लिंग स्कूल और समाज वास्तव में देश और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लिंग स्कूल और समाज कई मायनों में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। स्कूल समाज का प्रतिबिंब हैं, और समाज के दृष्टिकोण, मूल्य और विश्वास अक्सर शैक्षिक प्रणाली में प्रतिबिंबित होते हैं। लिंग सामाजिक पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो लोगों के सोचने, व्यवहार करने और दूसरों के साथ बातचीत करने के तरीके को प्रभावित करता है। इस प्रकार, स्कूलों में लैंगिक भूमिकाएं और रूढ़िवादिता को अक्सर प्रबल किया जाता है, जो छात्रों के अनुभवों और परिणामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।
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लिंग एक सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना, जो पुरुषों और महिलाओं, लड़कियों और लड़कों के गुणों में अंतर को अलग करती है, और तदनुसार पुरुषों और महिलाओं की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को संदर्भित करती है। इसलिए, लिंग- आधारित भूमिकाएँ और अन्य विशेषताएँ समय के साथ बदलती रहती हैं और विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों के साथ बदलती रहती हैं। लिंग की अवधारणा में महिलाओं और पुरुषों (स्त्रीत्व और पुरुषत्व) दोनों की विशेषताओं, दृष्टिकोण और संभावित व्यवहारों के बारे में अपेक्षाएं शामिल हैं। यह अवधारणा यह विश्लेषण करने में उपयोगी है कि आम तौर पर साझा प्रथाएं लिंगों के बीच विसंगतियों को कैसे वैध बनाती हैं।
लिंग पहचान – पुरुष, महिला, दोनों का मिश्रण या न ही किसी के रूप में स्वयं की आंतरिक अवधारणा – व्यक्ति स्वयं को कैसे समझते हैं और वे स्वयं को क्या कहते हैं। किसी की लिंग पहचान जन्म के समय निर्धारित लिंग से समान या भिन्न हो सकती है।
लिंग का तात्पर्य महिलाओं, पुरुषों, लड़कियों और लड़कों की सामाजिक रूप से निर्मित विशेषताओं से है। इसमें एक महिला, पुरुष, लड़की या लड़का होने के साथ-साथ एक-दूसरे के साथ संबंध से जुड़े मानदंड, व्यवहार और भूमिकाएं शामिल हैं। एक सामाजिक संरचना के रूप में, लिंग एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न होता है और समय के साथ बदल सकता है।
लैंगिक असमानता का तात्पर्य लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है। परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है। वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेद-भाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2023 में भारत 146 देशों में 127वें स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैगिंक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी है। लैंगिक असमानता का जन्म समाज और परिवार के मध्य होता है।
लैंगिक असमानता के विभिन्न क्षेत्र
1- सामाजिक क्षेत्र में
भारतीय समाज में प्रायः महिलाओं को घरेलू कार्य के ही अनुकूल माना गया है। घर में महिलाओं का मुख्य कार्य भोजन की व्यवस्था करना और बच्चों के लालन-पालन तक ही सीमित है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि घर में लिये जाने वाले निर्णयों में भी महिलाओं की कोई भूमिका नहीं रहती है। महिलाओं के मुद्दों से संबंधित विभिन्न सामाजिक संगठनों में भी महिलाओं की न्यूनतम संख्या लैंगिक असमानता के विकराल रूप को व्यक्त करती है।
2- आर्थिक क्षेत्र में
आर्थिक क्षेत्र में कार्यरत महिला और पुरुष के पारिश्रमिक में अंतर है। औद्योगिक क्षेत्र में प्रायः महिलाओं को पुरुषों के सापेक्ष कम वेतन दिया जाता है। इतना ही नहीं रोज़गार के अवसरों में भी पुरुषों को ही प्राथमिकता दी जाती है।
3- राजनीतिक क्षेत्र में
सभी राजनीतिक दल लोकतांत्रिक होते हुए समानता का दावा करते हैं परंतु वे न तो चुनाव में महिलाओं को प्रत्याशी के रूप में टिकट देते हैं और न ही दल के प्रमुख पदों पर उनकी नियुक्ति करते हैं।
4- विज्ञान के क्षेत्र में
जब हम वैज्ञानिक समुदाय पर ध्यान देते हैं तो यह पाते हैं कि प्रगतिशीलता की विचारधारा पर आधारित इस समुदाय में भी स्पष्ट रूप से लैंगिक असमानता विद्यमान है। वैज्ञानिक समुदाय में या तो महिलाओं का प्रवेश ही मुश्किल से होता है या उन्हें कम महत्त्व के प्रोजेक्ट में लगा दिया जाता है। यह विडंबना ही है कि हम मिसाइल मैन के नाम से प्रसिद्ध स्वर्गीय ए. पी.जे अब्दुल कलाम से तो परिचित हैं लेकिन मिसाइल वुमेन ऑफ इंडिया टेसी थॉमस के नाम से परिचित नहीं हैं।
5- मनोरंजन क्षेत्र में
मनोरंजन के क्षेत्र में अभिनेत्रियों को भी इस भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। अक्सर फिल्मों में अभिनेत्रियों को मुख्य किरदार नहीं समझा जाता और उन्हें पारिश्रमिक भी अभिनेताओं की तुलना में कम मिलता है।
6- खेल क्षेत्र में
खेलों में मिलने वाली पुरस्कार राशि पुरुष खिलाड़ियों की बजाय महिला खिलाड़ियों को कम मिलती हैं। चाहे कुश्ती हो या क्रिकेट हर खेल में भेदभाव हो रहा है। इसके साथ ही, पुरुषों के खेलों का प्रसारण भी महिलाओं के खेलों से ज्यादा है।
हम 21वीं शताब्दी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं जो एक बेटा पैदा होने पर खुशी का जश्न मनाते हैं और यदि एक बेटी का जन्म हो जाये तो शान्त हो जाते हैं यहाँ तक कि कोई भी जश्न नहीं मनाने का नियम बनाया गया हैं। लड़के के लिये इतना ज्यादा प्यार कि लड़कों के जन्म की चाह में हम प्राचीन काल से ही लड़कियों को जन्म के समय या जन्म से पहले ही मारते आ रहे हैं, यदि सौभाग्य से वो नहीं मारी जाती तो हम जीवनभर उनके साथ भेदभाव के अनेक तरीके ढूँढ लेते हैं।
- शिक्षा तक असमान पहुंच
दुनिया भर में, महिलाओं की शिक्षा तक पहुंच अभी भी पुरुषों की तुलना में कम है। 15-24 के बीच की ¼ युवा महिलाएँ प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाएंगी । वह समूह उन 58% लोगों का है जो बुनियादी शिक्षा पूरी नहीं कर रहे हैं। दुनिया के सभी अशिक्षित लोगों में से ⅔ महिलाएं हैं। जब लड़कियों को लड़कों के समान स्तर पर शिक्षित नहीं किया जाता है, तो इसका उनके भविष्य और उन्हें मिलने वाले अवसरों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।
- रोजगार समानताओं का अभाव
दुनिया में केवल 6 देश महिलाओं को पुरुषों के समान कानूनी कार्य अधिकार देते हैं। दरअसल, ज्यादातर अर्थव्यवस्थाएं महिलाओं को पुरुषों के बराबर ही अधिकार देती हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि यदि रोजगार एक समान खेल का मैदान बन जाता है, तो इसका लैंगिक असमानता से ग्रस्त अन्य क्षेत्रों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- नौकरी में पर्याप्त हिस्सेदारी का अभाव
रोजगार के भीतर लैंगिक असमानता का एक कारण नौकरियों का विभाजन है। अधिकांश समाजों में, यह अंतर्निहित धारणा है कि पुरुष कुछ कार्यों को संभालने के लिए बेहतर ढंग से सुसज्जित हैं। अधिकांश समय, ये वे नौकरियाँ हैं जो सबसे अच्छा भुगतान करती हैं। इस भेदभाव के परिणामस्वरूप महिलाओं की आय कम हो जाती है। महिलाएं अवैतनिक श्रम की प्राथमिक जिम्मेदारी भी लेती हैं, इसलिए भले ही वे भुगतान किए गए कार्यबल में भाग लेती हैं, उनके पास अतिरिक्त काम होता है जिसे कभी भी वित्तीय रूप से मान्यता नहीं मिलती है।
- कानूनी सुरक्षा का अभाव
विश्व बैंक के शोध के अनुसार , एक अरब से अधिक महिलाओं को घरेलू यौन हिंसा या घरेलू आर्थिक हिंसा के खिलाफ कानूनी सुरक्षा नहीं है। दोनों का महिलाओं की आगे बढ़ने और स्वतंत्रता से जीने की क्षमता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कई देशों में, कार्यस्थल, स्कूल और सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न के खिलाफ कानूनी सुरक्षा का भी अभाव है। ये स्थान असुरक्षित हो जाते हैं और सुरक्षा के बिना, महिलाओं को अक्सर ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जो समझौता करते हैं और उनके लक्ष्यों को सीमित करते हैं।
- शारीरिक स्वायत्तता का अभाव
दुनिया भर में कई महिलाओं को अपने शरीर पर या माता-पिता बनने पर कोई अधिकार नहीं है। जन्म नियंत्रण तक पहुंच अक्सर बहुत कठिन होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार , 200 मिलियन से अधिक महिलाएं जो गर्भवती नहीं होना चाहतीं, गर्भनिरोधक का उपयोग नहीं कर रही हैं। इसके कई कारण हैं जैसे विकल्पों की कमी, सीमित पहुंच और सांस्कृतिक/धार्मिक विरोध। वैश्विक स्तर पर, लगभग 40% गर्भधारण की योजना नहीं बनाई जाती है और जबकि उनमें से 50% गर्भपात में समाप्त होते हैं, 38% में जन्म होता है। ये माताएँ अक्सर अपनी स्वतंत्रता खोकर आर्थिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति या राज्य पर निर्भर हो जाती हैं।
- ख़राब चिकित्सा देखभाल
गर्भनिरोधक तक सीमित पहुंच के अलावा, महिलाओं को कुल मिलाकर पुरुषों की तुलना में कम गुणवत्ता वाली चिकित्सा देखभाल प्राप्त होती है। यह अन्य लैंगिक असमानता के कारणों से जुड़ा है, जैसे शिक्षा और नौकरी के अवसरों की कमी, जिसके परिणामस्वरूप अधिक महिलाएं गरीबी में हैं। उनके अच्छी स्वास्थ्य देखभाल का खर्च उठाने में सक्षम होने की संभावना कम है। ऐसी बीमारियों पर भी कम शोध हुआ है जो पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित करती हैं, जैसे ऑटोइम्यून विकार और पुरानी दर्द की स्थिति। कई महिलाओं को अपने डॉक्टरों से भेदभाव और बर्खास्तगी का भी अनुभव होता है, जिससे स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता में लिंग अंतर बढ़ जाता है।
- धार्मिक स्वतंत्रता का अभाव
जब धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला होता है तो सबसे अधिक पीड़ा महिलाओं को होती है। विश्व आर्थिक मंच के अनुसार जब चरमपंथी विचारधाराएं (जैसे कि आईएसआईएस) एक समुदाय में आती हैं और धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती हैं, तो लैंगिक असमानता बदतर हो जाती है। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी और ब्रिघम यंग यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक अध्ययन में, शोधकर्ता धार्मिक असहिष्णुता को महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भाग लेने की क्षमता से जोड़ने में भी सक्षम थे। जब अधिक धार्मिक स्वतंत्रता होती है, तो महिलाओं की भागीदारी के कारण अर्थव्यवस्था अधिक स्थिर हो जाती है।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव
2019 की शुरुआत में सभी राष्ट्रीय संसदों में से केवल 24.3% सीटें महिलाओं द्वारा भरी गईं। 2019 के जून तक, 11 राष्ट्राध्यक्ष महिलाएँ थीं। वर्षों से इस क्षेत्र में प्रगति के बावजूद, सरकार और राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है। इसका मतलब यह है कि कुछ मुद्दे जो महिला राजनेता उठाती हैं – जैसे माता-पिता की छुट्टी और बच्चे की देखभाल, पेंशन, लैंगिक समानता कानून और लिंग-आधारित हिंसा – अक्सर उपेक्षित होते हैं।
- जातिवाद
नस्लवाद के बारे में बात किए बिना लैंगिक असमानता के बारे में बात करना असंभव होगा। यह प्रभावित करता है कि रंगीन महिलाएं कौन सी नौकरियां पाने में सक्षम हैं और उन्हें कितना भुगतान किया जाता है, साथ ही कानूनी और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों द्वारा उन्हें कैसे देखा जाता है। लैंगिक असमानता और नस्लवाद का लंबे समय से गहरा संबंध रहा है। एक प्रोफेसर और लेखिका सैली किच के अनुसार, वर्जीनिया में यूरोपीय निवासियों ने काम करने वाली महिला की जाति के आधार पर तय किया कि किस काम पर कर लगाया जा सकता है। अफ्रीकी महिलाओं का काम “श्रम” था, इसलिए यह कर योग्य था, जबकि अंग्रेजी महिलाओं द्वारा किया गया काम “घरेलू” था और कर योग्य नहीं था। श्वेत महिलाओं और रंगीन महिलाओं के बीच वेतन अंतर भेदभाव की विरासत को जारी रखता है और लैंगिक असमानता में योगदान देता है।
- सामाजिक मानसिकता
इस सूची के कुछ अन्य कारणों की तुलना में यह कम स्पष्ट है, लेकिन समाज की समग्र मानसिकता का लैंगिक असमानता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। समाज पुरुषों बनाम महिलाओं के अंतर और मूल्य को कैसे निर्धारित करता है, यह हर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, चाहे वह रोजगार हो या कानूनी प्रणाली या स्वास्थ्य देखभाल। लिंग के बारे में मान्यताएं गहरी हैं और भले ही कानूनों और संरचनात्मक परिवर्तनों के माध्यम से प्रगति की जा सकती है, लेकिन बड़े बदलाव के बाद अक्सर प्रतिक्रिया होती है। प्रगति होने पर लैंगिक असमानता के अन्य क्षेत्रों, जैसे नेतृत्व में महिलाओं का बेहतर प्रतिनिधित्व, को नज़रअंदाज़ करना सभी (पुरुषों और महिलाओं) के लिए आम बात है । इस प्रकार की मानसिकताएँ लैंगिक असमानता को बढ़ावा देती हैं और महत्वपूर्ण परिवर्तन में देरी करती हैं।
समाज में लैंगिक भूमिकाओं का अर्थ है कि हमसे हमारे निर्धारित लिंग के आधार पर कैसे कार्य करने, बोलने, कपड़े पहनने, सजने-संवरने और आचरण करने की अपेक्षा की जाती है। लैंगिक भूमिकाएँ समाजीकरण का उत्पाद हैं, या वह तरीका जिसके द्वारा बच्चे सीखते हैं कि समाज में कौन से व्यवहार उचित माने जाते हैं। बच्चों का समाजीकरण ऐसे एजेंटों या संस्थाओं द्वारा किया जाता है जो लोगों को कुछ सामाजिक मानदंडों, जैसे परिवार के सदस्यों, साथियों, धर्म, शिक्षकों, भाषा और मीडिया का पालन करने के लिए प्रभावित करते हैं।
लैंगिक भूमिकाएँ वह हैं जिनसे पुरुषों और महिलाओं को कार्य करना चाहिए। लिंग भूमिकाएँ स्त्रीत्व और पुरुषत्व की समझ पर आधारित हैं।
महिलाओं की लैंगिक भूमिकाएँ सहायकता, निष्क्रियता और दयालुता जैसी विशेषताओं के इर्द-गिर्द घूमती हैं। परंपरागत रूप से, महिलाओं को देखभाल करने वाली, पालन-पोषण करने वाली, गृहिणी और सहायक के रूप में देखा जाता है। पुरुषों की लिंग भूमिकाएँ प्रभुत्व, मुखरता और ताकत जैसी विशेषताओं के इर्द-गिर्द घूमती हैं। परंपरागत रूप से, पुरुषों की लिंग भूमिकाओं में कमाने वाला, नेता और रक्षक शामिल हैं।
समाज में लैंगिक समानता स्थापित करने में विभिन्न एजेंसियों की भूमिका
समाज में लैंगिक समानता को स्थापित करने के लिए विभिन्न प्रकार की एजेंसियों का महत्वपूर्ण रूल होता है जिस्म की हम प्रमुख रूप से परिवार, जाति, धर्म, संस्कृति, मीडिया तथा लोकप्रिय संस्कृति, कानून तथा राज्य की भूमिकाओं पर प्रकाश डालेंगे-
(1) परिवार
घर या परिवार बालिकाओं को शिक्षित करने की प्राथमिक एजेंसी है । परिवार को शिक्षा की प्राथमिक बुनियाद माना जाता है। शाला जाए बिना बालक–बालिकाएं परिवार में रहकर ही बोलना, भाषा ज्ञान प्राप्त करना तथा आचरण व्यवहार की शिक्षा प्राप्त करते हैं । परन्तु भारतीय परिवारों में कर के बाहर स्कूलों में बालिकाओं को पढ़ाने में अपनी रुचि व तत्परता नहीं दिखाई देती जितनी बालकों की । यही कारण है कि बालकों की साक्षरता व शिक्षा कन्याओं की साक्षरता व शिक्षा से अधिक है । कुछ परिवारों में लड़कियों का नामांकन शाला में होने के बाद भी उन पर घरेलू कामों का इतना बोझ लाद दिया जाता है कि वे नियमित रूप से शाला नहीं जा पातीं। बहुत सी लड़कियाँ तो इस कारण पढ़ना लिखना छोड़ देती हैं। परिवार में अभिभावकों के निरक्षर या अशिक्षित होने का प्रभाव उनकी पुत्रियों की शिक्षा पर भी पड़ता है। अनेक निर्धन अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) तथा अनुसूचित जाति के परिवारों में उच्च शिक्षा तो दूर प्राथमिक माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा भी बालिकाओं को नसीब नहीं हो पाती है ।
शिक्षाविद पेस्टालॉजी ने परिवार को प्रथम स्कूल कहा है। मैजनी का कथन है,“बालक नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुंबन एवं पिता के संरक्षण के बीच सीखता है।”
कुछ परिवार जेंडर भेद के कारण बालक और बालिकाओं के साथ पक्षपात का व्यवहार करते हैं । फलस्वरूप बालक प्रायः उदंड तथा बालिकाएं दासी बन जाती हैं। यह रूढ़िगत भावना बदली जानी चाहिए क्योंकि पुरुषों व स्त्रियों को स्वतंत्र भारत में समान अधिकार प्राप्त हैं।
(2) जाति
समाजशास्त्री कूले ने लिखा है, जब कोई भी वर्ग पूर्णतः वंशनुक्रम पर आधारित हो जाता है तो वह जाति कहलाता है। जाति में एकता तथा जातिगत नियमों का पालन करने की विशेषता पाई जाती है अतः उसका गहरा प्रभाव जाति के परिवारों व लोगों पर पड़ता है। जिन जातियों में बालिकाओं की शिक्षा के प्रति जागृति नहीं होती उनकी बालिकाएं प्रायः अशिक्षित रह जाती हैं। कुछ जाति के लोग यह धारणा रखते हैं कि लड़कियों को पढ़ाना व्यर्थ है क्योंकि उनसे नौकरी थोड़े ही करानी है तथा वह तो पराया धन है शादी के बाद पराए घर में चला जाएगा। बाल विवाह, बुरका प्रथा, घूघट प्रथा, पर्दा प्रथा, होने से भी कई जातियों के व्यक्ति अपनी पुत्रियों को पढ़ाना पसंद नहीं करते । मुस्लिम परिवारों में प्राय: बालिका की शिक्षा–दीक्षा स्कूलों महाविद्यालयों में कम ही होती है। आदिवासी व अनुसूचित जाति में कन्या शिक्षा का प्रतिशत कई स्थानों पर पाँच प्रतिशत से भी कम पाया गया है।
(3) धर्म
संसार के अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी धर्म को मानते हैं। धर्म के केन्द्रस्थल धार्मिक शिक्षा के साथ सामान्य शिक्षा व आचरण की शिक्षा देते हैं । चर्च से जुड़े अनेक स्कूल हैं, मुस्लिम मस्जिद आदि में भी प्रारंभिक शिक्षा होती है, बौद्ध मठ शिक्षा के केन्द्र हैं। धर्म धर्मावलंबियों के जीवन का मार्ग निश्चित करता है अतः धार्मिक संप्रदाय की सोच व व्यवहार को अत्यन्त सशक्तता से प्रभावित करता है। शिक्षा पर धर्म का असर अत्यन्त कारगर होता है । प्रायः कोई भी धर्म शिक्षा का विरोधी नहीं है। अफगानिस्तान में कुछ समय पूर्व तक बालिका शिक्षा का विरोध किया गया जिसका अब थोड़ा ही असर रह गया है।
धर्म मानने वाले धार्मिक पुस्तकों, धर्म गुरुओं, धर्मोपदेशक से प्रभावित होकर आचरण करते हैं अतः सभी धर्मों की महिला शिक्षा को प्रोत्साहन देने का प्रयास करना चाहिए ताकि इक्कीसवीं सदी की माँग के परिप्रेक्ष्य में जेंडर समानता की शिक्षा कायम हो सके ।
(4) संस्कृति
संस्कृति संस्कारों– सुसंस्कारों का पुंज है । साधारणतः समूह विशेष, देश विशेष, जाति विशेष के विश्वासों, आदर्शों, व्यवहारों कलाओं, रीतिरिवाजों,खाने पीने उठने बैठने, बोलने–व्यवहार करने आदि के तरीकों को संस्कृति में सम्मिलित किया जाता है ।
शिक्षा और संस्कृति एक–दूसरे से अभिन्न रूप से संबंधित हैं । इस संबंध में ब्रामेल्ड ने लिखा है, “संस्कृति की सामग्री से ही शिक्षा का प्रत्यक्ष रूप से निर्माण होता है और यही सामग्री शिक्षा को न केवल उसको स्वयं के उपकरण वरन् उसके अस्तित्व का कारण प्रदान करती है।”
शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण संस्कृति के आधार पर होता है । जैसे भारतीय शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक या गुरु के महत्त्व, शिक्षण विधियाँ, एवं पाठ्यक्रम के निर्धारण पर भारतीय संस्कृति की छाप है । शैक्षिक उद्देश्य भी संस्कृति के आधार पर ही निर्धारित होते हैं।
बालिका/महिलाओं की शिक्षा की सीमित व्यवस्था वैदिक संस्कृति तथा बौद्ध संस्कृति में परिलक्षित होती है परन्तु जनशिक्षा (पब्लिक एजुकेशन) का अभाव उस युग में भी था । मुस्लिम काल में तो यह प्रभाव प्रबल हो गया है। भारतीय संस्कृति में पर्दा प्रथा, बाल विवाह प्रथा के आगमन से यह सांस्कृतिक आक्रमण हुआ। अब स्वातंत्र्योत्तर भारत में नारी शिक्षा की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं तथा शिक्षा में जेंडर समानता लाने का लक्ष्य रखा गया है जिसके अंतर्गत शैक्षिक अवसरों की समानता के प्रयास हो रहे हैं। इससे भारतीय संस्कृति में सांस्कृतिक बदलाव आएगा।
(5) मीडिया तथा लोकप्रिय संस्कृति
मीडिया तथा लोकप्रिय संस्कृति (आकाशवाणी, दरदर्शन, समाचार पत्र, फिल्में, फिल्मों के गाने, इंटरनेट आदि) अनौपचारिक शिक्षा का सशक्त माध्यम है। स्कूलों में औपचारिक रूप से शिक्षा दी जाती है परन्तु मीडिया व लोकप्रिय संस्कृति अनौपचारिक रूप से लोगों को शिक्षित करती है । लोकप्रिय संस्कति जनता में लोकप्रिय है अतः अधिकांश जनता में इनका गहरा शैक्षिक प्रभाव पड़ सकता है। यदि लोकप्रिय संस्कृति और मीडिया–बच्चों की दर्ज संख्या वृद्धि अभियान, बालिकाओं की शिक्षा की जागृति, बालिकाओं में उच्च शिक्षा के विभिन्न पाठ्यक्रमों की जानकारी और उसमें रोजगार प्राप्त सत्रों के अवसर, प्रौढ़ (15 से 35 वर्ष आयु की) निरक्षर महिलाओं में साक्षरता के लाभों आदि पर टी.वी. सीरियल, समाचार, विज्ञापन परिचर्चा आदि प्रकाशित प्रसारित करें तो बालिका व महिलाओं की शिक्षा प्राप्ति की दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जा सकते हैं। सरकार को नारी शिक्षा की विभिन्न योजनाओं का प्रचार–प्रसार भी मीडिया को करना चाहिए। शिक्षाप्रद महिला चरित्र, महिला शिक्षाविद प्रतिभावान छात्राओं के इंटरव्यू गैर सरकारी शैक्षिक प्रयासों में जुड़ी संस्थाओं के प्रयासों शिक्षाप्रद शालेय पाठ्यक्रमों के प्रसारण आदि द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में मीडिया अपनी भमिकाओं को जनता के सामने लाने का श्लाय प्रयास कर सकता है।
(6) कानून
शिक्षा के क्षेत्र में कानूनों या अधिनियमों की सशक्त भूमिका है। शिक्षा विषयक शासन द्वारा बनाए गए अधिनियम देश की शिक्षा पर व्यापक असर डालते हैं । केन्द्र शासन द्वारा निर्मित निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 छह वर्ष से चौदह वर्ष के बालक बालिकाओं को बिना कोई शुल्क दिए कक्षा 8 तक की अनिवार्य शिक्षा को देश में जम्मू–कश्मीर राज्य के सिवाय पूरे देश पर प्रभावी है। यदि नारी उच्च शिक्षा में आरक्षण, शिक्षा के कारण प्राप्त नौकरियों में स्त्रियों हेतु आरक्षण आदि कानून पारित किए जाएं तो वे शिक्षा असमानता दूर करने में काफी हद तक सफल होंगे।
(7) राज्य
राज्य की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली होती है । जेंडर समानता के प्रयासों में राज्य की शिक्षा नीति, राज्य के शिक्षा प्रचार प्रसार, नई बालिका शालाएं व कॉलेज खोलने, महिला हेतु उपयोगी पाठ्यक्रम की पुनर्रचना करने, शिक्षा आयोगों समितियों का गठन कर जेंडर समानता की शिक्षा हेतु और प्रभावशाली कदम उठाने के कदम उठाए जा सकते हैं।
जिन क्षेत्रों में महिलाओं का प्रवेश कम है उन शिक्षा के क्षेत्रों में जैसे मेडीकल शिक्षा, इंजीनियरिंग, वैमानिकी तथा पर्यटन, टेक्नोलॉजी, सूचना प्रौद्योगिकी, पत्रकारिता, फिल्म प्रोडक्शन व डायरेक्शन, फैशन टेक्नोलॉजी, अंतरिक्ष विज्ञान, शिक्षण–शिक्षा इत्यादि में राज्य व सरकार के प्रयास जेंडर असमता को कम करने में सहायक हैं।
बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजनाएं भी राज्य व सरकारों द्वारा लागू करना जैसे साइकिल प्रदाय योजना, मध्यान्ह भोजन योजना, मेधावी छात्राओं को पुरस्कार, गणवेश व स्टेशनरी तथा पाठ्य पुस्तकों का प्रदाय, बालिका आश्रम व छात्रावासों में पढ़ने वाली बालिकाओं के लिए निःशुल्क आवास, भोजन आदि भी जेंडर समानता की शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त करने की कल्याणकारी योजनाएं राज्य द्वारा संचालित हैं।
लैंगिक पूर्वाग्रह वह होता है जब कोई व्यक्ति या समाज पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर के जेंडर आधारित मतभेद करता है। पूर्व की धारणा ऑन के चलते जो भेदभाव किया जाता है वह ही लैंगिक पूर्वाग्रह है। यह हो भेदभाव बिना किसी तार्किकता के पूर्व में निर्धारित विचारों, धारणाओं, मिथ्या, आदि पर होता है।
लैंगिक पूर्वाग्रह के निम्नलिखित कारण है-
(1) प्राचीन मान्यताएँ
अथर्ववेद में यह कहा गया है कि स्त्री को बाल्यावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए। मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों को हमेशा पति व पुत्र के अधीन ही रखा गया है। यहाँ तक किसी रक्त सम्बन्ध वाले पुरुषों के बिना उन्हें अपनी धार्मिक यात्रा हज करने का अधिकार भी नहीं है। इस तरह की प्राचीन मान्यताओं के कारण स्त्री को पुरुष से कमतर समझा जाता है। स्त्री को पुरुष के सहारे की आवश्यकता भी इन्हीं मान्यताओं के कारण पड़ती है। भारत में माता-पिता का अन्तिम संस्कार करने के लिए भी पुत्र की आवश्यकता पड़ती है। इन सब मान्यताओं के कारण मातापिता पुत्र की चाह करते हैं।
(2) संकीर्ण विचारधारा
लोगों की संकीर्ण विचारधारा लड़के तथा लड़की में भेद का एक कारण है। लोगों का मानना है कि लड़के माँ-बाप की वृद्धावस्था का सहारा बनेंगे, वंश को आगे बढ़ाएँगे, उन्हें पढ़ाने-लिखाने से घर की उन्नति होगी जबकि लड़की को पढ़ाने- लिखाने में धन एवं समय की बर्बादी होगी। यद्यपि वर्तमान में बालिकाएँ लोगों की संकीर्ण सोच को तोड़ने का कार्य कर रही हैं। इसके बावजूद बालिकाओं का कार्यक्षेत्र चौका-बर्तन तक ही सीमित माना जाता है। अतः बालिकाओं की भागीदारी को स्वीकार न किए जाने के कारण बालकों की अपेक्षा बालिकाओं के महत्त्व को कम माना जाता है जिससे लैंगिक विभेद में वृद्धि होती है।
(3) दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली
भारतीय शिक्षा प्रणाली अत्यन्त दोषपूर्ण है जिसके कारण व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन से शिक्षा का सम्बन्ध नहीं हो पाता। विशेष रूप से बालिकाओं के सम्बन्ध में शिक्षा अव्यावहारिक होने से शिक्षा पर किए गए व्यय एवं समय की भरपाई नहीं हो पाती। अतः बालिकाओं की शिक्षा ही नहीं, अपितु इस लिंग के प्रति भी लोगों में बुरी भावना व्याप्त हो जाती है। वर्तमान शिक्षा के अन्तर्गत विद्यालयों में प्रचलित पाठ्यचर्या नितान्त सैद्धान्तिक एवं दोषपूर्ण है साथ ही इसमें (पाठ्यचर्या में) बालिकाओं की अभिरुचियों का भी ध्यान नहीं रखा जाता है जिससे उनमें शिक्षा (पढ़ाई) के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।
(4) पुरुष प्रधान समाज
भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। जहाँ पर पुत्रों को पिता का उत्तराधिकारी माना जाता है। बच्चों के नाम के आगे पिता का नाम ही लगाया जाता है। वंश परम्परा बढ़ाने के लिए मातापिता, दादा-दादी आदि को पुत्र की आवश्यकता होती है।
लड़की को शादी के बाद पति के घर पर ही जा कर रहना पड़ता है। उसके नाम के आगे उसके पति का ही नाम लगता है। यहाँ तक कि अन्तिम संस्कार, पिंड, मोक्ष आदि के लिए भी पुत्र की आवश्यकता होती है। पिता की सम्पत्ति भी पुत्रों को मिलती है। वैसे तो संविधान के अनुसार पुत्रियों को भी सम्पत्ति का अधिकार मिल गया है फिर भी देखा गया है परिवारीजन पुत्री को सम्पत्ति देना नहीं चाहते हैं और कई जगह पर पुत्रियों अपने भाइयों से सम्बन्ध बिगड़ने की वजह से खुद सम्पत्ति नहीं लेना चाहती हैं। वैसे तो कई समुदायों में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था भी है पर वह समुदाय मुख्य धारा में नहीं जुड़े हुए हैं। इन सब कारणों से बालिकाओं का महत्त्व बालकों से कम आँका जाता है और लिंगीय भेदभाव में वृद्धि होती है।
(5) जागरूकता का अभाव
शिक्षा की कमी के कारण अभी भी ग्रामीण इलाकों में जागरूकता का अभाव है और ऐसा माना जाता है कि स्त्रियों का क्षेत्र घर व बच्चों की देखभाल तक ही है इसीलिए उन्हें ज्यादा शिक्षा दिलाने की आवश्यकता नहीं हैं। लड़कियों को घर पर ही रहना है, अतः उन्हें अतिरिक्त पोषण की आवश्यकता भी नहीं हैं इसलिए बालक व बालिकाओं में शिक्षण तथा पोषण आदि स्तरों पर भी भेदभाव किया जाता है। अशिक्षित व्यक्ति, परिवारों एवं समाजों में चले आ रहे अन्धविश्वासों एवं मिथकों पर ही लोग कायम रहते हैं एवं बगैर विचार किए उसका पालन करते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप ये बालक का महत्त्व बालिका की अपेक्षा सर्वोपरि मानते हैं तथा सभी सुविधाओं एवं वस्तुओं पर प्रथम अधिकार बालकों को ही देते हैं। अतः लैंगिक विभेद में अशिक्षा की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
(6) सांस्कृतिक कुप्रथाएँ
प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति पुरुष प्रधान रही है। भारतीय संस्कृति में धार्मिक एवं यज्ञीय कार्यों में भी पुरुष की उपस्थिति अपरिहार्य है एवं कुछ कार्य तो स्त्रियों के लिए पूर्णतया निषेध है। अतः ऐसी स्थिति में पुरुष प्रधान हो जाता है तथा स्त्री का स्थान गौण हो जाता है। यह स्थिति किसी एक वर्ग अथवा समुदाय की महिलाओं एवं पुरुषों की न होकर सभी स्त्रियों की बनकर लैंगिक विभेद की समस्या का रूप धारण कर लेती है।
(7) गरीबी
गरीबी भारत का बहुत बड़ा अभिशाप और बालकों को बालिकाओं से अधिक प्राथमिकता इसलिए दी जाती हैं क्योंकि वह बड़े होकर आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बाँटने का कार्य करेंगे दूसरी तरफ लड़की के बड़े होने पर दहेज के रूप में बड़ा खर्च करना पड़ेगा, आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता को इन परिस्थितियों में लड़की बोझ व लड़का बुढ़ापे का सहारा लगता है। यह समस्या एक क्षेत्र की नहीं है बल्कि भारत में सभी जगह व्याप्त है क्योंकि एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा की नीचे जीवनयापन कर रही है। अतः गरीबी कम होने पर कुप्रथाओं पर रोक लगाई जा सकती है।
(8) सामाजिक कुप्रथाएँ
सूचना एवं तकनीकी के इस युग में भी भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वास व्याप्त हैं जैसे की बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि।
लैंगिक पूर्वाग्रह समाप्त करने के उपाय
समाज से लैंगिक पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय है-
1- जागरूकता
2- शिक्षा व्यवस्था का प्रसार
3- उचित आर्थिक अवसर
4- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
5- कुप्रथाओं का अंत
लैंगिक रूढ़िवादिता का तात्पर्य व्यक्तियों को केवल उनके लिंग के आधार पर विशिष्ट गुण, विशेषताएँ या भूमिकाएँ सौंपने की प्रथा से है। यह रूढ़िवादिता समाजों में व्यापक रूप से प्रभावित कर सकती है कि लोग लिंग के आधार पर एक-दूसरे के लिये किस प्रकार की समझ रखते हैं और उनके साथ कैसा व्यवहार करते हैं। उदाहरण के लिये महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे पोषित रहे और प्रभुत्व से बचें, जबकि पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि वे अभिकर्मक बनें और कमजोरियों से बचें।
लैंगिक रूढ़िवादिता एक अनुचित विचार है जो ऐसी सामान्यीकृत दृष्टिकोण या विशेषताओं को संदर्भित करता है जो महिलाओं और पुरुषों के पास होना चाहिए। लैंगिक रूढ़िवादिता हानिकारक होती है, यह महिलाओं और पुरुषों की व्यक्तिगत क्षमताओं को विकसित करने, उनके पेशेवर जीवन को आगे बढ़ाने अथवा उनकी चुनाव करने की उनकी क्षमता को सीमित करती है।
रूढ़िवादिता समाज में व्याप्त विभिन्न असामाजिक क्रियाएं एवं कुरीतियों से है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपने मूल रूप में स्थानांतरित होती रहती है. इसकी सामाजिक उपयोगिता ना होते हुए भी वर्ग एवं समुदाय इसको मान्यताएं प्रदान करता है. रूढ़िवादिता समाज, समुदाय एवं देश के विकास में बाधक है।
लैंगिक रूढ़िवादिता को रोकने के उपाय
लैंगिक रूढ़िवादिता को रोकने के निम्नलिखित उपाय है-
1- जागरूकता
2- शिक्षा व्यवस्था का प्रसार
3- उचित आर्थिक अवसर
4- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
5- कुप्रथाओं का अंत
पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों में संबंध
पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों का गहरा अन्तर्सम्बन्ध है। पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तक एक–दूसरे के बगैर अछूते हैं। पाठ्यक्रम के बिना पाठ्य पुस्तक का निर्माण नहीं किया जा सकता तथा पाठ्य पुस्तक से पाठ्यक्रम का विस्तार व सरलीकरण होता है। पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकें दोनों शिक्षकों तथा छात्रों का मार्गदर्शन करती हैं।
पाठ्य पुस्तकों से निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक ही स्थान पर मिल जाता है। अतः पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों में गहन अन्तर्सम्बन्ध है जो निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होता है
(1) पाठ्य पुस्तकों में पाठ्यक्रम की संपूर्ण रूप में व्याख्या की जाती है। पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों–प्रकरणों का विश्लेषण पाठ्यपुस्तकों से अर्जित होता है।
(2) पाठ्य पुस्तकें किसी निश्चित पाठ्यक्रम के आधार पर निश्चित कक्षा स्तर के लिए लिखी जाती हैं। यद्यपि इन पुस्तकों का विस्तार क्षेत्र सीमित होता है, किन्तु विद्यार्थियों के लिए ये बहुत उपयोगी होती हैं क्योंकि ये पाठ्यक्रम से सीधे जुड़ी हुई होती हैं।
(3) पाठ्यक्रम के निर्माण के साथ पाठ्यक्रम के उद्देश्य भी होते हैं। उससे संबंधित पाठ्य पुस्तकें इस प्रकार तैयार की जाती हैं ताकि उनके द्वारा पाठ्यक्रम के उद्देश्यों को अर्जित किया जा सकें।
(4) कुछ सामान्य पाठ्य पुस्तकें किसी विषय विशेष पर सामान्य अध्ययन की दृष्टि से भी लिखी जाती हैं। इनमें किसी निर्धारित पाठ्यक्रम को आधार नहीं बनाया जाता तथा प्रकरणों को विषय सामग्री की उपलब्धता एवं उपयोगिता की दृष्टि से विस्तार प्रदान किया जाता है। ये पुस्तकें विशेष रुचि रखने वाले विद्वानों/लेखकों द्वारा लिखी जाती हैं। ये पुस्तकें शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के लिए सहायक पुस्तकों की तरह उपयोगी होती हैं। इनका प्रयोग उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं या इनसे ऊपर की कक्षाओं में किया जाता है। पाठ्यक्रम का स्वाध्याय करने में इन पुस्तकों से विषय सामग्री लेकर छात्रगण अपने नोट्स तैयार करते हैं।
(5) पाठ्यपुस्तकों का निर्माण भी पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों के अनुरूप होता है। पाठ्यक्रम निर्माण के प्रमुख सिद्धान्त हैं– बाल केन्द्रीयता का सिद्धान्त, जीवन से संबंधित होने का सिद्धान्त,अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त,उपयोगिता का सिद्धान्त,सामुदायिक जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त, पाठ्य पुस्तकें भी इन्हीं सिद्धान्तों के अनुरूप तैयार की जाती हैं।
(6) पाठ्यक्रम केवल छपी हुई मार्गदर्शिका है जो यह बताती है कि छात्रों को क्या–क्या सीखना है। पाठ्य पुस्तकें इन विषयों/प्रकरणों को विस्तारपूर्वक विवेचन को प्रस्तुत करती हैं। पाठ्य पुस्तकें पाठ्यक्रम के संक्षिप्त अमूर्त रूपरेखा प्रस्तुत करता है जबकि पाठ्यपुस्तकों में इनका विस्तार वर्णित होता है। इस दृष्टि से पाठयक्रम व पाठय पुस्तक में घनिष्ठ अन्तर्सम्बन्ध है।
(7) पाठ्यक्रम यदि लक्ष्य है तो पाठ्य पुस्तक उस लक्ष्य को प्राप्त करने की सहायक सामग्री है । पाठ्य पुस्तकों, पाठ्यक्रम के संकेतों को समझने में शिक्षकों–छात्रों की सहायक है।
बेकन ने लिखा है, “पाठ्य पुस्तक कक्षा प्रयोग के लिए विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है । यह शिक्षण युक्तियों से सुसज्जित भी होती है।”
(8) पाठ्यक्रम मूल रूप में उल्लेख भर करता है जबकि पाठ्य पुस्तकों में चित्र,मानचित्र चार्ट, ग्राफ आंकड़े, अभ्यास के प्रश्न, मूल्यांकन आदि विषय को सुगम व सुबोध बनाने वाली सामग्री भी दी जाती है। पाठ्य पुस्तक में पाठ्यक्रम के निर्धारित विषयों/प्रकरणों को तार्किक रूप से तथा रोचक रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों में जेंडर भूमिका के प्रतिनिधित्व का स्वरूप
पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों द्वारा जेंडर भूमिका के प्रतिनिधित्व संबंधी निम्नलिखित विषयों प्रकरणों को पाठ्यक्रम–पाठ्य पुस्तकों में सम्मिलित किया जा सकता है–
(1) जेंडर अंतराल (गैप)
यह जानकारी छात्र–छात्राओं में होनी चाहिए जेंडर गैप किन–किन क्षेत्रों में हैं। अर्थात् स्त्री वर्ग किन क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में अधिक पीछे है। शिक्षा का क्षेत्र जेंडर गैप की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है जहाँ शताब्दियों से नारी शिक्षा पुरुषों की शिक्षा के प्रतिशत की अपेक्षा कमतर रही है तथा आज भी है। शिक्षा द्वारा महिलाओं में आत्म विश्वास, जागृति तथा रोजगार प्राप्त करने के अवसर आते हैं। शिक्षित महिला पूरे परिवार को शिक्षित करने में योगदान देती है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों का अभाव दूसरा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ अंतराल (गैप) अधिक दिखाई देता है । यदि महिलाएं नौकरी करने लगेंगी तो उनका पारिवारिक व सामाजिक सम्मान बढ़ जाए। धनोपार्जन में वे सक्षम होकर अपने बूते पर संतान के पालन में सक्षम हो सकेंगी। राजनैतिक क्षेत्र में पुरुष महिला में अंतराल अधिक है क्योंकि निर्वाचन लड़ने तथा जनप्रतिनिधित्व का पद पाने को दूसरे कई राजनैतिक दल टिकट देने में भेदभाव करते हैं। सामाजिक क्षेत्र में आज दहेज, सतीप्रथा, बालविवाह, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा व बुरका प्रथा, वेश्यावृत्ति, विधवाओं की दयनीय स्थिति महिलाओं की सामाजिक स्थिति को कमतर स्थान देती है। जेंडर अंतराल की दिशा में सामाजिक क्षेत्र में महिलाएं स्वतंत्रतापूर्वक अपने विकास में सक्षम नहीं हो पाती तथा उन्हें अबला’ जैसे संबोधनों से संबोधित होना पड़ता है । पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों में जेंडर गैप के क्षेत्रों की जानकारी छात्र–छात्राओं को दी जानी युक्तिसंगत है।
(2) जेंडर असमानता
जनमानसिकता, परम्परागत नारी संबंधी कुविचार, परिसर में चहारदीवारी में कैद नारी स्वतंत्रता, महिलाओं पर अत्याचारों की अधिकता तथा उनके साथ घरेलू अहिंसा, अशिक्षा, लड़की के विवाह में कठिनाई, खराब स्वास्थ्य, यौन हिंसा का भय, सामाजिक कुप्रथाएं (दहेज, बाल विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति इत्यादि) महिलाओं की लैंगिक असमता की ओर संकेत करती है। पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों में जेंडर असमता के मुद्दे को सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि इसके दुष्परिणामों से बालक–बालिका परिचित होकर निवारक कदम उठाने में सफल होंगे।
(3) लैंगिक संवेदनशीलता
पाठ्यक्रम में ऐसे विषय शामिल होने चाहिए जो पुरुषों में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करते हैं। महिलाओं की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, नारी से छेड़छाड़, बलात्कार आदि की घटनाओं की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि छात्रों में नारी के विकास में बाधक तत्त्वों की जानकारी हो उससे युवा पीढ़ी समाज सुधार के उपायों की ओर अग्रसर होगी।
नारी माँ, बहन, पुत्री, पत्नी के विविध रूपों में पुरुषों की सबसे बड़ी हितैषी होती है अतः मानवतावादी उपागम निर्देशित करते हैं कि पुरुषों को नारी दुर्दशा के प्रति संवेदनशीलता बरतते हुए नारी उत्थान कल्याण के प्रयत्न करने चाहिए। यदि पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में ये प्रकरण होंगे तो सामाजिक संवेदनशीलता में नारी के प्रति वृद्धि होगी तथा अत्याचार व हिंसा में कमी आयेगी।
(4) महिलाओं संबंधी कानूनी प्रावधानों की जानकारी
हमारे देश में संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव वर्जित है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए अनेक कानून बनाए हैं। छात्र–छात्राओं के पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों में यदि इन वैधानिक प्रावधानों की जानकारी विस्तार से या प्रासंगिक रूप से दी जाए तो युवा वर्ग जागृत होगा तथा दूसरी पीढी भी प्रशिक्षित होकर अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने से हिचकेगी। अधिनियमों की जानकारी जनजागृति तथा महिला हितैषी कार्य करने हेतु प्रेरित करेगी।
(5) महिला कल्याण व विकास कार्यक्रमों योजनाओं की जानकारी
महिलाओं– बालिकाओं के कल्याण हेत केन्द्र शासन के अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकार का अनेक योजनाएं व कार्यक्रम संचालित किए जाते हैं। पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में ऐसे कार्यक्रमों तथा योजनाओं को सम्मिलित करने से छात्र– छात्राओं को लाभ होगा तथा समाज में वांछित वर्ग को लाभ दिला सकने में वे सक्षम होंगे।
(6) महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा
लैंगिक असमता दूर करने हेतु महिला सशक्तिकरण का विचार वैश्विक सार्वभौमिक ग्लोबल रूप धारण कर गया है जिसके अंतर्गत प्रमुख प्रयास है– उन कारणों को समझना जो महिला सशक्तिकरण में बाधक हैं। स्त्रियों को परिवार एवं समुदाय में निर्णय लेने तथा सहभागिता बढ़ाना, स्त्रियों को उन नवीन भूमिकाओं हेत प्रोत्साहित करना जो पुरुषों का अधिकार क्षेत्र मानी जाती रही हैं, स्त्रियों को उन अन्यायपर्ण व असमान विश्वासों, प्रथाओं, संस्थाओं से बदलाव हेतु सम्मुख लाना जो लैंगिक असमता के लिए जिम्मेदार हैं, स्त्रियों को प्राकृतिक, मौद्रिक व बौद्धिक संसाधनों पर पहुँच बढ़ाने के अवसर देना स्त्रियों को स्वप्रतिष्ठा व अबला होने की धारणा बदलना इत्यादि।
महिला सशक्तिकरण वैश्विक आंदोलन है जिस पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में स्थान देकर नवजागृति व महिलाओं के हित में क्रांति या परिवर्तन लाने का प्रयास किया जा सकता है।
स्वतंत्रता के बाद पाठ्यक्रम में लैंगिक सन्दर्भ की रूपरेखा
स्वतंत्रता से अब तक लिंग के सन्दर्भ में पाठ्यक्रम में किये गये कार्य, भारत सरकार ने शिक्षा के लिए जो विभिन्न आयोग एवं समितियों का गठन समय-समय पर किया; उनमें महिला सदस्यों को भी सम्मिलित किया गया जिससे बालिका शिक्षा के लिए आवश्यक सुझाव प्राप्त हो सके। इन आयोग एवं समितियों के सुझावों के अनुसार ही पाठ्यचर्या में विभिन्न प्रेरणादायक, विदुषी, स्वतंत्रता सेनानी, वैज्ञानिक, इत्यादि महिलाओं से सम्बन्धित अध्यायों को सम्मिलित किया जाता है। जिसके फलस्वरुप लैंगिक रूपरेखा को सकारात्मक बनाए जा सके जो निम्नलिखित संदर्भ में हो सकता है –
1- आदर्श विचारों एवं हस्तियों का समावेश
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अध्ययन अध्यापन के पाठ्यक्रम में आदर्श विचारों एवं हस्तियों का समावेश पर्याप्त मात्रा में किया गया। जिसके द्वारा लैंगिक समानता तथा उच्च व्यक्तित्व के विकास को लेकर के छात्रों के बीच आदर्श विचारों को प्राथमिकता दी जा सके।
2- वास्तविकता पर आधारित अध्यापन
पाठ्यक्रम में वास्तविकता को प्राथमिकता दी गई जिसके फलस्वरुप समाज में घटित होने वाली वास्तविक घटनाओं को पाठ्यक्रम में जगह दी जा सके और इसके साथ-साथ समाज की अनेक लैंगिक कुरितियां का विचार मंथन भी हो सके। जिससे छात्रों में एक जागरूकता आ सके और समाज में विद्यमान लैंगिक असमानताएं और कुरीतियों समाप्त हो सके।
3- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में अनेक लैंगिक भेदभाव विद्यमान थे जिनको दूर करने के लिए एकमात्र उपाय वैज्ञानिक दृष्टिकोण है जब लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होगा तो स्वाभाविक है कि इस तरह के भेदभाव का अंत होगा। इन सभी भेदभाव के अंत करने के लिए विद्यालय पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास करने के लिए पर्याप्त उपाय किए गए।
4- नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता
समाज में अनेक स्तर पर असमानताएं पाई जाती है जिसमें विशेषकर महिलाओं के साथ यह भेदभाव काफी देखा जाता है इन सभी भेदभाव को दूर करने के लिए अध्ययन अध्यापन में जब नैतिकता का विकास होगा तो इसके फलस्वरुप यह भेदभाव काफी हद तक दूर किया जा सकते हैं।
5- हक अधिकारों की जानकारी
लैंगिक भेदभाव का अंत तब तक नहीं हो सकता है जब तक लोग अपने हक एवं अधिकारों के बारे में नहीं जान पाएंगे। स्वतंत्रता के पश्चात पाठ्यक्रमों के माध्यम से छात्रों को अपने हक एवं अधिकारों की जानकारी दी जाने लगी। जिसके द्वारा छात्र अपने अधिकारों के बारे में परिचित होने लगे जिससे प्रत्यक्ष तौर पर लैंगिक भेदभाव पर इसका उचित असर देखा जा सकता है।
भारत में बालिका शिक्षा का अवलोकन
किसी के लिए भी शिक्षा बेहद ज़रूरी है। अच्छी शिक्षा लेने के बाद इंसान के जीवन में कई बदलाव देखने को मिलते हैं। लड़के एवं लडकियों की शिक्षा को तुलनात्मक मापदंड दिलाना बालिका शिक्षा को बढ़ावा देना है। बालिका शिक्षा अच्छे समाज के निर्माण में सहायता करती है, क्योंकि समाज महिला एवं पुरुष दोनों से बनता है।
बालिका शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं?
एक लड़की शिक्षित होने के बाद दुनिया के किसी कोने में अपनी चमक बिखेर सकती है। बालिका शिक्षा के उद्देश्य आपके निजी जीवन के अलावा सामाजिक तौर-तरीकों पर प्रभाव डालते हैं-
1- समाज में परिवर्तन लाने के लिए
2- बालिकाओं को शिक्षित और सशक्त बनाने के लिए
3- बालिकाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए
4- बाहरी और आतरिंक समस्याओं के हल के लिए
5- साक्षरता दर बढ़ाने के लिए
6- अच्छे चरित्र के निर्माण के लिए
बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के उपाय क्या हैं?
शिक्षा में बालिकाओं की रुचि बढ़ाने के लिए सरकारी और निजी नेतृत्व महत्वपूर्ण है। प्रशासनिक अधिकारियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करने और जरूरत पड़ने पर अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध कराने के लिए प्राथमिकता जनादेश प्रदान करने में सक्षम होते हैं। नीचे प्वाइंट्स में हम बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के उपाय जानेंगे-
1- सोच का दायरा बढ़ाना
आजादी से पहले देखें तो बालिका शिक्षा को लेकर कम जागरूकता थी, लेकिन वर्तमान में यदि एक लड़की शिक्षित है तो वह अपने पति के साथ परिवार के खर्चों को पूरा करने में मदद कर सकती है। शिक्षा महिलाओं के सोच के दायरे को भी बढ़ाती है।
2- सरकारी नीतियां या योजनाओं का सही क्रियान्वयन
बालिका शिक्षा शैक्षिक नीतियों का एक प्रमुख फैक्टर्स हैं। सरकारी नीतियों और योजनाओं के सही क्रियान्वयन से लड़कियों की शिक्षा को नई दिशा मिली है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम बाल लिंग अनुपात के आधार पर 100 जिलों में लड़कियों की शिक्षा को मजबूत करने के लिए 5.00 करोड़ रुपये प्रदान करता है।
3- समाज में उचित भागीदारी देना
लड़कियों को भी लड़कों की तरह हर जगह अपना हुनर दिखाने का अवसर मिल रहा है, जैसे क्रिकेट के मैदान से लेकर हवाई जहाज उड़ाने को लेकर अपनी पहचान कायम कर रही हैं। ऐसे ही बालिकाओं की अन्य सामाजिक कार्यों में उचित भागीदारी होनी चाहिए।
4- नेतृत्वकर्ता की भूमिका को बढ़ावा देना
शिक्षा में बालिकाओं का इंटरेस्ट बढ़ाने के लिए नेतृत्व करने की भूमिका महत्वपूर्ण है। लड़कियों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने और उन्हें एक शैक्षिक अनुभव प्रदान करने के लिए नेतृत्वकर्ता की भूमिका एक प्रेरणा हो सकती है।
5- स्कालरशिप के माध्यम से प्रोत्साहन
कोई भी सरकार हो, बालिकाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए स्कालरशिप शुरू करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बालिकाओं की शिक्षा के लिए काफी योजनाएं चलाई जा रही हैं। स्कालरशिप की मदद से उनकी शिक्षा से संबंधित चीजें आसान होती जाएंगी।
बालिका शिक्षा के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम क्या हैं?
बालिकाओं का देश की प्रगति में बड़ा योगदान है। सरकार द्वारा बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के उपाय किए गए हैं, जिनके बारे में हम नीचे जानेंगे-
1- बालिकाओं के लिए विभिन्न सरकारी योजनाएं
2- बालिकाओं के लिए शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम
3- स्कालरशिप प्रोग्राम्स
4- ग्राम शिक्षा समिति बनाना
5- आरटीई या शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009
6- राष्ट्रीय सहायता समूह
7- राज्य सहायता समूह आदि।
बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकारी योजनाएं
सरकार ने सभी को शिक्षित करने के लिए काफी योजनाएं चलाई हैं, जो किसी को भी उसके करियर की राह में नई दिशा दे सकती हैं। नीचे हम बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कुछ प्रमुख सरकारी योजनाओं के बारे में जानेंगे-
1- बालिका समृद्धि योजना
बालिका समृद्धि योजना लड़कियों के लिए यह सरकारी योजना, बीपीएल परिवारों में जन्म के लिए है। महिला और बाल विकास मंत्रालय की देखरेख में, इस सरकारी योजना का उद्देश्य जन्म के समय बालिका और उसकी माँ के प्रति लोगों के नकारात्मक रवैये को बदलना है। इस योजना में जन्म के बाद 500 रुपए की अनुदान राशि दी जाती है। इसके अलावा बालिका अपने ग्रेड के आधार पर वार्षिक छात्रवृत्ति की हकदार होती है। ग्रेड I, II और III में 300 रुपए, ग्रेड IV में 500 रुपए, ग्रेड V में 600 रुपए, ग्रेड VI और VII में 700 रुपए, ग्रेड VIII में 800 रुपए; और ग्रेड IX और X में 1,000 रुपए की वार्षिक सहायता दी जाती है। राशि बालिकाओं के बचत खाते में जमा की जाती है और बालिका के 18 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर कुल राशि निकाली जा सकती है।
2- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ 2015 में शुरू किया गया, ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ महिला और बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक संयुक्त पहल है। इस योजना का उद्देश्य गिरते बाल लिंगानुपात को संबोधित करना, बालिकाओं के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करना, और बालिकाओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करना है। लड़कियों के लिए सरकारी योजना के अंतर्गत, एक जिले में दसवीं और बारहवीं कक्षा की राज्य बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली शीर्ष दस छात्राओं को 5,000 रुपए दिए जाते हैं। साथ ही, जिले में बारहवीं कक्षा की राज्य बोर्ड परीक्षा की गर्ल टॉपर जो उच्च शिक्षा के लिए नामांकन करवाती है, उसे 20,000 रुपए दिए जाते हैं।
3- सुकन्या समृद्धि योजना
सुकन्या समृद्धि योजना एक बचत जमा योजना है जिसकी देखरेख राष्ट्रीय बचत संस्थान, वित्त मंत्रालय करता है। इस लड़कियों के लिए सरकारी योजना का उद्देश्य माता-पिता को लड़की की शिक्षा या शादी के खर्चों को पूरा करने में सक्षम बनाना है। इसमें एक वित्तीय वर्ष में न्यूनतम 250 और अधिकतम 1,50,000 रुपए के निवेश की सुविधा मौजूद है। निवेश किया गया मूलधन, अर्जित ब्याज दर और परिपक्वता राशि सभी कर- मुक्त होते हैं। यह खाताधारक के 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद आंशिक निकासी और 21 वर्ष के बाद पूर्ण निकासी की अनुमति देता है। खाता किसी भी अधिकृत बैंक के डाकघरों और शाखाओं में खोला जा सकता है।
4- सिंगल गर्ल चाइल्ड के लिए बीएसई मेरिट स्कॉलरशिप योजना
सिंगल गर्ल चाइल्ड के लिए बीएसई मेरिट स्कॉलरशिप योजना सिंगल गर्ल चाइल्ड के लिए सीबीएसई मेरिट स्कॉलरशिप योजना का उद्देश्य ऐसे माता- पिता के प्रयासों को पहचानना है, जो लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देते हैं। यह सीबीएसई स्कूलों में ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा की छात्राओं को दिया जाता है। एक बालिका दो साल के लिए 500 रुपये प्रति माह रुपये की हकदार होती है। इसके लिए, छात्रा अपने माता-पिता की इकलौती बेटी होनी चाहिए और उसे सीबीएसई दसवीं कक्षा की परीक्षा में 60% या उससे अधिक अंक प्राप्त करने चाहिए।
5- कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना
कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय बालिका शिक्षा योजना, 2004 में शुरू की गई लड़कियों के लिए सरकारी योजना है, जो मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित लड़कियों के लिए उच्च प्राथमिक स्तर पर मुफ्त आवासीय विद्यालय की सुविधा देती है। यह बालिका योजना देश के शैक्षिक रूप से पिछड़े प्रखंडों में कार्यान्वित की जा रही है जहाँ महिला ग्रामीण साक्षरता राष्ट्रीय औसत से कम है और साक्षरता में लिंग अंतर राष्ट्रीय औसत से ऊपर है।
6- माध्यमिक शिक्षा के लिए लड़कियों को प्रोत्साहन की राष्ट्रीय योजना
माध्यमिक शिक्षा के लिए लड़कियों को प्रोत्साहन की राष्ट्रीय योजना 2008 में शुरू की गई इस लड़कियों के लिए सरकारी योजना का उद्देश्य अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदायों से संबंधित बालिकाओं और 14-18 वर्ष की आयु वर्ग में माध्यमिक विद्यालयों में नामांकन के लिए प्रोत्साहित करना है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक या डाकघर में पात्र लड़कियों के नाम 3,000 रुपये की एक निश्चित राशि जमा की जाती है। लड़की के 18 वर्ष की आयु तक पहुंचने या मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद ब्याज सहित राशि निकाली जा सकती है।
7- गौरा देवी कन्या धन योजना
गौरा देवी कन्या धन योजना का आरंभ उत्तराखंड सरकार द्वारा सन 2017 में किया गया था। इस योजना को आरंभ करने का मुख्य उद्देश्य प्रदेश की बालिकाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करके सशक्तिकरण प्रदान करना है।
इस योजना के अंतर्गत अनुसूचित जाति,अनुसचित जन जाति और गरीबी रेखा से नीचे आने वाले BPL (SC,ST,EWS) वर्ग की लड़कियों को 12वी पास होने पर सरकार द्वारा 50000 रूपये की आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी।
लोकप्रिय मान्यताओं के प्रचार प्रसार में मीडिया की भूमिका
मीडिया संचार के विभिन्न साधनों का सामूहिक नाम है। मीडिया शब्द एक सामूहिक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। मीडिया आमलोगों तक सूचना, शिक्षा व मनोरंजन पहुंचाने का महत्त्वपूर्ण माध्यम है।
मीडिया समाज की नीति, परंपराओं, मान्यताओं तथा सभ्यता एवं संस्कृति के प्रहरी के रूप में भी भूमिका निभाता है। पूरे विश्व में घटित विभिन्न घटनाओं की जानकारी समाज के विभिन्न वर्गों को मीडिया के माध्यम से ही मिलती है। अत: उसे सूचनाएँ निष्पक्ष रूप से सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करनी चाहिये। समाज की लोकप्रिय मान्यताओं के प्रचार प्रसार में मीडिया की निम्नलिखित भूमिकाएं हैं-
1- लोकप्रिय मान्यताओं का संरक्षण
समाज में विद्यमान लोकप्रिय मान्यताओं के संदर्भ में मीडिया की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया के माध्यम से इन लोकप्रिय मान्यताओं के संरक्षण के रूप में काफी मदद मिलती है जिससे यह लोकप्रिय मान्यताएं ओर ज्यादा लोगों तक पहुंच पाती है और जिससे इसका पतन नहीं होता है।
2- लोकप्रिय मान्यताओं का हस्तांतरण
लोकप्रिय मान्यताओं का महत्व तब जाकर के होता है जब यह मान्यताएं बहुत लोगों तक प्रसारित होती है और उस मान्यताओं को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में हस्तांतरित किया जा सके। यह हस्तांतरण का काम मीडिया के द्वारा बड़ी बखूबी किया जाता है तो इसलिए मीडिया के द्वारा लोकप्रिय मान्यताओं का हस्तांतरण किया जाता है।
3- लोकप्रिय मान्यताओं के संदर्भ में जागरूकता
लोकप्रिय मान्यताओं की जानकारी मीडिया के द्वारा बड़ी आसानी से मिल पाती है और मीडिया की पहुंच बहुत बड़े जनमानस के बीच होती है तो इस संदर्भ में मीडिया इन लोकप्रिय मान्यताओं को लोगों के बीच पहुंचाता है जिससे लोग इन मान्यताओं से अवगत हो पाते हैं यानी कि जागरूक होते हैं उन मान्यताओं के परिपेक्ष में तो इस तरह से हम यह कह सकते हैं कि मीडिया लोकप्रिय मान्यताओं के संदर्भ में जागरूकता पैदा करता है।
4- शैक्षिक क्षेत्र में समावेश
जब लोकप्रिय मान्यताओं का देश और समाज के लिए काफी ज्यादा महत्व होता है तो इन मान्यताओं के महत्व को देखते हुए इन्हें पठन-पाठन में शामिल किया जाता है जिससे शिक्षा के द्वारा इन लोकप्रिय मान्यताओं का लाभ विद्यार्थियों को पहुंचाया जा सके। इन लोकप्रिय मान्यताओं के महत्व को मीडिया के द्वारा ही देश और समाज में प्रसारित किया जाता है जिससे यह महसूस हो पता है कि वास्तव में इन लोकप्रिय मान्यताओं की क्या महत्वता है।
5- लोकप्रिय मान्यताओं पर आधारित सिद्धांतों एवं नियमों का विकास
जब मीडिया के माध्यम से लोकप्रिय मान्यताओं का प्रसार होता रहेगा और लोग उन मान्यताओं से अवगत होते रहेंगे तो इससे यह स्वाभाविक है कि उन लोकप्रिय मान्यताओं का पतन नहीं होगा जिसके फलस्वरुप उन मान्यताओं पर आधारित समय-समय पर नियमों एवं सिद्धांतों का विकास होता रहेगा जिसका लाभ देश और समाज को हो पाएगा।
लोकप्रिय संस्कृति और स्कूल में लैंगिक भूमिकाओं को सुदृढ़ करना
समाज में लैंगिक भूमिकाओं का अपना एक महत्व है प्रगतिशील समाज की यह विशेषता होती है कि वहां पर लैंगिक समानता स्थापित है तभी वह समाज प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकता है और समाज में विद्यमान जो संस्कृति होती है उस संस्कृति का कहीं ना कहीं समाज में रहने वाले लोगों पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है यदि लोकप्रिय संस्कृति इस तरह से आदर्श स्वरूप में होगी जो समाज में लैंगिक समानता को स्थापित करने में मदद करती है तो वह समाज की प्रगति के लिए काफी सहायक होती है।
इसी तरह से समाज में शिक्षा व्यवस्था का भी लैंगिक समानताओं में अपना एक महत्व है यदि स्कूलों के माध्यम से विद्यार्थियों में लैंगिक समानता को लेकर के शिक्षा दी जाएगी तो वह प्रत्यक्ष तौर पर देश और समाज को सकारात्मक रूप में प्रभावित करता है। तो इस तरह से समाज की लोकप्रिय संस्कृति तथा स्कूल का लैंगिक समानता में काफी महत्वपूर्ण योगदान होता है लैंगिक भूमिकाओं को और ज्यादा सुदृढ़ करने के लिए लोकप्रिय मान्यताएं एवं संस्कृति और स्कूलों के द्वारा काफी सहायता मिलती है क्योंकि इनका समाज के साथ एक अटूट संबंध होता है। समाज में लैंगिक भूमिकाओं के संदर्भ में लोकप्रिय संस्कृति और स्कूलों का महत्व निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-
1- लैंगिक संवेदनशीलता से अवगत
समाज में विद्यमान लोकप्रिय संस्कृति तथा स्कूलों के माध्यम से लोगों को लैंगिक संवेदनशीलता से अवगत कर करवाया जाता है जिससे लोग लैंगिक संदर्भ में उन सभी संवेदनशीलता से अवगत हो सके जो वास्तव में व्यक्ति, देश और समाज के लिए वह उपयोगी हो सके।
2- लैंगिक भूमिकाओं के संदर्भ में जागरूकता
लोकप्रिय संस्कृति और स्कूलों के द्वारा लैंगिक भूमिकाओं के बारे में जागरूकता दी जाती है जिससे लोग लैंगिक भूमिकाओं को लेकर के जागरूक हो सके और समाज में लैंगिक असमानता को खत्म किया जाए और समानता स्थापित हो सके।
3- आदर्श विचारों को स्थापित
देश और समाज में जो भी कुरीतियों, मिथ्याएं एवं धारणाएं विद्यमान होती है उन सबको लोकप्रिय संस्कृति एवं स्कूलों के द्वारा समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। जिससे उनके द्वारा समाज में किसी भी तरह का लैंगिकता को लेकर के भेदभाव, शोषण ना हो सके। यह लोकप्रिय संस्कृति एवं स्कूल लोगों में आदर्श विचारों को स्थापित करने में सहायक होते हैं और उन सभी कुरीतियों को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है।
4- मानवीय मूल्यों का विकास
लोकप्रिय संस्कृति और स्कूलों के द्वारा लोगों में मानवीय मूल्यों का विकास किया जाता है जिससे मानव का सर्वांगीण विकास हो सके और देश और राष्ट्रीय प्रगति के रहा पर आगे बढ़ सके। यह मानवीय मूल्यों का विकास तब होगा जब समाज में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होगा। वह भेदभाव चाहे लैंगिकता के आधार पर हो या रंगभेद के आधार पर हूं किसी भी तरह के भेदभाव को जगह नहीं दी जाती है तभी जाकर के मानवीय मूल्यों का विकास हो पाएगा।
5- समाज में स्त्री पुरुष का महत्व
स्कूलों एवं लोकप्रिय संस्कृति के द्वारा समाज में स्त्री एवं पुरुषों के महत्व से अवगत करवाया जाता है की इन दोनों का समाज की प्रगति के लिए कितनी आवश्यकता है और किसी एक का ना होना समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। स्त्री और पुरुष समाज की प्रगति के एक ही सिक्के के दो पहलू है जिनका समांतर होना अति आवश्यक है।
महिला सशक्तीकरण, समाज में महिलाओं की वृद्धि और विकास के लिए उन्हें पुरुषों की तरह समान अधिकार देने से है। महिला को सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए उन्हें समान अवसर प्रदान करना। महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य महिलाओं को इस हद तक सशक्त बनाना है कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन शैली, कैरियर आदि सहित अपने जीवन का स्वतंत्र रूप से सामना कर सकें। महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य यह है कि समाज की सभी महिला सदस्यों को अंततः अधिकार, स्थिति और अधिकार प्राप्त होंगे।
महिलाओं को सशक्त करने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण ऐसे मुद्दे हैं जिनके चलते महिलाओं की स्थिति समाज में काफी असंतुषजनक है यदि समाज में उन सभी मुद्दों को लेकर एक सकारात्मक तरीके से काम किया जाए तो यह स्वाभाविक है कि महिलाओं का सशक्तिकरण किया जा सकता है। महिला सशक्तीकरण से सम्बन्धित मुद्दे निम्नवत् है-
1- कन्या भ्रूण हत्या
समाज में लैंगिक और समानता में कन्या भ्रूण हत्या काफी प्रमुख है जिसमें गर्भाशय में ही बालिकाओं का पता लगा लिया जाता है और उनकी हत्या कर दी जाती है। यह इसलिए होता है क्योंकि लोग पुत्र प्राप्ति की चाह रखते हैं जिससे कन्या भ्रूण हत्या कर दी जाती है जिसका प्रभाव आगे चलकर समाज में काफी नकारात्मक पड़ता है।
2- मातृ मृत्यु दर
मातृ मृत्यु दर भी समाज में महिलाओं को अच्छी स्वास्थ्य सुविधा न होने के चलते बढ़ती जाती है। कई बार यह देखा जाता है कि महिलाओं को समझ में जानबूझकर स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित किया जाता है उन्हें पुरुषों के दर्जे की अहमियत नहीं दी जाती है जिसके चलते यह सब नकारात्मक नतीजा सामने आता है।
3- शिशु बालिका मृत्यु दर
बालिकाओं के जन्म होने के बाद भी बालिकाओं के साथ समाज में अनेक प्रकार से भेदभाव देखे जाते हैं वह चाहे कुछ आहार युक्त पोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर क्यों ना हो जिसके चलते बालिकाओं के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जो शिशु बालिका मृत्यु दर को बढ़ा देता है। यह बालिकाओं की उपेक्षा के कारण है; प्रत्येक 15 शिशुओं की मृत्यु में 14 लड़कियां होती हैं।
4- दहेज प्रथा
समाज में अनेक प्रकार की ऐसी को प्रथाएं है जो लैंगिक समानता में अवरोधक का काम करती है। जिसमें से एक प्रमुख समस्या दहेज प्रथा है हालांकि वर्तमान में कानूनी रूप से दहेज प्रथा अवैध है लेकिन यह समाज से बिल्कुल खत्म नहीं है। दहेज प्रथा के तहत लड़कियों की शादी के दौरान दहेज देने की प्रथा है जिसका बोझ लड़कियों के माता-पिता पर रहता है इस कारण से भी एक पिता लड़की के जन्म की चाह नहीं रखता है इन सभी के चलते समाज में वास्तव में इस तरह का और अमानवीय व्यवहार होता है।
5- घरेलू हिंसा
महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा की भी एक प्रमुख समस्या हैं जिसके चलते महिलाओं का अनेक प्रकार से शोषण होता है और उनको अपनी हक और अधिकारों से वंचित किया जाता है यहां तक की उनके साथ दुर्व्यवहार, मारपीट आदि जैसी घटनाएं घटित होती है।
6- असंतुलित लिंगानुपात
महिलाओं के साथ अनेक प्रकार की कुप्रथाएं, मिथ्या, अवधारणाओं के चलते भेदभाव होता है, यहां तक की बालिकाओं के जन्म होने से पहले ही भ्रूण हत्या की जाती है जिससे देश में जो लिंग अनुपात है वह संतुलित नहीं है।
7- पुरुष प्रधानता
पुरुष प्रधान मानसिकता महिला सशक्तिकरण के अनुरूप नहीं है। इसमें पुरुष को ही ज्यादा अहमियत दी जाती है और पुरुष का हर एक कार्य तथा हर एक क्षेत्र में स्वामित्व रहता है और महिलाएं एक पुरुष पर डिपेंड रहती है जिसके चलते महिलाओं का शोषण हो पाता है।
8- सामाजिक कुरीतियों तथा अन्ध–विश्वास
समाज में अनेकों अनेक ऐसी कुरीतियां एवं अंधविश्वास है जो महिलाओं को कमतर आंकते आते हैं। यह कुरितियां महिलाओं को चार दिवारी तक सीमित रखती है जो महिलाओं के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। सभी कुरीतियां, मिथ्या, अंधविश्वास, धारणाओं के कारण महिलाओं का शोषण होता है और महिलाओं का विकास अवरोध होता है।
महिलाओं के सशक्तीकरण की आवश्यकता अत्यधिक है। बिना इनके सशक्तीकरण के महिलाओं का और न ही समाज का उत्थान हो सकता है, परन्तु महिला सशक्तीकरण के मार्ग में अनेक अवरोध है, जिनको दूर किये बिना महिलाओं को सशक्त नहीं बनाया जा सकता । महिला सशक्तीकरण के लिए कुछ रणनीतियों और उनका क्रियान्वयन इस प्रकार से है-
- संविधान के द्वारा महिलाओं को स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार
महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में महिलाओं को भी संविधान के द्वारा स्वतंत्रता और समानता का अधिकार प्रदान है। स्वतंत्रता के अधिकार के माध्यम से महिलाओं को हर एक संदर्भ में संविधान के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में स्वतंत्रता का अधिकार है। समानता का अधिकार महिलाओं को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से बर्ताव किया जाएगा।
- शिक्षा का अधिकार
शिक्षा का अधिकार, मौलिक अधिकार के रूप में 6 से 14 वर्ष के आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है। इस अधिकार के माध्यम से वास्तव में महिलाओं का सशक्तिकरण होगा और महिलाओं को शिक्षित करके जागरुक किया जा सकता है जो महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण पहल है।
- छात्रवृत्तियों तथा बालिका शिक्षा के लिए प्रोत्साहन
महिलाओं को और ज्यादा सशक्त बनाने के लिए उन तक शिक्षा के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के लिए छात्रवृत्ति तथा बालिका शिक्षा से संबंधित अनेकों अनेक योजनाएं जिसके तहत बालिकाओं को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिससे महिलाओं का सशक्तिकरण किया जा सके।
- महिला सुरक्षा
महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए महिला सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है आए दोनों महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं एक चिंता का विषय है। यदि महिलाओं को पर्याप्त मात्रा में सुरक्षा प्रदान होगी नियमों एवं कानून को इस तरह से डिजाइन किया जाएगा जो वास्तव में महिलाओं के हितेषी हो तो महिलाओं का सशक्तिकरण वास्तव में किया जा सकता है। महिला सुरक्षा के लिए ऐसे पर्याप्त मात्रा में नियम एवं कानून है जो महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, अत्याचार, शोषण जैसी घटनाओं को रोकता है।
- कुरीतियों का अंत
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और शोषण का एक प्रमुख करण कुरीतियां है। महिला सशक्तिकरण के लिए इन सभी कुरीतियों का अंत किया गया है यह कानूनी रूप से अवैध है जो सभी कुरीतियों महिलाओं के अधिकारों को कमतर करते हैं सरकार द्वारा उन सभी कुरीतियों को समाप्त किया गया है ताकि महिलाओं के साथ कोई भी भेदभाव तथा शोषण ना हो सके।
लैंगिक समानता में शिक्षा या विद्यालय की भूमिका
लिंग समतुल्यता विकसित करने का महत्त्वपूर्ण साधन शिक्षा को ही माना जाता है। आज भी शिक्षित समाज में लैंगिक भेदभाव कम देखा जाता है। जबकि अशिक्षित समाज में यह भेदभाव व्यापक रूप से देखा जाता है क्योंकि शिक्षा के माध्यम से विविध प्रकार की भ्रामक एवं अन्ध-विश्वास सम्बन्धी गतिविधियों को समाप्त किया जा सकता है। इससे प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा ऐसा व्यवहार किया जाता है जो कि समाज में लिंग समतुल्यता विकसित करता है। लिंग समुतल्यता विकसित करने में शिक्षा की अहम् भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
- विद्यालय में समानता का व्यवहार (Behaviour of equality in school)
विद्यालय में समानता का व्यवहार प्राप्त होने पर लैंगिक समतुल्यता का विकास होता है। विद्यालय में जब शिक्षक द्वारा छात्र एवं छात्राओं के प्रति भेदभावपूर्ण एवं पक्षपात का व्यवहार नहीं किया जाता है तो छात्रों एवं छात्राओं में लैंगिक असमानता उत्पन्न नहीं होती। विद्यालय में प्राप्त संस्कारों के आधार पर ही छात्र-छात्राओं में संस्कारों का विकास होता है। इन संस्कारों के आधार पर ही छात्र छात्राओं द्वारा परस्पर समानता का व्यवहार किया जा सकेगा।
- प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास (Development of democratic values)
शिक्षा के माध्यम से छात्र-छात्राओं में प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास किया जाना चाहिये जिससे प्रत्येक छात्र-छात्रा अपने अधिकार एवं कर्त्तव्यों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके। जब प्रत्येक छात्र को अपने अधिकार एवं कर्त्तव्यों का ज्ञान होगा तो वह किसी भी छात्रा के साथ असभ्यता का व्यवहार नहीं करेगा।
- विकास के समान अवसर (Equal oppotunity of development)
विकास के समान अवसरों की उपलब्धता शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव होती है। जब छात्र एवं छात्राओं को समान रूप से शैक्षिक विकास के अवसर प्राप्त होंगे तो प्रत्येक छात्र एवं छात्रा सामान्य रूप से अपनी योग्यता के अनुसार उच्च पदों को प्राप्त कर सकेगा। प्रत्येक छात्र एवं छात्रा द्वारा एक-दूसरे का सहयोग किया जा सकेगा। इस प्रकार लैंगिक विभेद की स्थिति धीरे-धीरे सम्पूर्ण समाज से समाप्त हो सकेगी।
- सहयोग की भावना का विकास (Development of spirit of co-operation)
शिक्षा के माध्यम से छात्र-छात्राओं में सहयोग की भावना का विकास किया जा सकता है। सहयोग की भावना के आधार पर ही लैंगिक भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है।
- उचित निर्देशन एवं परामर्श (Proper guidance and counselling)
विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को आवश्यकता के अनुसार उचित निर्देशन एवं परामर्श प्राप्त होता है तो उनके मन में लैंगिक भावना का विकास नहीं होता। उनको समय-समय पर यह ज्ञान नहीं कराना चाहिये कि वह बालक है या बालिका है वरन् उनको उनकी योग्यता से परिचय कराना चाहिये। यदि एक बालिका ऊँची कूद में भाग लेने की योग्यता रखती है तो उसको ऊँची कूद में भाग लेने का निर्देशन एवं परामर्श प्राप्त होना चाहिये। इस प्रकार लिंग भेद का समापन हो सकता है।
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific view)
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की प्रक्रिया शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव होती है। शिक्षा के माध्यम से समाज में रूढ़िवादिता एवं अन्धविश्वास का समापन होता है; जैसे- यह माना जाता है कि स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कम बुद्धि होती है। जब प्रयोगों एवं सर्वेक्षणों द्वारा यह बताया जाता है कि छात्राएँ छात्रों से अधिक योग्यता प्राप्त कर रही हैं तो प्रत्येक व्यक्ति का यह भ्रम दूर हो जाता है तथा वह समाज में स्त्री एवं पुरुषों के मध्य विभेद करना छोड़ देता है। इससे लैंगिक समानता उत्पन्न होती है।
लैंगिक समानता में पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों की भूमिका
पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों द्वारा लैंगिक समानता स्थापित करने में महत्वपूर्ण रोल है जो निम्नलिखित विषयों प्रकरणों को पाठ्यक्रम–पाठ्य पुस्तकों में सम्मिलित किया जा सकता है–
(1) जेंडर अंतराल (गैप)
यह जानकारी छात्र–छात्राओं में होनी चाहिए जेंडर गैप किन–किन क्षेत्रों में हैं। अर्थात् स्त्री वर्ग किन क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में अधिक पीछे है। शिक्षा का क्षेत्र जेंडर गैप की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है जहाँ शताब्दियों से नारी शिक्षा पुरुषों की शिक्षा के प्रतिशत की अपेक्षा कमतर रही है तथा आज भी है। शिक्षा द्वारा महिलाओं में आत्म विश्वास, जागृति तथा रोजगार प्राप्त करने के अवसर आते हैं। शिक्षित महिला पूरे परिवार को शिक्षित करने में योगदान देती है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों का अभाव दूसरा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ अंतराल (गैप) अधिक दिखाई देता है । यदि महिलाएं नौकरी करने लगेंगी तो उनका पारिवारिक व सामाजिक सम्मान बढ़ जाए। धनोपार्जन में वे सक्षम होकर अपने बूते पर संतान के पालन में सक्षम हो सकेंगी। राजनैतिक क्षेत्र में पुरुष महिला में अंतराल अधिक है क्योंकि निर्वाचन लड़ने तथा जनप्रतिनिधित्व का पद पाने को दूसरे कई राजनैतिक दल टिकट देने में भेदभाव करते हैं। सामाजिक क्षेत्र में आज दहेज, सतीप्रथा, बालविवाह, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा व बुरका प्रथा, वेश्यावृत्ति, विधवाओं की दयनीय स्थिति महिलाओं की सामाजिक स्थिति को कमतर स्थान देती है। जेंडर अंतराल की दिशा में सामाजिक क्षेत्र में महिलाएं स्वतंत्रतापूर्वक अपने विकास में सक्षम नहीं हो पाती तथा उन्हें अबला’ जैसे संबोधनों से संबोधित होना पड़ता है । पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तकों में जेंडर गैप के क्षेत्रों की जानकारी छात्र–छात्राओं को दी जानी युक्तिसंगत है।
(2) जेंडर असमानता
जनमानसिकता, परम्परागत नारी संबंधी कुविचार, परिसर में चहारदीवारी में कैद नारी स्वतंत्रता, महिलाओं पर अत्याचारों की अधिकता तथा उनके साथ घरेलू अहिंसा, अशिक्षा, लड़की के विवाह में कठिनाई, खराब स्वास्थ्य, यौन हिंसा का भय, सामाजिक कुप्रथाएं (दहेज, बाल विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति इत्यादि) महिलाओं की लैंगिक असमता की ओर संकेत करती है। पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों में जेंडर असमता के मुद्दे को सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि इसके दुष्परिणामों से बालक–बालिका परिचित होकर निवारक कदम उठाने में सफल होंगे।
(3) लैंगिक संवेदनशीलता
पाठ्यक्रम में ऐसे विषय शामिल होने चाहिए जो पुरुषों में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करते हैं। महिलाओं की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, नारी से छेड़छाड़, बलात्कार आदि की घटनाओं की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि छात्रों में नारी के विकास में बाधक तत्त्वों की जानकारी हो उससे युवा पीढ़ी समाज सुधार के उपायों की ओर अग्रसर होगी।
नारी माँ, बहन, पुत्री, पत्नी के विविध रूपों में पुरुषों की सबसे बड़ी हितैषी होती है अतः मानवतावादी उपागम निर्देशित करते हैं कि पुरुषों को नारी दुर्दशा के प्रति संवेदनशीलता बरतते हुए नारी उत्थान कल्याण के प्रयत्न करने चाहिए। यदि पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में ये प्रकरण होंगे तो सामाजिक संवेदनशीलता में नारी के प्रति वृद्धि होगी तथा अत्याचार व हिंसा में कमी आयेगी।
(4) महिलाओं संबंधी कानूनी प्रावधानों की जानकारी
हमारे देश में संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव वर्जित है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए अनेक कानून बनाए हैं। छात्र–छात्राओं के पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों में यदि इन वैधानिक प्रावधानों की जानकारी विस्तार से या प्रासंगिक रूप से दी जाए तो युवा वर्ग जागृत होगा तथा दूसरी पीढी भी प्रशिक्षित होकर अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने से हिचकेगी। अधिनियमों की जानकारी जनजागृति तथा महिला हितैषी कार्य करने हेतु प्रेरित करेगी।
(5) महिला कल्याण व विकास कार्यक्रमों योजनाओं की जानकारी
महिलाओं– बालिकाओं के कल्याण हेत केन्द्र शासन के अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकार का अनेक योजनाएं व कार्यक्रम संचालित किए जाते हैं। पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में ऐसे कार्यक्रमों तथा योजनाओं को सम्मिलित करने से छात्र– छात्राओं को लाभ होगा तथा समाज में वांछित वर्ग को लाभ दिला सकने में वे सक्षम होंगे।
(6) महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा
लैंगिक असमता दूर करने हेतु महिला सशक्तिकरण का विचार वैश्विक सार्वभौमिक ग्लोबल रूप धारण कर गया है जिसके अंतर्गत प्रमुख प्रयास है– उन कारणों को समझना जो महिला सशक्तिकरण में बाधक हैं। स्त्रियों को परिवार एवं समुदाय में निर्णय लेने तथा सहभागिता बढ़ाना, स्त्रियों को उन नवीन भूमिकाओं हेत प्रोत्साहित करना जो पुरुषों का अधिकार क्षेत्र मानी जाती रही हैं, स्त्रियों को उन अन्यायपर्ण व असमान विश्वासों, प्रथाओं, संस्थाओं से बदलाव हेतु सम्मुख लाना जो लैंगिक असमता के लिए जिम्मेदार हैं, स्त्रियों को प्राकृतिक, मौद्रिक व बौद्धिक संसाधनों पर पहुँच बढ़ाने के अवसर देना स्त्रियों को स्वप्रतिष्ठा व अबला होने की धारणा बदलना इत्यादि।
महिला सशक्तिकरण वैश्विक आंदोलन है जिस पाठ्यक्रम व पाठ्य पुस्तकों में स्थान देकर नवजागृति व महिलाओं के हित में क्रांति या परिवर्तन लाने का प्रयास किया जा सकता है।
लैंगिक समानता में परिवर्तन के एजेंट के रूप में शिक्षक
लैंगिक समानता में शिक्षक की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। शिक्षक एवं शिक्षार्थी सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली के आधार स्तम्भ हैं किन्तु परिवर्तन के शैक्षिक कारक में शिक्षक का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, शिक्षण उद्देश्यों एवं पाठ्यसहगामी क्रियाओं आदि के द्वारा शिक्षक लैंगिक समानता स्थापित करता है। पाठ्यक्रम तथा पाठ्य पुस्तक के द्वारा समाज में विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करके लैंगिक समानता स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। पाठ्यक्रम एवं पाठ्य पुस्तकों को शिक्षक के द्वारा कक्षाओं में छात्रों को पढ़ने में प्रयोग किया जाता है इस रूप में शिक्षक वास्तव में एक एजेंट के रूप में अपनी भूमिका निभाता है। अतः लैंगिक समानता में परिवर्तन शिक्षक एजेंट के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन निम्न प्रकार से प्रकार से सकता है-
(1) कक्षागत गतिविधियों में समान भागीदारी सुनिश्चित करना
कक्षागत परिस्थितियों में कई प्रकार की प्रतियोगिता और क्रियाविधियों का आयोजन किया जाता है। इन सभी में लड़के और लड़कियों को समान रूप में भाग लेने का अवसर देना चाहिए।
(2) अंधविश्वास एवं रूढ़ियों के संदर्भ में जागरूकता
लिंग सम्बन्धी पूर्वाग्रहों एवं रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए शिक्षक को महिला सशक्तीकरण की भावना को सुदृढ़ करने का प्रयास करना चाहिए। स्त्रियों के प्रति समाज में होने वाले अन्याय का विरोध करने का प्रयास करना चाहिए। स्त्रियों को इस तथ्य से अवगत करना चाहिए कि वह भी पुरुषों से कम नहीं है, पुरुषों की भाँति सभी कार्यों को कर सकती हैं तथा पुरुषों से भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं। इससे लिंग सम्बन्धी सभी पूर्वाग्रह एवं रूढ़िवादी धारणाएँ समाप्त हो जाएँगी।
(3) लड़कों-लड़कियों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाना
शिक्षकों का यह भी दायित्व हैं कि लड़के-लड़कियों दोनों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाए। लड़कियों को छेड़ना आदि समस्या के प्रति लड़कों को संवेदनशील बनाने का प्रयत्न करना चाहिए साथ ही साथ एक-दूसरे के प्रति सम्मान देने की बात सिखानी चाहिए। अनुसंधानों में यह बात निकल कर सामने आई है कि विद्यालय में शिक्षक लड़कों पर ज्यादा ध्यान देते हैं लेकिन कुछ अनुसंधानों में यह बात भी सामने आई है कि सेकेण्डरी स्तर पर शिक्षक लड़कों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। लड़कियों का सेकेण्डरी स्तर पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। अनुशासनात्मक कार्यवाहियों में लड़कों का प्रतिशत लड़कियों की तुलना में ज्यादा होता है।
(4) बालिकाओं को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित
लिंग सम्बन्धी रूढ़ियों एवं पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए एक शिक्षक बालिकाओं को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर बालिकाओं को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। विद्यालय में शिक्षक द्वारा बालिकाओं को महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपे जाने चाहिए जिससे उनको यह अनुभव न हो कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। जो अभिभावक किसी समस्या के कारण बालिकाओं को विद्यालय नहीं भेजते हैं शिक्षक को उनकी समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
(5) पुरुष एवं स्त्री के प्रति समन्वित दृष्टिकोण का विकास
शिक्षक को यह प्रयास रहता कि वह समाज में नारी एवं पुरुष के सह अस्तित्व को बताए जिससे कि समाज यह समझ सके कि नारी के अभाव में इस संसार की सृष्टि सम्भव नहीं है। इसलिए नारी के साथ भेदभाव करना एक अपराध ही नहीं वरन् समाज के विनाश की नींव डालना है। नारी एवं पुरुष दोनों ही मिलकर इस समाज को नवीन दिशा प्रदान कर सकते हैं।
(6) स्त्रियों की योग्यताओं को अधिक विकसित करना
शिक्षक को विद्यालय में छात्राओं की योग्यता का सर्वाधिक विकास करता है। कई बार यह सिद्ध किया जा सकता है कि छात्राओं में छात्रों से अधिक योग्यता होती है। इसके साथ-साथ छात्राओं में जो भी प्रतिभाएँ पाई जाती हैं, उनके विकास की व्यवस्था भी एक शिक्षक को अपने ऊपर लेनी चाहिए। स्त्रियों की प्रतिभाओं के विकास एवं उनके उपयोग से सभी पूर्वाग्रह एवं रूढ़ियाँ समाप्त हो सकेंगी।
(7) महान स्त्रियों का वर्णन
शिक्षक द्वारा विद्यालय एवं समाज दोनों में ही स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले महान कार्यों के बारे में बताया जाता है जैसे-सरोजिनी नायडू, महारानी लक्ष्मीबाई, सती अनुसूइया, गार्गी एवं शबरी आदि। इन स्त्रियों ने लौकिक एवं पारलौकिक समाज दोनों के लिए ही कार्य किए। इस प्रकार की स्थिति से समाज में लिंग के आधार पर भेदभाव की स्थिति समाप्त होगी तथा नारी का वर्चस्व बढ़ेगा।
सामने वाले की इच्छा के विरुद्ध शारीरिक संबंध बनाना ही यौन उत्पीड़न या दुर्व्यवहार कहलाता है। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की समस्या नयी नहीं है। भारतीय समाज में महिलाएं लंबे काल से अवमानना, यातना और शोषण का शिकार रही हैं। आज शनै: शनै: महिलाओं को परुषों के जीवन में महत्त्वपूर्ण, प्रभावशाली और अर्थपूर्ण सहयोगी माना जाने लगा है। परन्त कछ दशक पहले तक उसकी स्थिति दयनीय थी। विचारधाराओं, रिवाजों तथा भारतीय समाज में व्याप्त प्रतिमानों से नारियों के विरुद्ध यौन दुराचार/हिंसा तथा प्रताड़ना में काफी योगदान दिया। इनमें से आज भी व्यावहारिक में देखा जा सकता है। यौन दुर्व्यवहार में आपराधिक हिंसा जैसे बलात्कार, अपहरण, हत्या आदि और घरेलू या पारिवारिक हिंसा जैसे पत्नी को पीटना, लैंगिक दुर्व्यवहार करना. दहेज न लाने पर उत्पीड़न, दहेज हत्या, बालिकाओं की भ्रूण हत्या, विधवाओं तथा वृद्ध महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार शामिल हैं।
समाज में आए दिनों यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं घटित होते रहती है जिसके अनेकों अनेक कारण है जिन सभी कारणों को हम निम्नलिखित प्रकार से समझने का प्रयास करेंगे-
1- समाज में विद्यमान कुरीतियां
यौन दुर्व्यवहार का एक सबसे प्रमुख कारण यह है कि समाज में जो विद्यमान कुरीतियां है यह कुरीतियों महिलाओं को कमतर आंकते हैं जिससे महिलाओं के साथ अनेक प्रकार से प्रताड़ना होती है उनके साथ दुर्व्यवहार होता है अनेकों अनेक प्रकाश से उनका शोषण किया जाता है जिसका प्रमुख कारण समाज में विद्यमान कुरीतियां है।
2- मजबूत कानूनी सुरक्षा का अभाव
जब समाज में यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं घटित होती है तो उनके लिए मजबूत कानूनी सुरक्षा का अभाव के चलते ऐसी घटनाएं फिर से घटती रहती है। यदि मजबूत कानूनी सुरक्षा होगी तो कोई भी व्यक्ति यौन जैसे दुर्व्यवहार करने की कोशिश नहीं करेगा यदि करेगा भी तो उसका अंजाम कानून के द्वारा उसे मिल पाएगा जिससे अन्य लोग कभी भी इस तरह का दुर्व्यवहार करने की नहीं सो पाएंगे।
3- महिला सशक्तिकरण का अभाव
महिलाएं यदि पुरुष पर डिपेंड होगी तो यह स्वाभाविक है कि उनके साथ इस तरह के यौन दुर्व्यवहार जैसी घटनाएं घटित होते रहेगी क्योंकि यह संपूर्ण रूप से पुरुष पर निर्भर है। यदि महिलाएं आर्थिक तौर पर अपने आप पर निर्भर होगी तो इस तरह की यह घटनाएं उनके साथ नहीं घटित होगी यदि घटित भी होती है तो वह यौन दुर्व्यवहार जैसी घटनाओं के खिलाफ अपनी आवाज उठाएगी। इसलिए महिलाओं का सशक्तिकरण होना आवश्यक है जिससे अपनी शोषण के विरुद्ध वह आवाज उठा सके यदि वह लोगों पर डिपेंड होगी तो वह आवाज नहीं उठा पाएगी।
4- नारी उपभोग की वस्तु की धारणा
समाज में यह धारणा है की नई सिर्फ और सिर्फ उपभोग की वस्तु है जो कि ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। बेतर समाज का निर्माण पुरुष और महिला दोनों से मिलकर होता है इन दोनों का समाज और देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। ब्लू फिल्में, पोर्न साइट, नग्न नारी शरीर, निरावृत्त नग्न तस्वीरें आजकल इंटरनेट पर आम हैं। यह कामुक पुरुषों की सोच की ओर संकेत करती हैं।
5- जागरूकता का अभाव
समाज में यौन दुर्व्यवहार की घटना घटित होना कभी असंतोष का विषय है यह घटना एक सभ्य समाज की पहचान नहीं है। लैंगिकता को लेकर के लोगों के बीच मिथ्या एवं धारणाओं के चलते महिलाओं को कमतर समझा जाता है जिसके चलते महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं घटित होती है यह लोग यह नहीं जानते की समाज के निर्माण में जितना महत्वपूर्ण योगदान पुरुषों का है उतना ही महत्वपूर्ण योगदान महिलाओं का भी है इस संदर्भ में वास्तव में समझ में जागरूकता का एक अभाव है यदि समाज में जागरूकता फैलाई जाए तो इस तरह के दुर्व्यवहार जैसी घटनाओं का अंजाम नहीं हो पाएगा।
6- पुरुष प्रधान समाज
महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार का एक प्रमुख कारण पुरुष प्रधान समाज है जिसमें पुरुषों को ज्यादा हैमिया दी जाती है और पुरुष का ही हर एक क्षेत्र में वर्चस्व होता है। ऐसे पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को कमतर आंका जाता और महिलाओं को पुरुष पर निर्भर होना पड़ता है जिससे पुरुष के द्वारा महिलाओं का अनेक प्रकार से शोषण किया जाता है क्योंकि महिलाएं पुरुष पर निर्भर होती है।
BY: TEAM KALYAN INSTITUTE
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