लेखक -अभिषेक कुमार
लोकसभा जनता के प्रतिनिधियों से मिलकर बनी होती है जिन्हें वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा चुना जाता है। संविधान में उल्लिखित सदन की अधिकतम क्षमता 552 सदस्यों की है, जिनमें 530 सदस्य राज्यों के व 20 सदस्य केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दो सदस्यों को एंग्लो-भारतीय समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया जाता है; ऐसा तब किया जाता है जब राष्ट्रपति को लगता है कि उस समुदाय का सदन में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पंचायतो के पूर्ण विकास के लिए प्रयत्न शुरू हुए जबकि प्राचीन काल में पंचायतीय राज्य व्यवस्था अस्तित्व में थी, जिसमें महात्मा गाँधी जी का कहना था कि ‘‘सच्चा स्वराज सिर्फ चंद लोगो के हाथ में सत्ता आ जाने से नहीं बल्कि इसके लिए सभी हाथों में क्षमता आने से सम्भव है।’’ यानी कि कंेद्र में बैठे कुछ लोग सच्चे लोकतंत्र को नहीं चला सकते हैं। इसको चलाने के लिए निचले स्तर पर प्रत्येक गाँव के लोगो को शामिल करना पड़ेगा। जिसमें की 1992 के 73वे संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसे संविधान में शामिल किया गया।
भारत में सन् 1952 में सामुदायिक कार्यक्रम स्थापित किये गये किन्तु प्रारम्भ में सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिल सकी तो फिर समुदायिक विकास कार्यक्रम के असफल होने के कारणों का अध्ययन करने के लिए एक कमेटी गठित की गयी जिसका नाम बलवंत राय मेहता समिति था। इस समिति ने नवम्बर 1957 में अपनी रिपोट सौपीं और लोकतान्त्रिक विकेेंद्रीकरण (स्वायत्ता)(स्वशासन) की योग्यता की सिफारिश्स की जो कि अंतिम रूप् को पंचायती राज के रूप में जाना गया समिति द्वारा दी गई विशिष्ट सिफारिशे निम्न हैं।
(1). पंचायतों को त्रिस्तरीय संरचना बनायी जाए जिसमें की गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लाॅक स्तर पर क्षेत्र पंचायत या पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला(जिला परिषद्)।
(2). ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतियाशियों द्वारा होनी चाहिए जबकि क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों के द्वारा होना चाहिए।
(3). सभी योजना और विकास के कार्य इन निकायों को सोपे जाने चाहिए।
(4). इन निकायों को पर्याप्त स्रोत मिलने चाहिए ताकि ये अपने कार्यों और जिम्मेदारियों को सम्पादित करने में समर्थ हो सके।
(5). साधन को जुटाने व जन सहयोग के लिए इन संस्थाओ को पर्याप्त अधिकार दिए जानें चाहिए।
स्मिति की इन सिफारिशो को राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा जनवरी 1958 में स्वीकार किया गया । परिषद ने किसी विशिष्ट प्रणाली या नमूने पर जोर नहीं दिया और यह राज्य पर छोर दिया ताकि वे स्थानीय स्थिति के अनुसार इन नमूनो को विकसित करे किन्तु जो बुनियादी सिद्धन्त और मुख्य आधारभूत विशेषताए पूरे देश में समान होने चाहिए।
राजस्थान देश का पहला राज्य था जहां पंचायतीय राज की स्थापना हुई। इन योजना का उद्धाटन 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागोर जिले के बगदरो गाँव में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया। इसके बाद आंध्र्र प्रदेश ने इस योजना को 1959 में लागू किया। इसके बाद अन्य राज्य ने भी इसे लागू किया।
1960 के दशक के मध्य तक बहुत से राज्यों ने पंचायती राज संस्थाए स्थापित की। लेकिन अभी तक राज्यों की इन संस्थाओं के स्तरों की संख्या, उनका कार्यक्रम और राजस्व व अन्य तरीकों मंे अंतर था। उदाहरण के लिए राजस्थान ने त्रिस्तरीय पद्धति अपनाई जबकि तमिलनाडु ने द्विस्तरिय अपनाई पश्चिम बंगाल ने चार स्तरीय पद्धति अपनाई।
स्ंविधान के अनुसार चुनाव की परिभाषा
चुनाव/निर्वाचन लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। चुनाव के द्वारा ही आधुनिक लोकतंत्रों के लोग विधायिका के विभिन्न पदों पर आसीन होने के लिए व्यक्तियों को चुनते हैं। चुनाव के द्वारा ही क्षेत्रीय एवं स्थानीय निकायों के लिये भी व्यक्तियों का चुनाव होता है। वस्तुत; चुनाव का प्रयोग व्यापक स्तर पर होने लगा है और यह निजी संस्थानों, क्लबों, विश्वविद्यालयों, धार्मिक संस्थानों आदि में भी प्रयुक्त होता हैं।
चुनाव/निर्वाचन लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। चुनाव के द्वारा ही आधुनिक लोकतंत्रों के लोग विधायिका के विभिन्न पदों पर आसीन होने के लिए व्यक्तियों को चुनते हैं। चुनाव के द्वारा ही क्षेत्रीय एवं स्थानीय निकायों के लिये भी व्यक्तियों का चुनाव होता है। वस्तुत; चुनाव का प्रयोग व्यापक स्तर पर होने लगा है और यह निजी संस्थानों, क्लबों, विश्वविद्यालयों, धार्मिक संस्थानों आदि में भी प्रयुक्त होता हैं।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है अर्थात यहा पर जनता का राज है, अपने देश की आबादी लगभग 130 करोड़ है, यहा पर देश हित के अहम निर्णय सब लोग मिल-जुलकर नहीं ले सकते है, इसलिए प्रतिनिधि चुनने के लिए चुनाव का आयोजन किया जाता है। यही प्रतिनिधि जीतने के बाद संसद, विधानसभा आदि में बैठकर जनता की तरफ से निर्णय लेते हैं।
भारत में चुनाव चार प्रकार के होते है-
- लोकसभा
- विधानसभा
- राज्य सभा
- पंचायती चुनाव
- नगर निगम चुनाव
इसे सामान्य चुनाव भी कहा जाता है। भारत में लोकसभा चुनाव में 543 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव का आयोजन किया जाता है। लोकसभा की सबसे अधिक 80 सीटें यूपी में है तथा सबसे कम सीटें सिक्किम, नगालैंड और मिजोरम में एक-एक सीट है। इन्हीं सीटों के लिए चुनाव का आयोजन किया जाता है।
राज्य सभा के प्रत्याशियों का चुनाव सीधे जनता के द्वारा नहीं कराया जाता है, इस चुनाव में लोक सभा और विधान सभा के चुने हुए प्रतिनिधि मिलकर राज्य सभा के सदसय को चुनते है,राज्य सभा को उच्च सदन के रूप में जाना जाता है।
विधानसभा चुनाव को असेंबली इलेक्शन कहा जाता है। इसके माध्यम से राज्यों में सरकारें बनती हैं। सामान्यतः राज्य के क्षेत्रफल के अनुसार हर राज्य में विधानसभा सीटें निर्धारित की जाती है। विधानसभा चुनाव हर राज्य में अलग-अलग समय पर आयोजित किये जाते है।
पंचायत या नगर निगम चुनाव को लोकल बाॅडीज इलेक्शन भी कहा जाता है। इसके द्वारा गांवों में ग्राम पंचायत और शहरों में नगर निगम परिषद सदस्यों या पार्षदों का चुनाव कराया जाता है।
भारतीय लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया
भारतीय भारत में लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया के अलग-अलग स्तर हैं लेकिन मुख्य तौर पर संविधान मेंपूरे देश के लिए एक विधानसभा तथा पृथक-पृथक राज्यों के लिए अलग विधानसभा का प्रावधान है।
भारतीय संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन की व्याख्या की गई है। अनुचछेद 324 निर्वाचनों का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण का निर्वाचन आयोग में निहित होना बताता है। संविधान ने अनुच्छेद 324 में ही निर्वाचन आयोग को चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी दी है। 1989 को एक राष्ट्रपती अधिसूचना के द्वारा दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की गई।
लोकसभा की कुल 543सीटों में से विभिन्न राज्यों से अलग-अलग संख्या में प्रतिनिधि चुने जाते हैं। इसी प्रकार अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के लिए अलग-अलग संख्या में विधायक चुने जाते हैं। नगरीय निकाय चुनावों का प्रबंध राज्य निर्वाचन आयोग करता है, जबकि लोकसभा और विधनसभा चुनाव भरत निर्वाचन आयोग के नियंत्रण में होता हैं, जिनमें वयस्क मताधिकार प्राप्त मतदान के माध्यम से सांसद एंव विधायक चुनते हैं। लोकसभा तथा विधानसभा दोनों का ही कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। इनके चुनाव के लिए सबसे पहले निर्वाचन आयोग अधिसूचना जारी करता है। अधिसूचना जारी होने के बाद संपूर्ण निर्वाचन प्रक्रिया के तीन भाग होते है-
नामांकन, निर्वाचन तथा मतगणना। निर्वाचन की अधिसूचना जारी होने के बाद नामांकन पत्रों को दाखिल करने के लिए सात दिनों का समय मिलता है। उसके बाद एक दिन उनकी जांच पड़ताल के लिए रखा जाता हैं। इसमें अन्यान्य कारणों से नामांकन पत्र रद्ध भी हो सकते हैं। तत्पश्चात दो दिन नाम वापीस के लिए दिए जाते है ताकि जिन्हें चुनाव नहीं लड़ना है वे आवश्यक विचार विनिमय के बाद अपने नामांकन पत्र वापस ले सकें। 1993 के विधानसभा चुनावों तथा 1996 के लोकसभा चुनावों के लिए विशिष्ट कारणों से चार-चार दिनों का समय दिया गया था। परंतु सामान्यतः यह कार्य दो दिनों में संपन्न करने का प्रयास किया जाता है। कभी कर भार किसी क्षत्र में पुनः मतदान की स्थिति पैदा होने पर उसके लिए अलग से दिन तय किया जाता है। मतदान के लिए तय किये गए मतदान का समय सामान्यतः सुबह 7 बजे से सायं 5 बजे तक रखा जाता है।
इलेक्ट्निक वोटिंग मशीन आने के बाद मतगणना के लिए सामान्यतः एक दिन का समय रखा जाता है। मतगणना लगातार चलती है तथा इसके लिए विशिष्ट मतगणना केंद्र तय किए जाते है जिसमें मतदान केंद्रों के समान ही अनाधिकृत व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित रहता है। सभी प्रत्याशियों ,उनके प्रतिनिधियों तथा पत्रकारों आदि के लिए निर्वाचन अधिकारियों द्वारा प्रवेश पत्र जारी किए जाते हैं। वर्तमान में निर्वाचन क्षेत्रानुसार मतगणना की जाती है तथा उसके लिए उसके सभी मतदान केंद्रों के मत की गणना कर परिणाम द्योषित किया जाता है। परिणाम के अनुसार जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, वह केंद्र या राज्य में अपनी सरकार का गठन करता है। भारत में वोट डालने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है और यह नागरिकों का अधिकार है, कर्तव्य नहीं।
राष्ट्पति, उपराष्ट्पति एवं राज्यसभा सदस्यों के चुनाव प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष रुप से होते हैं। इन्हें जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि चुनते हैं। चुनाव के वक्त पूरी प्रशासनिक मशीनरी चुनाव आयोग के नियंत्रण में कार्य करती है। चुनाव की द्योषणा होने के पश्चात आचार संहिता लागू हो जाती है और हर राजनैतिक दल, उसके कार्यकर्ता और उम्मीदवार को इसका पालन करना होता है।
लोकसभा का गठन 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक हुआ, इसके बाद पहले आम चुनाव संपन्न होनें के बाद 17 अप्रैल 1952 को इसका सर्वप्रथम गठन हुआ था। लोकसभा भारत की संसद का एक भाग हैं, भारत की संसद का निर्माण लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्पति से मिलकर होता है, लोकसभा के प्रतिनिधियों का चुनाव सीधे जनता द्वारा निर्धारित हैं, लोकसभा के प्रत्येक प्रतिनिधि का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है।
आजादी के बाद अब तक लोकसभा के सोलह बार चुनाव हो चुके हैं, लोकसभा का स्वयं का टीवी चैनल हैं, जिसमें लोकसभा की सभी कार्यवाही का प्रसारण किया जाता हैं, संसद भवन के अंदर किसी भी मीडिया कर्मी को जानें की अनुमति नहीं है।
लोकसभा में 552 सीटे होती हैं,इसमें 530 सीटें भारत के विभिन्न राज्यों के क्षेत्रो की होती हैं, जो जनसंख्यां के अनुपात में निर्धारित होती हैं, इसमें 20 सदस्य केंद्र शासित प्रदेश से राष्ट्पति द्वारा चुनें जाते हैं, 2 सीट भारतीय आंग्ल समुदाय के लिए आरक्षित रहती हैं, राष्ट्पति को जब लगता है की इनका प्रतिनिधित्व लोकसभा में नहीं हैं, तब इनको राष्टृपति के द्वारा मनोनीत किया जाता हैं। वर्तमान समय में लोकसभा की कुल सीटे 545 है।
लोकसभा का चुनाव भारतीय जनता के व्यस्क लोगों द्वारा प्रत्यक्ष मताधिकार के माध्यम से होता हैं। इसमें प्रत्येक दल द्वारा अपनें पत्याशी को चुनाव के लिए उतारा जाता हैं, इस चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार भी भाग ले सकते हैं। लोकसभा का चुनाव कई चरणों में आयोजित किया जाता है, यह प्रक्रिया सम्पूर्ण भारत में लगभग दो महीनें तक चलती है, सबसे ज्यादा सीट प्राप्त करनें वाले दल को राष्ट्पति सरकार बनानें के लिए प्रस्ताव भेजते हैं।
लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होनें के बाद आचार संहिता निर्वाचन आयोग द्वारा लगा दी जाती है और सारी प्रशासनिक शक्ति निर्वाचन आयोग के अधीन हो जाती हैं, इस समय किसी का ट्सफर या निलंबित करनें का अधिकार निवर्सचन आयोग के पास होता हैं, आचार संहिता लगनें के उपरांत कोई भी नई योजना सरकार लागू नहीं कर सकती हैं।
लोकसभा चुनाव लड़नें की योग्यता
- वह भारत का नागरिक हो
- व्यक्ति की आयु न्यूनतम 25 वर्ष होनी अनिवार्य हैं
- उस व्यक्ति के ऊपर कोई भी अपराधिक रिकार्ड न हो
- वह व्यक्ति किसी लाभ के पद पर न हो
- देश के किसी भी हिस्से की मतदान सूची में उसका नाम होना अनिर्वाय है
- कोई प्रत्याशी एक समय में दो जगह से अधिक चुनाव नहीं लड़ सकता हैं
राज्यसभा सदस्यों का चुनाव कैसे होता है
भारत में द्विसदनीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, इन्हीं दोनों सदन में उच्च सदन को राज्य सभा कहा जाता है। राज्य सभा कभी भी भंग नहीं हो सकती है, इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक 2 साल में सेवा-निवृत होते हैं, इनका कार्यकाल छः वर्ष का होता हैं। राज्य सभा में 12 सदसयों को राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत किया है तथा इसके अतिरिक्त अन्य सदस्यों का चुनाव किया जाता है। राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, वर्तमान समय में यह संख्या 245 है।
राज्यसभा का पहली बार गइन 3 अप्रैल, 1952 को हुआ था। उस समय इसका नाम काउंसिल आॅफ स्टेट्स था। राज्यसभा की पहली बैठक 13 मई, 1952 को हुई थी। 23 अगस्त, 1954 को राज्य सभा के सभापति ने घोषणा की इसे हिंदी में राज्य सभा कहा जायेगा। तब से अब तक हम इसे राज्य सभा के नाम से जाना जाता है।
इस प्रणाली के अंतर्गत विधान सभा के प्रतिनिधियों के द्वारा राज्य सभा के चुनाव में खड़े प्रत्याशियों को अपनी रुचि के अनुसार 1,2,3,4 इत्यादि संख्या प्रदान की जाती है। प्रत्याशी को चुनाव जीतने के लिए निर्धारित कोट को प्राप्त करना अनिवार्य रहता है, यदि प्रत्याशी निर्धारित कोटों को प्राप्त कर लेता है, तो वही पर मतगणना रोक दी जाती है, तथा उसे विजेता घोषित कर दिया जाता है।
कोटा={मतों की कुल संख्या/(नियत प्रतिनिधि संख्या+1)}+1
10 राज्यसभा सांसदों का चयन करना है, तो इसमें 1 जोड़ दिया जायेगा। अब यह संख्या 11 हो जाएगी। कुल विधायक की संख्या 403 इसको 11 से विभाजित किया जायेगा। विभाजित करने पर 36.66 संख्या प्राप्त होती है। इसका अर्थ है, कि राज्यसभा सांसद बनने के लिए प्रत्याशी को 37 मतों वोटों की आवश्यकता होगी।
दिसम्बर 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता अध्ययन में पंचायती राज संस्थाओं पर एक समिति का गठन किया और इस समिति आस्न 1978 में अपनी रिपोर्ट सौपी और पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करने के लिए 132 सिफारिशे की इनकी इनकी सिफारिशे कुछ इस प्रकार से हैं।
(1).त्रिस्तरीय पंचायतीय राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में बदलना चाहिए। जिला स्तर पर, जिला परिषद और उससे नीचे स्तर पर मंडल पंचायत का गठन हों।
(2).जिला परिषद कार्यकारी निकाय होना चाहिए और उसे राज्य स्तर पर योजना और विकास के लिए जिम्मेदार बनाया जाए।
(3).पंचायतीय चुनावों में सभी स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की अधिकारिक भागीदारी हो।
चुनाव क्यों जरूरी है -एक लोकतांत्रीक देश के लिए चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। लेकिन इस चुनाव का अर्थ व्यवस्था पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ता है।
भारत में चुनावों की तारीखों की घोषणा अभी हाल ही में की गई है। जिसमें पांच राज्यों की विधानसभा चुनाव होनी हैं, और 2024 में हमारे लोक सभा चुनाव भी होने वाले है, तो इस प्रकार अर्थ व्यवस्था को कहीं ना कही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागते वहन करना होगा।
प्रधानमंत्री जी ने भी लोकतंत्र के आगामी ’’त्योहार’’ के बारे में उत्साह व्यक्त किया है, और भारत में लगभग 900 मिलियन मतदाताओं के साथ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारा देश तो यहा पर अर्थव्यवस्था को कितनी लागते वहन करनी पडती है। जब लोकसभा चुनाव हमारे पास होते है तो अर्थ व्यवस्था में बहुत अधिक लागत वहन करनी पड़ती है।
इसका मतलब यह होता है कि लोकतंत्र का यह त्योहार आयोजित करना बहुत ही महंगा पड़ता है, और इतने बड़े आयोजन में होने वाले प्रत्यक्ष खर्चों के अलावा कई अप्रत्यक्ष लागते भी हमारे सामने आती है, और जब मामला कोविड़-19 का हो और उस पर से तीसरी लहर हमारे सामने खड़ी हो तो ये लागते और बड़ी हो जाती है और हमारी नैतिक जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है।
ऐतिहासिक आकड़ों से यह पता चलता है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था आमतौर पर चुनावी वर्ष से पहले धीमी हो जाती है। क्योंकि उत्पादक या निवेशक को अब अनिश्चितता रहती है और वो अपने व्यवहार में जो निवेश की प्रक्रिया होती है वह पहले से कम कर देते है, क्योंकि उनको भविष्य नहीं पता होता है, इसलिएं चुनाव से पहले ये एक निवेश की प्रक्रिया कम हो जाती है और जिससे अर्थव्यवस्था में धीमी दिखई देती हैंै।
जब चुनाव हमारे देश में होता है तो उस समय सरकारी कर्ज भी अत्यधिक बढ़ जाते हैं
चुनाव का पहला और सबसे स्पष्ट प्रभाव सरकार द्वारा लिए जा रहे है, राष्ट्रीय ऋण में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। कई लोकतंत्रीक देशों का जब अध्ययन किया गया तो उससे पहले राष्ट्रीय ऋण में काफी ज्यादा वृद्धि हो गई थी।
भाारत और दुनिया भर में चुनाव उन नीतियों की शुरूआत से चिंहित हैं जो आर्थिक आपदा के रूप में कहीं ना कहीं आर्थिक बोझ चुनाव के दौरान या चुनाव के बाद अर्थव्यवस्था में काफी अधिक पड़ जाता है, जो कभी-कभी इसकों अर्थशास्त्री राजनीतिक लाभ से भी जोड़ने लगे है।
कल्यानकारी योजनाएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, इनकों रोलआउट करके अर्थव्यवस्था में मतदाताओं को लुभाने वाले कार्यक्रम चालु किए जाते है, और इससे एक अल्पकालीक आप को एक भिनी चादर दिखाई पड़ती है और जिसके द्वारा मतदाताओं से यह चाहा जाता है कि वोट उनके पक्ष में किया जाए। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश के जो एक नागरिक होते है वह निश्पक्ष तथा लोक लुभावन से दुर रह के एक स्पष्ट सररकार बनाने के लिए आगे आते हैं।
यदि हमारा मतदाता तर्कसंगत है और वह दीर्घकालिक प्रदर्शन के आधार पर सरकार का चुनाव करने की संभावना है, तो वास्तव में एक स्पष्ट लोकतंत्र सरकार वहीं पर स्थापित होगा।
मतदाता अवसर उन अल्पकालिक लाभों पर ध्यान केंद्रित करतें हैं जो उन्हें प्राप्त करने की संभावना होती है, जिसके कारण सरकारें चुनावों से ठीक पहलें अच्छा दिखने की कोशिश में बहुत सारा पैसा खर्च करने लगती है।
जब भी चुनाव होता है तो जो हमारे महत्वपूर्ण परियोजनाएं होती है वह स्थगित हो जाते है, या उन पर कार्य रूक जाता है।
उद्योगपति और व्यवसायी कम परियोजनाएं चला रहे होते है, इसलिएं बैंकों को बहुत अधिक पैसा उधार देने की जरूरत अब नहीं पड़ती है। यह ऋण वृद्धि की दर को धीमा कर देती है जो अर्थव्यवस्था को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करती है।
चुनाव की अवधि प्रत्येक राजनीतिक दलों द्वारा बढ़े हुए खर्च से चिंहित होती है, और हर राजनीतिक दल लाखों रूपयें खर्च करते है। इसमें से बहुत सारा पैसा अचानक बैंक खातों से निकाल लिया जाता हैं क्योकि बैंक से पैसा बाजार में उतार दिया जाता है।
धीमी आर्थिक विकास चुनावी वर्ष में हमकों अधिकतर क्या दिखाई पड़ता है कि उपरोक्त सभी बिंदुओं से यह स्पष्ट होता है कि चुनावी वर्ष के दौरान न तो सरकार और न ही नागरिक दीर्धकालिक परिणामों की ओर देख रहे होते है। वे केवल अल्पकालिक परिणाम के आधार पर ही काम करते है। जिसके कारण के देश की अर्थव्यवस्था की गति धीमी होने लगती है।
भारतीय लोकतंत्र में चुनाव की प्रक्रिया
चुनाव-लोकतंत्र और राजनीति का आधार स्तंभ हैं। आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा रास्ता तय किया है।
भारत की चुनावी प्रक्रिया में राज्य विधानसभा चुनावों के लिए कम से कम एक महिने का समय लगता है जबकि आम चुनावों के लिए यह अवधि और बढ़ जाती है। मतदाता सूची का प्रकाशन एक महत्तपूर्ण चुनाव पूर्व प्रक्रिया है और यह भारत में चुनाव के संचालन के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। भारतीय संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो भारत का नागरिक है और जिसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है, वह मतदाता सूची में एक मतदाता के रुप में शामिल होने के योग्य है यह योग्य मतदाता की जिम्मेदारी है कि वे मतदाता सूची में अपना नाम शामिल कराए। आमतौर पर, उम्मीदवारों के नामांकन की अंतिम तिथि से एक सप्ताह पहले तक मतदाता पंजीकरण के लिए अनुमति दी गई है।
चुनाव से पहले नामांकन, मतदाता और गिनती की तिथियों की घोषणा की जाती हैं। चुनावों की तिथि की घोषणा के दिन से आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है।
किसी भी पार्टी को चुनाव प्रचार के लिए सरकारी संसाधनों को उपयोग करने की अनुमति नहीं होती है। आचार संहिता के नियमों के अनुसार मतदान के दिन से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद कर दिया जाना चाहिए। भारतीय राज्यों के लिए चुनाव से पहले की गतिविधियां अत्यंत आवश्यक होती है। आचार संहिता के अनुसार चुनाव प्रचार के लिए प्रत्याशी 10 चैपहिया वाहन ही रख सकता है, जबकि मतदान वाले दिन तीन चैपहिया वाहनों की अनुमति है।
मतदान से पूर्व प्रचार से संबंधित घोषणाये
मतदान के दिन से एक दिन पहले चुनाव समाप्त हो जाता है। सरकारी स्कूलों और कालेजों को मतदान केंद्रों के रूप में चुना जाता है। मतदान कराने की जिम्मेदारी प्रत्येक जिले के जिलाधिकररी की होती हैं। बहुत से सरकारी कर्मचारियों को मतदान केंद्रों में लगाया जाता है। चुनाव में धोखाधड़ी रोकने के लिए मतदान पेटियों के बजाय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों(ईवीएम) का प्रयोग अधिक मात्रा में किया जाता है, जो भारत के कुछ भागों में अधिक प्रचलित हैं। मैसूर पेंट्स और वार्निश लिमिटेड द्वारा तैयार एक अमिट स्याही का प्रयोग आमतौर पर मतदान के संकेत के रूप में मतदाता के बाईं तर्जनी अंगुली पर निशान लगाने के लिए किया जाता है। इस कार्यप्रणाली का उपयोग 1962 के आम चुनाव के बाद से फर्जी मतदान रोकने के लिए किया जा रहा है।
चुनाव के उद्देश्य क्या है चुनाव के दिन के बाद, ईवीएम को भारी सुरक्षा के बीच एक मजबूत कमरे में जमा किया है। चुनाव के विभिन्न चरण पूरे होने के बाद, मतों की गिनती का दिन निर्धारित किया जाता है। आमतौर पर वोट की गिनती में कुछ घंटों के भीतर विजेता का पता चल जाता है। सबसे अधिक वोट प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को निर्वाचन क्षेत्र का विजेता घोषित किया जाता है। सबसे अधिक सीटें प्रप्त करने वाले पार्टी या गठबंधन को राष्ट्रपति द्वारा नई सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। किसी भी पार्टी या गठबंधन को सदन में वोटों का साधारण बहुमत (न्यूनतम 50%) प्राप्त करके विश्वास मत के दौरान सदन (लोक सभा) में अपना बहुमत साबित करना आवश्यक होता है।