षा से आगे तक फैली होती हैं, जो लंबे समय में अधिक समावेशी और समझदार समाज में योगदान देती हैं।
5- नैतिक मानकों को पूरा करना
समावेशी शिक्षा की प्रतिबद्धता कानूनी और नैतिक मानकों के अनुरूप है जो सभी छात्रों के लिए समान अवसरों की वकालत करती है। समावेशी प्रथाओं का पालन करके, शैक्षणिक संस्थान न्याय और निष्पक्षता की भावना को मजबूत करते हुए, हर बच्चे के लिए सुलभ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के प्रति समर्पण प्रदर्शित करते हैं।
समावेशी शिक्षा में शिक्षकों की भूमिका
समावेशी शिक्षा में शिक्षकों की वास्तव में काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिसको हम निम्नलिखित प्रकार से समझ सकते हैं-
1) छात्र कौशल की पहचान
समावेशी शिक्षा के माध्यम से शिक्षक के द्वारा छात्रों के कौशल की पहचान की जाती है जिसके बाद शिक्षक उन कौशल को और अधिक निखारने का प्रयास करता है।
2) उचित छात्र शिक्षक अनुपात
यदि बेहतर गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान करनी है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि छात्र शिक्षक अनुपात उचित हो जिसे बेहतर तरीके से शिक्षा प्रदान की जा सके। यह शिक्षक के द्वारा ही सुनिश्चित किया जाता है कि छात्र शिक्षक अनुपात क्या रहेगा।
(3) कक्षा में सीटों की व्यवस्था ध्यान पूर्वक
एक शिक्षक के द्वारा कक्षा में दिव्याग छात्रों को बैठने के लिए उचित स्थान एवं सुविधाएं दी जाती है जिससे वह बेहतर तरीके से शिक्षा को ग्रहण कर सकें। तो इस तरह से शिक्षक के माध्यम से कक्षा में सीटों की व्यवस्था बड़े ही ध्यान पूर्वक की जाती है जो समावेशी शिक्षा के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
4) सहयोगी भावना का विकास
समावेशी शिक्षा के तहत शिक्षक के द्वारा छात्रों को आपसी सहयोग के माध्यम से हर संभव सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिससे उनमें आपसी सहयोग की भावना का विकास भी किया जा सके।
5) शिक्षक का सामानता पूर्ण व्यवहार
समावेशी शिक्षा में यह आवश्यक है कि शिक्षक का सभी विद्या क्योंकि साथ समानता पूर्ण व्यवहार हो क्योंकि समावेशी शिक्षा में सभी लोगों का समावेश होता है उनकी पृष्ठभूमि एवं जाती, धर्म, आर्थिक, सामाजिक स्थिति अलग-अलग होती है तो यह आवश्यक है कि शिक्षक का सामानता पूर्ण व्यवहार हो।
6) तत्काल समस्याओं का समाधान
विद्यार्थियों की समय समय पर अनेक समस्याएं होती है जिनका समाधान एक शिक्षक के द्वारा ही किया जाता है तो यहां पर यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि किस तरह से तत्काल समस्याओं का समाधान एक शिक्षक के द्वारा किया जाता है।
7) शिक्षक का अभिभावकों और समुदायों के साथ सामंजस्व
समावेशी शिक्षा में एक शिक्षक, अभिभावक और समुदायों की साथ सामंजस्व बैठाया जाता है क्योंकि यह आवश्यक भी है कि किस तरह से यहां पर अलग-अलग पृष्ठभूमि से विद्यार्थी आते है और उनकी पृष्ठभूमि समझना बेहद आवश्यक जिससे शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।
समावेशी विद्यालय के लिए बुनियादी सुविधाएं
समावेशी शिक्षा वास्तव में काफी महत्वपूर्ण और उपयोगी होती है जिसमें सभी लोगों का समावेश होता है बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों को शिक्षा प्रदान की जाती है। शिक्षा विद्यालयों द्वारा छात्रों को प्रदान की जाती है वह चाहे समावेशी शिक्षा ही क्यों ना हो, समावेशी शिक्षा को प्रदान करने के लिए विद्यालय में कुछ बुनियादी सुविधाएं होना आवश्यक है जिसके द्वारा हम समावेशी शिक्षा को बेहतर तरीके से संपादित कर सकते हैं और शिक्षा के उद्देश्यों को बड़ी आसानी से प्राप्त कर पाएंगे। समावेशी विद्यालय के लिए बुनियादी सुविधाएं कुछ निम्न प्रकार से है-
- विशेष विद्यालय व्यवस्था
समावेशी बालकों के लिये विशेष विद्यालयों की व्यवस्था करना न्यायोचित रहता है क्योंकि उनकी अक्षमता इस स्तर की होती है कि वे सामान्य रूप से प्रयोग में आने वाली शिक्षण सामग्री द्वारा शिक्षित नहीं किये जा सकते हैं। इसके लिये उन्हें विशिष्ट प्रकार के शिक्षण, प्रशिक्षण, पाठ्य सामग्री तथा सहायक उपकरणों की आवश्यकता होती है, जिन्हें सामान्य विद्यालयों में उपलब्ध कराना असम्भव है। इसके लिये इनको अपने स्वयं के कार्यों को भली प्रकार कर सकने के प्रशिक्षण उपलब्ध कराना चाहिये ताकि स्वावलम्वी बन सकें।
- देखभाल की उचित व्यवस्था
शारीरिक रूप से पीड़ित बालकों को कई कारणों से दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसके विद्यालय को शारीरिक दोषों को दूर करवाने के लिये उचित इलाज कराने की व्यवस्था करायी जानी चाहिये तथा ऐसे शिक्षकों को प्रशिक्षण देना चाहिये जो ऐसे बालकों की उचित देखभाल कर सकें।
- उपचार सुविधा
विकलांग बालकों को समय-समय पर अपने विद्यालयों में उपचारात्मक कैम्प की व्यवस्था करनी चाहिये तथा अध्यापक व दूसरे छात्रों को ऐसे बालकों का सहयोग करना चाहिये तथा विद्यालय के नियम इन बालकों के लिये लचीले होने चाहिये।
- विशिष्ट पाठ्यक्रम
सामान्य रूप से पाठ्यक्रम का निर्धारण औसत क्षमता वाले बालकों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए किया जाना चाहिये पिछड़े बालक (विशेष रूप से बौद्धिक न्यूनता वाले बालक) इस पाठ्यक्रम को कुशलता के साथ पूर्ण करने में असफल रहते हैं। अतः उनके लिये सरल एवं छोटे पाठ्यक्रम का, जो उनकी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, क्षमताओं व रुचियों के अनुरूप हो, निर्धारण करना उपयोगी रहता है। इन बालकों को विद्वान बनाने के स्थान पर उपयोगी नागरिक व कुशल कार्यकर्त्ता बनाना इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य होना चाहिये तथा काष्ठ शिल्प, गृह शिल्प, पुस्तक शिल्प आदि को इनके पाठ्यक्रम में समावेशित किया जाना चाहिये।
- बेहतर शिक्षण विधियाँ
बौद्धिक क्षमता अथवा विषय इकाई के मूल सिद्धांतों की अज्ञानता के कारण पिछड़े बालक सामान्य रूप से प्रचलित शिक्षण विधियों, जैसे – व्याख्यान, व्याख्यान प्रदर्शन आदि से सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। अतः इनके शिक्षण के लिये इन विधियों में पर्याप्त परिमार्जन की आवश्यकता होती है। इन्हें स्थूल (Concrete ) सामग्री और प्रत्यक्ष अनुभवों की सहायता लेकर तथा विषय-वस्तु की छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटकर सरल तरीकों से पढ़ाया जाना चाहिये। पढ़ाई गई इकाइयों की बार-बार पुनरावृत्ति (Drill) व अभ्यास भी बहुत आवश्यक होता है दृश्य-श्रव्य (Audio visual) सामग्री का आवश्यकतानुसार उपयोग करना चाहिये तथा उन्हें सीखने के लिये प्रोत्साहित करते रहना चाहिये। सांवेगिक अथवा अन्य कारणों से पिछड़ जाने वाले बालकों के लिये अभिनय, प्रोजेक्ट विधि, खेल विधि आदि नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग इस उपचारात्मक शिक्षण में विशेष महत्त्व रखता है।
- विशेष अध्यापकों की व्यवस्था
विद्यालयों में विशिष्ट बालकों के लिये विशेष विशिष्ट पाठ्यक्रम व परिमार्जित शिक्षण विधियों को अपनाने का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है जबकि शिक्षक इन सब परिवर्तनों को प्रभावी व सफल रूप दे सकें। ऐसा शिक्षक अधिक व्यावहारिक व अनुभवी होना चाहिये। उसे बाल मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान हो, बालकों की विशिष्ट कमियों व कठिनाइयों को समझने की क्षमता व रुचि रखता हो तथा उसमें पर्याप्त धैर्य शक्ति हो ताकि वह बालकों के लगातार असफल होने पर भी अपने आपको निरंतर सफलता के प्रयास के क्रम में लगाये रखे। पिछड़े बालकों को जिसे प्रोत्साहन, प्रशंसा, लगातार सहायता व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की अत्यधिक आवश्यकता होती है, एक कुशल शिक्षक ही प्रगति के मार्ग पर, स्थायित्व के साथ ला सकता है। इसके अतिरिक्त पिछड़े बालकों के शिक्षण में अत्यधिक आवश्यक है कि शिक्षण के द्वारा अपनाई गई शिक्षण विधि बाल केन्द्रित हो।
- समय-सारणी (Time-table)
ऐसे बालक प्रायः अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते तथा सामान्य बालकों के साथ प्रगति में असमर्थता का अनुभव करते हैं। अतः इनके लिये समय-सारणी का निर्धारण पृथक् रूप से किया जाना उचित रहता है। यह समय-सारणी लचीली (Flexible) होनी चाहियें तथा उमसें पीरियड्स छोटे होने चाहिये। सम्भव है कि ये बालक कभी किसी विषय विशेष समस्या को समझने व सीखने में सामान्य से अधिक समय ले लें अथवा कभी किसी विषय को निर्धारित पीरियड में पढ़ने में अरुचि दिखायें। इसके अतिरिक्त समय-सारणी बनाते समय इन बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न पाठ्येत्तर व पाठ्यान्तर क्रियाओं को भी उचित महत्त्व, स्थान व समय मिले इसका ध्यान रखना चाहिये।
- बेहतर परीक्षा प्रणाली
कभी-कभी दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली भी बालकों के पिछड़ेपन के लिये उत्तरदायी होती है। जैसे सभी प्रश्न-पत्रों का पूर्ण रूप से आत्मनिष्ठ होना, परीक्षा में पाठ्यक्रम से बाहर की विषयवस्तु पर प्रश्न पूछ लेना, प्रश्न-पत्र की भाषा का अस्पष्ट होना, बालक को प्रत्युत्तर देने के लिये पर्याप्त समय न मिल पाना, परीक्षकों द्वारा उत्तर-पुस्तिका के मूल्यांकन से लापरवाही बरतना तथा सभी बालकों के लिये समान मानकों का निर्धारण कर देना आदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पिछड़पन, समान आयु वर्ग व समान क्षमताओं वाले बालकों की उपलब्धि के आधार पर आंका जाना चाहिये न कि कक्षा के सभी विभिन्न आयु वर्गों व क्षमताओं वाले बालकों की उपलब्धि के आधार पर। अतः परीक्षकों को चाहिये कि पिछड़े वर्ग की शैक्षिक उपलब्धि परीक्षा लेते समय इन सब बातों का ध्यान रखें, प्रश्न-पत्रों को अधिक वस्तुनिष्ठ (Objective) बनायें, सरल भाषा का प्रयोग करें तथा प्रश्न-पत्र में उन सभी पाठ्यांशों से प्रश्न पूछें जिनको वह कक्षा में पढ़ा चुकें हैं। प्राय: कुछ धीमी गति से सीखने व प्रत्युत्तर देने वाले बालक प्रश्न-पत्र को पूरा करने में सामान्य से अधिक समय लेते हैं। अतः समय का निर्धारण इन बालकों की गति को ध्यान में रखते हुए करें। साथ ही इन बालकों के मूल्यांकन में प्राप्तांकों के अतिरिक्त उनके शैक्षिक व व्यक्तिगत इतिहास, एक डोट्ल आलेख, प्रगति आख्या, सामूहिक आलेख आदि का समावेश रहना चाहिये।
परीक्षण प्रणाली व मूल्यांकन के तरीकों में परिमार्जन के अतिरिक्त पिछड़े बालकों की उपलब्धि को बढ़ाने के लिये परीक्षाफल को शीघ्र घोषित करना चाहिये तथा सफल व असफल दोनों ही वर्गों के बालकों को किसी-न-किसी रूप में प्रोत्साहित करते रहना चाहिये और फीडबैक, पुरस्कार तथा प्रलोभन आदि का प्रयोग करना चाहिये।
- निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था
सही विषयों व अन्य क्रियाओं का चुनाव न कर सकने के कारण भी बहुत से बालक उस क्षेत्र में लगातार असफल होते जाते हैं। अतः विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था उपचारात्मक व निवारक दोनों दृष्टिकोणों से आवश्यक है जिससे कि बालक अपनी क्षमताओं, रुचियों, अभिवृत्ति व अभिरुचि के अनुरूप है ही विभिन्न विषयों, खेलों व अन्य क्रियाओं का चयन कर सकें।
- अनुभवी शिक्षा मनोवैज्ञानिक की सहायता लेना
मनोवैज्ञानिक कारणों से पिछड़े बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में अनुभवी शिक्षा मनोवैज्ञानिकों की सेवाएँ भी काफी मूल्यवान सिद्ध हो सकती हैं। ये मनोवैज्ञानिक, अध्यापकों व माता-पिता को बालक के व्यक्तित्व व शिक्षा सम्बन्धी ऐसे तथ्यों से परिचित करवाने में सहायक होते हैं जो उनके पिछड़ेपन के पूर्ण या आंशिक रूप से जिम्मेदार होते हैं। वस्तुतः प्रत्येक उच्चतर विद्यालय में समावेशी बालकों के सर्वांगीण विकास हेतु विद्यालयी परामर्शदाताओं अथवा विद्यालीय मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति आवश्यक प्रतीत होती है जो उनकी कमियों एवं कमजोरियों को समझ कर उनका निराकरण कर उनका उचित मार्गदर्शन कर सकें।
एक आदर्श समावेशी विद्यालय वह होता है जिसमें सभी लोगों को एक साथ एक समान शिक्षा के उचित अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं। आदर्श समावेशी विद्यालय में सभी लोगों का एक साथ मिलकर सिखने के लिए बेहतर साधन प्रदान किए जाते हैं जिसमें सभी पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं। इन विद्यालयों को इस रुप में आदर्श बनाया जाता है कि जो अन्य लोगों और अन्य विद्यालयों को मोटिवेट करता है या उनकी लिए वह आदर्श होता है क्योंकि यहां पर समावेशी शिक्षा के मापदंडो के तहत शिक्षा प्रदान की जाती है।
आदर्श समावेशी विद्यालय का महत्व
एक आदर्श समावेशी विद्यालय अनेकों अनेक महत्व है जोकि निम्नलिखित हैं –
1- सीखने की लिए उचित सुविधाएं एवं वातावरण
एक आदर्श समावेशी विद्यालय द्वारा विद्यार्थियों को सीखने के लिए उचित से उचित सुविधाएं प्रदान की जाती है और एक ऐसे सकारात्मक वातावरण तैयार किया जाता है जो वास्तव में बच्चों को सीखने की लिए उपयोगी होता है।
2- छात्र केंद्रित शिक्षा प्रदान करना
आदर्श समावेशी विद्यालय के माध्यम से सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली छात्र केंद्रित होती है जिसमें छात्रों के हितों को ध्यान में रखकर की शिक्षा प्रदान की जाती है।
3- सहयोगी भावना का विकास
समावेशी शिक्षा के तहत विद्यालय में छात्रों को आपसी सहयोग के माध्यम से हर संभव सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिससे उनमें आपसी सहयोग की भावना का विकास भी किया जा सके।
4- व्यक्तिगत भिन्नता का सम्मान
समावेशी शिक्षा के तहत सभी लोगों को शिक्षा के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं और उन सभी को बीना किसी भेदभाव के शिक्षा प्रदान की जाती है वह चाहे किसी भी पृष्ठभूमि या किसी भी जाति, धर्म से क्यों ना आते हो उन सबकी व्यक्तिगत भिन्नता का सम्मान किया जाता है।
5- शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि
समावेशी शिक्षा के माध्यम से सभी लोगों को शिक्षा के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं और आदर्श समावेशी विद्यालय के माध्यम से बेहतर से बेहतर संसाधनों के साथ छात्रों को शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
आधुनिक समय में समावेशी विद्यालयों की भूमिका
आधुनिक युग में समावेशी विद्यालयों की भूमिका निम्नलिखित हैं-
1- विशेष बालकों की आवश्यकताओं की खोज
विशेष बालक-बालिकाओं में यह शिक्षा आधारभूत सामाजिक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिये। सामान्य बालक को औसत बालक से भिन्न नहीं समझना चाहिए। उनकी भी वे सब आवश्यकताएँ हैं जो कि अन्य बालकों की हैं। सभी लोगों को विशेष शिक्षा के मूल्य का ज्ञान होना चाहिए। अध्यापकों को वे विधियाँ बतानी चाहिए जिनके द्वारा वह पढ़ाये। उन विधियों को पुनर्परीक्षण और निरीक्षण करवाना चाहिए। जब बालकों/बालिकाओं को और अधिक विशेष शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती है तो उन्हें सामान्य कक्षा में भेज देना चाहिए। पृथकीकरण का दर्शन विद्यार्थी, माता-पिता तथा अध्यापकों को बताना चाहिए। कक्षा का आकार निश्चित करना चाहिए।
2- विशेष अध्यापकों की आवश्यकता
अध्यापकों को विशेष बालकों को पढ़ाने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। साधारण बालकों को पढ़ाने का अनुभव विशेष बालकों के अध्यापक के लिए बहुत आवश्यक है। एक अच्छे कुशल अध्यापक के लिए केवल प्रशिक्षण की ही आवश्यकता नहीं होती। इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व अच्छा हो, उसे विशेष बालकों में रुचि हो। विशेष बालकों की समस्याओं को समझने के लिए उसमें सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण हो चूँकि एक अध्यापक बालकों को कई वर्ष तक पढ़ाता है तथा कई तरह के बालकों को एक कक्षा में रखते हैं, अध्यापक को विशेष शिक्षा के अभिमुखीकरण (orientation) कोर्स को पूरा करना चाहिए।
3- विशिष्ट पाठ्यक्रम
समावेशी शिक्षा को प्रदान करने के लिए विशिष्ट पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जो सभी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी हो सके। क्योंकि यहां पर अलग-अलग सामाजिक एवं आर्थिक तथा शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं वाले छात्रों को एक साथ शिक्षा प्रदान की जाती है, तो पाठ्यक्रम इन सभी के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाना चाहिए।
4- उचित भौतिक सुविधाएं
छात्रों के लिए उचित भौतिक सुविधाएं होना बेहद आवश्यक है जिससे दिव्यांग छात्रों को शिक्षा ग्रहण करने में सहूलियत हो सके। इस तरह से समावेशी विद्यालय में उचित भौतिक सुविधाओं का होना शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जरूरी है।
5- सामाजिकता का विकास
समावेशी विद्यालय के द्वारा सभी छात्रों को एक साथ शिक्षा प्रदान की जाती है जिसमें विद्यार्थी अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आते हैं और उन्हें आपस में मिलजुल करके सहयोग के द्वारा सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिसके फल स्वरुप उनमें आपसी सहयोग की भावना तथा सामाजिकता का विकास होने लगता है।
BY: TEAM KALYAN INSTITUTE
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