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समकालीन भारत और शिक्षा

समकालीन भारत और शिक्षा शिक्षा के द्वारा मानव की इन जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कला कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। यह कार्य मानव के जन्म से ही उसके परिवार द्वारा अनौपचारिक रूप से तत्पश्चात विद्यालय भेजकर औपचारिक रूप से प्रारम्भ कर दिया जाता है।

शिक्षा का अर्थ

शिक्षा का अर्थ केवल स्कूली शिक्षा से नहीं है। शिक्षा के व्यापक अर्थ को भी शिक्षा का वास्तविक अर्थ स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे शिक्षा आवश्यकता से अधिक उदार हो जाती है। जहाँ शिक्षा के संकुचित अर्थ में बालक की रुचियों, योग्यताओं और क्षमताओं की अवहेलना की जाती है वहाँ व्यापक अर्थ में बालक का सामाजिक और आध्यात्मिक विकास होना कठिन हो जाता है। इसलिए शिक्षा के उपरोक्त तीनों अर्थ स्वीकार नहीं किए जा सकते। वस्तुतः शिक्षा का वास्तविक अर्थ शिक्षा के संकुचित और व्यापक अर्थों के समन्वय में निहित है। दोनों अर्थों के समन्वय से शिक्षा एक प्रक्रिया हो जाती है जो बालक की व्यक्तिगत योग्यताओं, क्षमताओं और रुचियों को ध्यान में रखकर उसका मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और नैतिक विकास करती है और उसके विचार तथा व्यवहार में ऐसा परिवर्तन करती है जो स्वयं उसके अपने तथा समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व के लिए हितकर होता है।

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शिक्षा की परिभाषाएँ

(1) सुकरात (Socrates) के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ प्रत्येक मानव मस्तिष्क में अदृश्य रूप से विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना है।

(2) प्लेटो (Plato) के अनुसार, “शिक्षा विद्यार्थी के शरीर और आत्मा में उस तब सौन्दर्य और पूर्णता का विकास करती है जिसके योग्य वह है।”

(3) अरस्तू (Aristotle) के अनुसार, “शिक्षा मानवीय शक्ति का विशेष रूप से मानसिक शक्ति का विकास करती है जिससे मानव परम सत्य, शिव और सुन्दर का चिन्तन करने के योग्य बन सके।

समाज और शिक्षा में क्या सम्बन्ध

समाज और शिक्षा में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है परन्तु इससे पहले कि हम समाज और शिक्षा के इस आपसी सम्बन्ध के विषय में विचार करें, यह आवश्यक है कि हम शिक्षा के सन्दर्भ में समाज के वास्तविक अर्थ से परिचित हों । समाजशास्त्रीय भाषा में समाज एक अमूर्त सम्प्रत्यय है, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है, परन्तु सामान्य प्रयोग में सामाजिक सम्बन्धों से बने समाज विशेष को समाज कहते हैं। समाजशास्त्रीय भाषा में इसे एक समाज कहते हैं। आज संसार के प्रायः सभी राष्ट्रों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है और इस दृष्टि से राज्य विशेष की सम्पूर्ण जनता ही उस राज्य का समाज होती है। आज जब हम शिक्षा के सन्दर्भ में समाज की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य राज्य अथवा राष्ट्र विशेष की सम्पूर्ण जनता से ही होता है। जब हम इस प्रकार के किसी समाज का अध्ययन करते हैं तो उसके अन्तर्गत उसके घटक व्यक्ति-व्यक्ति, व्यक्ति-समूह और समूह समूह के सामाजिक सम्बन्धों अथवा सामाजिक अन्तः क्रियाओं का ही अध्ययन करते हैं। तथ्य यह है कि जैसा समाज होता है वैसी ही उसकी शिक्षा होती है और जैसी किसी समाज की शिक्षा होती है वैसा ही वह समाज बन जाता है। जिसका स्पष्टीकरण निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत है-

समाज का शिक्षा पर प्रभाव

प्रत्येक समाज अपनी मान्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल ही अपनी शिक्षा की व्यवस्था करता है और समाज की मान्यताएँ एवं आवश्यकताएँ उसकी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती हैं। समाज में होने वाले परिवर्तन भी उसके स्वरूप एवं आवश्यकताओं को बदलते हैं और उनके अनुसार उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता रहता है। यहाँ इस सबका वर्णन संक्षेप में आगे प्रस्तुत है

  1. समाज की भौगोलिक स्थिति और शिक्षा

किसी भी समाज का जीवन उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होता है। तब उसकी शिक्षा भी उससे प्रभावित होनी स्वाभाविक है। जिन समाजों की भौगोलिक स्थिति ऐसी होती है कि उनमें मनुष्य को जीवन रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है, उनमें अधिकतर व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए न समय होता है और न धन, परिणामतः उनमें जन शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती और शिक्षा का क्षेत्र भी सीमित होता है। इसके विपरीत जिन समाजों की भौगोलिक स्थिति मानव के अनुकूल होती है और प्राकृतिक संसाधन भरपूर होते हैं उनमें व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए समय एवं धन दोनों होते हैं, परिणामतः उनमें शिक्षा की उचित व्यवस्था होती है। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि जिस देश में जैसे प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होते हैं। उसमें वैसे ही उद्योग-धन्धे पनपते हैं और उन्हीं के अनुकूल वहाँ शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। कृषिप्रधान देशों में कृषि शिक्षा और उद्योगप्रधान देशों में औद्योगिक शिक्षा पर बल रहता है।

  1. समाज की संरचना और शिक्षा

भिन्न-भिन्न समाजों के स्वरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। कुछ समाजों में जातियाँ होती हैं और जाति-भेद भी, कुछ में जातियाँ होती हैं परन्तु जाति-भेद नहीं होता और कुछ में जातियाँ ही नहीं होती। इसी प्रकार कुछ समाजों में कुलीन और निम्न वर्ग भेद होता है और कुछ समाजों में नहीं होता। समाज विशेष के इस स्वरूप का उसकी शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए, जब इसमें कठोर वर्ण व्यवस्था थी तब शूद्रों को उच्च शिक्षा से वंचित रखा जाता था और आज जब वर्ण भेद में विश्वास नहीं किया जाता तो समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए शिक्षा की समान सुविधाएँ उपलब्ध कराने का नारा बुलन्द है।

  1. समाज की संस्कृति और शिक्षा

भिन्न-भिन्न अनुशासनों में संस्कृति को भिन्न भिन्न अर्थ में देखा-समझा गया है परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उसके रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार प्रतिमानों, आचार-विचार, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से होता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। किसी समाज की शिक्षा पर सर्वाधिक प्रभाव उसकी संस्कृति का ही होता है। किसी भी समाज की शिक्षा के उद्देश्य उसके धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और उसकी आकांक्षाओं के आधार पर ही निश्चित किए जाते हैं, उसकी शिक्षा की पाठ्यचर्या में सर्वाधिक महत्त्व उसके भाषा-साहित्य और धर्म-दर्शन को दिया जाता है और शिक्षा संस्थाओं में यथा व्यवहार प्रतिमानों को अपनाया जाता है।

  1. समाज की धार्मिक स्थिति और शिक्षा

धर्म संस्कृति का अंग होता है परन्तु यहाँ इस को अलग से इसलिए लिया गया है कि प्रारम्भ से ही शिक्षा पर धर्म का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। दूसरी बात यह है कि अब धर्म के विषय में विद्वानों के भिन्न- भिन्न मत हैं, कुछ उसे शिक्षा का आधार मानने के पक्ष में हैं और कुछ शिक्षा को धर्म से दूर रखने के पक्ष में हैं। धर्म की दृष्टि से समाजों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- एक वे जिनमें धर्म विशेष को माना जाता है और दूसरे वे जिनमें अनेक धर्मों का प्रचलन होता है। इन समाजों की शिक्षा व्यवस्था भिन्न-भिन्न होती है। धर्म विशेष को मानने वाले समाजों की शिक्षा में उनके अपने धर्म की शिक्षा को स्थान दिया जाता है; जैसे- मुस्लिम राष्ट्रों में। दूसरे प्रकार के समाजों में किसी धर्म विशेष की शिक्षा देना सम्भव नहीं होता, उनमें उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता है; जैसे- अपने देश भारत में। कुछ समाजों में धर्म शिक्षाको स्थान ही नहीं दिया जाता; जैसे- रूस में।

  1. समाज की राजनैतिक स्थिति और शिक्षा

समाज की राजनैतिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, एकतन्त्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा अन्धे राष्ट्रभक्त तैयार किए जाते हैं जबकि लोकतन्त्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए तैयार किया जाता है। इसके साथ-साथ एक बात और है और वह यह कि जो समाज राजनैतिक दृष्टि से सुरक्षित होता है उसकी शिक्षा के उद्देश्य व्यापक होते हैं और जिस समाज में राजनैतिक दृष्टि से असुरक्षा होती है वह केवल सैनिक शक्ति और उत्पादन बढ़ाने पर बल देता है।

  1. समाजसमाज की आर्थिक स्थिति और शिक्षा

समाज की आर्थिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न समाजों की शिक्षा बहुउद्देशीय होती है। वे अपने प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करते हैं, जन शिक्षा का प्रसार करते और इस सबके लिए अनेक साधन जुटाते हैं; जैसे- अमेरिका । प्रगतिशील समाज जन शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं; जैसे- भारत आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समाज न अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की बात सोच पाते हैं, न जन शिक्षा की और न व्यावसायिक शिक्षा की; जैसे- बांग्ला देश । समाज का अर्थतन्त्र भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करता है। कृषिप्रधान अर्थतन्त्र में शिक्षा की सम्भावनाएँ कम होती हैं, वाणिज्यप्रधान में अपेक्षाकृत उससे अधिक और उद्योगप्रधान में सबसे अधिक ।

  1. सामाजिकसामाजिक परिवर्तन और शिक्षा

हम जानते हैं कि समाज परिवर्तनशील है। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज के साथ-साथ उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए। प्राचीन काल में इसकी भौतिक आवश्यकताएँ कम थीं और आध्यात्मिक पक्ष प्रबल था इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में धर्म और नीतिशास्त्र की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था परन्तु आज उसकी भौतिक आवश्यकताएँ बढ़ गई हैं और आध्यात्मिक पक्ष निर्बल पड़ गया है इसलिए शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीकी को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है। कल तक नारियाँ केवल गृहिणी के रूप में रहती थीं इसलिए उन्हें केवल लिखने-पढ़ने एवं घरेलू कार्यों की शिक्षा दी जाती थी, आज वे पुरुष के साथ कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में कार्य करती हैं अतः उनके लिए पुरुषों की भाँति सभी प्रकार की शिक्षा सुलभ है। जब कभी सामाजिक क्रान्ति होती है तो वह शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर देती है।

शिक्षा का समाज पर प्रभाव

एक ओर यदि यह बात सत्य है कि समाज शिक्षा को प्रभावित करता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि शिक्षा समाज के स्वरूप को निश्चित करती है और उसकी सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती हैं। शिक्षा मानव समाज की आधारशिला है; वह समाज का निर्माण करती है, उसमें परिवर्तन करती है और उसका विकास करती है।

  1. शिक्षा और समाज की भौगोलिक स्थिति पर नियन्त्रण

एक युग था जब मनुष्य को भौगोलिक परिस्थितियों का दास कहा जाता था परन्तु आज मनुष्य शिक्षा के द्वारा अपनी भौगोलिक परिस्थितियों पर नियन्त्रण करने में सफल हो गया है। वे दिन गए जब नदी और पहाड़ हमारे मार्ग में बाधक होते थे। शिक्षा के द्वारा हवाई जहाजों का निर्माण सम्भव हुआ और हवाई जहाजों से उड़कर हम नदी और पहाड़ ही पार नहीं करते अपितु बहुत कम समय में बहुत अधिक दूरी तय करते हैं। शिक्षा के द्वारा हम हर भौगोलिक परिस्थिति पर नियन्त्रण करने में सफल होते जा रहे हैं।

  1. शिक्षा और समाज का स्वरूप

शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपने समाज के, संसार के और इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। इस ज्ञान के आधार पर ही वह अपने जीवन के उद्देश्य निश्चित करता है और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वह भिन्न-भिन्न समाजों का निर्माण करता है। सच्चा वेदान्ती मनुष्य मनुष्य में तो क्या, संसार की किन्हीं दो वस्तुओं में भी भेद नहीं करता, वह सबको ब्रह्ममय देखता है। लेकिन ईश्वर विमुख व्यक्ति भौतिक पैमाने पर ही सब कुछ कसता है और मनुष्य मनुष्य में अनेक प्रकार के भेद करता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के व्यक्तियों के समाज का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। शिक्षा एक ओर समाज के स्वरूप की रक्षा करती है और दूसरी ओर उसमें आवश्यक परिवर्तन करती है।

  1. शिक्षा और समाज की संस्कृति

प्रत्येक समाज अपने सदस्यों में अपनी संस्कृति का संक्रमण शिक्षा के द्वारा ही करता है। इस प्रकार शिक्षा किसी समाज की संस्कृति का संरक्षण करती है। जब मनुष्य शिक्षित हो जाता है तो वह अपने अनुभवों के अधार पर अपनी संस्कृति में परिवर्तन करता है। इस प्रकार शिक्षा समाज की संस्कृति में विकास करती है। शिक्षा के अभाव में संस्कृति के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।

  1. शिक्षा और समाज की धार्मिक स्थिति

हम यह देख रहे हैं कि कोई समाज अपनी शिक्षा में धर्म विशेष की शिक्षा का विधान करता है, कोई इस क्षेत्र में उदार दृष्टिकोण अपनाता है और संसार के भिन्न-भिन्न धर्मों की शिक्षा का विधान करता है और कोई समाज अपनी शिक्षा में धर्म को स्थान ही नहीं देता । परिणामस्वरूप पहले प्रकार के समाजों में धार्मिक कट्टरता पाई जाती है, दूसरे प्रकार के समाजों में धार्मिक उदारता पाई जाती है और तीसरे प्रकार के समाजों में अब एक ओर भौतिक विज्ञानों की शिक्षा से धार्मिक कूपमंडूकता एवं अन्धविश्वासों का अन्त होने लगा है और दूसरी ओर बढ़ती हुई सामाजिक अराजकता से मनुष्य अपनी शिक्षा को वास्तविक धर्म पर आधारित करने की ओर उन्मुख होने लगा है। शिक्षा के अभाव में लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ ही नहीं सकते।

  1. शिक्षा और समाज की राजनैतिक स्थिति

शिक्षा के द्वारा मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि की जाती है और उसके आचरण को निश्चित दिशा दी जाती है। शिक्षा के द्वारा ही उसमें विचार करने एवं सत्य-असत्य में भेद करने की शक्ति का विकास होता है। शिक्षा के द्वारा ही समाज में राजनैतिक जागरूकता आती है और व्यक्ति अपने अधिकार एवं कर्तव्यों से परिचित होते हैं। इसी के द्वारा उनमें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास किया जाता है। बिना उचित शिक्षा के विधान के व्यक्ति केवल राष्ट्र का अन्धा भक्त बनाया जा सकता है, जागरूक नागरिक नहीं।

  1. शिक्षा और समाज की आर्थिक स्थिति

एक युग था जब शिक्षा के द्वारा मनुष्य में केवल मानवीय गुणों का विकास किया जाता था, परन्तु रोटी कपड़े मकान की समस्या को – सुलझाने वाली शिक्षा उस समय नहीं दी जाती थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह तो हो सकता है कि उस समय इसके लिए उचित विद्यालयों की स्थापना न की गई हो परन्तु परिवार और समुदायों में यह शिक्षा बराबर चलती रही होगी अन्यथा इस क्षेत्र में विकास कैसे होता ! आज तो शिक्षा समाज की आर्थिक स्थिति का मूलाधार है। आज सभी समाज शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को किसी व्यवसाय अथवा उत्पादन कार्य में निपुण करने का प्रयत्न करते हैं। देखा यह जा रहा है कि जिस समाज में इस प्रकार की शिक्षा का जितना अच्छा प्रबन्ध है वह आर्थिक क्षेत्र में उतनी ही तेजी से बढ़ रहा है। बिना शिक्षा के हम आर्थिक क्षेत्र में विकास नहीं कर सकते।

  1. शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन

एक ओर यदि यह बात सत्य है कि समाज शिक्षा में परिवर्तन करता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन होते हैं। शिक्षा द्वारा मनुष्य अपनी जति की भाषा, रहन-सहन, खान- पान के तरीके और रीति-रिवाज सीखता है और उसके मूल्य एवं मान्यताओं से परिचित होता है। इससे उसका मानसिक विकास होता है और वह अपने, समाज के तथा इस ब्रह्माण्ड के बारे में सदैव सोचता रहता है। समाज में रहकर वह नए-नए अनुभव करता है और समाज की आवश्यकताओं एवं समस्याओं से परिचित होता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं के हल के लिए वह विचार करता है और उनके हल खोजता है और इससे समाज को प्रभावित करता है। कभी-कभी एक व्यक्ति पूरे समाज को बदल देता है। शिक्षा के अभाव में यह सब सम्भव नहीं । सामाजिक क्रान्ति के लिए शिक्षा मूलभूत आवश्यकता होती है।

समाजशास्त्र और शिक्षा में संबंध

समाजशास्त्र में समाज और सामाजिक समूहों का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति का समूह विशेष पर और समूह विशेष का व्यक्ति पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है इसका अध्ययन किया जाता है। इसके साथ-साथ व्यक्ति के व्यवहार निर्धारक अन्य सामाजिक तत्वों जैसे संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों, आदि का अध्ययन किया जाता है। शिक्षा भी एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन होता है। अतः शिक्षा समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में आती है और चूंकि दोनों का संबंध मानव व्यवहार से है इसलिए इनमें आपस में गहरा संबंध है।

मनुष्य के व्यवहार में क्या परिवर्तन करना है यह उस समाज के दर्शन, संरचना, सभ्यता संस्कृति धर्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है और इसका समग्र रूप से अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्र शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने का आधार होता है। दूसरी तरफ शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की आधारशिला होती है। उचित शिक्षा के द्वारा ही कोई समाज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विकास करता है। शिक्षा के अभाव में समाज का विकास सम्भव नहीं है। इस प्रकार हम कह सकते है कि समाजशास्त्र एवं शिक्षा में गहरा संबंध है। वे एक दूसरे के पूरक है। समाजशास्त्र मानव समाज, सामाजिक व्यवहार और सामाजिक संस्थानों का वैज्ञानिक अध्ययन है, जबकि शिक्षा सीखने, ज्ञान प्राप्त करने, कौशल, मूल्यों और दृष्टिकोण को सुविधाजनक बनाने की प्रक्रिया पर केंद्रित है।

1- एक सामाजिक संस्था के रूप में शिक्षा (Education as a Social Institution)

शिक्षा एक सामाजिक संस्था है जो सामाजिक संरचनाओं, मानदंडों और मूल्यों को प्रतिबिंबित और सुदृढ़ करती है। समाजशास्त्री अध्ययन करते हैं कि कैसे शिक्षा प्रणालियाँ व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकतों द्वारा आकार लेती हैं और वे सामाजिक असमानताओं के पुनरुत्पादन में कैसे योगदान करती हैं। वे जांच करते हैं कि शिक्षा नीतियां, पाठ्यक्रम विकल्प और शिक्षण पद्धतियां व्यक्तियों और समाज को कैसे प्रभावित करती हैं।

उदाहरण के लिए, वे विश्लेषण कर सकते हैं कि अर्थव्यवस्था में परिवर्तन, जैसे औद्योगिक से ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था में बदलाव, शैक्षिक पाठ्यक्रम और स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले कौशल को कैसे प्रभावित करते हैं।

2- शैक्षिक असमानता (Educational Inequality) 

समाजशास्त्र सामाजिक असमानताओं को पुन: उत्पन्न करने या चुनौती देने में शिक्षा की भूमिका की जांच करता है। यह सामाजिक आर्थिक स्थिति, नस्ल, लिंग और जातीयता जैसे कारकों के आधार पर शैक्षिक अवसरों, पहुंच और परिणामों में असमानताओं की जांच करता है। समाजशास्त्री विश्लेषण करते हैं कि संस्थागत प्रथाओं, ट्रैकिंग सिस्टम, मानकीकृत परीक्षण और संसाधन आवंटन के माध्यम से ये असमानताएँ कैसे बनी रहती हैं।

उदाहरण के लिए, वे इस बात की जांच कर सकते हैं कि कैसे कम आय वाले पृष्ठभूमि के छात्रों के पास अपने समृद्ध समकक्षों की तुलना में गुणवत्ता वाले स्कूलों और संसाधनों तक सीमित पहुंच है, जिसके परिणामस्वरूप असमान शैक्षणिक परिणाम होते हैं।

3- समाजीकरण और शिक्षा (Socialization and Education)

शिक्षा एक प्राथमिक समाजीकरण एजेंट है जो व्यक्तियों को ज्ञान, मूल्य और मानदंड प्रदान करता है। समाजशास्त्री अध्ययन करते हैं कि कैसे शिक्षा व्यक्तियों को प्रमुख संस्कृति में समाजीकृत करती है, उनकी पहचान को आकार देती है और उनके विश्वासों और व्यवहारों को प्रभावित करती है। वे सामाजिक अपेक्षाओं और विचारधाराओं को प्रसारित करने, सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा देने और सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देने में स्कूलों की भूमिका का पता लगाते हैं।

उदाहरण के लिए, वे विश्लेषण कर सकते हैं कि स्कूल पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों या समारोहों के माध्यम से देशभक्ति, राष्ट्रीय पहचान या सांस्कृतिक मूल्यों को कैसे पढ़ाते हैं।

4- स्कूल संस्कृति और सहभागिता (School Culture and Interaction)

समाजशास्त्री छात्रों, शिक्षकों, प्रशासकों और अन्य हितधारकों के बीच संबंधों सहित स्कूल संस्कृति की गतिशीलता की जांच करते हैं। वे छात्रों की शैक्षणिक उपलब्धि, जुड़ाव और समग्र कल्याण पर सामाजिक संपर्क, सहकर्मी समूहों और स्कूल के माहौल के प्रभाव का विश्लेषण करते हैं। समाजशास्त्रीय अनुसंधान सीखने के परिणामों पर स्कूल संगठन, कक्षा की गतिशीलता और शिक्षक-छात्र बातचीत के प्रभाव की भी जांच करता है।

उदाहरण: वे जांच कर सकते हैं कि सहकर्मी समूह छात्रों के व्यवहार और शैक्षणिक प्रदर्शन को कैसे प्रभावित करते हैं या छात्रों के आत्म-सम्मान और प्रेरणा को आकार देने में शिक्षक-छात्र की बातचीत की भूमिका का विश्लेषण करते हैं।

5- शैक्षिक नीतियां और सुधार (Educational Policies and Reform)

समाजशास्त्री शैक्षिक नीतियों और सुधार पहलों के विश्लेषण और मूल्यांकन में योगदान देते हैं। वे शैक्षिक प्रथाओं, समानता और परिणामों पर नीतिगत निर्णयों के प्रभावों का अध्ययन करते हैं। समाजशास्त्रीय अनुसंधान प्रणालीगत बाधाओं की पहचान करने, हस्तक्षेप कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने और शैक्षिक प्रणालियों में सुधार के लिए बदलावों का प्रस्ताव करने में मदद करता है।

उदाहरण के लिए, वे छात्रों के सीखने के अनुभवों और शैक्षिक समानता पर मानकीकृत परीक्षण नीतियों के प्रभाव का आकलन कर सकते हैं।

6- शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन (Education and Social Change)

शिक्षा सामाजिक परिवर्तन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाजशास्त्री अध्ययन करते हैं कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन, सशक्तिकरण और महत्वपूर्ण सोच कौशल के विकास में कैसे योगदान दे सकती है। वे मौजूदा सत्ता संरचनाओं को चुनौती देने, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और लोकतांत्रिक नागरिकता को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा की क्षमता का पता लगाते हैं।

उदाहरण के लिए, वे इस बात की जांच कर सकते हैं कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने या नस्लीय भेदभाव को संबोधित करने वाले शिक्षा कार्यक्रम सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में कैसे योगदान करते हैं।

सामाजिक विविधता

भारतवर्ष एक बहुलतायुक्त समाज है यह एक ऐसा महान देश है जिसके अंचल में अनेक जाति, धर्म, सम्प्रदाय साथ-साथ रहते हैं। यहाँ अनेक धर्म, संस्कृति, भाषा और प्रजाति के लोग निवास करते हैं। राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से भी अनेक विविधताएँ यहाँ देखने को मिलती हैं। हिन्दू, बौद्ध, जैन, इस्लाम, ईसाई, सिख आदि सभी धर्मों के लोग यहाँ पर रहते हैं। भारत में ही अनेक संस्कृतियों, जैसे सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन, मिस्र, ईरान, यूनान और रोम आदि आयी अनेक प्रजातियाँ, जैसे—आर्य, अनार्य, हूण, शक, पुर्तगाली और फ्रांसीसी आदि यहाँ आयीं। भौगोलिक दृष्टि से भी भारत एक बहुआयामी देश है। यहाँ के लोगों के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था में विविधता दिखाई देती है।

भारत एक संगठित राष्ट्र है जिसका अपना एक संविधान है जिसमें सभी धर्मों, संस्कृतियों भाषाओं और क्षेत्रीय लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान सुरक्षित है। उनके हितों का ध्यान रखा जाता है। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि भारतीय सामाजिक जीवन के अति प्राचीनकाल के इतिहास से ही विकसित भारतीय संस्कृति विविधता में एकता का अनूठा रूप और आदर्श रूप प्रस्तुत करती रही है। इसे हम भारत की सामाजिक विविधता का नाम दे सकते हैं। इस विविधता ने भी भारतीय संस्कृति में एक अभूतपूर्व एकता स्थापित की है। अब हम इन्हीं विविध भिन्नताओं के बारे में आगे विस्तार से अध्ययन करेंगे।

क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्नता

क्षेत्रीय या भौगोलिक दृष्टि से भारत में अनेक विविधताएँ व्याप्त हैं। इसमें 8000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हिमालय की चोटियों से लेकर दक्षिण में सपाट मैदान है। भूमि क्षेत्र के भी कई प्रकार हैं-द्वीप, उष्णकटिबन्धीय वन, गर्म रेगिस्तान, ऊँचे रेगिस्तान व बड़े डेल्टा आदि हैं। इसमें उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र है, दक्षिण का पठार है, राजस्थान का मरुस्थल है तो गंगा-सिन्धु का मैदान व समुद्र का तटीय मैदान भी है। इसी कारण यहाँ जलवायु में भी विभिन्नता पायी जाती है। परन्तु यहाँ के निवासी अपने में अलग रहते हुए भी एकता का अनुभव करते रहे हैं। जब कभी भी बाह संस्कृतियों से सम्पर्क और युद्ध का मौका आया है तब देश के निवासियों ने अपने आपको सदैव एक समझा है।

भारतीय संस्कृति में व्याप्त यह भौगोलिक एकता प्राचीन काल से भारतीयों में अपने देश के प्रति अनुभूति से जुड़ी हुई है। ‘मातृभूमि’ मातृदेवी के रूप में पूजनीय रही है। हिन्दुओं की सांस्कारिक परम्पराओं में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। प्रत्येक धार्मिक पूजा करने वाला व्यक्ति भरतखण्डे जम्बूद्वीपे ‘ आदि से अपना नाम और गोत्र लेकर पूजा प्रारम्भ करता है अर्थात् वह यह घोषणा करता है कि मैं जम्बूद्वीप में भारतवर्ष का निवासी अमुक नाम का व्यक्ति यह संस्कार सम्पन्न कर रहा है। इसी प्रकार प्रतिदिन प्रातः कालीन पूजा में पाँच पवित्र नदियों के नाम लिये जाते हैं सिन्धु, सरस्वती, गंगा-यमुना, नर्मदा तथा कावेरी रामायण में भी भगवान राम ने कहा है कि जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। इससे पता चलता है कि भारतीयों के मस्तिष्क में भारतवर्ष का नक्शा पहले से ही है और वे इसकी सन्तान होने पर गर्व करते हैं, इसकी धूल को माथे पर लगाकर अपने को धन्य समझते हैं। महान सम्राट अकबर ने भी फतेहपुर सीकरी के बुलन्द दरवाजे पर लिखवा दिया था कि स्वर्ग यदि कहीं है तो यहीं है। ऐसा आभास होता है कि भारतीयों को प्राचीनकाल से ही इस भौगोलिक एकता का ज्ञान था। कोई भी ऐसा कवि, साहित्यकार, वैयाकरण, नीतिकार व राजनीतिज्ञ नहीं हुआ जिसने भारत के किसी भाग को दूसरे देश का समझा हो। हमारे प्राचीनतम महाकाव्यों में भी इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ ही मिलता है। ‘विष्णुपुराण’ के एक श्लोक में तो स्पष्ट रूप से उल्लिखित है- “समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का सारा प्रदेश भारत है और उसके निवासी भारत की सन्तान हैं।”

भाषागत विभिन्नता

भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का सबसे शक्तिशाली माध्यम है। प्राकृतिक विभिन्नता के कारण इस देश में प्रायः दस मील में भाषा और बोली में अन्तर आ जाता है। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार देश में 1652 भाषायें बोली जाती थीं। वैसे भारतीय संविधान में केवल 15 भाषाओं का ही उल्लेख किया गया है, इसके अतिरिक्त तीन भाषाओं को 1992 में मान्यता दी गयी है। इन 18 भाषाओं का प्रयोग केवल सरकारी कार्य में किया जाता है। वर्तमान में तो 22 भाषाओं को मान्यता मिल चुकी है। इन भाषाओं का उपयोग साहित्य अकादमी द्वारा साहित्यिक सम्मान के लिए भी नहीं किया जाता है। इसके अतिरिक्त भी भारत में अनेक भाषायें व बोलियाँ हैं, जिनका कुछ-न-कुछ साहित्य है, जैसे – हिन्दी में अवधी, बघेली, भोजपुरी, ब्रज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, हाड़ौती, मगही, मालवी, निमाड़ी, पहाड़ी राजस्थानी भाषायें और अनेक बोलियाँ सम्मिलित हैं। इस प्रकार हमारे देश व समाज में भाषागत विविधता भी बहुत है। इरावती कर्वे के अनुसार भारतीय समाज में तीन भाषायी परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं—

(अ) इण्डो-यूरोपीय भाषायी परिवार भारत में 78.4 फीसदी लोग आर्य भाषा समूह बोली बोलते हैं। इसमें पंजाबी हिन्दी, बिहारी, बंगला, असमिया, राजस्थानी, गुजराती मराठी, उड़िया, कश्मीरी इत्यादि भाषाएँ सम्मिलित है।

(ब) द्रविड़ भाषायी परिवार—भारत में 20.6 फीसदी लोग द्रविड़ भाषा बोलते हैं। इसमें तेलुगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम, कोडगू, गोंडी इत्यादि भाषाएँ आदि है।

(स) आस्ट्रो एशियाई भाषायी परिवार इसमें मुंडारी, योन्दो, जुआंग, भूनिया, संथाली, खासी इत्यादि भाषाएँ आती है।

धर्म के आधार पर सामाजिक विभिन्नता

भारतीय समाज और जनजीवन में धार्मिक विविधता भी बहुत है विश्व के सभी प्रमुख ध के अनुयायी भारत में रहते हैं और अपनी धार्मिक विशेषताओं को कायम करने का प्रयास करते रहे है। इसी कारण यह समाज धर्म की दृष्टि से अनेक वर्गों में विभक्त होता गया। भारत मुख्य तौर पर सात धर्म हैं— हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन व अन्य धर्म । इन धर्मों को मानने वाले लोगों का प्रतिशत निम्नवत् है—

धर्म लोगों का प्रतिशत
हिन्दू-

मुस्लिम –

ईसाई-

सिक्ख-

बौद्ध-

जैन-

पारसी-

अन्य-

80.46%

13.43%

2.34%

1.87%

0.77%

0.41%

0.06%

0.72%

सांस्कृतिक विविधता

भारत जैसे विशाल देश मे सांस्कृतिक विविधताओं का होना स्वाभाविक है। इस देश की भौगोलिक पर्यावरण, धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक उन्नति, औद्योगिक प्रगति, जीवन शैली में विविधतायें आदि सभी इसकी सांस्कृतिक विविधताओं की अभिव्यक्ति है। भारत में सांस्कृतिक विविधताएँ-धर्म, वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन, संगीत, नृत्य, लोकगीत, विवाह प्रणाली व जीवन संस्कार आदि अनेक क्षेत्रो मे दिखाई देती है। महानगरों में पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव दिखाई देता है तो ग्रामीण जीवन की भी अपनी ही भारतीय संस्कृति है। अनेक धर्मानुयी यहाँ विद्यमान है। इन सबकी प्रथाएँ रुचियों व इच्छाएँ है मत-मतान्तरों की विविधता भी उनकी संस्कृति को प्रभावित करती है कुछ जातियों, समुदाय और सम्प्रदायों के व्यक्तिगत लोकाचार है जिनका क्षेत्र की जनसंख्या के तत्त्वों से सावयवी सम्बन्ध रहता है तथा जिसके अनुसार किसी समाज का सांस्कृतिक व्यक्तित्व भी विकसित होता रहता है। उदाहरणार्थ भारत अनेक भूखण्डो में विभाजित है व प्रत्येक भूभाग की अपनी एक विशेषता है। प्रत्येक प्रदेश की अपनी संस्कृति है, जैसे मध्य प्रदेश की नगरीय संस्कृति की विशेषता जनजातियों के क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न है, जबकि दोनों एक ही राज्य के निवासी है परन्तु इनके रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, बोली, व्यवहार, रीति-रिवाज आदि में विविधतायें सरलता से देखी जा सकती है। इसी प्रकार सांस्कृतिक विविधता के अन्तर्गत समाज में भिन्नता आने का कारण धार्मिक विश्वासों की विविधतायें, जातीय संरचना व सांस्कृतिक विविधतायें आदि भी होती है।

जातिगत सामाजिक विभिन्नता

भारतीय समाज में जाति के आधार पर भी विविधता दिखाई देती है। यद्यपि यह विविधता प्राकृतिक या बाह्य कारणों से नहीं वरन् हिन्दू संस्कृति की ही देन है, परन्तु सामाजिक जीवन के खण्डात्मक विभाजन की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। भले ही जाति व्यवस्था को भारत में मुख्यतः हिन्दू धर्म के साथ जोड़कर देखा जाता है, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में अन्य कई धर्म जैसे कि मुस्लिम (Muslim) और ईसाई धर्म के कुछ समूहों में भी इस प्रकार की व्यवस्था देखी गयी है। आज बड़े शहरों में तो ये जातिगत बन्धन कुछ ढीले हो गये है, परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में ये यन्दिशे आज भी विद्यमान है सामान्य तौर पर जाति के आधार पर प्रमुख विभाजन निम्न प्रकार देखने को मिलते हैं-

  • ब्राह्मण विद्वान समुदाय, जिसमें याजक, विद्वान, विधि विशेषज्ञ, मंत्री और राजनयिक शामिल हैं।
  • क्षत्रिय उच्च और निम्न मान्यवर या सरदार, जिनमें राजा, उच्च पद के लोग, सैनिक और प्रशासक भी शामिल है।
  • वैश्य व्यापारी और कारीगर समुदाय, जिनमें सौदागर, दुकानदार, व्यापारी और खेत के मालिक शामिल हैं।

शुभ रोक्न था सेवा प्रदान करने वाली प्रजाति में अधिकतर गैर-प्रदूषित कार्यों में लगे शारीरिक और कृषक श्रमिक शामिल हैं।

हम देखते है कि यह जातीय भेदभाव देश की राजनीति पर भी हावी होता जा रहा है।केखिल संघ बने हैं। राजनीतिक दल भी चुनाव के दौरान जातिवाद का उपयोग करते हैं। इस उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिवाद के आधार पर ही सत्ता के लिए प्रतियोगिता स्पष्ट देखी जा सकती है।

जनजातीय विभिन्नता

भारतवर्ष में आज भी अनेक ऐसे मानव समूह निवास करते हैं जो आज भी आधुनिक सभ्यता के प्रभावों से कोसों दूर हैं। इन्हीं को जनजाति अथवा वन्यजाति कहा जाता है। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 6.78 करोड़ जनजातीय लोग रहते हैं। कुछ जनजातियाँ आदिम अवस्था में ही रहती हैं, जबकि कुछ ने आधुनिक सुख साधनों को अपना लिया है। इन सभी जनजातियों की भाषा अलग है, प्रजा विधि अलग है और संस्कृति भी अलग है। इन सभी जनजातियों में सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है भारतीय संविधान में इनकी संख्या 216 है, परन्तु इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो जनजातीय जीवन बिता रहे हैं। भारत में मुख्य रूप से चार प्रमुख जनजातियों है जिनका सामाजिक परिवेश अन्य जनजातियों से काफी भिन्न-भिन् है। यह एक भारत की खूबसूरती है जहां पर तमाम प्रकार की जनजातियां निवास करती है और उसके बावजूद विनता में एकता कायम करती है।

बच्चों के समाजीकरण में शिक्षक की भूमिका

बालक का समाजीकरण जहाँ समाज की अन्य संस्थाएँ करती हैं वहीं विद्यालय भी करता है। विद्यालय परिवार के बाद समाजीकरण की महत्त्वपूर्ण संस्था है। विद्यालय में शिक्षक निम्न प्रकार से बालक का समाजीकरण करता है-

  1. संस्कृति का हस्तांतरण

संस्कृति का हस्तांतरण के लिए समाजीकरण बहुत जरूरी है। जब बालक संस्कृति, रीति-रिवाज, मान्यताएं, आर्दश, विश्वास, परम्पराओं का ज्ञान करता हैं तभी वह सामाजिक अनुकलन भी कर पाता हैं। यह शिक्षक का कार्य है कि बालक को उसकी वृहद् संस्कृति का ज्ञान कराए।

  1. अभिभावकशिक्षक सहयोग

शिक्षक को समाजीकरण की गति को तीव्रता प्रदान करने के लिए अभिभावकों का सहयोग लेना चाहिए। उसे अपने छात्र की रूचियों, मनोवृत्तियों, घर मे उसके साथ किया जाने वाला व्यवहार, परिवार का सामाजिक-आर्थिक स्तर व अभिभावकों का शैक्षिक स्तर, सबका ज्ञान करना चाहिए तभी वह छात्रों को अपने व्यक्तित्व के अनुसार विकसित होने का अवसर दे सकेगा।

  1. सामाजिक आदर्शों का प्रस्तुतीकरण

शिक्षक को कक्षा-कक्ष के अलावा खेल के मैदान, सांस्कृतिक गतिविधियों, सहित्यिक क्रियाओं, विद्यालय के उत्सवों सबमे सामाजिक आदर्शो का प्रस्तुतीकरण करना चाहिए जिससे उनका अनुकरण कर बालक का समाजीकरण स्वाभाविक रूप से हो।

  1. विद्यालयी परम्पराओं की स्थापना

प्रत्येक विद्यालय के अपने आदर्श व उद्देश्य होते हैं। इसके अलावा कुछ परम्पराएं भी होती हैं जिनके अनुपालन से छात्र अपने को एक विशिष्ट वर्ग का सदस्‍य समझने लगता हैं। इन विद्यालयी परम्पराओं की स्थापना का कार्य शिक्षक ही कर सकते हैं। जैसे-शिक्षक छात्रों को यह ज्ञान दे सकते हैं कि बड़ों का सम्मान विद्यालयी परम्परा है और इसका पालन कर छात्र न केवल विद्यालय के वातावरण से समायोजन करेगा बल्कि वृहद् सामाजिक वातावरण से भी अनुकूलन कर सकेगा।

  1. सामूहिक कार्य प्रोत्साहन

समूह में कार्य करने से समाजीकरण स्वाभाविक रूप से हो जाता हैं। समूह में कार्य करने से बालक में नेतृत्व, सहयोग, अनुकरण, विनम्रता आदि की भावना आ जाती हैं। शिक्षक, विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के माध्यम से छात्रों को सामूहिक कार्य के अवसर प्रदान करता हैं और इस प्रकार समाजीकरण में सहयोग प्रदान करता हैं।

  1. अंतरसांस्कृतिक भावना का विकास

विद्यालय में विभिन्न परिवारों के लोग आते हैं, जिनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अलग-अलग होती हैं। शिक्षक, छात्रों को सभी संस्कृतियों की विभिन्नता का ज्ञान देकर उनका आदर करने की प्रेरणा देता हैं। इससे छात्र में अन्तर-सांस्कृतिक भावना विकसित होती हैं या भविष्य में समाजीकरण करने में सहायक होती हैं।

  1. स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा

सामाजिक संबंधों पर ही समाजीकरण आधारित होता हैं। संबंधों का एक स्वरूप प्रतियोगिता भी होता हैं। पर प्रतियोगिता स्वस्थ हो तभी समाजीकरण में सहायक होती हैं। अतः शिक्षक को कक्षा-कक्ष मे और खेल के मैदान में सभी जगह स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा देना चाहिए।

  1. स्वस्थ मानवीय संबंध

बालक के समाजीकरण में स्वस्थ मानवीय संबंधों का गहरा प्रभाव पड़ता हैं। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह दूसरे बालकों, शिक्षकों व प्रधानाचार्य के साथ स्वस्थ मानवीय संबंध स्थापित करें। इससे विद्यालय का वातावरण भी सौहार्दपूर्ण हो जायेगा। उस वातावरण मे रहकर बालक का समाजीकरण भी निश्चित रूप से हो जायेगा।

  1. शिक्षक का आदर्श व्यक्तित्व

विद्यालय में शिक्षक ही छात्रों के आदर्श होते हैं। उन्हें कक्षा में, खेल के मैदान में, पाठ्यक्रम-,सहगामी अन्य गतिविधियों में सामाजिक व्यवहार के आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत करना चाहिए। बालक अनुकरण की अपनी मूल प्रवृत्ति के कारण शिक्षक के ढंगों, कार्यों, आदतों व तरीकों का अनुकरण करता हैं। अतः शिक्षक को कोई भी असामाजिक या अनुचित कार्य व व्यवहार नहीं करना चाहिए। उसे सदैव सतर्क रहना चाहिए। उसे कोई भी कार्य करने से पहले सोच लेना चाहिए क्योंकि उसके व्यवहार का प्रभाव बालक पर पड़ता हैं।

भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा के द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद बनाये गये। 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा द्वारा डॉ० भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में ‘प्रारूपण समिति’ बनायी गयी। गम्भीर चिन्तन और व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात् संविधान सभा द्वारा इसे 26 नवम्बर, 1949 को स्वीकार कर लिया गया, जिसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इसीलिए प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को गणराज्य दिवस के रूप में यह राष्ट्रीय त्यौहार मनाया जाता भारतीय संविधान का निर्माण संविधान निर्मात्री सभा द्वारा दो वर्ष ग्यारह माह और अट्ठारह दिन में किया गया। इसके निर्माण पर कुल व्यय 6.3 करोड़ रुपये हुआ। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रमुख विशेषतायें

भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रमुख विशेषतायें निम्न प्रकार हैं– 

(1) हम भारत के लोग

प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द हैं— ‘हम भारत के लोग’। इन शब्दों का अर्थ यह है कि यह संविधान हम भारत के लोगों ने बनाया है। यह किसी बाहरी शक्ति के द्वारा हम पर लादा नहीं गया है। हमारा संविधान स्वयं हमारी ही कृति है।

(2) सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य

सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न’ का अर्थ है कि हमारा देश आन्तरिक एवं बाह्य नीति दोनों में पूर्णतया स्वतन्त्र है। किसी दूसरे राज्य को यह अधिकार नहीं है कि वह हमारे घरेलू अथवा वैदेशिक मामलों में कोई हस्तक्षेप करे। ‘लोकतन्त्रात्मक’ शब्द का अर्थ है कि शासन की सर्वोच्च शक्ति लोक या जनता में निहित है, जनता ही सम्प्रभु है। ‘गणराज्य’ शब्द से अभिप्राय यह है कि भारत का सर्वोच्च अधिकारी ‘राष्ट्रपति’ जनता द्वारा निर्वाचित है, वंश-परम्परा से आने वाला राजा या सम्राट नहीं है।

(3) सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय

भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के लिए मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत यह स्पष्ट घोषणा की गयी है कि धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा, किसी के साथ पक्षपात नहीं किया जायेगा। आर्थिक न्याय के लिए भारत का प्रत्येक नागरिक अपने गुण व योग्यता के अनुसार काम पाने का अधिकारी होगा। राजनीतिक न्याय के लिए सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार होगा और कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान माने जाएंगे।

(4) धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान के द्वारा प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म अथवा पूजा पद्धति को अपनाने की स्वतन्त्रता होगी। हमारा संविधान सहिष्णुता के सिद्धान्त पर आधारित है। धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

(5) बन्धुत्व की भावना 

भारतीय संविधान सभी भारतवासियों में बन्धुत्व के भाव पैदा करने पर बल देता है, जिससे राष्ट्र की एकता और अखण्डता अक्षुण्य रहे। देशद्रोह, पारस्परिक वैमनस्य जिन विचारों से फैलता हो, ऐसे विचारों के अतिरिक्त विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भारतीय संविधान देता है।

(6) धर्मनिरपेक्षता 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है जिसका अर्थ यह है कि भारत का कोई राजधर्म नहीं है। कोई भी व्यक्ति, किसी भी धर्म को माने, राज्य को कोई आपत्ति नहीं होगी। राज्य न धार्मिक होगा, न अधार्मिक होगा और न धर्म विरोधी होगा बल्कि धार्मिक सिद्धान्तों और कार्यवाहियों से सर्वथा पृथक् रहेगा और इस प्रकार धार्मिक मामलों में तटस्थ रहेगा।

(7) सामाजवादी राज्य

भारतीय संविधान में समाजवादी राज्य की स्थापना की बात कही गयी है। जिसका अर्थ यह है कि समाजवाद के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र का कोई अर्थ नहीं होता, इसलिए संविधान देशवासियों को समान आर्थिक अवसर प्रदान करेगा। भूमि, श्रम, पूँजी और संगठन जैसे उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का स्थायित्व होगा और इन कारकों के उपयोग से किसी व्यक्ति को निजी लाभ अर्जित करने का अवसर नहीं मिलेगा।

मौलिक अधिकारों का अर्थ एवं महत्त्व

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिये मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिनमें राज्य द्वारा न्यायोचित हस्तक्षेप भी किया जा सकता है, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकार मानवीय स्वतंत्रता के मापदण्ड और संरक्षक दोनों ही हैं। ये प्रजातंत्र के आधार स्तम्भ हैं। भारत का संविधान प्रजातंत्रीय संविधान है, इसलिए उसके द्वारा देश के नागरिकों को ये अधिकार प्रदान किये गये हैं। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का महत्त्व या उपयोगिता को निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है—

(1) इन अधिकारों के द्वारा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास की सुरक्षा प्रदान की गयी है।

(2) ये अधिकार राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर हैं। व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।

(3) न्यायपालिका इन अधिकारों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक पग उठा सकती है।

(4) ये अधिकार देश के राजनीतिक जीवन में एक दल विशेष का अधिनायकत्व स्थापित होने से रोकने में सहायता करते हैं।

(5) ये अधिकार राज्य के बढ़ते हुये हस्तक्षेप और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच सन्तुलन स्थापित करते हैं।

भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार

भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सात वर्गों में रखा गया था लेकिन सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के इन वर्गों से हटा लेने के बाद अब निम्नलिखित छः प्रकार के मौलिक अधिकार भारतीय संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदान किये गये हैं-

(1) समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)

(2) स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)

(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)

(4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)

(5) सांस्कृतिक एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)

(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

(1) समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)

समानता का अधिकार भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों में से एक है जो धर्म, लिंग, जाति, नस्ल या जन्म स्थान की परवाह किए बिना सभी के लिए समान अधिकारों की गारंटी देता है। यह सरकार में समान रोजगार के अवसर सुनिश्चित करता है और जाति, धर्म आदि के आधार पर रोजगार के मामलों में राज्य द्वारा भेदभाव के खिलाफ बीमा करता है। इस अधिकार में उपाधियों के साथ-साथ अस्पृश्यता का उन्मूलन भी शामिल है।

(2) स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)

स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक समाज द्वारा सबसे महत्वपूर्ण आदर्शों में से एक है। भारतीय संविधान स्वतंत्रता की स्वतंत्रता देता है। स्वतंत्रता के अधिकार में कई अधिकार शामिल हैं जैसे:

* अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

* अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

* बिना हथियार के एकजुट होने की आजादी

* संघ की आजादी

* किसी भी तरह का विरोधाभास की स्वतंत्रता

* देश के किसी भी हिस्से में रहने की आजादी

(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)

इस अधिकार का तात्पर्य मानव तस्करी, बेगार और अन्य प्रकार के जबरन श्रम पर रोक लगाना है। इसका तात्पर्य कारखानों आदि में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाना भी है। यह संविधान खतरनाक परिस्थितियों में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है।

(4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)

यह भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को इंगित करता है। वहां सभी धर्मों को समान सम्मान दिया जाता है. इसमें विवेक, व्यवसाय, आचरण और धर्म के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता है। राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से अपने विश्वास का पालन करने, धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों की स्थापना और रखरखाव करने का अधिकार है।

(5) सांस्कृतिक एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)

ये अधिकार धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी विरासत और संस्कृति को संरक्षित करने की सुविधा प्रदान करते हैं। बिना किसी भेदभाव के शुरुआत का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए।

(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

यदि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो संविधान उपचार की गारंटी देता है। सरकार किसी के अधिकारों का हनन या उन पर अंकुश नहीं लगा सकती। जब इन अधिकारों का उल्लंघन होता है तो पीड़ित पक्ष अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय भी जा सकते हैं जो मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए रिट जारी कर सकता है।

मौलिक कर्तव्य 

भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख अनुच्छेद 51(क) एवं भाग 4 (क) में किया गया है। वर्तमान समय में भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों की संख्या 11 है। इन मौलिक कर्तव्यों का पालन करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है। मौलिक कर्तव्य में राष्ट्र की भावना एवं संप्रभुता को बढ़ावा देते हैं।

मौलिक कर्तव्यों का उद्देश्य है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने प्रत्येक कार्य एवं प्रत्येक लक्ष्य के आगे राष्ट्रहित एवं राष्ट्र की स्वतंत्रता एवं संप्रभुता होनी चाहिए।

भारत के संविधान में मौलिक कर्तव्य के अंतर्गत भारतीय संविधान का पालन करना, राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना, राष्ट्रगान के प्रति आदर सम्मान का भाव एवं सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा एवं देखभाल करने जैसे कर्तव्य शामिल है।

मौलिक कर्तव्यों का निर्माण 

सन 1976 में मौलिक कर्तव्य को भारतीय संविधान में 42 वें संविधान संशोधन के समय शामिल किया गया। इन मौलिक कर्तव्य को पूर्व सोवियत संघ के संविधान के मौलिक कर्तव्यों के आधार पर किया गया है। इन मौलिक कर्तव्य की संरचना सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर की गई है।

प्रारंभ में मौलिक कर्तव्य की संख्या 10 थी लेकिन भारतीय संविधान के 86 में संविधानिक संशोधन द्वारा इनकी संख्या 10 से 11 कर दी गई।

तो आइए जानते हैं कि भारतीय नागरिक होने के नाते हमारे 11 मौलिक कर्तव्य कौन-कौन से हैं –

1 संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का सम्मान करें ।

2 स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखें और उनका सम्मान करें ।

3 भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्ण रखें ।

4 देश की रक्षा करें और युद्ध इत्यादि की स्थिति में आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करें ।

5 भारत के सभी लोगों में समरसता और भाईचारे की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी भेदभाव से परे हों तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं ।

6 हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझें और उसका परिरक्षण करें ।

7 पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्धन करें तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखें ।

8 वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें ।

9 सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।

10 व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊचाइयों को छूने में सक्षम हो ।

11 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बीच अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराएं (यह कर्तव्य 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा जोड़ा गया)

राज्‍य के नीति निर्देशक तत्‍व

राज्य नीति के निदेशक तत्व: संविधान के चतुर्थ अध्याय में राज्य के लिए कुछ नीति निर्देशक तत्व का वर्णन किया गया है। संविधान में इन नीति निर्देशक सिद्धांतों को आयरलैंड के संविधान से लिया गया है। नीति निदेशक सिद्धांत जैसे उपबंध हैं, जिनमें न्यायालय का संरक्षण प्राप्त नहीं है। यानि कि कोर्ट के द्वारा बाउंडेटा नहीं दिया जा सकता है।

राज्य नीति के निदेशक तत्व, भारत के संविधान के भाग IV में 36 से 51 तक का विवरण दिया गया है।

संविधान कुछ राज्‍य के नीति निर्देशक तत्‍व निर्धारित करता है, यद्यपि ये न्‍यायालय में कानूनन न्‍यायोचित नहीं ठहराए जा सकते, परन्‍तु देश के शासन के लिए मौलिक हैं, और कानून बनाने में इन सिद्धान्‍तों को लागू करना राज्‍य का कर्तव्‍य है। ये निर्धारित करते हैं कि राज्‍य यथासंभव सामाजिक व्‍यवस्‍था जिसमें-सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्‍याय की व्‍यवस्‍था राष्‍ट्रीय जीवन की सभी संस्‍थाओं में कायम करके जनता नीतियों को ऐसी दिशा देगा ताकि सभी पुरुषों और महिलाओं को जीविकोपार्जन के पर्याप्‍त साधन मुहैया कराए जाएं। समान कार्य के लिए समान वेतन और यह इसकी आर्थिक क्षमता एवं विकास के भीतर हो, कार्य के अधिकार प्राप्‍त करने के लिए प्रभावी व्‍यवस्‍था करने, बेरोजगार के मामले में शिक्षा एवं सार्वजनिक सहायता, वृद्धावस्‍था, बीमारी एवं असमर्थता या अयोग्‍यता की आवश्‍यकता के अन्‍य मामले में सहायता करना। राज्‍य कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी, कार्य की मानवीय स्थितियों, जीवन का शालीन स्‍तर और उद्योगों के प्रबंधन में कामगारों की पूर्ण सहभागिता प्राप्‍त करने के प्रयास करेगा।

आर्थिक क्षेत्र में राज्‍य को अपनी नीति इस तरह से बनानी चाहिए ताकि सार्वजनिक हित के निमित सहायक होने वाले भौतिक संसाधनों का वितरण का स्‍वामित्‍व एवं नियंत्रण हो, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक प्रणाली कार्य के फलस्‍वरूप धन का और उत्‍पादन के साधनों का जमाव सार्वजनिक हानि के लिए नहीं हो। राज्य के नीति निर्देशक तत्व का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है-

सामाजिक और आर्थिक न्याय

नीति के निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वे लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करें जिनमें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हो, यह वह निर्देश है जो संविधान की प्रस्तावना में अंतर्निहित थे जिनके अनुसार राज्य का कर्तव्य अपने नागरिकों के लिए सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करें।

आर्थिक न्याय 

राज्य की नीति के निदेशक तत्व अनुच्छेद 39 के अंतर्गत राज्य को विशेष रूप से अपनी नीति का कुछ इस प्रकार संचालन करने का निर्देश देते हैं कि पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो और समुदाय की भौतिक संपदा का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हितों का सर्वोत्तम साधन बन सके।

इस खंड के अधीन जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्य उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण कर सकता है। आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधन का सर्वसाधारण के हित के लिए केंद्र न हो।

पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन हो

कर्मचारियों के स्वास्थ्य शक्ति का और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगार में न जाना पड़े जो उनकी उम्र और शक्ति के अनुकूल नहीं हो।

बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं और बाल को तथा अल्प आयु वाले व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक प्रत्यक्ष रक्षा की जाए।

उद्योगों के प्रबंध में कर्मचारियों का भाग लेना

अनुच्छेद 43 का राज्य से यह अपेक्षा करता है कि राज्य उपयुक्त विधान द्वारा एक किसी अन्य प्रकार से किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों व संस्थापकों अथवा अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मचारियों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएगा।

कुछ अवस्थाओं में काम शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार

भारत के संविधान का अनुच्छेद 41 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह अपनी सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर प्रत्येक व्यक्ति के लिए काम पाने शिक्षा पाने तथा बेकारी बुढ़ापा बीमारी अंग हानि तथा अयोग्यता अभाव की दशाओं में सार्वजनिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का कार्य साधक उपबंध करेगा।

मजदूरों के लिए निर्वाह मजदूरी और कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना

अनुच्छेद 46 राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह कर्मचारियों के काम निर्वाह मजदूरी शिष्ट जीवन और उसका संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करेगा विशेष रूप से ग्रामों में कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।

समाज के दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि

अनुच्छेद 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक न्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी समीक्षा करेगा।

बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध 46वा संशोधन अधिनियम 2002

इस संशोधन द्वारा राज्य अनुच्छेद 45 के स्थान पर नया अनुच्छेद रखा गया है। अनुच्छेद उपबंधित करता है कि राज्य 6 वर्ष की आयु के सभी बालकों के पूर्व बाल्य काल की देखरेख को शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करने के लिए उपबंध करेगा।

जीवन स्तर को ऊंचा करने का प्रयास

अनुच्छेद 45 के अधीन राज्य को यह प्रथम कर्तव्य दिया गया है कि वह लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने के लिए लोक स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करें तथा विशिष्ट रूप से मादक पदार्थ और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के औषधि प्रयोजन को छोड़कर उपयोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करें। इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत की संसद द्वारा एनडीपीएस एक्ट 1985 बनाया गया है।

समान न्याय और निशुल्क विधिक सहायता

संविधान के 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा इसे संविधान में जोड़ा गया है। अनुच्छेद 39 (क) राज्य को यह निदेश देता है कि वह यह सुनिश्चित करें कि विधिक व्यवस्था इस प्रकार काम करें कि सभी को अवसर के आधार पर सुलभ हो और वह विशिष्ट रूप से आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए तथा उपयुक्त विधान द्वारा किसी अन्य रीति से निशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करें।

ग्राम पंचायतों का संगठन

भारत के संविधान का अनुच्छेद 40 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में कार्य करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।

कृषि और पशुपालन

भारत के संविधान का अनुच्छेद 48 राज्य को निर्देश देता है कि वह कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों पर संगठित करने का प्रयास करेगा तथा विशेष रूप से गायों व बछड़ों और अन्य दुधारू और वाहक दोनों की नस्ल के परीक्षणों और सुधारने के लिए और उनके वध को प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।

पर्यावरण संरक्षण तथा वन्य जीवो की रक्षा

अनुच्छेद 48 यह अपेक्षा करता है कि राज्य देश के पर्यावरण की सुरक्षा तथा उसमें सुधार करने का और वन्यजीवों की रक्षा का प्रयास करेगा। एम सी मेहता बनाम भारत संघ के मामले में यह कहा गया है कि अनुच्छेद 48 ए निर्देश तत्व के अधीन केंद्र और राज्य सरकार का यह कर्तव्य है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए उचित कदम उठाए। पालन के लिए आदेश देने की शक्ति है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग

NCPCR का गठन मार्च 2007 में ‘कमीशंस फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स’ (Commissions for Protection of Child Rights- CPCR) अधिनियम, 2005 के तहत एक वैधानिक निकाय के रूप में किया गया है। यह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) बाल अधिकारों के सार्वभौमिकता और अखंडता के सिद्धांतों पर बल देता है तथा देश के बच्चों से जुड़े सभी नीतियों में अत्यावश्यकता की आवाज को आधिकारिक रूप से मान्यता प्रदान करता है। आयोग के लिए, 0 से लेकर 18 वर्ष की आयु वर्ग के सभी बच्चों की सुरक्षा समान महत्व रखता है। अत:, नीति अत्यधिक कमजोर बच्चों के लिए प्राथमिक कार्यकलाप को परिभाषित करती है। इसमें उन क्षेत्रों में ध्यान एकाग्रता शामिल है जो पिछड़ा है अथवा कुछ निश्चित परिस्थितियों वाले समुदायों अथवा बच्चों इत्यादि हैं। NCPCR की मान्यता यह है कि केवल कुछ बच्चों के ऐड्रेसिंग के दौरान, अनेक कमजोर बच्चों के बहिष्करण में दोष हो सकता है जो परिभाषित अथवा लक्षित वर्गों में आ सकते हैं। इसे व्यवहार में लाने में, सभी बच्चों तक पहुंचने का कार्य संकट में पहुंच आता है और बाल अधिकारों के उल्लंघन की सामाजिक सहनशीलता जारी रहती है। दरअसल इस कार्यक्रम का प्रभाव लक्षित जनसंख्या पर भी पड़ेगा। इसलिए, ऐसा माना जाता है कि, यह बाल अधिकार के संरक्षण के हित में एक बड़े वातावरण का निर्माण है, वे बच्चे जो लक्षित है उभरते हैं तथा अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं।

इसी तरह, आयोग के लिए, बच्चों को मिलने वाले सभी अधिकार पारस्परिक-सुदृढ़ीकरण और अन्योन्याश्रित के रूप में देखा जाता है। इसलिए अधिकारों के कोटि निर्धारण के मुद्दे नहीं उठते। कोई बच्चा अपने 18वें वर्ष पर सभी अधिकार प्राप्त कर सकता है जो जन्म से लेकर उसकी सभी पात्रता के अभिगम पर निर्भर करता है। अत: नीतियों के हस्तक्षेप को सभी अवस्थाओं पर महत्वपूर्ण माना जाता है। आयोग के लिए, सभी बच्चों के अधिकार समान महत्व के होते हैं।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के कार्य

इस अधिनियम में आयोग के कार्य इस प्रकार हैं:

  1. आयोग बाल अधिकारों का संरक्षण करेगा।
  2. प्रदान किए अथवा किसी कानून के तहत एक खास समय में बाल अधिकारों की सुरक्षा की जांच तथा समीक्षा करना तथा उनके प्रभावी क्रियांवयन के लिए उपाय की अनुशंसा करना।
  3. केंद्र सरकार को वार्षिक रूप से या जैसा कि आयोग को सही लगता है, उन सुरक्षा के प्रावधानों के कार्य पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
  4. बाल अधिकारों के उल्लंघन की जांच करना तथा ऐसे मामलों में कार्यवाही की शुरुआत की अनुशंसा करना।
  5. आतंकवाद, सांप्रदायिक हिंसा, दंगे, प्राकृतिक आपदाओं, घरेलू हिंसा, एचआइवी / एड्स, देह व्यापार, दुर्व्यवहार, उत्पीड़न तथा शोषण, पॉर्नोग्राफी तथा वैश्यावृत्ति द्वारा प्रभावित बच्चों के उन कारकों की जांच करना जो उनके अधिकार का वंचन करते हों व उपयुक्त उपचारात्मक उपायों की अनुशंसा करना।
  6. विशेष देखभाल तथा सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चों से जुड़े मामले को देखना, जिसमें विपत्ति, हाशिए पर स्थित बच्चे, वंचित बच्चे, गैर-कानूनी काम करने वाले बच्चे, किशोर, बिना परिवार के बच्चे व कैदियों के बच्चे शामिल होते हैं, साथ ही उनके लिए उचित उपचारात्मक कदमों की अनुशंसा करना।
  7. सम्झीतों व अन्य अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों का अध्ययन करना व मौजूदा नीतियों, कार्यक्रमों व बाल अधिकारों पर अन्य क्रियाकलापों का समय- समय पर समीक्षा करना और बच्चों के हित में उनके प्रभावी क्रियांवयन के लिए अनुशंसा करना।
  8. बाल अधिकारों के क्षेत्र में अनुसंधान का संचालन करना।
  9. समाज के विभिन्न क्षेत्रों में बाल अधिकार साक्षरता का प्रसार करना तथा इन अधिकारों के लिए उपलब्ध सुरक्षा प्रावधानों के लिए प्रकाशन, मीडि सेमिनार व अन्य साधनों के जरिए जागरुकता फैलाना।
  10. किसी किशोर हिरासत गृह या किसी अन्य आवास अथवा संस्थान जहां बच्चों को उपचार, सुधार या सुरक्षा के लिए रखे या रोके जाते हैं, जो केंद्र सरकार या राज्य सरकार के तहत आते हों या किसी अन्य प्राधिकार के तहत आते हों, इसमें किसी सामाजिक संगठन द्वारा संचालित संस्थान भी शामिल हैं, की जांच करना या इसका आदेश देना और आवश्यकता पड़ने पर इन संस्थानों को उपचारात्मक कार्रवाई करने का भी आदेश देना।
  11. निम्न मामलों में शिकायतों की जांच करना और अपनी तरफ से नोटिस भेजना।
  12. बाल अधिकारों का उल्लंघन व वंचन।
  13. ii. बच्चों की सुरक्षा तथा विकास के लिए उपलब्ध कानून का क्रियांवयन न होना।
  14. iii. बच्चों की कठिनाइयां कम करने वाले तथा बच्चों के कल्याण को सुनिश्चित करने वाले नीति निर्णयों, दिशा-निर्देशों या निर्देशों का अनुपालन न होना, तथा ऐसे बच्चों को राहत प्रदान करना या ऐसे मामले को उचित प्राधिकारों के साथ चर्चा करना।
  15. कोई अन्य कार्य, जो कि यह बच्चों के अधिकार को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक समझता हो, तथा वे मामले जो उपरोक्त कार्यों के लिए ज्ञातव्य हो।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की शक्तियां

किसी मामले की जांच करने के दौरान आयोग के पास कोड ऑफ सिविल प्रॉसीजर 1908 के तहत विशेषकर निम्न मामलों में व्यवहार न्यायालय द्वारा कार्यवाही करने के सभी अधिकार होंगे-

  1. भारत के किसी भी हिस्से से किसी व्यक्ति को सम्मन जारी करना तथा उन्हें उपस्थित होने के लिए कहना और शपथ दिलाकर जांच करना।
  2. किसी दस्तावेज की खोज तथा निर्माण करने की आवश्यकता जताना
  3. शपथपत्रों पर साक्ष्य प्राप्त करना।
  4. किसी कोर्ट ऑफ ऑफिस से किसी पब्लिक रिकॉर्ड या उसकी कॉपी की मांग करना।
  5. गवाहों या दस्तावेजों की जांच के लिए आयोगों के गठन का आदेश देना ।
  6. मामले को उन मजिस्ट्रेट के पास भेजना जिनके पास उनकी सुनवाई के न्यायिक अधिकर हों।

शिक्षा का अधिकार [Right to Education]

स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण करने के लिए जिस संविधान सभा का गठन किया गया था, उसके सदस्य वे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष जेलों की कोठरियों में बिताए थे, जिन्होंने आजादी प्राप्त करने के लिए अनेकानेक त्याग और बलिदान किए थे। वे दिल से चाहते थे कि संविधान के द्वारा भारतवासियों को वे सब अधिकार, सुविधाएँ और अवसर प्राप्त हो जायें जो उनकी उन्नति और विकास के लिए आवश्यक हैं, लेकिन उस समय स्वतंत्र भारत की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी और यह सम्भव नहीं था कि देश के बच्चों, स्त्रियों, पिछड़े वर्गों, दलितों, जनजातियों आदि को वे सब सुविधाएँ संवैधानिक अधिकारों के रूप में मिल जायें, जिनके लिए अपार धनराशि की आवश्यकता थी। अतएव संविधान निर्माताओं ने नागरिकों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक आदि के विकास और जीवन की सुरक्षा के लिए संविधान में मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया, जिनको राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर रखा गया और यह प्रावधान किया गया कि व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो व्यक्ति इनकी रक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है। नागरिकों के स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, कृषि, कुटीर उद्योग, आर्थिक सुरक्षा आदि से सम्बन्धित विषयों के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में नीति निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लेख किया।

देश में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हीं नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया कि “राज्य संविधान के लागू होने से दस वर्ष की कालावधि के अन्दर चौदह वर्ष तक के बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।”

सन् 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद-21(ए) जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि-

“राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बालकों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, उस प्रकार की रीति से जैसा राज्य विधि द्वारा अवधारित करे, की व्यवस्था करेगा।”

इस प्रकार शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बना दिया गया। इसी के साथ-साथ इसी 86वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग 4(A) में वर्णित मौलिक कर्त्तव्यों में एक नया मौलिक कर्त्तव्य 51 (A) में जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि—

“माता-पिता या अभिभावक 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले बालकों अथवा आश्रितों की शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करें।”

इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए उपरोक्त अनुच्छेद के प्रकाश में भारत सरकार ने शिक्षा का अधिकार विधेयक संसद में प्रस्तुत किया। संसद के दोनों सदनों— लोकसभा और राज्यसभा-द्वारा इसे करने के बाद 26 अगस्त, 2009 को राष्ट्रपति ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर कर, इसे कानून बना दिया। इसे “बालकों का निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 (Right of Children to Free and Compulsory Education Act-2009)” के नाम से जाना जाता है। संक्षेप में इसे “शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009” कहा जाता है। सरकार ने इस ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009’ को 1 अप्रैल, 2010 से सम्पूर्ण देश में लागू कर दिया है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 की विशेषताएँ

(1) निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार

6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। बालक की यह शिक्षा पूर्णतः निःशुल्क होगी। ऐसी कोई भी फीस या अन्य खर्चे बालक से नहीं लिए जाएंगे, जिनसे उसकी शिक्षा प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो ।

(2) प्रवेश प्राप्त करने वाले या प्राथमिक शिक्षा को पूर्ण करने वाले बालकों के लिए विशेष व्यवस्था

यदि कोई बालक 6 वर्ष की आयु पर किसी विद्यालय में प्रवेश नहीं ले पाता, तो वह बाद में भी अपनी आयु के अनुरूप कक्षा में प्रवेश प्राप्त कर सकता है। यदि वह निर्धारित 14 वर्ष की आयु तक अपनी प्राथमिक शिक्षा को पूर्ण नहीं कर पाता है, तो वह उसके बाद भी अपनी पढ़ाई पूरी कर सकता है।

(3) अन्य विद्यालयों में स्थानान्तरण

यदि किसी विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने की व्यवस्था नहीं है, तो बालक को किसी दूसरे विद्यालय में स्थानान्तरण लेने का अधिकार है। किसी अन्य कारण से भी बालक एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय में स्थानान्तरण ले सकता है। ऐसी स्थिति में विद्यालय प्रमुख को स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र तुरन्त जारी करना होगा।

(4) विद्यालय स्थापना का उत्तरदायित्व

उन स्थानों पर, जहाँ विद्यालय नहीं हैं, अधिनियम लागू होने के तीन वर्षों की कालावधि में विद्यालय स्थापित करने का उत्तरदायित्व राज्य सरकार और उसके अधिकारियों का होगा।

(5) वित्तीय एवं अन्य उत्तरदायित्व

इस अधिनियम की पूर्ति करने के लिए केन्द्रीय और राज्य सरकारें मिलकर आवश्यक फण्ड की व्यवस्था करेंगी। केन्द्रीय सरकार इस पर आने वाले खर्चों का अनुमान तैयार करेगी और राज्य सरकारों को आवश्यक संसाधन एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध कराएगी।

(6) राज्य सरकारों का उत्तरदायित्व

राज्य सरकारों का यह उत्तरदायित्व होगा कि 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बालक को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो तथा कमजोर और वंचित वर्गों के बालकों के साथ कोई भेदभाव न हो। राज्य सरकारें विद्यालय भवन, शिक्षक, शिक्षण सामग्री सहित आधारभूत संरचना की उपलब्धता सुनिश्चित करेंगी और बालकों को गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने तथा शिक्षकों के लिए प्रभावशाली प्रशिक्षण की व्यवस्था करेंगी।

(7) स्थानीय अधिकारियों के उत्तरदायित्व

स्थानीय अधिकारी राज्य सरकार के सभी उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य करेंगे, उन क्षेत्रों में विद्यालय खोलेंगे, जहाँ विद्यालय नहीं हैं। 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के बालकों का अभिलेख रखेंगे, विद्यालयों की व्यवस्था की देख-रेख करेंगे और शैक्षणिक कलेण्डर तैयार करेंगे।

(8) माता-पिता और अभिभावकों का उत्तरदायित्व

प्रत्येक माता-पिता और अभिभावक का यह उत्तरदायित्व होगा कि वह 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के अपने बालकों का विद्यालय में नामांकन कराये।

(9) प्रवेश के लिए आयु का प्रमाण

जन्मतिथि सम्बन्धी प्रमाण-पत्र के अभाव में किसी भी बालक को विद्यालय में प्रवेश देने से मना नहीं किया जाएगा।

(10) प्रवेश तिथि के बाद भी प्रवेश से इंकार नहीं

प्रवेश तिथि निकल जाने के बाद भी विद्यालय द्वारा किसी भी बालक को प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जाएगा।

(11) रोकने और निष्कासन का निषेध

विद्यालय द्वारा किसी भी बालक को किसी भी कक्षा में न तो रोका जाएगा और न ही उसे विद्यालय से निष्काषित किया जाएगा।

(12) शारीरिक दण्ड और मानसिक प्रताड़ना का निषेध

विद्यालय में किसी भी बालक को न तो शारीरिक दण्ड दिया जाएगा और न ही उसको मानसिक यातना दी जाएगी।

सर्व शिक्षा अभियान [Sarva Shiksha Abhiyan]

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-45 में यह कहा गया है कि राज्य इस संविधान के लागू किए जाने के समय से दस वर्षों के अन्दर चौदह वर्ष तक के सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने अनेकानेक प्रयास किए। कोठारी आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता पर बल दिया और सरकार का ध्यान पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों के बालक और बालिकाओं की शिक्षा की ओर आकर्षित किया।

अक्टूबर 1998 में सम्पन्न हुए राज्यों के शिक्षा मन्त्रियों के सम्मेलन में लिए गए निर्णयों के आधार पर ‘सर्वशिक्षा अभियान’ योजना विकसित की गई, जिसमें सभी बालक-बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। इसे नवम्बर 2000 में स्वीकार किया गया। सर्वशिक्षा अभियान प्रारम्भिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है।

सर्व शिक्षा अभियान की प्रकति/स्वरूप

  • प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण
  • समयबद्ध कार्यक्रम
  • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
  • सामाजिक न्याय की प्रस्थापना
  • राष्ट्रीय एकता की स्थापना
  • सामुदायिक सहभागिता
  • केन्द्र एवं राज्य स्तर पर सहयोग
  • मूल्य आधारित शिक्षा

सर्व शिक्षा अभियान की विशेषताएं

(1) प्रारम्भिक शिक्षा का अधिकार ।

(2) जन-सामान्य की भागीदारी की अनिवार्यता ।

(3) प्रत्येक बच्चे के मानसिक अधिगम स्तर के अनुसार शिक्षण के लिए सूक्ष्म योजना।

(4) विद्यालय/ग्राम/वार्ड स्तर पर भौगोलिक/सामाजिक परिवेश की समस्याओं की पहचान कर, उनके निराकरण हेतु ग्राम/वार्ड शिक्षा समितियों को सुदृढ़ कर, स्थानीय स्तर पर ही समस्याओं के हल का प्रयास करना ।

(5) ग्राम/वार्ड शिक्षा समितियों के माध्यम से नवीन विद्यालय भवन निर्माण/पुनर्निर्माण कक्षा-कक्षों का निर्माण कराना।

सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्य

6-14 वर्ष की आयु के बच्चे-

  • 2003 तक स्कूल / शिक्षा गारन्टी योजना/ब्रिज कोर्स में प्रवेश लें।
  • 2007 तक सभी बच्चे पाँच वर्ष की प्राथमिक शिक्षा पूरी करें।
  • 2010 तक सभी बच्चे कक्षा आठ तक प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करें।
  • जीवन के लिए शिक्षा पर बल देते हुए गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा पर बल देना।
  • सभी बालक-बालिकाओं में सामाजिक असमानता व विभेद को 2007 तक प्राथमिक शिक्षा स्तर पर और 2010 तक उच्च प्रारम्भिक शिक्षा स्तर पर समाप्त करना।
  • 2010 तक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाना।

सर्वशिक्षा अभियान के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रस्तावित मानदण्ड

(1) विद्यालय स्थापना

प्राथमिक विद्यालय

प्राथमिक विद्यालय स्थापना हेतु 300 की आबादी और परिषदीय विद्यालय से 1.5 किमी० की परिधि के बाहर स्थित बस्तियों को असेवित मानना ।

उच्च प्राथमिक विद्यालय

उच्च प्राथमिक विद्यालय स्थापना हेतु 800 की आबादी एवं परिषदीय उच्च प्राथमिक विद्यालय/सहायतित/अनुदानित विद्यालय से 3.0 किमी० की परिधि के बाहर स्थित बस्तियों को असेवित मानना।

(2) कक्षा-कक्ष

प्रत्येक कक्षा छात्र संख्या के आधार पर न्यूनतम एक कक्ष की उपलब्धता।

(3) वैकल्पिक शिक्षा

विद्यालय स्थापना हेतु मानक में न आने वाली असेवित बस्तियों के बच्चों हेतु वैकल्पिक शिक्षा हेतु केन्द्रों की स्थापना।

(4) शिक्षक छात्र अनुपात

विद्यालय स्तर पर न्यूनतम दो अध्यापकों की सुनिश्चितता एवं छात्र संख्या के आधार पर समुचित उपलब्धता।

(5) पाठ्य-पुस्तकें

कक्षा एक से कक्षा आठ तक के अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति वर्ग के समस्त बालक एवं बालिकाओं हेतु निःशुल्क पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध कराना।

(6) शिक्षण अधिगम उपकरण

असेवित बस्तियों में नवनिर्मित विद्यालयों हेतु विद्यालय स्तरानुसार धनराशि उपलब्ध कराना।

(7) अध्यापक प्रशिक्षण

शिक्षण अधिगम सम्प्राप्ति के उन्नयन हेतु शिक्षकों को आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण की व्यवस्था।

(8) बालिका शिक्षा

बालिका शिक्षा हेतु अभिनव क्रियाकलाप, प्रारम्भिक शिशु देखभाल व शिक्षा, अनुसूचित जाति की बालिकाओं हेतु ब्रिज कोर्स, कम्प्यूटर शिक्षा उपलब्ध कराना।

(9) ब्लॉक एवं न्याय पंचायत स्तर पर सुदृढ़ीकरण

विद्यालयों में संसाधनों की उपलब्धता समस्याओं के निराकरण हेतु सहायता के लिए ब्लॉक एवं न्याय पंचायत स्तर पर सूक्ष्म नियोजन करना।

(10) विद्यालयों में नामांकन

विद्यालयों में नामांकन वृद्धि हेतु परिवार सर्वेक्षण कराकर सूक्ष्म नियोजन कराना।

कक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु उपाय

  • बाल मनोविज्ञान के आधार पर शिक्षण
  • शिक्षकों में शिक्षण के प्रति उत्प्रेरणा एवं विषय-वस्तु का ज्ञान
  • समुदाय द्वारा विद्यालय स्तरीय सहयोग
  • शिक्षकों द्वारा शिक्षण सामग्री का निर्माण एवं उपयोग
  • बच्चों का आधारभूत विकास।

सर्वशिक्षा अभियान के घटक या योजनाएँ

प्रारम्भ में यह अभियान स्वतंत्र रूप से चलाया गया था; लेकिन बाद में वे सभी कार्यक्रम और योजनाएँ इससे जोड़ दी गयीं जो प्राथमिक शिक्षा के प्रसार और विकास के लिए चलायी जा रहीं थीं। ये योजनाएँ अग्रलिखित हैं-

(1) शिक्षा गारन्टी योजना

जिन असेवित बस्तियों में मानकनुसार प्राथमिक विद्यालय की स्थापना सम्भव नहीं है, उनमें 6-8 आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने हेतु न्यूनतम 25 बच्चों पर एक शिक्षा गारन्टी केन्द्र की स्थापना की जाती है। इन केन्द्रों पर बच्चों को कक्षा 1-2 उत्तीर्ण करने पर विद्यालय में प्रवेश कराया जाता है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार इनको प्राथमिक विद्यालयों में बदले जाने का प्रावधान किया गया है।

(2) वैकल्पिक शिक्षा केन्द्र

जिन बस्तियों में 9-14 आयु वर्ग के कामकाजी बच्चों की संख्या न्यूनतम 25 है, उन बस्तियों में वैकल्पिक शिक्षा केन्द्र खोले जाते हैं। इन केन्द्रों में बच्चों की सुविधानुसार पठन समय निर्धारित किया जाता है। इन केन्द्रों में बच्चों को कक्षा 5 तक की शिक्षा दी जाती है।

(3) गैर आवासीय सेतु पाठ्यक्रम

उन बच्चों को, जो विद्यालय की शिक्षा बीच में ही छोड़ देते हैं, पुनः औपचारिक शिक्षा से जोड़ने के लिए सेतु पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गई है। यह पाठ्यक्रम न्याय पंचायत स्तर पर संचालित किए जाते हैं। इन कोर्सेज में कक्षा एक से तीन तक की शिक्षा छः माह में पूर्ण कराकर विद्यालय में प्रवेश दिलाया जाता है।

(4) ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड योजना

सन् 2003 में ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड योजना को भी सर्वशिक्षा अभियान का घटक बना दिया गया। इस योजना के लिए अलग से बजट का प्रावधान किया जाता है। इसके द्वारा प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों की अधिसंरचना (Infrastructure) में सुधार किया जा रहा है। सन् 2014-15 तक लगभग 90 प्रतिशत प्राथमिक और 80 प्रतिशत उच्च प्राथमिक विद्यालयों को इस योजना का लाभ पहुँचाया जा चुका है।

(5) जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम

इस कार्यक्रम को सन् 1994 में प्रारम्भ किया गया था और सन् 2009 में इसको भी सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया। इसके लिए भी अलग से बजट की व्यवस्था है। यह कार्यक्रम शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े जिलों में चलाया जा रहा है।

(6) मध्याह्न भोजन योजना

इस योजना का आरम्भ 15 अगस्त, 1995 को किया गया था और 2007 में इसे भी सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया। इसके लिए भी अलग से बजट का प्रावधान है। 2014-15 तक यह योजना 11.58 लाख प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों एवं शिक्षा गारन्टी केन्द्रों में लागू की जा चुकी थी और इससे 10-45 करोड़ बालक-बालिकाएँ लाभान्वित हो रहे थे।

(7) कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना

बालिकाओं की शिक्षा के विकास के लिए यह योजना जौलाई 2004 से शुरू की गई और 2007 में इसको भी सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया। इसके लिए भी अलग से बजट का प्रावधान है। वर्तमान में केन्द्रीय और राज्यों की सरकारें 50:50 के अनुपात में इस योजना पर व्यय कर रही हैं। 2014-15 तक 3,593 कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय देश के अन्दर खोले जा चुके थे।

सर्वशिक्षा अभियान के तहत विशेष प्रावधान

(1) विशेष आवश्यकता वाले (विकलांग) बच्चों के लिए विद्यालय में स्वास्थ्य परीक्षण कराकर उनकी विकलांगता का पता लगाया जाता है, जिससे उन बच्चों को विशेष आवश्यकता के आधार पर शिक्षण कराया जा सके।

(2) बालिकाओं पर, खासकर अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग की बालिकाओं पर, ध्यान देना‌ बालिका शिक्षा से सम्बन्धित प्रयोगात्मक परियोजनाओं पर विशेष ध्यान देना।

(3) अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों की शिक्षा में नामांकन को बढ़ाने और उसे कायम रखने के लिए प्रयास करना।

सार्वभौमिक एवं समावेशी शिक्षा के संदर्भ में शिक्षकों की भूमिका

यूनिवर्सेलाइजेशन (Universalization) के लिए हिन्दी में सार्वभौमीकरण शब्द का प्रयोग किया जाता है। कतिपय लोग इसके लिए सार्वजनीकरण, सर्वव्यापीकरण और लोकव्यापीकरण आदि शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। शिक्षा के सार्वभौमीकरण का अर्थ है— शिक्षा को जनसाधारण के लिए सुलभ बनाना अर्थात् जाति, रंग, धर्म, लिंग या योग्यता की भिन्नताओं के बावजूद सभी को शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराना।

शिक्षा का सार्वभौमीकरण राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने के लिए, साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के लिए, लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए, राजनीतिक जागरूकता पैदा करने के लिए, सामाजिक समानता व सामाजिक न्याय की स्थापना करने के लिए, राष्ट्रीय एकता और भावात्मक एकता के भाव का विकास करने के लिए और अपने क्षुद्र व संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर समाज और राष्ट्र के लिए समर्पण की भावना को विकसित करने के लिए आवश्यक है।

19वीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि बालकों में वैयक्तिक भिन्नताएँ होती हैं और इस भिन्नता के कारण उनकी योग्यताओं, क्षमताओं और आवश्यकताओं में भारी भिन्नताएँ पायी जाती हैं, इसलिए उनकी शिक्षा की व्यवस्था में भी भिन्नता होनी चाहिए। व्यापक रूप में समावेशन को एक ऐसे सुधार के रूप में लिया जाता है जिसमें सीखने वालों की भिन्नता का आदर किया जाता है। जिसमें एक शिक्षा स्तर के सभी बालकों को बिना किसी भेदभाव के एक साथ शिक्षा प्रदान की जाती है।

सार्वभौमिक एवं समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। शिक्षक का उत्तरदायित्व बालकों को शिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उनका मार्गदर्शन भी करना है। अतः उसे योग्य, दक्ष, कुशल, परिश्रमी, अनुशासित, कर्मठ, कर्त्तव्यशील और विनोदप्रिय होना चाहिए। शिक्षक की महती भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है—

(1) शिक्षक को विभिन्न प्रकार के बालकों की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।

(2) शिक्षक को कक्षा में बालकों की संख्या पन्द्रह-बीस से अधिक नहीं रखनी चाहिए।

(3) शिक्षक को विशेष आवश्यकता वाले बालकों की पहिचान करनी चाहिए और उनकी आवश्यकताओं को भली प्रकार से समझना चाहिए।

(4) शिक्षक को समावेशी कक्षा में बालकों के बैठने की सीटों की व्यवस्था ध्यानपूर्वक करनी चाहिए। विकलांग बालकों को सीटों का आवंटन इस प्रकार से करना चाहिए कि उनको चलने-फिरने और अपनी सीट पर उठने-बैठने में कोई परेशानी न हो। श्रवण बाधित, दृष्टि बाधित और अस्थि बाधित बालकों को आगे की सीटों पर बिठाना चाहिए। शेष बालकों को उनके कद के अनुसार बिठाया जाना चाहिए।

(5) शिक्षक को सामान्य और विशिष्ट बालकों को आस-पास बिठाना चाहिए जिससे वे एक-दूसरे को सहयोग कर सकें।

(6) शिक्षक को अपने शिक्षण में सभी बालकों से सक्रिय सहयोग प्राप्त करना चाहिए।

(7) शिक्षक को सभी बालकों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सभी का सहयोग लिया जाना चाहिए।

(8) शिक्षक को सभी बालकों की समस्याओं का समाधान तत्काल करना चाहिए, तभी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया सुचारू रूप से चलेगी और बालक अध्ययन में रूचि लेगे।

(9) शिक्षक को सभी बालकों—सामान्य और बाधित—के साथ प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण व्यवहार करना चाहिए जिससे बालकों को उनमें अपने माता-पिता की छवि दिखायी दें।

(10) शिक्षक को समावेशी विद्यालयों, समावेशी कक्षाओं, शिक्षण, अधिगम क्रियाओं और विद्यार्थियों के संबध में माता-पिता, अभिभावकों और समुदाय के साथ निरन्तर सम्पर्क में रहना चाहिए और उनका साक्रिय सहयोग प्राप्त करना चाहिए।

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान

यह योजना माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने और इसकी गुणवत्ता में सुधार लाने के उद्देश्य से मार्च, 2009 में शुरू की गई थी। योजना का क्रियान्वयन 2009-10 से प्रारम्भ हुआ। किसी भी बस्ती से उचित दूरी के भीतर एक माध्यमिक विद्यालय प्रदान करके योजना के कार्यान्वयन के माध्यमिक चरण में 2005-06 में 52.26% से 75% की नामांकन दर प्राप्त करने की परिकल्पना की गई है। अन्य उद्देश्यों में सभी माध्यमिक विद्यालयों को निर्धारित मानदंडों के अनुरूप बनाकर माध्यमिक स्तर पर प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना, लिंग, सामाजिक-आर्थिक और विकलांगता बाधाओं को दूर करना, 2017 तक यानी 12वीं कक्षा के अंत तक माध्यमिक स्तर की शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुंच प्रदान करना शामिल है। वर्ष योजना और 2020 तक सार्वभौमिक प्रतिधारण प्राप्त करना।

योजना के तहत प्रदान की जाने वाली महत्वपूर्ण भौतिक सुविधाएं हैं

(i) अतिरिक्त कक्षा कक्ष,

(ii) प्रयोगशालाएं,

(iii) पुस्तकालय,

(iv) कला और शिल्प कक्ष,

(v) शौचालय ब्लॉक,

(vi) पेयजल प्रावधान और

(vii) दूरदराज के क्षेत्रों में शिक्षकों के लिए आवासीय छात्रावास।

लाखों बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा देने के लिए सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) काफी हद तक सफल रहा है एवं इसने पूरे देश में माध्यमिक शिक्षा के आधारभूत ढांचे को शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता उत्पन्न की ।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार- “सर्व शिक्षा अभियान सफलतापूर्वक लागू होने से बड़ी संख्या में छात्र उच्च प्राथमिक कक्षाओं में उत्तीर्ण हो रहे हैं तथा माध्यमिक शिक्षा के लिए ज़बरदस्त मांग उत्पन्न कर रहे हैं।”

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का मुख्य उद्देश्य

(1) यह सुनिश्चित करना कि सभी माध्यमिक विद्यालयों में भौतिक सुविधाएं, कर्मचारी हों तथा स्थानीय सरकार/निकायों एवं शासकीय सहायता प्राप्त विद्यालयों के मामले में कम से कम सुझाए गए मानकों के अनुसार, एवं अन्य विद्यालयों के मामले में उचित नियामक तंत्र के अनुसार कार्य हों,

(2) नियमों के अनुसार सभी युवाओं को माध्यमिक विद्यालय स्तर की शिक्षा सुगम बनाना- नज़दीक स्थित करके (जैसे कि माध्यमिक विद्यालय 5 किलोमीटर के भीतर एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 7-10 किलोमीटर के भीतर) / दक्ष एवं सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था/ आवासीय सुविधाएं, स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार, मुक्त स्कूलिंग सहित। लेकिन पहाड़ी तथा दुर्गम क्षेत्रों में, इन नियमों में कुछ ढील दी जा सकती है। ऐसे क्षेत्रों में आवासीय विद्यालय स्थापित किए जाने को तरजीह दी जा सकती है।

(3) यह सुनिश्चित करना कि कोई भी बालक लिंग, सामाजिक-आर्थिक, असमर्थता या अन्य रुकावटों की वज़ह से गुणवत्तापूर्ण माध्यमिक शिक्षा से वंचित न रहे,

(4) माध्यमिक शिक्षा का स्तर सुधारना, जिसके परिणामस्वरूप बौद्धिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सीख बढ़े,

(5) यह सुनिश्चित करना कि माध्यमिक शिक्षा ले रहे सभी छात्रों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा मिले,

(6) उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति, अन्य बातों के साथ-साथ, साझा विद्यालय प्रणाली (कॉमन स्कूल सिस्टम) की दिशा में महती प्रगति को भी दर्शाएगी।

(7) लिंग, सामाजिक-आर्थिक और विकलांगता संबंधी बाधाओं को दूर करना।

(8) यह योजना किसी भी बस्ती से उचित दूरी के भीतर एक माध्यमिक विद्यालय प्रदान करके, कार्यान्वयन के 5 वर्षों के भीतर कक्षा IX-X के लिए 2005-06 में 52.26% से 75% का सकल नामांकन अनुपात प्राप्त करने की परिकल्पना करती है।

राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान

राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (RUSA) एक केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस) है, जिसे 2013 में शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य पात्र राज्य उच्च शैक्षणिक संस्थानों को रणनीतिक वित्त पोषण प्रदान करना है। केंद्रीय वित्त पोषण (सामान्य श्रेणी के राज्यों के लिए 60:40 के अनुपात में, विशेष श्रेणी के राज्यों के लिए 90:10 और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 100%) मानक आधारित और परिणाम पर निर्भर होगा। चिन्हित संस्थानों तक पहुंचने से पहले फंडिंग केंद्रीय मंत्रालय से राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों के माध्यम से राज्य उच्च शिक्षा परिषदों तक प्रवाहित होगी। राज्यों को वित्त पोषण राज्य उच्च शिक्षा योजनाओं के महत्वपूर्ण मूल्यांकन के आधार पर किया जाएगा, जो उच्च शिक्षा में समानता, पहुंच और उत्कृष्टता के मुद्दों को संबोधित करने के लिए प्रत्येक राज्य की रणनीति का वर्णन करेगा।

राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के उद्देश्य

(1) निर्धारित मानदंडों और मानकों के अनुरूपता सुनिश्चित करके राज्य संस्थानों की समग्र गुणवत्ता में सुधार करें और अनिवार्य गुणवत्ता आश्वासन ढांचे के रूप में मान्यता को अपनाएं।

(2) राज्य स्तर पर योजना और निगरानी के लिए एक सुविधाजनक संस्थागत संरचना बनाकर, राज्य विश्वविद्यालयों में स्वायत्तता को बढ़ावा देने और संस्थानों में शासन में सुधार करके राज्य उच्च शिक्षा प्रणाली में परिवर्तनकारी सुधारों की शुरूआत की गई।

(3) संबद्धता, शैक्षणिक एवं परीक्षा प्रणाली में सुधार सुनिश्चित करें।

(4) सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण संकाय की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करें और रोजगार के सभी स्तरों पर क्षमता निर्माण सुनिश्चित करें।

(5) उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसंधान और नवाचारों के प्रति समर्पित होने के लिए एक सक्षम माहौल बनाएं।

(6) नामांकन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मौजूदा संस्थानों में अतिरिक्त क्षमता बनाकर और नए संस्थान स्थापित करके संस्थागत आधार का विस्तार करें।

(7) असेवित और अल्पसेवित क्षेत्रों में संस्थान स्थापित करके उच्च शिक्षा तक पहुंच में क्षेत्रीय असंतुलन को ठीक करना।

(8) अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को उच्च शिक्षा के पर्याप्त अवसर प्रदान करके उच्च शिक्षा में समानता में सुधार करना; महिलाओं, अल्पसंख्यकों और विकलांग व्यक्तियों के समावेश को बढ़ावा देना।

RUSS मौजूदा स्वायत्त कॉलेजों के उन्नयन और एक क्लस्टर में कॉलेजों के रूपांतरण के माध्यम से नए विश्वविद्यालय बनाएगा। यह नए मॉडल डिग्री कॉलेज, नए पेशेवर कॉलेज बनाएगा और विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को ढांचागत सहायता प्रदान करेगा। संकाय भर्ती सहायता, संकाय सुधार कार्यक्रम और शैक्षिक प्रशासकों का नेतृत्व विकास भी योजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कौशल विकास को बढ़ाने के लिए पॉलिटेक्निक की मौजूदा केंद्रीय योजना को रूसा में शामिल कर दिया गया है। व्यावसायिक शिक्षा को उच्च शिक्षा के साथ जोड़ने के लिए एक अलग घटक भी रूसा में शामिल किया गया है। इनके अलावा, रूसा भाग लेने वाले राज्य में संस्थानों के सुधार, पुनर्गठन और निर्माण क्षमता का भी समर्थन करता है।

निम्नलिखित RUSA के प्राथमिक घटक हैं जो प्रमुख कार्रवाई और वित्त पोषण क्षेत्रों को शामिल करते हैं जिन्हें लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आगे बढ़ाया जाना चाहिए:

  1. मौजूदा स्वायत्त महाविद्यालयों का विश्वविद्यालयों में उन्नयन
  2. महाविद्यालयों को क्लस्टर विश्वविद्यालयों में परिवर्तित करना
  3. विश्वविद्यालयों को बुनियादी ढांचा अनुदान
  4. नये मॉडल कॉलेज (सामान्य)
  5. मौजूदा डिग्री कॉलेजों को मॉडल कॉलेजों में अपग्रेड करना
  6. नए कॉलेज (व्यावसायिक)
  7. कॉलेजों को बुनियादी ढांचा अनुदान
  8. अनुसंधान, नवाचार और गुणवत्ता में सुधार
  9. इक्विटी पहल
  10. संकाय भर्ती सहायता
  11. संकाय में सुधार
  12. उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण
  13. शैक्षिक प्रशासकों का नेतृत्व विकास
  14. संस्थागत पुनर्गठन एवं सुधार
  15. क्षमता निर्माण और तैयारी, डेटा संग्रह और योजना

राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान की वित्त पोषण प्रक्रिया

RUSA केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा सीधे राज्य और केंद्रशासित प्रदेश सरकारों को प्रदान किया जाता है। राज्य/केंद्रशासित प्रदेश के बजट से व्यक्तिगत संस्थानों को धनराशि वितरित की जाती है। उच्च शिक्षा योजनाओं के लिए राज्यों को वित्त पोषण राज्य योजनाओं के महत्वपूर्ण मूल्यांकन के आधार पर किया जाएगा। केंद्र सरकार से मिलने वाली धनराशि कुल अनुदान का 60% होगी, और 40% राज्य/केंद्र शासित प्रदेश द्वारा समान हिस्सेदारी के रूप में योगदान दिया जाएगा।

आजादी के बाद भारत की आधुनिक शिक्षा

भारत की प्राचीन संस्कृति और शिक्षा प्रणाली अत्यंत गौरवपूर्ण रही हैं। यहां समय समय पर अनेक ऋषि, मुनि, संत, विचारक और दार्शनिक हुए हैं। जिन्होंने अपने ज्ञान के माध्यम से अनेकों ग्रन्थों और रचनाओं का निर्माण किया हैं। वेद और उपनिषद विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक माने जाते हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में भी भारत में ज्ञान का प्रचार-प्रसार बहुत था। गुरुकुल उस समय अध्ययन का मुख्य केंद माने जाते थे। जिसने समय के साथ विधालय और कॉलेज का रूप ले लिया। मध्य भारत के इतिहास में भी नालंदा, तक्षशिला, जगद्दल जैसे बहुत से महाविधालय हुआ करते थे जो हायर एजुकेशन का प्रमुख केंद माने जाते थे। जहां विदेश से भी स्टूडेंट्स शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

समय के साथ-साथ भारत की शिक्षा प्रणाली में भी परिवर्तन होते रहे हैं। उस समय भारत भी अनेको रियासतों में बटा हुआ था। जिसके कारण भारत में जिसकी भी सत्ता होती वह शासन व्यवस्था और शिक्षा प्रणाली को अपने नियमों के अनुसार चलाता। भारत में जब मुगलों का शासन का अंत हुआ उसके बाद सन 1830 में ब्रिटिश लोगों ने भारत को अपने अधीन बना लिया और करीब 117 वर्षों तक भारत पर शासन किया। ब्रिटिश काल में भी भारत की शिक्षा प्रणाली में बहुत बदलाव आए। लॉर्ड मैकाले को आधुनिक शिक्षा का जनक माना जाता है।

आधुनिक शिक्षा क्या है?

भारत में आधुनिक शिक्षा की यात्रा बहुत से कालों के तहत विकसित हुई है, जिसमें प्राचीन काल, मध्यकाल, कोलोनियल पीरियड और भारत की आजादी के बाद से लेकर आज तक भी हायर एजुकेशन का विकास जारी है।

आधुनिक शिक्षा में सामान्य तौर पर व्यावसायिक, तकनीकी शिक्षा और स्किल्स डेवलपेंट शिक्षा आदि को शामिल किया गया है जो किसी भी विधार्थी को अपनी माध्यमिक शिक्षा के बाद दी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा यूनिवर्सिटीज, वोकेशनल कॉलेजो और टेक्नोलॉजी इंस्टिटूशन जैसी संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाती है। हायर एजुकेशन से सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मोरल और स्पिरिचुअल विषयों को समझने में सहायक होती है। जिससे एक स्टूडेंट को सभी प्रमुख क्षेत्रों का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त हायर एजुकेशन से स्टूडेंट्स को सभी विषयों की नॉलेज के साथ साथ व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा भी दी जाती है जिससे वह देश की प्रगति में योगदान कर सकें।

आधुनिक शिक्षा का अर्थ

आधुनिक शिक्षा में रिसर्च को बढ़ावा देकर देश में शिक्षा, विज्ञान, आर्ट्स, कृषि, टेक्नोलॉजी और चिकित्सा जैसे प्रमुख सेक्टरों में स्किल्ड पर्सनालिटी का निर्माण करना है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जावहार लाल नेहरू ने आधुनिक शिक्षा के महत्त्व को बताते हुए कहा था कि “विश्वविधालय की जिम्मेदारी मानवता, सहनशीलता, तर्क, विचारों के विकास तथा सत्य की खोज करना है।” उच्च शिक्षा सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रदान की जाती है।

आधुनिक शिक्षा की विशेषताएं क्या हैं?

वर्तमान शिक्षा प्रणाली का रूप परंपरागत शिक्षा प्रणाली की प्रवृति और उद्देश्यों से काफी बदल गया है। आधुनिक शिक्षा की प्रकृति को इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है, जैसे-

(1) भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की शुरुआत ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा वर्ष 1830 में लाई गई थी। जिसमें शिक्षा के लिए इंग्लिश भाषा को प्रधानता दी गई। लॉर्ड थॉमस मैकाले ने ही भारत भारत की शिक्षा नीतियों में बहुत से मुख्य बदलाव किए थे इसलिए उन्हें ही आधुनिक शिक्षा का जनक माना जाता हैं।

(2) अगर हम बात करें ब्रिटिश काल की शिक्षा नीति की को उसमें पहली बार क्लास रूम के माध्यम से शिक्षा की शुरुआत की। जिसमें सबसे ज्यादा मैथ्स, साइंस, और टेक्नोलॉजी जैसे विषयों को प्रथमिकता दी गई और फिलॉसफी, मेटाफिजिक्स, एथिक्स और मॉरल वैल्यूज जैसे विषयों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया।

(3) भारत की आजादी के बाद 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा अनिवार्य का दी गई और पुरे देश में स्कूल, कॉलेजो का निर्माण किया गया।

(4) 21वीं सदी में भारत की आधुनिक युग की शिक्षा प्रणाली ऑनलाइन शिक्षा से लेकर स्किल डेवलपमेंट कोर्सेज, डिजिटल लर्निंग प्लेटफॉर्म, ग्रेडिंग सिस्टम के साथ-साथ कक्षाओं में एजुकेशन टेक्नोलॉजी के उपयोग और एक नई एजुकेशन पॉलिसी की शुरुआत के साथ शिक्षा के लिए एक लिए नई-नई योजनाओं का गठन किया गया है।

आधुनिक शिक्षा नीति क्या है?

भारत की शिक्षा नीतियों में भी समय समय पर बहुत से बदलाव देखे गए हैं। जहां वर्ष 1947 के बाद सरकार द्वारा बहुत सी ऐसी नीतियां बनाई गई जिनके कारण शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हुई। जिसके कारण वर्तमान में अपनी आधुनिक शिक्षा प्रणाली और हर क्षेत्र में निरंतर हो विकास के कारण भारत विकासशील देश से विकसित देश के मार्ग पर तेजी से बढ़ रहा हैं।

जब भारत को वर्ष 1947 में स्वतंत्रता मिली जिसके एक वर्ष के बाद सन 1948 में देश का पहले एजुकेशन कमीशन (Education Commission) की स्थापना की गई। जिसके पहले अध्यक्ष डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी थे। इस कमीशन को बनाने का मुख्य उद्देश्य भारत की हायर एजुकेशन कैसी होनी चाहिए कि दिशा बनाने के लिए ही इस कमीशन का गठन किया गया था। जिसे ‘यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन’ के नाम से जाना जाता हैं। ऐसे ही भारत में शिक्षा की नीतियों के लिए बहुत से आयोग का गठन किया गया जो इस प्रकार हैं:

(1) यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन (1948)

(2) सेकेंडरी एजुकेशन कमीशन (1952)

(3) कोठारी कमीशन (1964-1966)

(4) नेशनल पॉलिसी एजुकेशन (1968)

(5) ड्राफ्ट नेशनल पॉलिसी एजुकेशन (1979)

(6) नेशनल पॉलिसी एजुकेशन (1986)

(7) नेशनल पॉलिसी एजुकेशन (1992)

(8) सर्व शिक्षा अभियान (2000)

(9) राइट टू एजुकेशन एक्ट (2009)

(10) नेशनल पॉलिसी एजुकेशन (2020)

बहुभाषी शिक्षा

बहुभाषा एक से अधिक भाषाओं को बोलने, समझने, पढ़ने और लिख सकने की क्षमता है। यह व्यक्तिगत या सामाजिक क्षमता हो सकती है, जो इस बात पर निर्भर करती है कि कोई व्यक्ति या समुदाय एक से अधिक भाषाओं का प्रयोग करता है या नहीं। बहुभाषावाद को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे कि योगात्मक या घटावशील (additive or subtractive), संतुलित या प्रभुत्वशाली (balanced or dominant), अनुक्रमिक या युगपत (sequential or simultaneous)—जो इस बात पर निर्भर करता है कि भाषाओं को कैसे ग्रहण, उपयोग करने के साथ महत्त्व दिया जाता है। भाषा संचार, अधिगम (लर्निंग) और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली साधन है। यह मानव विकास और पहचान (identity) का एक प्रमुख पहलू भी है। हालाँकि, भारत जैसे विविध और बहुभाषी देश में शिक्षा के लिये भाषा उल्लेखनीय चुनौतियाँ भी उत्पन्न कर सकती है।

बहुभाषावाद का महत्त्व

(1) संज्ञानात्मक विकास

शोध से पता चलता है कि एक से अधिक भाषा सीखने से मस्तिष्क के कार्यों, जैसे स्मृति, ध्यान, समस्या-समाधान और रचनात्मकता को बढ़ावा मिल सकता है।

यह ‘मेटालिंग्विस्टिक अवेयरनेस’ (metalinguistic awareness) में भी सुधार कर सकता है, जो भाषा संरचनाओं एवं नियमों पर गंभीरता से मनन करने और कुशलतापूर्वक उनका उपयोग कर सकने की क्षमता है।

(2) अधिक संवाद कौशल

बहुभाषावाद की विकास से विद्यार्थियों में संवाद कौशल में सुधार होता है। अनेक भाषाओं का ज्ञान होने से संवाद करने में बड़ी सरलता होती है और जिससे बड़ी ही आसानी से कोई विद्यार्थी दूसरे के साथ संवाद कर सकता है संवाद करने में पारंगता हासिल कर सकता है।

(3) उच्च भाषाई बोध

विद्यार्थियों को कई भाषाओं का ज्ञान होने से उनकी भाषाएं बौद्धिक क्षमता में वृद्धि होती है। उन्हें अलग-अलग भाषाओं का ज्ञान होता है जिसस  उन्हें आगे किसी भी कार्य में उसका लाभ जरूर होता है। बहुभाषा का ज्ञान होने से भाषा का बोध तो पड़ता ही है साथ ही साथ व्यक्तित्व का विकास भी होता है।

(4) उत्कृष्ट प्रबंधकारी कार्य पद्धति

बहुभाषा का ज्ञान होने से विद्यार्थियों में बौद्धिक क्षमता के साथ साथ अन्य कार्य क्षमताओं में भी वृद्धि होती है। जिसमें की वह उत्कृष्ट तरीके से कार्य करता है और उनके प्रबंधन में भी पारंगता हासिल करता है।

(5) सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देना

विभिन्न भाषाओं को सीखने की प्रक्रिया में छात्र विभिन्न संस्कृतियों, दृष्टिकोणों और मूल्यों से परिचित हो सकते हैं। यह उनमें अंतर-सांस्कृतिक क्षमता (intercultural competence) विकसित करने में भी मदद कर सकता है, जो विविध पृष्ठभूमि के लोगों के साथ प्रभावी ढंग से और उचित रूप से संवाद कर सकने की क्षमता है।

आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त 22 से अधिक भाषाओं और सैकड़ों उप-भाषाओं/बोलियों (जिनमें से प्रत्येक का अपना अनूठा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है) के साथ भाषा हमारी पहचान का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

(6) भाषाई विविधता का संरक्षण

बहुभाषी शिक्षा भारत की भाषाई विविधता और विरासत को संरक्षित करने और उनका पुनरुद्धार करने में मदद कर सकती है।

यह विभिन्न भाषाओं के लोगों के भाषाई अधिकारों और सम्मान को भी बढ़ावा दे सकती है, विशेष रूप से उन लोगों के लिये जो हाशिये पर स्थित हैं।

(7) राष्ट्रीय एकता को सशक्त करना

बहुभाषी शिक्षा विभिन्न भाषाओं के लोगों और विभिन्न संस्कृतियों के बीच परस्पर समझ एवं सम्मान को बढ़ावा दे सकती है।

यह भारत में विविध आबादी समूहों के बीच सामाजिक एकता और सद्भाव को भी बढ़ा सकती है।

(8) अपने परिवेश के अनुरूप ढलना

विद्यार्थियों को अनेक भाषाओं का ज्ञान होने से वह अपने आप को परिवेश के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। विद्यार्थी हर समय यह प्रयास करता है की उसमें गुणात्मक परिवर्तन हो जिससे वह कार्य क्षमताओं में वृद्धि कर सके।

(9) अतिरिक्त भाषायें सीखने से कार्य क्षमता में वृद्धि

यदि विद्यार्थी अनेक भाषाओं को सीखता है तो अनेक भाषाओं की सीखने की वजह से विद्यार्थियों के कार्य क्षमता में भी वृद्धि होती है।

(10) कुशल बहुकार्यात्मकता

बहुभाषावाद से विद्यार्थियों में अनेक कार्यों को करने की कुशलता आती है वह बड़ी ही आसानी से अन्य कार्यों को एक साथ करने में सामर्थ होता है। कई बार व्यक्तियों को एक साथ कई कार्य करने होते हैं तो इस पारंगता को बहुभाषावाद से हासिल किया जा सकता है।

(11) अधिक करियर अवसर

बहुभाषावाद से विद्यार्थियों में व्यवसायिक विकल्पों में वृद्धि होती है। उसके पास बहुभाषा का ज्ञान होने से व्यवसायिक विकल्प होते हैं जिससे वह अपने अनुकूल विकल्प को चुन सकता है। तो इस तरह से बहुभाषावाद में यह शक्ति विद्यमान है।

शिक्षा में बहुभाषावाद से संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ

(1) संसाधनों की कमी

बहुभाषी शिक्षा को लागू करने के लिये पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता होगी जैसे प्रशिक्षित शिक्षक, उपयुक्त पाठ्यक्रम, गुणवत्तापूर्ण पाठ्यपुस्तकें, मूल्यांकन उपकरण और डिजिटल प्लेटफॉर्म।

हालाँकि कई स्कूलों में, विशेषकर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में, इन संसाधनों की कमी पाई जाती है।

(2) योग्य शिक्षकों की कमी

बहुभाषावाद की चुनौतियों में से एक योग्य शिक्षकों की कमी है जो विभिन्न भाषाओं में पढ़ा सकें। कई बोलियों और संस्कृतियों में पारंगत होने के लिए काफी प्रयास की आवश्यकता होती है, जिसे हर कोई समय और धन के मामले में वहन नहीं कर सकता है। हालाँकि द्विभाषी होना एक मूल्यवान कौशल माना जाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह किसी विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता में तब्दील हो जाए।

(3) जागरूकता की कमी

माता-पिता, शिक्षक, छात्र और नीति-निर्माताओं की एक बड़ी संख्या बहुभाषी शिक्षा के लाभों से अवगत नहीं है।

कुछ भाषाओं या बोलियों के बारे में वे गलतफहमियों या पूर्वाग्रह के शिकार हो सकते हैं।

वे शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को प्राथमिकता भी दे सकते हैं, जहाँ वे यह धारणा रखते हैं कि यह उनके बच्चों के भविष्य के लिये बेहतर अवसर प्रदान करेगी।

(4) आकलन और मूल्यांकन

विभिन्न भाषाओं में निष्पक्ष और मानकीकृत मूल्यांकन पद्धति विकसित करना कठिन सिद्ध हो सकता है।

कई भाषाओं का उपयोग करते समय छात्रों का निष्पक्ष और लगातार मूल्यांकन सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण सिद्ध हो सकता है।

(5) उच्च शिक्षा और रोज़गार की ओर संक्रमण

जबकि बहुभाषी शिक्षा प्राथमिक स्तर पर प्रभावी हो सकती है, उच्च शिक्षा या रोज़गार बाज़ार की ओर आगे बढ़ने के लिये अधिक व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा में दक्षता की आवश्यकता पड़ सकती है, जो उन छात्रों के लिये संभावित रूप से हानिकारक सिद्ध हो सकती है जो अपनी मातृभाषा में शिक्षित हुए हैं।

त्रिभाषी फार्मूला

त्रिभाषा सूत्र का उद्देश्य राज्यों के बीच भाषाई अंतर को पाटकर राष्ट्रीय एकता लाना है। हालांकि, यह भारत की जातीय विविधता को एकीकृत करने के लिए उपलब्ध एकमात्र विकल्प नहीं है। तमिलनाडु जैसे राज्यों ने अपनी भाषा नीति के साथ न केवल शिक्षा मानक स्तर को बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है, बल्कि त्रिभाषा सूत्र को अपनाए बिना भी राष्ट्रीय अखंडता को बढ़ावा दिया है। इसलिए, राज्यों को भाषा नीति में स्वायत्तता प्रदान करना पूरे भारत में तीन भाषा फार्मूले को समान रूप से लागू करने की तुलना में कहीं अधिक व्यवहार्य विकल्प प्रतीत होता है।

नई शिक्षा नीति सतत विकास के लिये ‘एजेंडा 2030’ के अनुकूल है और इसका उद्देश्य 21वीं शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुकूल स्कूल और कॉलेज की शिक्षा को अधिक समग्र, लचीला बनाते हुए भारत को एक ज्ञान आधारित जीवंत समाज और वैश्विक महाशक्ति में बदलकर प्रत्येक छात्र में निहित अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिये ‘त्रि-भाषा सूत्र’ पर बल देने का निर्णय लिया गया।

त्रिभाषा की पृष्ठभूमि

(1) ‘त्रि-भाषा सूत्र’ तीन भाषाएँ हिंदी, अंग्रेजी और संबंधित राज्यों की क्षेत्रीय भाषा से संबंधित है।

(2) हालाँकि संपूर्ण देश में हिंदी भाषा में शिक्षण एक लंबे समय से चली आ रही व्यवस्था का हिस्सा था, लेकिन इसे सर्वप्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में एक आधिकारिक दस्तावेज़ के रूप में वर्गीकृत किया गया था।

(3) त्रि-भाषा सूत्र कोई नया विषय नहीं है, बल्कि इसकी चर्चा स्वतंत्रता के बाद विश्वविद्यालय शिक्षा संबंधी सुझावों के लिये गठित राधाकृष्णन आयोग (1948-49) की रिपोर्ट से ही प्रारंभ हो गई थी। जिसमें तीन भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था का परामर्श दिया गया था। आयोग का कहना था कि माध्यमिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा, हिंदी भाषा और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी जाए।

(4) इसके बाद वर्ष 1955 में डॉ लक्ष्मण स्वामी मुदालियर के नेतृत्व में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया गया, जिसने प्रादेशिक भाषा के साथ हिंदी के अध्ययन का द्विभाषा सूत्र दिया और अंग्रेजी व किसी अन्य भाषा को वैकल्पिक भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा।

(5) कोठारी आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में ‘त्रि-भाषा सूत्र’ को स्वीकार कर लिया गया परंतु इसे धरातल पर नहीं लाया जा सका।

क्या है त्रि-भाषा सूत्र?

(1) पहली भाषा: यह मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा होगी।

(2) दूसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अन्य आधुनिक भारतीय भाषा या अंग्रेज़ी होगी। गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह हिंदी या अंग्रेज़ी होगी।

(3) तीसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेज़ी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी। गैर-हिंदी भाषी राज्य में यह अंग्रेज़ी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी।

त्रि-भाषा सूत्र की आवश्यकता

(1) राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के अनुसार भाषा सीखना बच्चे के संज्ञानात्मक विकास का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसका प्राथमिक उद्देश्य बहुउद्देश्यीयता (Multilingualism) और राष्ट्रीय सद्भाव (National Harmony) को बढ़ावा देना है।

(2) त्रि-भाषा सूत्र का उद्देश्य हिंदी व गैर-हिंदी भाषी राज्यों में भाषा के अंतर को समाप्त करना है।

(3) इसके अंतर्गत एक आधुनिक भारतीय भाषा का अध्ययन शामिल था, अधिमानतः हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी और अंग्रेजी के अलावा दक्षिणी भारतीय भाषाओं में से कोई एक।

(4) गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा का क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी भाषा के साथ अध्ययन किया जाना शामिल था।

कोठारी आयोग, 1964-66 [Kothari Commission, 1964-66]

इसी आधार पर भारत सरकार द्वारा 14 जुलाई, 1964 को शिक्षा के सभी स्तरों के सभी पक्षों के विकास के लिये एवं शिक्षा की राष्ट्रीय पद्धति एवं सामान्य सिद्धान्तों और नीतियों के सम्बन्ध में परामर्श देने के लिये ‘शिक्षा आयोग’ के नाम से एक नया आयोग नियुक्त किया गया।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डॉ० दौलत सिंह कोठारी को इस शिक्षा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। उनके नाम पर इस आयोग को कोठारी आयोग भी कहा जाता है। इस आयोग के सदस्यों में अनेक भारतीय व विदेशी शिक्षाशास्त्रियों को रखा गया।

आयोग की नियुक्ति का उद्देश्य देश की शिक्षा प्रणाली में ऐसे सुधारों के लिये सुझाव देना था, जिससे शिक्षा प्रणाली देश की बदली हुई परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार उपयोगी सिद्ध हो सके।

आयोग का प्रतिवेदन (Report of the Commission)

आयोग ने 2 अक्टूबर, 1964 से अपना कार्य प्रारम्भ किया। आयोग ने सभी राज्यों और कुछ केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों का दौरा करते हुए अनेकों विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों व विद्यालयों का निरीक्षण किया और शिक्षाशास्त्रियों, शिक्षा प्रशासकों, शिक्षकों व विद्यार्थियों से विचार विनिमय किया। आयोग ने देश के अनेकों वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों और शिक्षा के क्षेत्र में रुचि रखने वाले लोगों से समालाप किया, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, शिक्षा मन्त्री, राज्यों के मुख्य मन्त्रियों व अन्य मन्त्रियों, सचिवों, संसद सदस्यों आदि से चर्चायें कीं और शिक्षा के विषय में आम राय जानने व सुझाव प्राप्त करने के लिये लिखित साक्ष्य, टिप्पणी, ज्ञापन और प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त किये। आयोग ने अपने समस्त कार्य को पूरा करने के लिये 12 कार्य टोलियाँ (Task force) और 7 अध्ययन समूह (Working Groups ) नियुक्त किये। आयोग पर लगभग 15 लाख रुपये से अधिक की धनराशि व्यय हुयी। लगभग दो वर्ष के कठिन परिश्रम के पश्चात आयोग ने अपना प्रतिवेदन 29 जून 1966 को तत्कालीन शिक्षा मन्त्री श्री एम०सी० छागला को प्रस्तुत किया।

कोठारी आयोग के महत्वपूर्ण उद्देश्य

कोठारी आयोग की स्थापना के पीछे कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य नीचे सूचीबद्ध हैं।

(1) भारत में शिक्षा के विकास के लिए नीतियां और दिशानिर्देश प्रदान करना।

(2) भारत में शिक्षा का एक सामान्य पैटर्न खोजना और विकसित करना

(3) भारतीय शिक्षा क्षेत्र के हर पहलू की जांच करना ।

(4) हालाँकि कोठारी आयोग की स्थापना संपूर्ण शिक्षा क्षेत्र की समीक्षा के लिए की गई थी, लेकिन दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों को इसके दायरे से बाहर रखा गया था – वे कानूनी शिक्षा और चिकित्सा शिक्षा थे।

आयोग की सिफारिशें और सुझाव (Recommondations and Suggestions of the Commission)

(1) शिक्षा और राष्ट्रीय उद्देश्य

आयोग ने अनुभव किया कि शिक्षा को लोगों के जीवन, आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से सम्बन्धित किया जाना चाहिये, जिससे उसके द्वारा सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास करके राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। इसकी पूर्ति के लिये आयोग ने निम्नलिखित पंचसूत्री कार्यक्रम का सुझाव दिया-

(1) शिक्षा का उत्पादिता से सम्बन्ध हो।

(2) शिक्षा कार्यक्रमों से सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति हो।

(3) शिक्षा से प्रजातन्त्र की जड़ें सुदृढ़ हों।

(4) शिक्षा से समाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों और मान्यताओं का विकास हो।

(5) शिक्षा से जिज्ञासा, विचारधारा व निर्माणात्मक मान्यताओं द्वारा समाज का आधुनिकीकरण हो।

(2) शिक्षा एवं उत्पादकता 

विज्ञान की शिक्षा को विद्यालयी पाठ्यक्रमों का एक अंग बनाया जाये और अन्ततः विश्वविद्यालय स्तर पर भी इसे सभी पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाये। प्रौद्योगिकी शिक्षा तथा उद्योगीकरण के क्षेत्र में कार्य अनुभव को विशेष स्थान दिया जाये और कृषि तथा अन्य उत्पादन प्रक्रियाओं के लिये विज्ञान का प्रयोग किया जाये

(3) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता

सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए ‘सामान्य स्कूलों’ (Common Schools) की स्थापना एक राष्ट्रीय लक्ष्य मानकर की जाये। ये स्कूल जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय, रंग आर्थिक या सामाजिक स्थिति के भेदभाव के बिना सबके लिये खुले हों। इन स्कूलों में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो और इनका शैक्षिक स्तर ऊँचा हो।

(4) शिक्षा और प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता

14 वर्ष तक की अवस्था के सभी बालकों को अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा की उत्तम व्यवस्था की जाये। प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों की व्यवस्था केवल निरक्षरता के उन्मूलन के लिए ही न को जाकर नागरिकों में सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का विकास करने तथा उनके सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिये भी की जाये।

(5) सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मान्यताओं का विकास

प्रकार के विद्यालयों में सामाजिक एवं आध्यात्मिक मान्यताओं का प्रसार विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग तथा धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा समिति के सुझावों के आधार पर किया जाये।

(6) शिक्षा का आधुनिकीरण

वर्तमान काल में ज्ञान का प्रसार तथा आदान-प्रदान अत्यधिक हुआ है जिससे समाज में द्रुतगति से परिर्वतन हुए हैं। शिक्षा को समाज की इस परिवर्तनशीलता के साथ चलना है, अतः आवश्यकता इस बात की है कि हमारी शिक्षा आधुनिकीकरण के साथ परिवर्तित और विकसित हो और इसके द्वारा उचित दृष्टिकोण और मान्यताओं का विकास किया जाये।

(7) शिक्षकों की स्थिति

आयोग ने कहा कि शिक्षक के आर्थिक, सामाजिक एवं व्यावसायिक स्तर को समुन्नत करने के लिये तथा भविष्य में आने वाले प्रतिभासम्पन्न युवकों को इस व्यावसाय की ओर प्रेरित करने के लिये प्रेरणादायक और सतत् प्रयत्न किये जाने आवश्यक हैं।

(8) शिक्षकों की शिक्षा

आयोग के अनुसार शिक्षण में क्रान्ति लाने और शिक्षण-स्तर को ऊँचा करने के लिये शिक्षकों की शिक्षा को प्रभावी बनाना अत्यन्त आवश्यक है। आयोग के शब्दों में- “शिक्षा की गुणात्मक उन्नति के लिये शिक्षकों की व्यावसायिक शिक्षा का ठोस कार्यक्रम अनिवार्य है।”

(9) विद्यालय शिक्षा प्रसार

आयोग ने विद्यालयी शिक्षा के तीनों स्तरों—पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक पर शिक्षा प्रसार के लिये अनेक सुझाव दिये।

(10) समानता के अवसर

आयोग ने भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं को दूर करने और सभी को शैक्षिक अवसरों की समानता सुलभ कराने के लिये सुझाव दिये।

(11) त्रिभाषा सूत्र और भाषाओं का अध्ययन

आयोग ने तीन भाषायी सूत्र प्रस्तुत किया जिसके माध्यम से अलग-अलग शैक्षिक स्तरों पर बहुभाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाए।

(12) विद्यालयी पाठ्यक्रम

आयोग ने अनुभव किया कि ज्ञान के क्षेत्र में तीव्र गति से होने वाले विकास और विज्ञान की मूलभूत धारणाओं के पुनर्निर्धारण के कारण वर्तमान विद्यालयों में शिक्षा का पाठ्यक्रम अपर्याप्त है अतः इसमें सुधार करने की महती आवश्यकता है।

(13) शिक्षण विधि, निर्देशन तथा मूल्यांकन (Teaching Methods Guidance and Evaluation)

आयोग ने अनुभव किया कि आज की स्कूली शिक्षा के अनाकर्षक, निष्क्रिय और प्रेरणाहीन होने का मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली की रूढ़िवादिता एवं कठोरता तथा प्रशासन द्वारा स्कूलों में शिक्षा की नवीन विचारधाराओं एवं पद्धतियों को लागू न करना है। आयोग ने शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिये सुझाव दिये।

निर्देशन एवं परामर्श शिक्षा का अभिन्न अंग माना जाये और सभी विद्यार्थियों के लिये इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए।

इसी तरह से मूल्यांकन व्यवस्था में भी सुधार होना चाहिए जो आधुनिकता के साथ सामंजस्य पूर्ण हो और विद्यार्थी उन्यन की दृष्टि से बेहतर हो।

(14) उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा नवीन ज्ञान की खोज करना तथा प्राचीन ज्ञान एवं धारणाओं की व्याख्या तथा नवीन आवश्यकताओं और खोज पर आधारित होनी चाहिए।

(15) कृषि शिक्षा

आयोग ने कृषि शिक्षा के प्रसार की बात कही है जिसमें की प्रत्येक राज्य में कम से कम एक कृषि विश्वविद्यालय अवश्य स्थापित किया जाए।

(16) विज्ञान की शिक्षा

आधुनिक युग में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अत्यधिक महत्त्व की दृष्टि से इनको शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए। विज्ञान तथा गणित की शिक्षा का स्तर ऊँचा बनाने के लिये अनेक उच्च अध्ययन केन्द्रों की स्थापना की जाये। इन केन्द्रों में बहुत ही योग्य शिक्षक रखे जायें।

(17) प्रौढ़ शिक्षा

निरक्षता को समाप्त करने के लिए शिक्षा तक सभी की पहुंच बढ़ाने के लिए आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा की बात की है।

(18) स्त्री शिक्षा

आयोग ने स्त्री शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व दिया। उसके अनुसार, “हमारे मानव साधनों के पूर्ण विकास, परिवारों की उन्नति और शैशवावस्था के वर्षों में अत्यधिक सरलता से प्रभावित होने वाले बालकों के चरित्र का निर्माण करने के लिये स्त्रियों की शिक्षा का महत्त्व पुरुषों की शिक्षा से भी अधिक है।”

 BY: TEAM KALYAN INSTITUTE

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