भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं। विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में भाषा का अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है जिसके माध्यम से विचारों को समझना और विचारों को व्यक्त करना शामिल हैं।
भाषा, मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वर एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे से प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है।
सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यन्तर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यन्तर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।
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भाषा के प्रमुख अवयवों/घटकों (major components of language)
मानव सामाजिक प्राणी होने के कारण विविध सामाजिक सम्बन्धों के बीच अन्तः क्रिया करता है । इसके लिए भाषा ही सर्वोत्कृष्ट साधन है। भाषा बोल सकने के कारण ही मानव को पशुओं की अपेक्षा बहुत उच्चकोटि में स्थान प्राप्त है। भाषा को व्यवहार में लाना जितना ही सहज और स्वाभाविक है, उसके तथ्यों से परिचय प्राप्त करना उतना ही कठिन और दुसाध्य है। वर्तमान तकनीकी युग में दैनिक जीवन व्यतीत करने के लिए लिखित शब्दों की अपेक्षा ध्वनियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण बन गयी हैं। भाषा का वास्तविक स्वरूप ध्वनि ही है। भाषा विज्ञानियों द्वारा भाषा के प्रमुख अवयव /घटकों निम्न बताए गए हैं—
(1) ध्वनि (Sound)
उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुत्तम और महत्त्वपूर्ण इकाई ध्वनि है, जिसे स्वर भी कहा जाता है । वायु तरंगों के माध्यम से जो श्रवणेन्द्रिय को कम्पित कर बोध कराती है, वह ध्वनि कहलाती है। किसी भी प्रकार की क्रिया; जैसे—गिरने, उठने, बैठने और आघात आदि से सामान्य वातावरण में जो कम्पन्न उत्पन्न होता है, वह सभी ध्वनि के अन्तर्गत ही आता है। ध्वनि का क्षेत्र व्यापक है। ध्वनि के तीन पक्ष हैं—पहला उत्पादन, दूसरा संवहन और तीसरा ग्रहण। इनमें उत्पादन और ग्रहण का सम्बन्ध शरीर से है और संवहन का वायु तरंगों से । ध्वनि की सार्थकता के लिए तीनों पक्षों का होना अति महत्त्वपूर्ण है । मानव शरीर के जिन अवयवों से ध्वनि उत्पन्न होती है, उन्हें उच्चारण के अवयव या ध्वनि यन्त्र अथवा वाकतंत्र कहा जाता है। फेफड़े, श्वासनली, स्वरयंत्र, काकल, कंठ, नासिका, दन्त, जिह्वा और ओष्ठ आदि प्रमुख उच्चारण के अवयव हैं ।
(2) शब्द (Words)
सार्थकता की दृष्टि से भाषा की लघुत्तम, अनिवार्य और स्वतंत्र इकाई शब्द है अर्थात् यह सार्थक ध्वनियों का समूह है। भर्तृहरि ने शब्द को सभी भावों और अर्थों का साधन माना है। रचना की दृष्टि से शब्द के तीन भेद रूढ़, यौगिक और योगारूढ़ होते हैं, जबकि रूपान्तर की दृष्टि से शब्द के दो भेद हैं— विकारी और अविकारी । अर्थ के नजरिये से यदि विचार किया जाये तो शब्द के दो भेद होते हैं-एकार्थी और अनेकार्थी ।
(3) पद
वाक्य में शब्दों को जिस रूप में प्रयोग किया जाता है, वह पद कहलाता है अर्थात् वाक्य में प्रयोग्य शब्द रूप पद है। यह सविभक्तिक होता है। इससे तात्पर्य यह है कि यह विभाजन करने वाला होता है। विभक्तियों के संयुग्मन से एक शब्द के कई पद या रूप बनते हैं जो भिन्न-भिन्न अर्थ समाहित किये रहते हैं। शब्द का वाक्य में तभी प्रयोग हो सकता है, जब उसके साथ विभक्ति प्रत्यय का प्रयोग किया, गया हो । पद के बिना वाक्य रचना असम्भव है। जब तक कोई शब्द पद नहीं बनता, तब तक वह भाव-बोधन और अर्थ-वहन में सर्वथा असमर्थ में रहता है। अतः शब्द के उस रूप को पद कहा जाता है, जो विभक्ति और प्रत्यय का संयोग ग्रहण कर तथा किसी वाक्य में प्रयुक्त होकर अर्थ- बोध और भाव-बोध में हमेशा समर्थ होता है । इस प्रकार वाक्य पदों का समूह होता है । यह वाक्य की योग्यतम इकाई है जिसका विकास लिंग, वचन,कारक, पुरुष, काल और वाच्य आदि के माध्यम से होता है।
(4) वाक्य (Sentence)
सामान्यतः सार्थक और व्यवस्थित पद-समूह को वाक्य कहा जाता है, जिसके द्वारा भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। महर्षि पतंजलि के अनुसार, “क्रिया, अव्यय, कारक और विशेषण जहाँ एकत्र हों, उसे वाक्य कहते हैं । ” वाक्य एक पद भी हो जाता है और पद-समूह भी । वाक्य क्रियायुक्त और क्रियाविहीन भी होता है। पद और वाक्य का अटूट सम्बन्ध है। पद के बिना वाक्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। व्यवहार में आप बोलने के लिए वाक्यों का ही प्रयोग करते हैं। वाक्य भाषा की सहज इकाई है, जिसमें एक या एक से अधिक शब्द या पद होते हैं। प्रत्येक भाषा में वाक्य-रचना की अपनी व्यवस्था होती है।
(5) अर्थ
बिना अर्थ के भाषा, शब्द और वाक्य का कोई औचितय नहीं होता है । यास्क का मत है कि, “जिस प्रकार अग्नि के अभाव में सूखा ईंधन जल नहीं सकता, ठीक उसी प्रकार बिना अर्थ को जाने-समझे जो शब्द दोहराया जाता है वह कभी भी मुख्य विषय पर प्रकाश नहीं डाल सकता।” अर्थ शब्द की अन्तरंग शक्ति का नाम है, क्योंकि शब्द – शब्द से बहिर्मूत होता है, जबकि अर्थ अबहिर्मूत यध अपृथक होता है, डॉ. शिलर के अनुसार, “अर्थ कुछ और नहीं, वह अनिवार्यतः वैयक्तिक होता है, क्योंकि किसी वस्तु का अर्थ व्यक्ति पर निर्भर करता है, जिसे वह वस्तु अभिप्रेरित होती है। ”मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अर्थ वास्तव में सन्दर्भ का प्रकरण होता है, किन्तु तार्किक रूप में अर्थ को सन्दर्भ या प्रकरण की अपेक्षा कुछ और भी माना जा सकता है। शब्द की सम्पूर्ण गरिमा अर्थ पर ही टिकी रहती है। सामान्यतः अर्थ सम्प्रेषण के 5 तत्त्व होते हैं— (1) वक्ता (2) श्रोता (3) प्रतीक (4) वस्तु और (5) निर्देश । अर्थ के साथ जुड़कर ही भाषा का औचित्य सिद्ध होता है।
वर्तमान समय में मानव जीवन में भाषा का इतना अधिक महत्व है कि भाषा को मानवीय विकास का पर्याय माना जाता हैं। मानव शिशु समाज के वातावरण के मध्य विकसित होता हैं। समाज में भाषा की सुनिश्चित परम्परा होती हैं। इसी भाषायी परिवेश में बालक का सम्यक् तथा सन्तुलित विकास होता हैं। मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विचारों तथा भावों की अभिव्यक्ति एवं ज्ञानार्जन के लिए भाषा पर ही निर्भर रहता है। कहा जा सकता है कि समस्त मानवीय गुणों का विकास भाषा के द्वारा ही होता हैं। भाषा का महत्व स्वयं सिद्ध हैं।
- भाषा भावाभिव्यक्ति एवं विचार-विनिमय का साधन हैं
मनोभावों की अभिव्यक्ति के प्रयत्न ने भाषा को जन्म दिया। बुद्धिप्रधान प्राणी होने के कारण मनुष्य ने धीरे-धीरे विचार प्रधान भाषा का विकास किया। आज मनुष्य भाषा के माध्यम से भावाभिव्यक्ति के साथ-साथ विचार भी करता है और विचार-विनिमय भी। इस दृष्टि से मानव जीवन में भाषा का बड़ा महत्व हैं।
- अध्ययन-अध्यापन का मूलधार
भाषा अध्ययन एवं अध्यापन का सरलतम् साधन हैं। भाषा शिक्षा की मूलधार हैं। भाषा के माध्यम से शिक्षक अपने बालकों को ज्ञान की पूर्णता से परिचित करवाता है।
- मानसिक विकास
मानसिक विकास के लिए विचार शक्ति की जरूरत होती है। विचारों का प्रवाह भाषा के द्वारा ही हो सकता हैं। विचार, भाषा को जन्म देते हैं और भाषा विचारों को जन्म देती हैं जिस व्यक्ति के पास जितनी सशक्त भाषा होगी उतनी ही उसकी विचार शक्ति सुदृढ़ होगी।
- भाषा सामाजिक व्यवहार एवं सामाजिक अन्तःक्रिया का आधार हैं
मनुष्यों के बीच जो भी सामाजिक अन्तःक्रिया होती है वह सब भाषा के माध्यम से होती हैं, वे आपस में जो भी व्यवहार करते हैं, वह सब भी भाषा के माध्यम से करते हैं। भाषा के माध्यम से ही मानव जाति सामाजिक समूहों में संगठित हुई हैं, राष्ट्र के रूप में गुँथी हैं और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक मंच पर आसीन हुई हैं। भाषा के अभाव में यह सब संभव नही था। इस दृष्टि से भी मानव जीवन में भाषा का बड़ा महत्व हैं।
- भाषा मानव विकास का मूल आधार हैं
सृष्टि के सभी पशु-पक्षी एवं कीट-पतंग मनुष्य से प्राचीन हैं परन्तु प्रगति पथ पर केवल मनुष्य ही अग्रसर हुआ हैं। आखिर यह कौन-सी शक्ति हैं जिसके द्वारा मनुष्य जाति ने यह सब विकसित किया हैं? वह शक्ति भाषा की शक्ति है विचार की शक्ति हैं। यूँ तो संसार के अन्य प्राणियों के पास भी अपनी-अपनी भाषाएं हैं परन्तु विचारप्रधान भाषा मनुष्य की ही विशेषता हैं। मनुष्य की भाषा और उसके विचारों में अटूट संबंध होता हैं, विचार से भाषा प्रस्फुटित होती है और भाषा के माध्यम से विचार। भाषा के अभाव में मनुष्य विचार नही कर सकता और विचार के अभाव में वह अपने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। संस्कृताचार्य दंडी के शब्दों में-यदि शब्दरूपी ज्योति इस संसार में प्रकाशित न हुई होती तो तीनों लोक अज्ञानरूपी बने अन्धकार से परिपूर्ण रहे होते (इदम्न्धतमः कृत्स्नं जायेत् भुवनत्रयम्)। यदि शब्दाह्रयं ज्योतिरा संसार न दीप्यते।। – दण्डी, काव्यादर्श)।
- भाषा मानव के भाव, विचार, अनुभव एवं आकांक्षाओं को सुरक्षित रखती हैं
भाषा के माध्यम से हम अपने भाव, विचार, अनुभव एवं आकांक्षाओं को सुरक्षित रखते हैं और उसी के माध्यम से हम उस सबको आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करते हैं। आने वाली पीढ़ी उसमें भाव, विचार, अनुभव एवं आकांक्षाएं जोड़कर अपने से आगे की पीढ़ी को हस्तांतरित करती है। इस प्रकार विचारों में सदैव परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होता रहता हैं। मानव जाति ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो भी उपलब्धियाँ की हैं, वे सब भाषा के माध्यम से सुरक्षित हैं। वर्तमान का ज्ञान-विज्ञान भविष्य के ज्ञान-विज्ञान की नींव हैं। भाषा के अभाव में यह सब संभव नहीं।
- भाषा मानव सभ्यता एवं संस्कृति की पहचान हैं
भाषा की कहानी मानव सभ्यता एवं संस्कृति की कहानी हैं। जैसे-जैसे किसी मानव समाज से अपनी भाषा में प्रगति की वैसे-वैसे उसकी सभ्यता एवं संस्कृति में विकास हुआ, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हुई, श्रेष्ठतर साहित्य का सृजन हुआ। तभी किसी जाति, समाज अथवा राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति का आंकलन उसके साहित्य से किया जाता है। आदिकाल में भारत जगत् गुरू था, इसका प्रमाण उस समय का साहित्य-वेद, उपनिषद और स्मृतियाँ ही हैं
शिक्षा व्यवस्था में छात्रों की भाषा की पृष्ठभूमि अत्यंत ही महत्वपूर्ण है इसको समझना अति आवश्यक है। विद्यार्थी अलग-अलग समाज तथा परिवेश से आते हैं जिससे उनकी भाषाई पृष्ठभूमि भी भिन्न-भिन्न होती है। छात्रों की भाषा छात्रों के पृष्ठभूमि तथा परवरिश पर निर्भर करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि विद्यार्थियों का पालन पोषण किस तरह और किस समाज में किस तरह से हुआ है। छात्रों की भाषाई पृष्ठभूमि को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
1- भौगोलिक विविधता
भौगोलिक विविधता छात्रों की भाषाई पृष्ठभूमि पर काफी गहरा प्रभाव डालती है। जो विद्यार्थी दूरदराज दुर्गम क्षेत्र से आता है उसकी भाषा की पृष्ठभूमि शहरी क्षेत्र के विद्यार्थी की तुलना में निम्न रहती है। क्योंकि शहरी क्षेत्र के विद्यार्थी को भाषा की गुणवत्ता को कुछ करने के लिए तमाम अवसर बड़ी आसानी से उपलब्ध होते हैं जिन अवसरों से ग्रामीण क्षेत्र का विद्यार्थी वंचित रहता है।
2- पारिवारिक शिक्षा
विद्यार्थियों के भाषाई पृष्ठभूमि पर पारिवारिक शिक्षा का कब महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, जो विद्यार्थी के भाषाई स्तर को निर्धारित करता है। जिस परिवार के माता पिता पढ़े लिखे होते हैं वह अपने बच्चों को भाषाई गुणवत्ता में सुधार करने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं और उनकी भाषा की गुणवत्ता में सुधार होता है। जो कि ऐसा परिवार जो साक्षर ही नहीं है वह अपने बच्चों को भाषाई ज्ञान नहीं दे पाते हैं जिससे उनकी भाषाई पृष्ठभूमि निम्न रहती है।
3- आर्थिक क्षेत्र का प्रभाव
भाषाई पृष्ठभूमि पर आर्थिक क्षेत्र में अपना काफी गहरा प्रभाव छोड़ता है। जिस बच्चे का जन्म समृद्ध परिवार में होता है उसकी भाषाई पृष्ठभूमि काफी अच्छी होती है क्योंकि वह परिवार भाषाई गुणवत्ता पर निवेश करता है। जबकि ऐसा बच्चा जिसका जन्म निम्न आर्थिक परिवार में हुआ हो उसकी भाषाई पृष्ठभूमि भी निम्न होती है क्योंकि उस परिवार के पास बच्चे के भाषा की गुणवत्ता पर निवेश करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता है और ना ही पर्याप्त समय होता है क्योंकि वह परिवार जीवन निर्वाह के लिए ही कार्य करता है।
4- सांस्कृतिक प्रभाव
विद्यार्थियों की भाषा की पृष्ठभूमि पर सांस्कृतिक प्रभाव भी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि विद्यार्थी जिस समाज में रहता है वहां की संस्कृति भी उसके व्यक्तित्व के साथ तथा भाषाई विकास में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अलग-अलग विद्यार्थी अलग-अलग सामाजिक परिवेश आते हैं जिनकी अपनी अपनी अलग अलग संस्कृति भी होती है इस सांस्कृतिक विविधता के कारण विद्यार्थियों की भाषाई पृष्ठभूमि भी अलग-अलग होती है।
बहुभाषी कक्षा एक ऐसी कक्षा है जिसमें शिक्षार्थियों के पास एक से अधिक भाषाएँ होती हैं।
हागेन के अनुसार– ‘‘दो भाषाओं के ज्ञान की स्थिति द्विभाषिक है।’’ वैसे तो बहुत सी भाषाओं को जानने वाले को बहुभाषिक कहते हैं परंतु एक से अधिक भाषा (केवल दो) जानने वाले को द्विभाषिक के साथ-साथ बहुभाषिक भी कहते हैं।
ब्लूम फील्ड के अनुसार– ‘‘बहुभाषिकता की स्थिति तब पैदा होती है जब व्यक्ति किसी ऐसे समाज में रहता है जो उसकी मातृभाषा से अलग भाषा बोलता है और उस समाज में रहते हुए वह उस अन्य भाषा में इतना पारंगत हो जाता है कि उस भाषा का प्रयोग मातृभाषा की तरह कर सकता है।’’
कुछ विद्वानों ने इसे इस रूप में प्रस्तुत किया कि द्विभाषिकता या बहुभाषिकता व्यक्ति के बचपन से ही दो या बहुत भाषाएँ एक साथ सीखकर उसका समान रूप और सहज प्रभाव से प्रयोग करने की स्थिति को कहते हैं परन्तु भाषावैज्ञानिक इसे अस्वीकार करते हुए तर्क देते हैं कि दो भाषाओं में मातृभाषा जैसी क्षमता एक ऐसा आदर्श है जिसे प्राप्त करना बहुत कठिन है। इस प्रकार एक से अधिक भाषाओं की जानकारी एवं प्रयोग बहुभाषिकता की स्थिति है।
यदि शिक्षक अभ्यास में बहुभाषावाद का समर्थन करते हैं , तो इससे उनके छात्रों के शैक्षणिक प्रदर्शन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इससे बेहतर सामाजिक और भावनात्मक कल्याण भी होगा। यह निष्क्रिय रूप से किया जा सकता है (जब कोई छात्रों को अपनी मातृभाषा का उपयोग करने की अनुमति देता है) या शिक्षण की प्रक्रिया में बहुभाषी प्रथाओं को लागू करके सक्रिय रूप से किया जा सकता है।
साथ ही, हम जानते हैं कि जब बच्चे जो सुनते और पढ़ते हैं उसे समझ जाते हैं, तभी वे वास्तव में सीखने में सक्षम होंगे। उस समझ के बिना, उन्हें सामग्री को आत्मसात करने में कठिनाई होगी। इसलिए, जब आपके पास एक बहुभाषी कक्षा है, तो आपके लिए अच्छा होगा यदि आप व्यवहार में बहुभाषावाद को लागू करने में सक्षम हों, इससे छात्रों को यह समझने में मदद मिलेगी कि वे क्या पढ़ रहे हैं और सुन रहे हैं। इसके बाद बेहतर समझ और उच्च गुणवत्ता वाली सीखने की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा।
एक और बात जो हमें इंगित करने की आवश्यकता है वह यह है कि सीखना सबसे प्रभावी होता है यदि कोई व्यक्ति जो पहले से जानता है उस पर आगे बढ़ता है। और चूँकि बच्चे पहले से ही अपनी मूल भाषा जानते हैं, वे कक्षा में बहुभाषावाद के कार्यान्वयन से सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करेंगे। साथ ही, उनकी मातृभाषा उन्हें दूसरी, तीसरी आदि भाषा सीखने में बेहतर ढंग से सामना करने में मदद करेगी।
कक्षा में बहुभाषावाद का समर्थन करना छात्रों के शैक्षणिक प्रदर्शन के साथ-साथ सामाजिक और भावनात्मक कल्याण पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाला एक मूल्यवान शैक्षणिक अभ्यास हो सकता है। चाहे निष्क्रिय तरीके से छात्रों को अपनी घरेलू भाषा का उपयोग करने की अनुमति देकर, या एक से अधिक भाषाओं पर आधारित शिक्षण और सीखने की प्रथाओं को लागू करके अधिक सक्रिय तरीके से सभी विद्यार्थियों की भाषाओं को संसाधन के रूप में देखना महत्वपूर्ण है”केवल शिक्षा की भाषा” के रास्ते में अवांछित बोझ के बजाय। छात्रों के भाषाई और सांस्कृतिक संसाधनों में रुचि दिखाने और उन्हें महत्व देने जैसी छोटी शैक्षणिक प्रथाओं के कई सकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, छात्रों को समूह कार्य में सहायता के लिए अपनी घरेलू भाषाओं का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने का मतलब है कि छात्र पहले से मौजूद ज्ञान का उपयोग करने में सक्षम होंगे जो अन्यथा अदृश्य रहता। इस तरह की प्रथाएं ज्ञान निर्माण और भाषा दक्षता विकसित करने की दिशा में गहन शिक्षा और प्रभावी आधार के लिए समावेशी अवसर प्रदान कर सकती हैं।
संक्षेप में, छात्रों की भाषाई और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को महत्व देना और कक्षा में उनकी भाषाओं के उपयोग को प्रोत्साहित करना मूल्यवान शिक्षण और शैक्षणिक अभ्यास हैं। यह छात्रों के आत्मविश्वास को बढ़ा सकता है, सीखने के लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकता है, शैक्षणिक प्रदर्शन को बढ़ा सकता है और विविधता और समावेशन का जश्न मनाकर व्यापक समुदाय में अन्य भाषाओं और संस्कृतियों के बारे में अधिक जागरूकता में योगदान कर सकता है।
1- अधिक संवाद कौशल
बहुभाषावाद की विकास से विद्यार्थियों में संवाद कौशल में सुधार होता है। अनेक भाषाओं का ज्ञान होने से संवाद करने में बड़ी सरलता होती है और जिससे बड़ी ही आसानी से कोई विद्यार्थी दूसरे के साथ संवाद कर सकता है संवाद करने में पारंगता हासिल कर सकता है।
2- उच्च भाषाई बोध
विद्यार्थियों को कई भाषाओं का ज्ञान होने से उनकी भाषाएं बौद्धिक क्षमता में वृद्धि होती है। उन्हें अलग-अलग भाषाओं का ज्ञान होता है जिसस उन्हें आगे किसी भी कार्य में उसका लाभ जरूर होता है। बहुभाषा का ज्ञान होने से भाषा का बोध तो पड़ता ही है साथ ही साथ व्यक्तित्व का विकास भी होता है।
3- उत्कृष्ट प्रबंधकारी कार्य पद्धति
बहुभाषा का ज्ञान होने से विद्यार्थियों में बौद्धिक क्षमता के साथ साथ अन्य कार्य क्षमताओं में भी वृद्धि होती है। जिसमें की वह उत्कृष्ट तरीके से कार्य करता है और उनके प्रबंधन में भी पारंगता हासिल करता है।
4- अपने परिवेश के अनुरूप ढलना
विद्यार्थियों को अनेक भाषाओं का ज्ञान होने से वह अपने आप को परिवेश के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। विद्यार्थी हर समय यह प्रयास करता है की उसमें गुणात्मक परिवर्तन हो जिससे वह कार्य क्षमताओं में वृद्धि कर सके।
5- अधिक करियर अवसर
बहुभाषावाद से विद्यार्थियों में व्यवसायिक विकल्पों में वृद्धि होती है। उसके पास बहुभाषा का ज्ञान होने से व्यवसायिक विकल्प होते हैं जिससे वह अपने अनुकूल विकल्प को चुन सकता है। तो इस तरह से बहुभाषावाद में यह शक्ति विद्यमान है।
6- कुशल बहुकार्यात्मकता
बहुभाषावाद से विद्यार्थियों में अनेक कार्यों को करने की कुशलता आती है वह बड़ी ही आसानी से अन्य कार्यों को एक साथ करने में सामर्थ होता है। कई बार व्यक्तियों को एक साथ कई कार्य करने होते हैं तो इस पारंगता को बहुभाषावाद से हासिल किया जा सकता है।
7- स्मृति में सुधार
बहुभाषा से विद्यार्थियों की स्मृति में भी सुधार होता है अनेक भाषाओं के ज्ञान की वजह से विद्यार्थियों की स्मृति और ऊंच्च जाती है। स्मृति में सुधार होने की वजह से कार्य कुशलता में भी वृद्धि होती है।
8- अतिरिक्त भाषायें सीखने से कार्य क्षमता में वृद्धि
यदि विद्यार्थी अनेक भाषाओं को सीखता है तो अनेक भाषाओं की सीखने की वजह से विद्यार्थियों के कार्य क्षमता में भी वृद्धि होती है।
9- संज्ञानात्मक लाभ
कई भाषाओं को सीखने और जानने से दिमाग तेज होता है और याददाश्त बेहतर होती है। यहां तक कि यह विभिन्न बीमारियों से भी बचाव का काम करता है।
यूनिवर्सिटी पोम्पेउ फैबरा, बार्सिलोना के सेंटर फॉर ब्रेन एंड कॉग्निशन के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि बहुभाषी लोग अपने परिवेश का अवलोकन करने में बेहतर होते हैं। उन्होंने दोनों प्रकार के मस्तिष्कों की संरचनात्मक छवियों का अवलोकन करके द्विभाषी और एकभाषी लोगों के बीच अंतर की जांच की। वे अप्रासंगिक या भ्रामक किसी भी चीज़ का आसानी से पता लगा सकते हैं। भ्रामक जानकारी की पहचान करने में भी वे अपने एकभाषी साथियों से बेहतर हैं।
लक्ज़मबर्ग में किए गए एक अन्य अध्ययन ने वरिष्ठ नागरिकों में अनुभूति पर बहुभाषावाद के सुरक्षात्मक प्रभाव की जांच की और पाया कि “प्रारंभिक जीवन से बहुभाषावाद का अभ्यास करना, और/या इसे तेज गति से सीखना और भी अधिक कुशल है। यह सुरक्षा संज्ञानात्मक रिजर्व और मस्तिष्क प्लास्टिसिटी को बढ़ाने से संबंधित हो सकती है, जिससे उम्र बढ़ने के दौरान मस्तिष्क के कार्यों में परिवर्तन से बचाव होता है।
10- मल्टीटास्क करने की क्षमता में सुधार
अनेक भाषाओं में बोलने में सक्षम होने से आप कई मायनों में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। पेन्सिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के एक संज्ञानात्मक वैज्ञानिक द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बहुभाषी लोग जो भाषाओं के साथ तालमेल बिठा सकते हैं, वे मल्टीटास्किंग में अधिक कुशल होते हैं। चूंकि बहुभाषी लोग भाषण और व्याकरण की विभिन्न प्रणालियों के बीच स्विच करने के आदी होते हैं, इसलिए वे कई कार्यों के बीच तेजी से स्विच करने में सक्षम होते हैं। टोरंटो के यॉर्क विश्वविद्यालय के एलेन बेलस्टॉक के एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि द्विभाषी बच्चे एकभाषी की तुलना में कार्यों को प्राथमिकता देने में बेहतर होते हैं।
टोरंटो के यॉर्क विश्वविद्यालय के एलेन बेलस्टॉक के एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि द्विभाषी बच्चे एकभाषी की तुलना में कार्यों को प्राथमिकता देने में बेहतर होते हैं।
11- संचार कौशल में सुधार
शोध से पता चलता है कि कई भाषाओं का संपर्क संचार कौशल को बढ़ाता है। जैसा कि लिबरमैन एफ. एट अल के एक अध्ययन में दर्शाया गया है, बहुभाषी वातावरण में बड़े होने वाले बच्चे अन्य लोगों के दृष्टिकोण को बेहतर ढंग से समझते हैं, जो अच्छे संचार के लिए एक चालक है। बहुभाषावाद सांस्कृतिक जागरूकता के प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ा सकता है। विभिन्न भाषाएँ बोलने से आप अन्य संस्कृतियों के साथ बातचीत के लिए अधिक खुले रहते हैं और आपको अन्य देशों और पृष्ठभूमि के लोगों से सीधे बात करने की अनुमति मिलती है, जिससे अंतरसांस्कृतिक संचार कौशल में सुधार होता है।
- परिवारों के साथ बातचीत करने में कठिनाई
बहुभाषी शिक्षा की चुनौतियों में से एक अलग भाषा या बोली बोलने वाले परिवार के सदस्यों के साथ बातचीत करने में कठिनाई है। लंबी अनुपस्थिति के बाद परिवार के सदस्यों के साथ पुनर्मिलन करते समय यह विशेष रूप से सच है। अधिकांश बहुभाषी व्यक्ति घर पर एक ही भाषा बोलते हुए बड़े हुए हैं, यहां तक कि उन देशों में भी जहां कई अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं।
हालांकि सरल विषयों पर चर्चा करते समय परिवार के सदस्यों के लिए एक-दूसरे को समझना संभव हो सकता है, लेकिन गहरी बातचीत चुनौतीपूर्ण हो सकती है क्योंकि कोई भी पक्ष विशिष्ट शब्दों और अभिव्यक्तियों से परिचित नहीं है जो सार्थक बातचीत को सक्षम बनाता है।
- भाषा की समस्या
बहुभाषी शिक्षा की एक और चुनौती भाषा दक्षता है। जो बच्चे एक से अधिक भाषाएं बोलते हुए बड़े होते हैं, उनके लिए भाषा संबंधी समस्याओं का समाधान करना काफी कठिन हो सकता है, चाहे वह उच्चारण या व्याकरण के साथ शारीरिक या प्राकृतिक चुनौतियों के कारण हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रत्येक भाषा में दोषों को आंशिक रूप से ठीक किया जाना चाहिए, जिससे किसी एक भाषा में मूल-स्तरीय दक्षता विकसित करना अधिक कठिन हो जाएगा।
- योग्य शिक्षकों की कमी
बहुभाषावाद की चुनौतियों में से एक योग्य शिक्षकों की कमी है जो विभिन्न भाषाओं में पढ़ा सकें। कई बोलियों और संस्कृतियों में पारंगत होने के लिए काफी प्रयास की आवश्यकता होती है, जिसे हर कोई समय और धन के मामले में वहन नहीं कर सकता है। हालाँकि द्विभाषी होना एक मूल्यवान कौशल माना जाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह किसी विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता में तब्दील हो जाए।
- किसी छात्र का ध्यान किसी भिन्न विषय पर बदलें
इसके अलावा, कई भाषाओं का अधिग्रहण एक छात्र के शैक्षणिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, खासकर अगर अंग्रेजी उनकी पहली भाषा नहीं है। उनके लिए अन्य विषयों पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो सकता है, और कुछ शिक्षक सुझाव दे सकते हैं कि वे अपना ध्यान कहीं और केंद्रित करें।
- सीखने की उच्च लागत
एक अन्य मुद्दा नई भाषा सीखने की उच्च लागत है। किसी भाषा की बारीकियों और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने में समय लगता है, और हर कोई उनके बारे में जानने के लिए यात्रा करने या किताबें और सामग्री खरीदने का जोखिम नहीं उठा सकता।
इन चुनौतियों के बावजूद, बहुभाषावाद के लाभ और कमियों को जानना उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं। कई भाषाओं में महारत हासिल करने से व्यक्तिगत और व्यावसायिक लाभ मिल सकते हैं, जिससे व्यक्ति प्रतिस्पर्धा से अलग हो सकते हैं।
घर की भाषा, भाषा का भावों से गहरा संबंध होता है। बालक माता के दूध के साथ-साथ घर की भाषा भी सीखता है। भाषा का प्रयोग बालक के घर में उसके माता-पिता तथा बंधुगण करेंगे, वही भाषा बालक भी सीखेगा। यह संबंध केवल अनुकरणात्मक ही न होकर, भावात्मक भी होता है। बालक अपने माता-पिता से स्नेह करता है और उसके माता- पिता भी उसे बड़ा प्यार करते हैं।
इसी कारण बालक सर्वप्रथम अपने घर की भाषा सीखता है। घर की भाषा के साथ उसका संबंध धीरे-धीरे इतना गहरा हो जाता है कि वह जो कुछ भी सोचता है वह घरेलू भाषा में ही सोचता है। कालांतर में अन्य भाषाओं का प्रयोग करने की क्षमता का विकास हो जाने पर भी वह जितनी सुगमता से घरेलू भाषा का प्रयोग करता है, उतना किसी अन्य भाषा का नहीं । प्रौढ अवस्था में भी घर की भाषा का जो संबंध व्यक्ति के जीवन में होता है वह किसी अन्य भाषा से नहीं होता है। व्यक्ति किसी भी समय सोते-जागते अपने विचारों की अभिव्यक्ति जितनी सहजता से घर की भाषा में कर लेता है उतना अधिकार उसका किसी अन्य भाषा में कभी नहीं हो पाता है। प्रांतीयता की भावना का विकास इसी आधार पर होता है क्योंकि घरेलू भाषा हमें अभिव्यक्ति की सहजता प्रदान करती है।
घर की भाषा का महत्त्व (Importance of home language)
घर की भाषा वह होती है जो बालक माता से सीखता है अत: इसे मातृभाषा नाम से भी जाना जाता है। आत्म निर्देशन हेतु तथा भावों की अभिव्यक्ति के लिए तथा दूसरों के विचारों को ग्रहण करने के लिए मानव को किसी-न- किसी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है, परंतु अपने अंतर्द्वन्हों, उद्वेगों तथा मनोभावों का अभिव्यंजन जितनी सुंदरता, सरलता तथा स्पष्टता से वह अपनी बरेलू भाषा में कर सकता है उतना किसी अन्य भाषा में नहीं। अपने समाज के शिष्ट जन जिस भाषा में विचार-विनिमय, कामकाज, लिखा-पढ़ी करते हों, वही घरेलू भाषा या मातृभाषा है। जिस भाषा का प्रयोग बालक माता से सीखता है और जिसके माध्यम से वह अपने परिवार एवं समुदाय में अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है, सही अर्थ में उस बालक की वही मातृभाषा है किन्तु उत्तर प्रदेश में गाँव के बालक प्रारम्भ में अपनी भावाभिव्यक्ति प्रायः अवधी, ब्रज, भोजपुरी बोलियों के माध्यम से करते हैं फिर भी उत्तर प्रदेश के शिष्ट समाज के विचार-विनिमय का माध्यम खड़ी बोली हिन्दी है। उत्तर प्रदेश की मातृभाषा हिन्दी ही है, न कि कोई बोली विशेष और छात्र को इसी हिन्दी का ज्ञान कराना है। भाषा की गतिशीलता के कारण प्रत्येक भाषा की अनेक उपभाषाएँ और बोलियाँ सन्निहित होती हैं। वस्तुत: माता जिस बोली अथवा उपभाषा को बोलती है वही बालक की घरेलू अथवा मातृभाषा होती है। हम अपनी प्रादेशिक बोली बोलते परंतु बाहरी व्यवहार में नागरी हिन्दी बोलते या लिखते अतः हमारी हिन्दी ही हमारे विचारों कार्यों का संकलन यही हमारे मस्तिष्क संस्थान अभिन्न अंग इसी के हम अपनी आत्मरक्षा के भावों व्यक्त करते हैं। साथ वे गुण जिनकी विद्यमानता योग्य नागरिकों के आवश्यक है, इसी द्वारा सुगम है, अर्थात् स्पष्ट चिंतन, मष्ट अभिव्यंजन, विचारों तथा क्रियाओं की यथार्थता, संवेगात्मक एवं रचनात्मक जीवन पूर्णता समुचित के अभिव्यक्त सकती है।
घर की भाषा को मातृभाषा भी कहा जाता है। मातृभाषा मनुष्य के विकास की आधारशिला होती हैं। मातृभाषा में ही बालक इस संसार में अपनी प्रथम भाषिक अभिव्यक्ति देता हैं। मातृभाषा वस्तुतः पालने या हिंडोल की भाषा हैं। बालक अपनी माँ से लोरी इसी भाषा में सुनता हैं, इसी भाषा में बालक राजा-रानी और परियों की कहानी सुनता है और एक दिन यही भाषा उस शिशु की तुतली बोली बनकर उसके भाव-प्रकाशन का माध्यम बनती हैं। इस प्रारंभिक भाव-प्रकाशन में माँ-बेटे दोनों आनन्द-विभोर हो जाते हैं। महात्मा गांधी जी ने मातृभाषा की श्रेष्ठता को समझाते हुए कहा हैं,” मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही जरूरी हैं, जितना की बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध। बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता हैं, इसलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभूमि के विरूद्ध पाप समझता हूँ। बच्चे की शिक्षा में मातृ भाषा का विशेष महत्व होता हैं। मातृ भाषा शिक्षा का सर्वोत्तम साधन होती है। मातृभाषा के महत्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता हैं-
- मानसिक विकास
मानसिक विकास के लिए विचार शक्ति की जरूरत होती है। विचारों का प्रवाह मातृ भाषा के द्वारा ही हो सकता हैं। विचार, भाषा को जन्म देते हैं और भाषा विचारों को जन्म देती हैं जिस व्यक्ति के पास जितनी सशक्त मातृभाषा होगी उतनी ही उसकी विचार शक्ति सुदृढ़ होगी।
- सामाजिक विकास
भाषा में साहित्य का निर्माण होता है। भाषा साहित्य के द्वारा ही समाज में परिवर्तन होता है तथा सामाजिकता का विकास होता है। इस कार्य के लिए मातृभाषा अत्यंत उपयुक्त साधन हैं। जो बच्चों को भाषा के माध्यम से घर से ही किया जाता है।
- नैतिकता का महत्व
भाषा के क्षेत्र में मातृभाषा ही एक ऐसा साधन है जो भौतिक तथा चारित्रिक गुणों को विकसित करती हैं।
- व्यक्तित्व का विकास
मातृभाषा के ज्ञान पर बालकों के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता हैं। बालक के बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास में मातृभाषा ही सहायक होती है। बालक के मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने पर उसके शारीरिक अवयवों पर दबाव भी नही पड़ता है तथा सुनने, बोलने, लिखने एवं पढ़ने आदि से संबंधित सभी इन्द्रियों का विकास ठीक से होता है। मातृभाषा से मस्तिष्क और ह्रदय स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करते हैं जबकि यदि शिक्षा अन्य भाषा में दी जाए तो मानसिक तनाव बढ़ सकता है।
- सृजनात्मक विकास
भाषा के द्वारा व्यक्ति स्वतंत्र रूप से मनन, चिन्तन तथा वैचारिक अभिव्यक्ति करने में सफल हो पाता है। मातृ भाषा का चिन्तन मौलिक चिंतन होता है जो कि मातृ-भाषा के द्वारा ही संभव हैं। अतः इस मौलिकता में सृजनात्मकता का विकास होता हैं।
- उत्तम नागरिकता
मातृ-भाषा व्यक्ति में मानवीय जीवन को कला का ज्ञान कराती है। मातृ-भाषा अपने घर व समाज के प्रति व्यवहार के साथ उत्तम नागरिकता के गुणों का विकास करती हैं। यह कार्य मातृ-भाषा के माध्यम से सफलतापूर्वक पूरा होता हैं।
- सांस्कृतिक जीवन का महत्व
जीवन में सांस्कृतिक का अत्यधिक महत्व हैं। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति के मूलभूत संस्कारों का ज्ञान होता है तथा यही सांस्कृतिक विचार, संस्कार के रूप में जीवन-दर्शन को शाश्वत बनाये रखते हैं।
विद्यालय की भाषा (School language)
बालक विद्यालय में जिस भाषा में शिक्षा ग्रहण करता है वह विद्यालय की भाषा कही जाती है। विद्यालय में बालक को घर से बिल्कुल भिन्न वातावरण मिलता है। वहाँ उससे यह आशा की जाती है कि वह चुपचाप शांत होकर बैठा रहे। उसे जैसा कहा जाए वह वैसा ही करे। जो प्रश्न उससे पूछ जाएँ, उन्हीं का वह उत्तर दे। उसके सामने नये-नये विचार तथा नई-नई बातें आती हैं और इसे इसका प्रमाण देना होता है कि उसने उन नए विचारों को तथा नई बातों को जल्दी से जल्दी ग्रहण कर लिया है। यहाँ प्रत्येक बात बालक को घर से भिन्न मिलती है और यदि कभी-कभी वह यह देखते हैं कि बहुत से बालक अपने आप को इस नवीन वातावरण के अनुकूल बनाने में असमर्थ पाते हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं और यदि भाषा भी जिसमें यह सब नई बातें रखी जाती हैं, उसकी मातृभाषा से भिन्न है तो बालक की कठिनाइयाँ कितनी बढ़ जाएँगी इसका अनुमान हम भलीभाँति लगा सकते हैं। यदि बालक को पाठशाला में आते हुए बहुत समय हो भी जाए, फिर भी उसे भिन्न-भिन्न विषयों में ढेर सारे पाठ पढ़ने होंगे। वह भूगोल अथवा इतिहास का पाठ सरलता से समझ सकेगा, यदि वह उसकी घरेलू भाषा में पढ़ाया जाएगा। दूसरी भाषा के माध्यम से इन विषयों में पढ़ाने में बालक पर भार बढ़ जायेगा और उसकी प्रगति अत्यन्त धीमी होगी।
जिस भाषा का प्रयोग बालक अपने घर में करता है, उसमें शिक्षा देने से घर और पाठशाला का संबंध निकटता का बनाया जा सकता है जो कुछ बालक पाठशाला में पढ़ेगा, उसका प्रयोग वह घर में कर सकता है। इसके अतिरिक्त, माता-पिता भी पाठशाला की समस्याओं को अच्छी प्रकार से समझ सकेंगे और बालक की शिक्षा में पाठशाला को कुछ योगदान दे सकेंगे। माता-पिता किसी भी प्रकरण को घरेलू भाषा में जितनी अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं उतना अन्य भाषाओं में नहीं। इसके अतिरिक्त बालक भी कोई भी प्रकरण जितनी अच्छी तरह से घरेलू भाषा में सोख लेता है उतना अन्य भाषाओं के प्रयोग से नहीं सीख पाता है।
घरेलू भाषा की अपेक्षा विद्यालय में प्रयोग की जाने वाली भाषा के स्तर की शक्ति अधिक आँकी जाती है। इसका प्रमुख कारण यही है कि विभिन्न विषयों का पठन छात्र विद्यालयीय भाषा में करता है और उस भाषा का निरंतर उपयोग करने से उस भाषा पर भी पकड़ उत्पन्न हो जाती है। बालक विद्यालयीय भाषा में ही वाचन करता है तथा मौखिक अभिव्यक्ति के लिए भी विद्यालयीय भाषा का ही प्रयोग किया जाता है। विद्यालयीय भाषा में विभिन्न विषयों को पढ़ने तथा मौखिक अभिव्यक्ति के लिए भी उसी का सहारा लेने के कारण उसकी शक्ति अधिक मानी जाती है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकें भी विद्यालयीय भाषा में होती हैं, जिनका छात्र को निरंतर उपयोग करना पड़ता है। पाठ्य पुस्तकों में कई प्रकरण होते हैं जिन पर छात्र भाषण दे सकता है तथा वाद-विवाद कर सकता है। इस प्रकार के प्रकरणों से छात्र विद्यालयीय भाषा का प्रयोग शीघ्रता से सीख लेता है और उसमें प्रवीणता भी अर्जित कर लेता है।
विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं का मूल्यांकन भी विद्यालयीय भाषा में ही होता है। पठित सामग्री पर विद्यालयीय भाषा में ही प्रश्न पूछे जाते हैं तथा निष्कर्ष निकाला जाता है। बालक विद्यालयीय भाषा के व्याकरण से भी परिचित हो जाता है। वह विद्यालयीय भाषा में इतना प्रवीण हो जाता है कि शब्दों का लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ जान लेता है। अनुक्रमणिका परिशिष्ट, पुस्तक सूची आदि के प्रयोग की योग्यता भी प्राप्त कर लेता है। विविध साहित्यिक विधाओं -निबंध, नाटक, कहानी, उपन्यास, जीवनी, संस्मरण आदि के प्रमुख तत्वों की पहचान कर सकने की योग्यता उसमें विद्यालयीय भाषा के कौशल में प्रवीण होने के कारण ही आती है। विद्यालयीय भाषा के निरंतर प्रयोग से उसमें बोधगम्यता, अर्थ ग्राह्यता तथा समीक्षात्मक योग्यता का भी विकास हो जाता है। विभिन्न प्रकार के गद्य तथा पद्य साहित्य के सौन्दर्य बोध का ज्ञान तथा उनका अभिव्यक्तिकरण जितना अच्छी तरह से वह विद्यालयीय भाषा में कर सकता हैं, उतना अन्य भाषाओं में नहीं और यदि विद्यालयीय भाषा तथा मातृभाषा एक ही हो तो भाषा पर उसकी पकड़ बहुत ही सुदृढ़ होती है। इस प्रकार विद्यालयीय भाषा की शक्ति में गत्यात्मकता अधिक होती है।
बोली-एक क्षेत्र विशेष में बोली जाने वाली भाषा का विशिष्ट रूप बोली कहलाता है। अर्थात छोटे से कस्बे या क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है। बोली का साहित्य लिखित न होकर मौखिक ही रहता है इसकी लिपि नहीं होती है।
भाषा का क्षेत्रीय रूप बोली कहलाता है। बोलियाँ छोटे भू-भाग तक सिमित होती हैं। बोली में ही मुहावरे, लोकोक्तिया, लोकगीत, लोककथाओं आदि का सौंदर्य देखा जा सकता है।
लिखित साहित्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार का सौंदर्य बोली से प्रकट होता है। केवल प्रचलित मौखिक रूप होने के कारण यह स्थान-स्थान पर बदलती रहती है। इसकी तुलना में भाषा का क्षेत्र व्यापक होता है।
प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण हो जाता है और उस बोली के बोलने या लिखने वाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते हैं तथा वह बोली भावाभ्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है। किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि समाजिक व्यवहार और शिक्षा व साहित्य में उसका क्या महत्व है। अनेक बोलियाँ मिलकर किसी एक भाषा को समृद्ध करती हैं। इसी प्रकार एक समृद्ध भाषा अपनी बोलियों को समृद्ध करती है। अतः कहा जा सकता है कि भाषा व बोलियाँ परस्पर एक दूसरे को समृद्ध करते हैं।
1- बोलियाँ भाषा की क्षेत्रीय रूप होती हैं
2- बोली में साहित्य रचना नहीं होती है
3- बोली स्वतंत्र होती है
4- बोलियों को व्याकरण की जरूरत नही होती है
सभी व्यक्तियों के जीवन मे प्रथमभाषा का स्थान सर्वोपरि है। बालक प्रथमभाषा अपने माता-पिता से सुनकर स्वाभाविक रूप में अनुकरण से सीखता है। इस भाषा से उसका निकट का सम्बन्ध होता है। अपन आत्मीय भावनाओ एवं विचारों को यथार्थ रूप में प्रथमभाषा के माध्यम से प्रस्तुत करता है और सुविधा ओ सरलता से अभिव्यक्ति कर लेता है। शिक्षा ग्रहण करने में भी प्रथमभाषा का स्थान महत्त्वपूर्ण है।
प्रथम भाषा का अर्थ (Meaning of First Language)
प्रथम-भाषा का अर्थ सामान्य रूप में माता-पिता के अनुकरण से सीखी हुई भाषा मानते हैं, बालक अपने माता-पिता से जो भाषा सीखता है, उसे प्रथम भाषा कहा जा सकता है। माता-पिता या परिवार से सीखी हुई भाषा को या घर की बोली को माता की भाषा कहा जाता है और समाज द्वारा स्वीकृत मानक भाषा को प्रथमभाषा कहते हैं। भारत जैसे विशाल देश में अनेक बोलियाँ प्रयुक्त होती है, जैसे ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि बोलियाँ हैं भाषा नहीं है जिन्हें भ्रम-वश ब्रजभाषा भी कहते हैं वास्तव में ब्रज की बोली है। क्योंकि बालक जिस क्षेत्र में जन्म लेता है वहाँ की बोली घर से सीख लेता है। परन्तु विद्यालय में आने पर शुद्ध ‘खड़ी हिन्दी’ बोली के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करनी होती है। खड़ी हिन्दी को प्रथम भाषा माना जाता है क्योंकि यह समाज स्वीकृत मानक भाषा है खड़ी बोली का हिन्दी साहित्य में उपयोग किया जाता है। माता-पिता की भाषा का परिष्कृत रूप है।
“माता-पिता या परिवार के सदस्यों के अनुकरण द्वारा सीखी और सहज बोली का परिष्कृत रूप ‘प्रथम भाषा’ कहलाती है, यह समाज स्वीकृति मानक भाषा होती है।”
साधारणतः शिक्षित परिवारों में परिष्कृत भाषा ही बोली जाती है। इसलिए माता-पिता की बोली को सीखने को ही प्रथम भाषा कहते हैं। प्रथमभाषा की अवधारणा तथा अर्थ-शिक्षित समाज के सन्दर्भ में किया गया है।
‘प्रथम भाषा’ का मूल अर्थ वह भाषा है जो बच्चे की माँ की भाषा होती है।
जिस भाषा को बच्चा अनुकरण द्वारा सीखता है उसे प्रथमभाषा कहते हैं। अथवा बालक अपने परिवार में जन्म से ही जिस भाषा को सीखता है वही उसकी प्रथमभाषा है।
अपने बाल्यकाल से बालक अपने परिवार में रहता हुआ अपने माता-पिता, भाई-बहनों, अपने साथियों का अनुकरण करके जिस भाषा को ग्रहण करता है वह ही उसकी प्रथमभाषा होती है। यदि बच्चे को जन्म लेते ही ऐसे परिवार में छोड़ दिया जहाँ की भाषा उसके परिवार से भिन्न है। तो निश्चित ही वह उस भाषा को सीखेगा जिसमें उसका पालन-पोषण हुआ है। अतएव उस भाषा को ही मातृभाषा कहना चाहिए जिसे कोई बालक प्रारम्भ से ही अपने पर्यावरण से सीखता है। और जिस पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार होता है।
प्रथम भाषा का महत्त्व (Importance of First Language)
प्रथमभाषा भी वन्दलीय होती है। यह बालक की शिक्षा का आधार होती है। हमारी शिक्षा का कोई भी उद्देश्य क्यों न हो, उसकी प्राप्ति में प्रथमभाषा का स्थान सर्वोपरि होता है। प्रथमभाषा का ज्ञान विकास के लिए आवश्यक है। प्रथमभाषा के ज्ञान के अभाव में शिक्षा का विकास असम्भव है। इसी कारण आज संसार के लगभग सभी देशों में प्रथम भाषा के महत्त्व को समझते हुए इसी के माध्यम से शिक्षा देने का प्रयोजन है। (प्रथम भाषा) के महत्त्व की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं-
- प्रथम भाषा और छात्रों का शारीरिक विकास
शारीरिक विकास के लिए जितना आवश्यक पौष्टिक भोजन होता है उतना ही आवश्यक पूरी नींद सोना और प्रसन्नचित रहना। (प्रथम भाषा) इस आवश्यकता की पूर्ति में सहायक सिद्ध होती है। माताएँ शिशुओं को संगीत-प्रधान ध्वनियों (लोरियों) के उच्चारण द्वारा प्रसन्न करती हैं और निद्रा-मग्न कराती हैं। इसलिए प्रथम भाषा को पालने की भाषा भी कहा जाता है। बाल्यकाल में बच्चे अपनी तोतली बोली में बातचीत कर प्रसन्न होते हैं। यह भी सभी ने देखा है- प्रथम भाषा के सामान्य अध्ययन के पश्चात् जब बच्चे उसके साहित्य के अध्ययन की ओर बढ़ते है तब उन्हें सच्चे आनन्द की अनुभूति होती है।
- प्रथम भाषा और छात्रों का बौद्धिक एवं मानसिक विकास
मानसिक एवं बौद्धिक विकास कौं दृष्टि से भी प्रथमभाषा का अपना महत्त्व है। मानसिक विकास के लिए सबसे पहली आवश्यकता विचार की शक्ति होती है।
- प्रथम भाषा और छात्रों का भावात्मक विकास
बच्चे, प्रथम भाषा को माता और मातृ-भूमि के समान बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। यही कारण है कि एक प्रथम-भाषा-भाषी व्यक्तियों में आपस में प्रेम रहता है, वे एक-दूसरे से सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं, बड़ों का अभिवादन तथा छोटों को प्यार करते हैं और एक-दूसरे की सहायता करते है। एक भाषा-भाषी व्यक्तियों के बीच को सद्भावना रहती है वह भिन्न भाषा-भाषी व्यक्तियों के बीच नहीं रहती है।
- प्रथम भाषा से छात्रों में सांस्कृतिक विकास
प्रत्येक बालक का अपनी प्रथम भाषा तथा उसके साहित्य से विशेष लगाव होता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। प्रथमभाषा में लिखित साहित्य वास्तव में जातीय, संस्कृति, सभ्यता और रीति-रिवाजों का प्रतिनिधित्त्व करता है। प्रथम भाषा में हमारी संस्कृत्ति का इतिहास निहित रहता है। उसके द्वारा हम अपने परिवार, जाति, देश और समभाषा-भाषियों से एक सूत्र में बंधते जाते हैं।
- प्रथम भाषा और छात्रों का सामाजिक विकास
प्रथम भाषा बालक को सामाजिक स्वरूप प्रदान करती है। बालक प्रथम भाषा में ही बोलना, लिखना, तर्क करना, भाषण देना आदि सीखता है। वह अपने विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति जितनी प्रभावोत्पादकता के साथ करेगा, समाज में उसकी स्थिति उतनी ही दृढ़ होगी। मनुष्य को समाज के रूप में संगठित और विकसित करने का सर्वोत्तम श्रय प्रथम भाषा को ही है। कोठारी आयोग ने कई राष्ट्रीय लक्ष्यों में से एक लक्ष्य सामाजिक एकता प्राप्त करना भी बताया है।
- प्रथम भाषा और छात्रों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास
यह सभी भली प्रकार जानते हैं कि बच्चों पर प्रारम्भिक जीवन के पड़े संस्कार एवं विचार अमिट छाप छोड़ते हैं और वे ही उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। बच्चों के नैतिक विकास में परिवार एवं उसके सदस्यों का विशेष हाथ रहता है।
- प्रथम भाषा शिक्षा प्रदान करने का सर्वोत्तम साधन
प्रथम भाषा विचार विनिमय का सर्वोत्तम है। साधन माना जाता है। इसलिए यह शिक्षा प्रदान करने का भी सर्वोत्तम साधन है। अतएव यह अन्य विषयों की भूमि के भांति एक विषय मात्र ही नहीं है वरन् यह एक आधारभूत साधन है जिसके अध्ययन एवं अध्ययापन पर सम्पूर्ण शिक्षा अवलम्बित है।
द्वितीय भाषा (Second Language)
भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिया गया, परन्तु अग्रेजी का प्रभाव कम नहीं हुआ और अंग्रेजी हावी होती जा रही है। भारत बहुभाषी देश है, परन्तु हिन्दी को पढ़ने और समझने वालों की संख्या अधिक है। परन्तु क्षेत्रीय भाषाओं अथवा मातृभाषाओं का अपना महत्त्व है। अहिन्दी भाषी प्रदेशो में हिन्दी को द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है क्योंकि हिन्दी को राज भाषा के पद पर रखना चाहते हैं। हिन्दी को सभी प्रदेश विविध कार्यकलापों की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।
साधारणतः प्रत्येक भाषा की दो स्थितिया होती हैं—
पहली मातृभाषा के रूप में, तथा द्वितीय भाषा के रूप में एक व्यक्ति अनेक भाषाओं को सीख लेता है। यह कहावत है, कि यदि एक व्यक्ति को एक भाषा आती है। वह एक मनुष्य के समान होता है। यदि कोई एक व्यक्ति चार भाषाओं को जानता है। वह चार व्यक्तियों के समान होता है। मातृभाषा को स्वाभाविक रूप में ही सीखा जाता है। परन्तु द्वितीय भाषा को सीखने का प्रयास किया जाता है। जिसमें मातृभाषा की सहायता की जा सकती है। द्वितीय भाषा सीखने में मातृभाषा सहायक होती है।
द्वितीय भाषा शिक्षण की आवश्यकता (Need of Second Language Teaching)
मातृभाषा को अपने विचार एवं भावो के सम्प्रेषण से स्वाभाविक रूप में सीख लेते हैं। परन्तु द्वितीय भाषा को सामाजिक तथा आर्थिक दबाव के कारण सीखते हैं। कुछ व्यक्ति ही द्वितीय भाषा को स्वेच्छा से सीखने का प्रयास करते है। द्वितीय भाषा व्याकरण की दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक कठिन होती है। द्वितीय भाषा सीखने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(1) हिन्दी भाषा का द्वितीय भाषा के रूप में राजनैतिक दबाव के कारण अहिन्दी प्रदेशों में शिक्षण किया। जाता है। ‘त्रिभाषा सूत्र’ के अनुपालन के लिए हिन्दी को अहिन्दी प्रदेशों में पढ़ाया जाता है।
(2) आर्थिक- नौकरी, आर्थिक सुविधाए आदि।
(3) सांस्कृतिक- शिक्षित व्यक्ति संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच आदि में सांस्कृतिक प्रेरणा लेता है।
(4) प्रशासनिक- उच्च पद, विशेष भत्ते अथवा शासितों की भाषा इसी कारण सीखते है।
(5) राजनैतिक- मित्र देश, बलवान पड़ौसी एक दूसरे की भाषा सीखकर पर शासन करने के लिए।
(6) सैनिक- विदेशी सेवा में काम करने वाले सैनिक अन्य भाषा सीख जाते हैं।
(7) ऐतिहासिक- भारत में अंग्रेजी, फारसी को सीखने की प्रवृत्ति रही है।
(8) धार्मिक- इस्लाम के कारण अरबी, ईसाई धर्म के कारण ग्रीक, लैटिन सीखना, सामाजिक दबाव के अतिरिक्त जो अन्य तत्त्व अन्य भाषा-शिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कक्षा प्रवचन का अर्थ (Meaning of Classroom Discourse)
संकेतो के द्वारा सम्प्रेषण होते हुए भी मौखिक तथा लिखित भाषा ही मनुष्यों में सम्प्रेषण का एक श्रेष्ठ माध्यम है। प्रवचन का अध्ययन पूरी तरह से संदर्भ पर निर्भर है क्योंकि वार्तालाप में केवल बोले गए शब्दों से परे स्थितिजन्य ज्ञान शामिल होता है। कई बार, किसी आदान-प्रदान का केवल मौखिक उच्चारण से अर्थ नहीं निकाला जा सकता क्योंकि प्रामाणिक संचार में कई अर्थ संबंधी कारक शामिल होते हैं। प्रवचन का उपयोग भाषा के उपयोग के विशेष संदर्भों को संदर्भित करने के लिए किया जा सकता है, और इस अर्थ में, यह शैली या पाठ प्रकार जैसी अवधारणाओं के समान हो जाता है ।
कक्षा प्रवचन की परिभाषा (Definition of Classroom Discourse)
“व्यक्तियों के व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए भाषा हर प्रकार से एक शक्तिशाली प्रविधि हैं। भाषा के समान शक्तिशाली कोई भी ऐसी चीज नही है जिसकी खोज मनोवैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में कर सकें।”
कक्षा प्रवचन में शिक्षक की भूमिका
1- एक शिक्षक को छात्रों को सीखने में आसान बनाने में मदद करने, मार्गदर्शन करने और एक अनुकूल वातावरण प्रदान करके सीखने की सुविधा प्रदान करना है।
2- शिक्षक ज्ञान और जानकारी देता है, छात्रों के स्तर को बहुत स्पष्ट और सरल तरीके से उपयुक्त करता है ताकि वे नई जानकारी को सीख सकें और अवधारणा बना सकें।
3- अगर शिक्षक नए ज्ञान का तालमेल छात्रों के पूर्व ज्ञान के साथ बैठाता है तो अधिगम में बेहतर नतीजे प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए शिक्षक कक्षा के भीतर व्याख्यानकर्ता की जगह महज सुविधादाता होगा तो शिक्षार्थियों के भीतर छिपी संभावनाओं को बेहतर तरीके से सामने लाया जा सकता है।
भाषा के प्रभाव के कारण एक व्यक्ति वह कार्य कर सकता है जिसके सम्बन्ध में उसने विचार तक न किया हो। भाषा सम्प्रेषण के द्वारा लोगों के विचार और विश्वासों को सरलता से बदला जा सकता है। इसके कारण लोगों को धोखा दिया जा सकता है, खुश किया जा सकता है और दुखी भी किया जा सकता है। भाषा सम्प्रेषण के द्वारा लोगों में नये विचार उत्पन्न किये जा सकते हैं, एक व्यक्ति को उन वस्तुओं की आवश्यकता का अनुभव कराया जा सकता है, जो उसके पास नहीं है। इतना ही नहीं इसके द्वारा व्यक्ति स्वयं को भी नियन्त्रित कर सकता है, प्रत्येक दृष्टि से यह सार्वभौमिक स्तर का एक शक्तिशाली औजार है।
यह देखा गया है कि व्यक्तियों में भाषा द्वारा सम्प्रेषण के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे- सूचना या जानकारी के लिए सम्प्रेषण कर सकते हैं। दूसरों से सहायता, दूसरों को आज्ञा देना, दूसरों से वायदा करने या अपने विचार व्यक्त करने के लिए सम्प्रेषण करते हैं। यह भी देखा गया है कि भाषा द्वारा सम्प्रेषण इसलिए किया आता है कि लोग राजी (Persuade) हो जाये एक विशेष ढंग से व्यवहार करने के लिए या अपने विचारों को बदलने के लिए। प्रत्यापन (Persuation) सम्प्रेषण का सामान्य किन्तु महत्वपूर्ण कारक है इस प्रकार की समस्याओं का अध्ययन सामाजिक अन्तः क्रियाओं में रूचि रखने वाले मनोवैज्ञानिकों ने किया है।
साधारण भाषा में नयी-नयी वस्तुओं के लिए शब्द नही होते हैं। विशेष रूप से उन वस्तुओं के लिए जो आधुनिक विज्ञान की खोजें है। इन वस्तुओं के लिए नये-नये शब्द भी अपनाये या खोजे जाते हैं, ताकि सम्प्रेषण मे कठिनाई न हो। नये-नये शब्दो के बढ़ने के कारण भाषा का रूप दिन-प्रतिदिन विशाल होता जा रहा है। और साथ-ही-साथ भाषा की अस्पष्टता और असमर्थता दिन-प्रतिदिन दूनी होती जा रही है। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन भाषा की शक्ति बढ़ती जा रही है, और बढ़ती जायेगी। यदि इसी गति से भाषाओं की शक्ति बढ़ती रही तो इसको कल्पना करे कि अगले एक हजार या दो हजार साल बाद भाषा की क्या शक्ति होगी? यदि टेक्नोलॉजी का विकास इसी प्रकार होता रहा तो एक दिन निश्चय ही टेलीफोन पर बातचीत करते हैं समय टेलीफोन में फोटो भी दिखाई देगी। आज भी उच्च तकनीकी साधनों द्वारा सम्प्रेषण सरल हो गया है और इसका दायरा बढ़ गया है।
भाषा का एक सबसे बड़ा दोष देखा गया है। जिसके कारण सम्प्रेषण में कठिनाई होती है, वह यह कि संसार के व्यक्ति कई प्रकार की भाषाएँ बोलते है जिसके कारण बहुत-से व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के विचारों को समझ नहीं सकते हैं। विश्व के कुछ महान और सभ्य व्यक्तियो का यह स्वप्न रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी राष्ट्र भाषा के साथ-साथ एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा को भी सीखना चाहिए। कुछ व्यक्तियों का यह विचार है कि रहस्यमय ज्ञान की भाषा द्वारा व्यक्त करना कठिन है। इस प्रकार की सहायता बहुधा उन व्यक्तियों द्वारा की जाती है, जिन्होंने विभिन्न मादक पदार्थों का सेवन किया है। यह व्यक्ति अपने उन अनुभवों को सम्प्रेषित करने के लिए भाषा चाहते हैं। क्योंकि उन्हें यह साधारण भाषा लगड़ी और अपूर्ण दिखाई देती है। ऐसे व्यक्ति बहुधा अपने रहस्यमय विचारों को अलंकारों या गीतों द्वारा सम्प्रेषित करते हैं।
भाषा का वह रूप जिसमें व्यक्ति अपने विचारो को बोलकर प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति सुनकर उसे समझता है। मौखिक भाषा कहलाती है। इसमें वक्ता बोलकर अपनी बात कहता है व श्रोता सुनकर उसकी बात समझता है।
मौखिक भाषा का महत्त्व (Importance of oral language in the Classroom)
बालक को विशेष वातावरण एवं व्यक्ति तथा वस्तु के सम्पर्क में आने पर परस्पर सम्बन्धों का बोध होता है। वह भाषा के माध्यम से संकेतों को प्रकट करके उस वस्तु व्यक्ति तथा वातावरण से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। बालक को भाषागत सम्बोधों के निर्माण एवं विकास के लिए शिक्षक/कार्यकर्त्ता को निम्नांकित क्रियाएँ करनी चाहिए तथा मौखिक अभिव्यक्ति जो भाषागत सम्बन्ध का एक सशक्त माध्यम है, को भी समझना होगा।
1- बच्चों के लिए आत्म-अभिव्यक्ति का महत्व (Importance of self-expression for children)
मौखिक कार्य का उद्देश्य बालको में वह आत्मविश्वास जगाना है जिससे कि वे अपने विचारों को सरलता एवं स्पष्टतापूर्वक व्यक्त कर सकें। मौखिक कार्य से बालकों की झिझक दूर होती है और वे अपना अभिप्रायः सरलता से समझ सकते हैं। मौखिक कार्य से बालकों को प्रभावशाली तथा रोचक ढंग से बातचीत करने का अवसर मिलता है। जिन वस्तुओं अथवा विषयों में बालकों की रुचि हो, उनके सम्बन्ध में वे प्राय: बातचीत करते देखे जाते हैं। अतः प्रारम्भ में उन्हें स्वाभाविक रूप से अपने विचारों को प्रकट करने का अवसर प्रदान करना चाहिए। उनके नित्यप्रति के अनुभवों को व्यक्त करने का अवसर उन्हें मिलना चाहिए; इन सबसे बालकों में अपने आप अभिव्यक्ति की स्पष्टता तो आयेगी ही, वे भाषा में गति लाने का प्रयास भी करने लगेंगे।
वार्तालाप से भाषण तक पहुँचने के लिए बालक अपनी जिज्ञासाओं के समाधान हेतु प्रश्नोत्तर, कल्पनाओं को उड़ान देने हेतु कहानी, घटना और अनुभव कथन तथा भाषा को सजीव बनाकर, शैलीगत विशेषताओं के परिचय हेतु दृश्य, यात्रा और चित्र वर्णन की सीढ़ियाँ पार करता है। वाद-विवाद, विचार-विमर्श तथा व्याख्याओं का आधार लेकर बालक भाषण की उचित योग्यता प्राप्त करता है।
2- बच्चों के लिए आत्म-विश्वास से लाभ (Benefits of self-confidence for children)
मौखिक भाषा के प्रयोग से संक्षेप में बालकों के निम्नलिखित लाभ होते हैं-
- बालक की झिझक दूर हो जाती है।
- भाषा विषयक उच्चारण शुद्ध होता है।
- व्यावहारिक कुशलता प्राप्त होती है।
- भाव स्पष्टीकरण की क्षमता भी बढ़ती है।
- लिखित भाव- प्रकाशन की क्षमता भी बढ़ती है।
- छात्र कुशल वक्ता बनकर समाज को प्रभावित कर सकता है एवं समाजोद्धार के कार्य कर सकता है।
- विद्यार्थियों में क्रमिक रूप से निरन्तर बोलते जाने की क्षमता उत्पन्न होती है।
- अभिव्यक्ति के समय आने वाले शब्दों की विवेचना करके शब्द भण्डार में वृद्धि की जा सकती है।
- अभिव्यक्ति से छात्रों को बलपूर्ण, उत्साहयुक्त, जीवन शक्ति से पूर्ण लिखने में समर्थ बनाया जा सकता है।
मौखिक रचना-कला में निपुण सभी विद्यार्थी लिखित रचना में कुशलता प्राप्त कर लेते हैं। इन्हीं में से अनेक प्रतिभाशाली छात्र साहित्यकार भी बन जाते हैं। अधिकतर जीवन से सम्बन्धित लिखा गया लेख ही जीवन शक्ति से परिपूर्ण होगा।
3- विद्यार्थियों में वाद-विवाद का विकास
वाद-विवाद भी बालक के मानस के द्वार की एक कुंजी है। वाद-विवाद के बारे में छात्रों द्वारा अध्ययन, मनन और अध्ययन किया जा सकता है। वाद-विवाद के द्वारा तर्क की भावना को भी प्रोत्साहन मिलता है। इसे अपने दृष्टिकोण से बालक सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित रूप से बनाए रखने का प्रयास करना प्रतीत होता है।
4- बाल-सभा को उत्साहित
बाल-सभा का प्रयोग भी कक्षा-कक्ष में छात्रों का अधिगम बढ़ाने के लिए करना चाहिए। बाल-सभा बच्चों की शिक्षण में रुचि उत्पन्न करती है। कक्षा में इनका आयोजन करते रहना चाहिए। बाल-सभाओं का आयोजन प्रारंभिक कक्षाओं के लिए विशेष उपयोगी माना जाता है। बाल-सभाओं में चुटकुले, बालगीत, कविताएँ, कहानियाँ आदि की प्रतियोगिताएँ रखी जा सकती हैं।
4- कहानी-कथन का विकास
कहानी-कथन भी कक्षा-कक्ष में एक अधिगम उपकरण के रूप में किया जाता है। कक्षा-कक्ष में शिक्षक छोटी-छोटी रोचक कहानियाँ सुनाए गए जिससे विद्यार्थियों में रुचि पैदा हुई और उनमें रुचि पैदा हुई और उनमें श्रवण की शिक्षा का विकास हो सका।
5- सांस्कृतिक कार्यक्रम को प्रोत्साहन
कक्षा-कक्ष में अधिगम को प्रोन्नत करने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम भी रखे जा सकते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में छात्रों को मौखिक रूप से बोलने का अवसर प्राप्त होता है साथ ही विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी करने का अवसर मिलता है; जैसे-नृत्य, संगीत, अभिनय, नाटक आदि। छात्र जब रंगमंच पर इस प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं तो उनका मनोबल काफी बढ़ जाता है, उनके उच्चारण में ठहराव आता है और उच्चारण की अशुद्धियाँ भी दूर हो जाती हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से छात्रों की सक्रियता को काफी सीमा तक बढ़ाया जा सकता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों से छात्रों में नेतृत्व का गुण, सहयोग से कार्य करने की प्रवृत्ति तथा अभिनय की क्षमता, मुखरता आदि शक्तियों का भी विकास होता है।
भाषा प्रयोगशाला सॉफ्टवेयर को आसान और इंटरैक्टिव तरीके से भाषा कौशल हासिल करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। अंग्रेजी भाषा प्रयोगशाला एलएसआरडब्ल्यू कौशल की पद्धति पर आधारित है जो सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना है। ये भाषा प्रयोगशालाएँ मुख्य रूप से छात्रों के लिए किसी भाषा की मूल बातें संरचित तरीके से सीखने और समझने के लिए एक शैक्षिक मंच हैं। डिजिटल भाषा प्रयोगशाला एक छात्र को व्यावहारिक तरीके से भाषा कौशल के साथ बातचीत करने, अध्ययन करने, प्रयोग करने की अनुमति देती है। यह कोई सैद्धांतिक आधारित अवधारणा नहीं है. विद्यार्थी जिस भाषा को जितना अधिक बोलेगा वह उसकी शंका का समाधान करने में सक्षम होगा।
भाषा प्रयोगशाला एक नेटवर्क अनुप्रयोग है जो आधुनिक भाषा शिक्षण में एक सहायता के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह शिक्षण के पारंपरिक तरीके से और पूरी तरह से अलग भाषा कौशल प्रदान करने में एक तकनीकी स्रोत है। भाषा प्रयोगशाला मूल भाषा कौशल की पद्धति को विकसित करता है। यह व्यक्तिगत ध्यान का लाभ उठाने सुनने और विधि ओएस सुनने के माध्यम से सीखने और एक पूरी तरह से कम्प्यूटरीकृत वातावरण में सीखने की पद्धति के माध्यम से भाषा में महारत हासिल करने के लिए एक आसान तरीका प्रदान करता है। यह छात्रों को उनके लेखन और मौखिक क्षमताओं सही करने के लिए अनुमति देता है। यह छात्रों को भाषा पर महारत हासिल करने के लिए मदद करता है।
1- यह किसी भी भाषा शिक्षण के लिए डिजाइन उपकरण है।
2- यह छात्रों की बढ़ती ध्यान अवधि में मदद करता है।
3- यह छात्रों में सार्वजनिक बोलने के डर को हटा देता है।
4- यह छात्रों में आत्मविश्वास डाल देता है।
1- सुनना:
छात्र किसी भी बाहरी शोर के बिना , किसी भी भाषा को उनकी हेडसेट के साथ सुन सकते हैं। शिक्षण सुनने के लिए ध्वनि , तनाव, काकू पैटर्न, एक्सेंट , आदि की धारणा में प्रशिक्षण शामिल होती है। छात्रों के मानक उच्चारण सुनने के द्वारा भाषा कौशल को आत्मसात कर सकते हैं।
2- प्रतिक्रिया:
छात्र सबक के बाद बोली जाने वाली मॉडल को दोहरा सकते हैं और उन्हें संचालित और मूल्यांकन कर सकते है।
3- अभिलेख:
एक सीधा शिक्षार्थी की आवाज की तुलना और भाषाविद् के उस पेशकश के द्वारा भाषा के सभी जटिल पहलुओं को उठाया जा सकता है।
4- मूल्यांकन करना:
छात्र अपने उच्चारण को सुनने के द्वारा खुद को मूल्यांकन कर सकते हैं।
5- निगरानी और मार्गदर्शन:
शिक्षक स्वतंत्र रूप से अन्य छात्रों को परेशान करने के बिना प्रत्येक छात्रों पर नजर रखने और तुरन्त उन्हें ऑनलाइन मार्गदर्शन कर सकते हैं।
डिजिटल भाषा प्रयोगशाला सभी शिक्षार्थियों प्रशिक्षक सुनने के लिए और प्रशिक्षक द्वारा सुना जा समान अवसर प्रदान करता है। हेडसेट उनकी बोलने की क्षमता को बढ़ावा देता है जो एक मनोवैज्ञानिक गोपनीयता के साथ शिक्षार्थियों प्रदान करता है। भाषा प्रयोगशाला अच्छा सुनने के कौशल को विकसित करने और संचार की प्रक्रिया में सुधार करने के लिए शिक्षार्थियों में मदद करता है। यह शर्म से छुटकारा पाने में मदद करता है। शिक्षक व्यक्तिगत छात्रों पर नजर रखने और अधिक कुशलता से उन लोगों के साथ बात कर सकते हैं। शिक्षार्थियों उनकी अनुकूल क्षमता के अनुशार एक गति से सबक सामग्री के माध्यम से काम करते हैं। भाषा प्रयोगशाला में उनके लिए एक निजी ट्यूटर है। जैसे प्रशिक्षक अगले प्रश्न या ड्रिल उत्पादन पर ध्यान केंद्रित नहीं करते है , तो शिक्षक छात्र प्रतिक्रियाओं पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। यह भाषा शिक्षण में सूचना संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग प्रदान करता है।
1- व्यापक – वे डेटाबेस में दिए गए बोधगम्य अंशों को आसानी से समझते हैं।
2- डिजिटल सॉफ्टवेयर – चूंकि यह सॉफ्टवेयर डिजिटल रूप से काम करता है इसलिए यह शिक्षक के साथ-साथ छात्रों का भी समय बचाता है। ऑनलाइन लर्निंग से कोई भी कभी भी, कहीं भी पढ़ाई कर सकता है।
3- बेहतर ध्यान – छात्रों को बेहतर ध्यान मिलता है क्योंकि वे व्यक्तिगत प्रणालियों से जुड़े होते हैं। वे अपनी सुविधा के अनुसार पाठ सीख सकते हैं और दोहरा सकते हैं।
4- स्वतंत्र शिक्षा – वे अवधारणा को दोहराने और समझने और अपनी शंकाओं को दूर करने के लिए घर पर सॉफ्टवेयर का उपयोग कर सकते हैं। कुछ छात्र कक्षा के सामने पूछने में शर्म महसूस करते हैं इसलिए यह उनके लिए समाधान प्रदान करता है।
5- प्रभावी शिक्षण – सॉफ्टवेयर एलएसआरडब्ल्यू कौशल यानी सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना प्रभावी ढंग से सीखता है। छात्र इंटरैक्टिव वीडियो के माध्यम से सीखते हैं जो सीखने को और अधिक रोचक बनाता है।
6- एक्सेंट ट्रेनिंग – यह सॉफ्टवेयर तीन भाषाओं में एक्सेंट ट्रेनिंग की सुविधा देता है, जिससे छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं को आसानी से पास करने में मदद मिलती है।
7- ऑडियो और वीडियो – भाषा प्रयोगशाला सॉफ्टवेयर में टेक्स्ट टू स्पीच सुविधा प्रदान की जाती है, जहां छात्र अपनी आवाज रिकॉर्ड कर सकते हैं और उसे सुन सकते हैं।
विचार-विमर्श कोई नवीन प्रत्यय नहीं है। घरों में अथवा सामाजिक अवसरों पर अक्सर विचार-विमर्श किया जाता है। उदाहरणार्थ-समाज में दहेज-प्रथा कैसे समाप्त करें। प्रकरण पर अक्सर सामाजिक विचार-विमर्श चलता रहता है। विद्यार्थी भी समय-समय पर अपनी समस्याओं से निपटने के लिए आपस में तथा अपने से बड़ों के साथ विचार-विमर्श करते रहते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से आश्रम भी विचार-विमर्श के केन्द्र थे।
विचार-विमर्श कक्षा-कक्ष के वातावरण को सजीव एवं रोचक बना देता है। यदि अध्यापक लगातार व्याख्यान देता रहे तो शिक्षार्थी उसे सुनते-सुनते थक जाते हैं। उनकी स्थिति केवल एक मूकदर्शक के रूप में होती है। इसके विपरीत यदि वह शिक्षण में विचार-विमर्श तकनीक का प्रयोग करता है तो उसमें कला के अधिकतम शिक्षार्थी भाग लेते हैं तथा विचार व्यक्त करते हैं।
विचार-विमर्श का अर्थ (Meaning of Discussion)
गुड के अनुसार- विचार-विमर्श किसी प्रकरण या समस्या से सम्बन्धित एक ऐसी प्रविधि है जिसमे शिक्षार्थी अपने विचार-विमर्श के उपरान्त एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। इसका उपयोग सामान्यतः समाजवादी समाज में किया जाता है। यह प्रविधि वाद-विवाद से भिन्न है,क्योंकि इसमें भाग लेना वाला व्यक्ति समस्या से मूल स्रोत को तालाश करता है,जबकि वाद-विवाद में वह सत्य को खोजने का प्रयास करने की अपेक्षा बहस के द्वारा पक्ष को सुदृढ़ बनाने का प्रयास करता है।
क्लार्क और स्टार अनुसार— “विचार-विमर्श में किसी व्यक्ति के अहं की सन्तुष्टि के लिए कोई स्थान नहीं है और न ही इसमें किसी को अपने विचार अन्य व्यक्तियों पर थोपने का अवसर दिया जाता है। न ही यह व्याख्यान अथवा विमोचन का पर्यायवाची है।”
इस प्रकार विचार-विमर्श में विद्यार्थी अधिक सक्रिय रहते हैं तथा शिक्षक उनको आवश्यकतानुसार निर्देश प्रदान करता है। यह शिक्षार्थी केन्द्रित शिक्षण-प्रविधि है जोकि अध्यापक के कुशल मार्गदर्शन में सम्पन्न होती है।
विचार-विमर्श के सोपान (Steps of discussion)
- पूर्व तैयारी
विचार विमर्श की प्रक्रिया समुचित वातावरण में ही सम्पन्न हो सकती है। विचार-विमर्श हेतु वातावरण जितना अनुकूल होगा, विचार-विमर्श उतना ही प्रभावी रूप से सम्पन्न हो सकेगा विचार-विमर्श के लिए बालकों की अर्द्धचन्द्राकार बैठक व्यवस्था सर्वोत्तम मानी गई है। विचार-विमर्श में मुख्यतः विद्यार्थी भाग लेते हैं। अतः शिक्षक विद्यार्थियों का प्रस्तावना द्वारा प्रकरण की जानकारी देता है तथा उन्हें स्वाध्याय हेतु प्रेरित करता है। यदि विद्यार्थी समस्या से सम्बन्धित साहित्य का पूर्व में अध्ययन कर लेते हैं तो विचार-विमर्श आसानी से होता रहता है।
- विचार-विमर्श का संचालन
विचार-विमर्श की प्रक्रिया का प्रारम्भ अध्यापक या शिक्षार्थी किसी के भी द्वारा किया जा सकता है। यदि प्रारम्भ रोचक ढंग से किया जाता है तो यह अधिक रुचिपूर्ण बन जाता है। आवश्यक प्रकरण की प्रस्तावना किसी कहानी, घटना अथवा उदाहरण से बन सकती है। वायु प्रदूषण पर विचार-विमर्श भोपाल गैस दुर्घटना का उदाहरण देकर प्रारम्भ कर सकता है।
विचार-विमर्श को उद्देश्यपूर्वक बनाने के लिए अध्यापक प्रकरण का एक-एक पक्ष लेता है जिस पर विद्यार्थी खुलकर चर्चा करते हैं। अध्यापक अपना समूह का संचालन आवश्यकतानुसार बीच-बीच में प्रश्न कर विचार-विमर्श की धारा को उदेश्यपूर्ण दिशा की ओर मोड़ता रहता है।
विचार-विमर्श कौशल के प्रमुख घटक
भाषा शिक्षण में वाद-विवाद की भी उपयोगिता है क्योंकि वाद-विवाद एक उभयपक्षीय मानसिक प्रक्रिया है। इसमें किसी कक्षा के दो या अधिक छात्र किसी समस्या या प्रकरण या विवादास्पद घटना का समुचित हल निकालने का प्रयास करते हैं। शिक्षा-शब्दकोश में वाद-विवाद के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “वाद-विवाद अन्तर-विद्यालय छात्र-क्रिया अथवा कक्षान्तर्गत तुलनात्मक और सार्वजनिक भाषण में औपचारिक प्रशिक्षण के रूप में प्रयुक्त मानकीकृत प्रक्रिया के अनुरूप श्रोता के समक्ष एक प्रश्न के उभय पक्षों पर तकों का औपचारिक प्रस्तुतीकरण है।
वाद-विवाद के गुण निम्नलिखित हैं-
- इसमें छात्रों को अपने विचार एवं दृष्टिकोण अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। अत: इससे छात्रों में स्वतन्त्र चिन्तन की आदत पड़ती है।
- इससे छात्रों में स्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता की भावना विकसित होती है।
- इसमें छात्र किसी प्रश्न या समस्या के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार सशक्त रूप से एवं प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिए विषयवस्तु का गहन अध्ययन करते हैं। इससे छात्रों का बौद्धिक विकास होता है और तर्क-शक्ति विकसित होती है।
- इससे छात्रों में भाषण देने की क्षमता विकसित होती है और इससे छात्रों की झिझक समाप्त होती है।
- इसका शिक्षा के सभी स्तरों पर उपयोग किया जा सकता है परन्तु उच्च स्तर पर इसकी अधिक उपयोगिता है।
वाद विवाद की सीमायें निम्नलिखित हैं-
- यह समय की दृष्टि से मितव्ययी नहीं है क्योंकि छात्र वाद-विवाद करते-करते विषयान्तरित हो जाते हैं और व्यर्थ में समय नष्ट करते हैं।
- हिन्दी के सभी प्रकरणों पर वाद-विवाद करना सम्भव नहीं है। अतः निम्न स्तर पर यह अधिक व्यावहारिक नहीं है।
- इसके संचालन के समय अनुशासन की समस्या बनी रहती है।
शिक्षण का एक सतत् क्षेत्र-स्मृति (Memory) से चिन्तन स्वयं कार्य करती है। विद्यालय एवं महाविद्यालयों का शिक्षण तथा अनुदेशन स्मृति स्तर एक ही सीमित रहता है। अधिक-से-अधिक बोध स्तर पर सम्भव हो पाता है। जबकि महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा शोध संस्थाओं में अनुदेशनात्मक परिस्थितियों ऐसी होनी चाहिये जो चिन्तन स्तर की अधिगम परिस्थितियों को प्रोत्साहित कर सकें। ऐसी परिस्थितियों में मानवीय अन्तःप्रक्रिया से उच्च ज्ञानात्मक योग्यताओं एवं क्षमताओं को विकसित किया जाता है। इस प्रकार की अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिए अनेकों प्रकार के शिक्षण एवं अनुदेशन प्रतिमानों तथा प्रविधियों का विकास किया गया है जो शिक्षण-अधिगम के सिद्धान्तों पर आधारित हैं; जैसे- वाद-विवाद, सेमीनार सम्मेलन, सभाओं का आयोजन, अनुकरणीय शिक्षण व्यूह रचना, वर्कशाप, सामूहिक वाद-विवाद तथा वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि हैं।
विचार गोष्ठी के निम्नलिखित गुण है
- शिक्षा के ज्ञानात्मक तथा भावात्मक उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
- प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास होता है।
- प्रस्तुतीकरण तथा तर्क करने की क्षमताओं का विकास होता है।
- सेमीनार के उपयोग से उत्तम प्रकार की अधिगम आदतों का विकास होता है। शिक्षार्थी की अधिगम में तन्मयता होने लगती है।
- सेमीनार प्रविधि शिक्षार्थी-केन्द्रित होती है।
- स्वतन्त्र अध्ययन (Independent study) को प्रोत्साहित करती है।
- वाद-विवाद में भाग लेने तथा बोलने के कौशल का विकास होता है।
- सेमीनार में शिक्षार्थी स्वाभाविक ढंग से सीखता है।
- आलोचनात्मक चिन्तन का विकास होता है।
- शिक्षार्थी में सामाजिक तथा भावात्मक गुणों का भी विकास होता है।
- प्रकरण सम्बन्धी निरीक्षण तथा अनुभवों को प्रस्तुत करने का भी अवसर मिलता है।
विचार गोष्ठी की निम्नलिखित सीमाएं हैं
- किसी विषय के सभी प्रकरणों के लिए सेमीनार का आयोजन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कुछ प्रकरणों का स्वरूप सुनिश्चित होता है; जैसे- विश्वसनीयता व वैधता उन्हीं प्रकरणों का चयन किया जाता है जिन पर वाद-विवाद हो सके।
- इस प्रविधि को सभी शिक्षा के स्तरों पर प्रयोग नहीं कर सकते है, क्योंकि सेमीनार के लिए भाषा सामाजिक भावात्मक परिपक्वता होनी चाहिए। अतः निम्न स्तर पर इसका प्रयोग सम्भव नहीं है अमूर्त प्रकरण पर वाद-विवाद किया जाता है।
- सेमीनार के वाद-विवाद काल में ऐसा देखा गया है कि कुछ व्यक्ति भाग लेते हैं और अपना अधिकार स्थापित कर लेते हैं। कुछ व्यक्ति बिल्कुल नहीं बोलते अथवा उन्हें बोलने का अवसर नहीं मिलता है। अत: अन्तःप्रक्रिया सम्पूर्ण समूह में नहीं होती है।
- सेमीनार के वाद-विवाद काल में समूह बनने की सम्भावना रहती है। विरोधी विचारों के व्यक्ति एक समूह में तथा अन्य विचारों के दूसरे समूह में बँट जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है भागीदार उसे विजय या पराजय के रूप में लेते हैं। ऐसी परिस्थिति में सेमीनार का उद्देश्य प्राप्त नहीं होता है।
शिक्षण में प्रश्नोत्तरी क्या है?
प्रश्न पूछना शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उपकरण या युक्ति है। यह वह रणनीति है जहां एक शिक्षक छात्रों की समझ के स्तर का आकलन करने के लिए छात्रों से प्रश्न पूछता है। प्रश्न पूछना एक ऐसी गतिविधि है जो शिक्षक को प्रभावी शिक्षण में मदद करती है।
कक्षा में प्रश्न पूछने की प्रकृति
शिक्षण और सीखने की कक्षाओं में, किसी विषय को पढ़ाते समय शिक्षक लगातार छात्रों के साथ जुड़े रहते हैं। शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया में एक शिक्षक द्वारा आयोजित सबसे महत्वपूर्ण सत्रों में से एक है प्रश्न करना और उत्तर देना। इससे छात्रों की सीखने की क्षमता और उनके विचारों, विचारों की जांच की जाएगी जो प्रश्न पूछने से उत्पन्न होते हैं। शिक्षार्थियों की सोच उत्तरों से नहीं बल्कि प्रश्नों से प्रेरित होती है, छात्र अपने विचारों को जीवित रखते हैं और शिक्षकों को लगातार उनसे प्रश्न पूछने पड़ते हैं। सामान्य शब्दों में, प्रश्न करना कोई भी वाक्य है जिसमें प्रश्नवाचक रूप होता है, हालाँकि कक्षा के संदर्भ में प्रश्न पूछने से शिक्षार्थी की सोच और उनका दृष्टिकोण उत्पन्न होता है, कक्षाओं में प्रश्न पूछने के अधिक बुनियादी कार्य होते हैं।
1- रुचि विकसित करना और छात्रों को पाठों में सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए प्रेरित करना।
2- आलोचनात्मक सोच कौशल विकसित करना।
3- सीखने की समीक्षा करना।
4- छात्रों को स्वयं ज्ञान प्राप्त करने और अपने स्वयं के प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करना।
एक शिक्षक की प्रश्न तकनीक में अभिसरण और भिन्न प्रश्नों का संतुलन शामिल होना चाहिए। प्रश्न पूछना कक्षा में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का एक अविभाज्य हिस्सा है। शिक्षक विभिन्न प्रकार की प्रश्न तकनीकों का अभ्यास कर सकते हैं और छात्रों को प्रेरित करने और कक्षा में उनकी सोच को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें सुदृढ़ कर सकते हैं। शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया में शिक्षकों द्वारा प्रश्न पूछना कक्षा में होने वाली कई अंतःक्रियाओं में से एक है।
प्रश्नोत्तरी एवं शिक्षक नियंत्रण
प्रश्न पूछते समय, शिक्षक को कक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के प्रकार की योजना बनानी चाहिए। साथ ही, शिक्षकों को कक्षा में छात्रों की उम्र और क्षमता के अनुरूप प्रश्न भी पूछने चाहिए। कक्षा में शिक्षक पहले से ही एक छात्र की क्षमता से अवगत होते हैं। इसलिए प्रश्न पूछते समय, शिक्षक चतुर और प्रतिभाशाली छात्रों से कठिन प्रश्न पूछ सकते हैं, और कमजोर छात्रों से आसान प्रश्न पूछ सकते हैं। कमजोर छात्रों से पूछे गए सरल प्रश्न उन्हें प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम बनाएंगे, और यह उन्हें प्रेरित करेगा और उनकी सोच को प्रोत्साहित करेगा। शिक्षण और सीखने के सत्रों में प्रश्न पूछना ज्ञान में महारत हासिल करने के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है। शिक्षकों को छात्रों की रुचि और सीखने में रुचि को बढ़ावा देने के लिए शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया में प्रश्न पूछने की तकनीकों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
किसी पाठ को प्रवाहित बनाए रखने या विषय को समझने के लिए चर्चा शुरू करने के लिए प्रश्न पूछना सबसे शक्तिशाली उपकरण है। कक्षा में पूछताछ का लक्ष्य यह निर्धारित नहीं करना चाहिए कि छात्रों ने कुछ सीखा है या नहीं, बल्कि यह छात्रों को आवश्यक जानकारी और सामग्री सीखने में मदद करने के लिए मार्गदर्शन करता है और इसके अलावा इन प्रश्नों का उपयोग केवल छात्रों का परीक्षण करने के बजाय छात्रों को सिखाने के लिए किया जाना चाहिए।
1- क्या पता लगाने की कोशिश की जा रही है?
2- वह काम क्यों करता है?
3- क्या इस तक पहुंचने का कोई और तरीका है? इसका प्रतिनिधित्व करने के लिए?
4- ये विचार किस प्रकार संबंधित हैं?
कक्षा में इस प्रकार के प्रश्न सत्रों के लिए उन्नत तैयारी की आवश्यकता होती है और कक्षा में बातचीत का एक महत्वपूर्ण पहलू वह तरीका है जिससे शिक्षक छात्रों की प्रतिक्रियाओं को संभालता है। जब कोई प्रश्न पूछा जाता है, तो छात्र या तो उत्तर दे सकते हैं या कोई उत्तर नहीं दे सकते, लेकिन शिक्षक को प्रश्नों की इन चार श्रेणियों का पालन करना होगा:
1- प्रबंधकीय – प्रश्न जो कक्षा संचालन को गतिशील बनाए रखते हैं।
2- अलंकारिक – किसी बिंदु पर जोर देने या किसी विचार या कथन को सुदृढ़ करने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रश्न
3- बंद – अवधारण की जांच करने या किसी विशेष बिंदु पर सोच को केंद्रित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रश्न।
4- खुला – चर्चा या छात्र बातचीत को बढ़ावा देने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रश्न।
1- मूल्यांकन प्रश्न
जांच प्रश्न एक प्रकार के प्रश्न हैं जो बातचीत को कही गई किसी बात के बारे में अधिक विवरण प्रदान करने की ओर निर्देशित करते हैं और शिक्षक पूछताछ के माध्यम से छात्रों का परीक्षण करने में काफी समय व्यतीत करते हैं। पाठ के दौरान प्रश्न छात्रों से सवाल किए बिना दिए गए निर्देश की तुलना में अधिक प्रभावी होते हैं। छात्रों से प्रश्न पूछना शिक्षकों को छात्रों के सीखने का मूल्यांकन करने में मदद करता है और उनके पाठों को संशोधित करना आवश्यक है। ये प्रश्न छात्र की प्रतिक्रिया के आधार पर बनते हैं।
2- तथ्यात्मक प्रश्न
शिक्षक कई कारणों से प्रश्न पूछते हैं लेकिन तथ्यात्मक प्रश्नों के लिए तथ्य-आधारित उत्तर की आवश्यकता होती है और तथ्यात्मक प्रश्नों के लिए केवल एक ही सही उत्तर होता है, जिसे पाठ या अन्य शिक्षण सामग्री के संदर्भ में सत्यापित किया जा सकता है। इस प्रकार के तथ्यात्मक प्रश्नों के लिए सीधे तथ्य-आधारित उत्तर की आवश्यकता होती है। तथ्यात्मक प्रश्नों का एकमात्र तरीका शिक्षार्थी के ज्ञान का सटीक परीक्षण कर सकता है, यदि उनके पास सहायक साक्ष्य हों जो 100% सही हों। तथ्यात्मक प्रश्न जटिल विषयों को भी अधिक सुपाच्य तत्वों में तोड़कर सरल बना सकते हैं; यह सरल और सीधे प्रश्न हैं। सामाजिक-संज्ञानात्मक दृष्टिकोण से, प्रश्न-उत्पत्ति एक रचनात्मक गतिविधि है और छात्र प्रवचन का एक अनिवार्य घटक है। इसके अलावा, प्रश्न वैकल्पिक दृष्टिकोण के बारे में चर्चा और बहस को उकसा सकते हैं।
3- भिन्न-भिन्न प्रश्न
अच्छे प्रश्न पूछने से शिक्षक और छात्र के बीच बातचीत को बढ़ावा मिलता है और विभिन्न शिक्षण लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिलती है। अलग-अलग प्रश्न ऐसे प्रश्न हैं जो छात्रों के बीच बहुत अधिक सोचने की क्षमता पैदा कर सकते हैं और यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका कोई विशिष्ट उत्तर नहीं है, बल्कि यह बच्चे की व्यापक रूप से सोचने की क्षमता का प्रयोग करता है। व्यक्तिपरक प्रश्न छात्रों को उनकी सोच के दायरे को व्यापक बनाने में मदद करेंगे, और यह उनके सोच कौशल को बेहतर बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कक्षा में सीखने में अपसारी सोच एक मूल्यवान उपकरण है, लेकिन यह अवधारणा कक्षा में सीखने से शुरू नहीं हुई, क्योंकि इसने मनोविज्ञान के शिक्षार्थी अनुशासन में अभ्यास शुरू किया।
4- उच्च क्रम के प्रश्न
जबकि उच्च-क्रम की सोच नई जानकारी और अध्ययन के लिए सीखने का एक उत्कृष्ट तरीका है, उच्च-स्तरीय प्रश्नों का उत्तर छात्र केवल सरल स्मरण या पाठ से जानकारी पढ़कर नहीं दे सकते हैं। इस प्रकार के प्रश्न छात्रों पर उन्नत संज्ञानात्मक मांग डालते हैं और छात्रों को शाब्दिक प्रश्नों से परे सोचने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उच्च-क्रम के प्रश्न महत्वपूर्ण सोच कौशल को बढ़ावा देते हैं क्योंकि इस प्रकार के प्रश्न छात्रों से केवल तथ्यों को याद करने के बजाय जानकारी को लागू करने, विश्लेषण करने, संश्लेषित करने और मूल्यांकन करने की अपेक्षा करते हैं।
5- प्रभावशाली प्रश्न
कई साल पहले, बेंजामिन ब्लूम नामक एक शिक्षक ने शिक्षण और सीखने में प्रश्न पूछने के विभिन्न स्तरों को पहचानने में शिक्षकों की सहायता करने के लिए एक वर्गीकरण प्रणाली विकसित की थी, जिसे आज हम ब्लूम के वर्गीकरण के रूप में संदर्भित करते हैं। प्रभावशाली प्रश्न छात्रों को एक विशिष्ट विषय के प्रति दृष्टिकोण, भावनाओं और मूल्यों को व्यक्त करके अधिक व्यक्तिगत स्तर पर अपने सीखने के साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और इन प्रश्नों का उपयोग किसी भी विषय क्षेत्र के शिक्षार्थियों के किसी भी आयु समूह के साथ किया जा सकता है।
प्रश्न पूछते समय शिक्षकों को केवल छात्रों के तथ्यों और सूचनाओं का ज्ञान ही तलाशना नहीं होता। शिक्षक के लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि वे ऐसे प्रश्न पूछें जो छात्रों को अधिक भावनात्मक और व्यक्तिगत स्तर पर अपनी शिक्षा से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करें। इस तरह से छात्रों को प्रोत्साहित करके, उनके भावनात्मक जुड़ाव के साथ, शिक्षक छात्र को सीखने के विभिन्न स्तरों में संलग्न होने का एक बड़ा अवसर प्रदान करने में सक्षम होता है।
6- संरचना संबंधी प्रश्न
प्रश्न पूछने की प्रक्रिया छात्रों को किसी विषय के बारे में अपनी वर्तमान समझ को स्पष्ट करने, दूसरों के विचारों के साथ संबंध बनाने और वे क्या करते हैं या क्या नहीं जानते हैं, इसके बारे में जागरूक होने की अनुमति देती है। संरचित प्रश्न वह है जिसमें निश्चित के साथ मानकीकृत का एक सेट शामिल होता है, जिसमें उत्तरदाताओं से जानकारी एकत्र करने के लिए सटीक शब्द और क्रम निर्दिष्ट होता है। संरचित प्रश्न कई रूप लेते हैं और समृद्ध अंतर्दृष्टि उत्पन्न कर सकते हैं जो एक विशिष्ट तरीके से उत्तर की जानकारी की व्यापक गहराई से संरचित जानकारी प्रदान करते हैं और यह शिक्षण और सीखने दोनों के लिए एक संभावित संसाधन है। दूसरी ओर, असंरचित प्रश्न अनुभव में थोड़े अधिक गुणात्मक होते हैं। उन्हें पूर्व-निर्धारित श्रेणियों की आवश्यकता नहीं होती है और वे प्रतिवादी को खुले तौर पर विचार व्यक्त करने की अनुमति देते हैं।
व्याख्यात्मक पाठ्य (Expository text)
व्याख्यात्मक शब्द ‘व्याख्या’ शब्द में प्रत्यय प्रयोग से बना है। व्याख्या का अर्थ गुंफित विचारों को स्पष्ट करना है। जब कक्षा में शिक्षक की कोई बात छात्रों की समझ में नहीं आती है तो वे इसके विषय में शिक्षक से पूछते हैं। शिक्षक अपनी कही हुई बात की व्याख्या करते हैं अर्थात् उसका खुलासा करते हैं।
जिन पाठ्यों में किसी विचार, संप्रत्यय, घटना क्रम, सिद्धान्त या मंतव्य को गूढ रूप में प्रस्तुत किया गया हो तथा उसके स्पष्टीकरण या व्याख्या की आवश्यकता हो, ऐसे पाठ्य व्याख्यात्मक पाठ्य कहलाते हैं।
व्याख्यात्मक पाठ्यों में संक्षेप में अधिक विचारों को तर्कपूर्ण क्रम में प्रस्तुत किया जाता है अत: ऐसे पाठ्य अधिक ज्ञानवर्द्धक होते हैं। इसमें संश्लिष्टता होती है अतः विश्लेषण या व्याख्या की आवश्यकता पड़ती है। छात्रों के भाषा कौशल के विकास तथा उनकी अभिरुचि/मनोवृत्ति में बदलाव हेतु ऐसे पाठ्य महत्त्वपूर्ण होते हैं।
कथात्मक या वर्णनात्मक पाठ्यों में कल्पना, भावना, मनोरंजन, बोधगम्यता की प्रधानता होती है तो व्याख्यात्मक पाठ्यों में विचार, तर्क, चिंतन, मनन, ज्ञानवर्द्धन की प्रधानता होती है। व्याख्यात्मक पाठ्य कथ्य के प्रस्तुतीकरण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
व्याख्यात्मक पाठ्यों की विशेषताएं
व्याख्यात्मक पाठ्यों में निम्नानुसार विशेषताएं पाई जाती हैं-
(1) संश्लिष्टता
व्याख्यात्मक पाठ्यों में विचारों की संश्लिष्टता होती है। इसमें गूढ़ता, जटिलता भी होती है इसलिए व्याख्या व विश्लेषण के द्वारा ऐसे पाठ्यों को समझना होता है मानसिक शक्तियों को पर्याप्त व्यायाम ऐसे पाठ्यों के पठन से होता है। छात्रों, शिक्षकों, नागरिकों सभी के लिए व्याख्यात्मक पाठ्य ज्ञानोदय का भंडार होते हैं।
(2) निरंतरता, प्रवाहमयता का अभाव
कथात्मक पाठ्यों में निरंतरता व प्रवाहमयता का जो स्तर होता है वह व्याख्यात्मक पाठ्यों में कम ही उपलब्ध होता है। व्याख्यात्मक पाठ्यों में विचारों का गुंफित रूप होता है तथा विचारों में भावनाओं जैसी प्रवाहमयता नहीं होती।
(3) चिंतन मनन की प्रधानता
व्याख्यात्मक पाठ्यों के विषय ज्ञान के स्वरूप से संबंधित होते हैं अतः चिंतन मनन की शक्तियों का इन पाठ्यों में अधिक प्रयोग पाया जाता है।
(4) तकनीकी व पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग
ऐसे पाठ्यों में बहुधा पारिभाषिक व तकनीकी या कठिन शब्द आ जाते हैं जिनका आख्यात्मक पाठ्यों में अभाव होता है। अतः व्याख्यात्मक पाठ्यों को पढ़ने में कठिन शब्दों का अर्थज्ञान कर लेना आवश्यक हो जाता है।
(5) संक्षिप्तता
व्याख्यात्मक पाठ्यों में संक्षेप में अधिक विचार गुंफित रहते हैं। उनके विस्तार के लिए व्याख्या की आवश्यकता पड़ती है। संक्षेप में बात कहने का कौशल ऐसे पाठ्यों से छात्रों द्वारा सीखा जा सकता है।
(6) विचारों का विस्तृत दायरा, वर्गीकरण
जिस विषय पर व्याख्यात्मक पाठ्य होते हैं उस विषय पर सांगोपांग वर्णन या वर्गीकरण तथा कहीं-कहीं सांख्यिकी का भी प्रयोग ऐसे पाठ्यों में उपलब्ध होता है।
(7) विज्ञान, इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी की अधिकता
व्याख्यात्मक पाठ्यों विज्ञान इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी अधिक पाई जाती है क्योंकि इन विषय समूहों की भाषा व्याख्यात्मक संश्लिष्ट, संक्षिप्त होती है।
कथात्मक पाठ एक प्रकार का पाठ है जो एक कहानी बताता है या घटनाओं के अनुक्रम का वर्णन करता है। एक कथात्मक पाठ का उद्देश्य घटनाओं की एक श्रृंखला को सुसंगत और आकर्षक तरीके से प्रस्तुत करके पाठक का मनोरंजन करना या सूचित करना है। कथात्मक या वर्णनात्मक पाठ्यों में कल्पना, भावना, मनोरंजन, बोधगम्यता की प्रधानता होती है।
कथा पाठ की विशेषताएँ क्या हैं?
- भूतकाल का प्रयोग करना
वर्णनात्मक पाठों में अक्सर भूतकाल होता है क्योंकि वे आम तौर पर उन घटनाओं या कहानियों का वर्णन करते हैं जो पहले ही घटित हो चुकी हैं।
भूतकाल का उपयोग करने से समय और अनुक्रम की भावना पैदा करने में मदद मिलती है, जो पाठक को कथानक का अनुसरण करने और घटनाओं की प्रगति को समझने में सक्षम बनाता है।
साथ ही, भूतकाल में लिखने से संदर्भ मिलता है और कार्यों और उनके परिणामों के बीच एक स्पष्ट संबंध दिखता है, जिससे पाठक को कहानी में प्रवेश करने और यह समझने में मदद मिलती है कि पात्र किस दौर से गुजर रहे हैं।
- समयवाचक क्रिया-विशेषण का प्रयोग करना
कहानी को स्पष्ट संरचना और प्रगति की भावना प्रदान करने के लिए कथात्मक ग्रंथ अक्सर समय के क्रियाविशेषणों का उपयोग करते हैं।
समय की ये अभिव्यक्तियाँ पाठक को यह समझने में मदद करती हैं कि घटनाएँ कब घटित हो रही हैं, वे एक-दूसरे से कैसे संबंधित हैं, और कथा का समग्र प्रवाह क्या है।
घटनाओं के अनुक्रम के लिए एक संदर्भ प्रदान करके, समय के क्रियाविशेषण पढ़ने के अनुभव को अधिक जीवंत और आकर्षक बनाते हैं।
वे पाठक को कथानक का अधिक आसानी से अनुसरण करने और कहानी में डूबने में सक्षम बनाते हैं, क्योंकि वे एक विशिष्ट समय सीमा के भीतर होने वाली घटनाओं की कल्पना कर सकते हैं।
- विशेषणों का प्रयोग
विशेषण वे शब्द हैं जो संज्ञाओं का वर्णन करते हैं या उन्हें संशोधित करते हैं, या, सीधे शब्दों में कहें तो विशेषण वे शब्द हैं जो किसी संज्ञा के बारे में अधिक जानकारी देते हैं जैसे कि उसका रंग, आकार, आकार, विशेषताएँ आदि।
कथा पाठ में, विशेषण अधिक विस्तृत और जीवंत कहानी बनाने में मदद करते हैं।
- संज्ञा वाक्यांशों का प्रयोग
संज्ञा वाक्यांश शब्दों का एक समूह है जिसमें एक संज्ञा के साथ-साथ कोई भी संशोधक, जैसे विशेषण, क्रिया विशेषण, या अन्य संज्ञाएं शामिल होती हैं जो मुख्य संज्ञा के बारे में अधिक जानकारी प्रदान करती हैं। संज्ञा वाक्यांश कहानियों में विस्तृत और विशद विवरण बनाने में मदद करते हैं।
कथात्मक ग्रंथों में, संज्ञा वाक्यांशों का उपयोग अधिक विस्तृत विवरण देने, किसी चरित्र या सेटिंग के कुछ हिस्सों को उजागर करने या जटिल विचारों को संक्षेप में समझाने के लिए किया जा सकता है।
कथात्मक पाठ अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे:
(1) काल्पनिक कथा
काल्पनिक कथा एक ऐसी कहानी है जो वास्तविक घटनाओं या वास्तविक लोगों पर आधारित नहीं है। यह एक उपन्यास, लघु कहानी, कल्पित कहानी या परी कथा हो सकती है।
(2) आत्मकथा
आत्मकथा एक कथात्मक पाठ है जो लेखक की जीवन कहानी बताता है, जिसे प्रथम-व्यक्ति के दृष्टिकोण से लिखा गया है।
(3) जीवनी
जीवनी एक कथात्मक पाठ है जो लेखक के अलावा किसी और की जीवन कहानी बताता है, जिसे तीसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण से लिखा गया है।
(4) इतिहास
संस्मरण एक कथात्मक पाठ है जो लेखक के जीवन में किसी विशेष अवधि या घटना पर केंद्रित होता है, जिसे अक्सर प्रथम-व्यक्ति के दृष्टिकोण से लिखा जाता है।
लेन-देन संबंधी पाठ (Transactional Texts)
लेन-देन संबंधी लेखन गैर-काल्पनिक लेखन शैलियों के लिए एक सामूहिक शब्द है जिसका उद्देश्य किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए दूसरों के साथ संवाद करना है।
लेन-देन संबंधी पाठ का उद्देश्य आमतौर पर पाठ के माध्यम से किसी व्यक्ति तक जानकारी और विचारों को संप्रेषित करना होता है। इस जानकारी का उद्देश्य चार मुख्य श्रेणियों में से एक में आएगा
(1) मनाने के लिए
किसी उत्पाद या सेवा को खरीदने के लिए किसी को मनाने के लिए प्रेरक पाठ का उपयोग अक्सर विज्ञापन में किया जाता है। राजी करने के उद्देश्य से किया गया लेन-देन संबंधी पाठ आम तौर पर किसी व्यक्ति को यह बताने के लिए होता है कि उत्पाद या सेवा इतनी अच्छी क्यों है और यह उनके जीवन को कैसे बेहतर बना सकता है। उनमें ग्राहक प्रशंसापत्र या धक्का-मुक्की वाली भाषा शामिल हो सकती है, जैसे लोगों को जोखिम उठाने और खरीदारी करने के लिए सीमित समय के लिए ऑफर। प्रेरक लेन-देन संबंधी लेखन किसी विशेष मुद्दे पर किसी व्यक्ति की राय को प्रभावित करने के लिए भी निर्धारित किया जा सकता है – इसका उपयोग अक्सर राजनीति में लोगों को एक निश्चित तरीके से मतदान करने के लिए मनाने और मनाने के लिए किया जाता है।
(2) बहस करने के लिए
लेन-देन संबंधी पाठ जो अपनी बात मनवाने के लिए बहस करते हैं, अक्सर समीक्षा या राजनीतिक फ़्लायर का रूप लेते हैं। एक समीक्षक किसी किताब या फ़िल्म के बारे में कही गई बात को आगे बढ़ा सकता है और सबूतों के साथ अपनी बात पर बहस करके आपको यह समझाने की कोशिश कर सकता है कि उनका दृष्टिकोण वैध है। तर्क की भाषा का उपयोग राजनीतिक विचारों या नीतियों के पक्ष या विपक्ष में साहित्य और पोस्टरों में भी किया जा सकता है। तर्कपूर्ण भाषा भाषणों में भी पाई जा सकती है, जैसे वाद-विवाद।
(3) सूचित करना
जानकारीपूर्ण लेन-देन संबंधी पाठ आपको किसी चीज़ के बारे में तथ्य देते हैं। यह किसी का मनोरंजन करने या उसे शिक्षित करने के लिए हो सकता है। सूचनात्मक ग्रंथों के उदाहरणों में सेवाओं और उत्पादों, समाचार पत्रों और पत्रिका लेखों के बारे में पत्रक शामिल हैं। सूचनात्मक लेन-देन लेखन में पत्र और ईमेल जैसी चीजें भी शामिल हैं जिन्हें आप दोस्तों को भेज सकते हैं, उन्हें अपडेट कर सकते हैं कि आप क्या कर रहे हैं या उन्हें महत्वपूर्ण जानकारी बता सकते हैं। जन्मदिन की पार्टी का निमंत्रण एक सूचनात्मक पाठ है – यह आपको कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सभी आवश्यक जानकारी देता है। दिशा-निर्देश देना या किसी के जीवन के बारे में लिखना दोनों ही सूचनात्मक हैं – पाठक को काम करने के लिए तथ्य प्रदान करना।
(4) सलाह देना
सलाहकारी लेन-देन संबंधी पाठ पाठक को किसी चीज़ पर निर्णय लेने के लिए आवश्यक ज्ञान देते हैं। सलाहकारी पाठ अलग-अलग विकल्प देते हैं और आम तौर पर प्रेरक पाठों की तुलना में अधिक संतुलित होते हैं। वे पाठक को किसी चीज़ पर स्वयं निर्णय लेने के लिए आवश्यक सभी जानकारी देने के लिए बहुत अधिक शोध करते हैं। एक उदाहरण स्कूल आने-जाने के सर्वोत्तम तरीकों पर एक पत्रिका लेख लिखना हो सकता है – आप कुछ अलग-अलग तरीकों के फायदे और नुकसान बता सकते हैं और एक राय दे सकते हैं कि कौन सा आपको सबसे अच्छा लगता है लेकिन अंततः, यह निर्भर करता है पाठक को निर्णय लेना है।
लेन-देन संबंधी लेखन को विभिन्न तरीकों से प्रस्तुत किए जा सकते हैं। वे लिखित पत्र या ईमेल, भाषण या पत्रक के रूप में हो सकते हैं। आप समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लेन-देन संबंधी पाठ पा सकते हैं । यह समीक्षा का रूप भी ले सकता है, उदाहरण के लिए किसी पुस्तक या फ़िल्म की समीक्षा।
मैत्रीपूर्ण और आधिकारिक पत्र;
डायरी/जर्नल प्रविष्टि;
आमंत्रण;
प्रक्रियाएं (निर्देश और नियम);
विज्ञापन पोस्टर और नोटिस
भाषण
साक्षात्कार आदि
चिंतनशील पाठ (Reflexive Texts)
चिंतनशील पाठ की परिभाषा लेखन का एक रूप है जहां एक व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से अनुभवों की व्याख्या और मूल्यांकन करता है। ऐसा लेखन या तो औपचारिक या अनौपचारिक हो सकता है, जो व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों के आधार पर लिखा जाता है।
आम तौर पर, चिंतनशील लेखन व्यक्तिगत दृष्टिकोण के आधार पर सिद्धांत और व्यावहारिक पहलू को जोड़ने में भूमिका निभाता है। इसमें वर्णन करना, विश्लेषण करना, प्रश्न करना, व्याख्या करना, मूल्यांकन करना और सीखे गए अनुभव को भविष्य में लागू करना शामिल है।
चिंतनशील पाठ का उपयोग अक्सर पढ़ी गई बातों पर प्रतिक्रिया के रूप में या किसी विशिष्ट घटना, साहित्य के टुकड़े या प्रस्तुत किए गए पाठ से ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग मुख्य बिंदुओं को निर्धारित करने या किसी विषय के बारे में नए विचार बनाने के लिए किया जा सकता है। चिंतनशील लेखन एक प्रमुख रणनीति है जो विचारों को अधिक विकसित और सटीक बनाकर, साथ ही आलोचनात्मक सोच को बढ़ाकर लेखन को बेहतर बनाने में मदद कर सकती है।
चिंतनशील लेखन में क्या शामिल होना चाहिए?
चिंतनशील लेखन एक कला है जिसमें महारत हासिल करना आवश्यक है। चिंतनशील लेखन में किसी घटना या विषय का विवरण, व्यक्तिगत अनुभव और घटना/विषय से संबंधित विचार, और व्यक्तिगत अनुभवों और वास्तविक घटना/विषय के बीच संबंध शामिल होना चाहिए। यह सब विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए।
चिंतनशील लेखन क्यों महत्वपूर्ण है?
चिंतनशील लेखन के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। इनमें से कुछ में सीखने और व्यक्तिगत विकास का समर्थन करना, आलोचनात्मक सोच जैसे चिंतनशील कौशल का निर्माण करना, सिद्धांत और व्यावहारिक के बीच की खाई को पाटना और अंत में, किसी के विचारों को सटीक और अधिक विकसित बनाना शामिल है।
(1) चिंतन
लेखक मुद्दे पर विचार करता है (अर्थात, जिस विषय पर वे लिख रहे हैं) और विचार करता है कि उसका अपना अनुभव और दृष्टिकोण उसकी प्रतिक्रिया को कैसे प्रभावित कर सकते हैं। इससे लेखक को अपने बारे में जानने में मदद मिलती है और साथ ही एक बेहतर अंतिम उत्पाद में योगदान मिलता है जो पूर्वाग्रहों पर विचार करता है।
(2) साक्ष्य
लेखक वास्तव में व्यापक प्रतिबिंब प्रदान करने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों और साक्ष्यों पर विचार करता है और उनका हवाला देता है। “साक्ष्य” का अर्थ अकादमिक साक्ष्य या लेखक के स्वयं के प्रतिबिंब और अनुभव हो सकते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि प्रतिबिंब का टुकड़ा व्यक्तिगत है या अकादमिक।
(3) स्पष्टता
लेखक को स्पष्ट और सामंजस्यपूर्ण होना चाहिए। चूँकि चिंतनशील लेखन पाठक को लेखक के अपने विचारों और कभी-कभी अन्य बाहरी दृष्टिकोणों से रूबरू कराता है, इसलिए एकता और पठनीयता यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि पाठक दृष्टिकोणों के बीच भटक न जाए।
(4) सिद्धांत
एक अकादमिक प्रतिबिंब, प्रतिबिंब को समझाने के लिए सिद्धांतों और अन्य शैक्षणिक कार्यों को एकीकृत करेगा। उदाहरण के लिए, एक लेखक कह सकता है: “स्मिथ का सामाजिक जुड़ाव का सिद्धांत यह समझा सकता है कि मैंने इस तरह से प्रतिक्रिया क्यों की।”
(5) सीखने के परिणाम
एक अकादमिक प्रतिबिंब में इस बात पर टिप्पणी शामिल होगी कि लेखक ने अनुभव से कैसे सीखा, उन्होंने अलग तरीके से क्या किया होगा, या अनुभव के परिणामस्वरूप उनके दृष्टिकोण या राय कैसे बदल गए हैं।
बच्चों के लिए लिखने की रणनीतियाँ (Strategies of Writing for Children)
इस बात की और हमें विशेष ध्यान देना चाहिए कि बालकों को लिखना सिखाने में मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाए। प्राय: पाठशालाओं में बालकों से पहले वर्णमाला के अक्षर लिखाये जाते हैं। फिर शब्द और उनके पश्चात् वाक्य। मनोवैज्ञानिक के मतानुसार, यह प्रणाली दोषपूर्ण है और इससे बालक को कठिनाई होती है। बालक जब पाठशाला में भर्ती होने आता है तो वह छोटे-छोटे वाक्यों मे बोलना जानता है। वर्णमाला के भिन्न-भिन्न अक्षर उसके लिए निरर्थक और सारहीन होते है। उनका अपने में कोई अर्थ नही होता। आपस में मिलकर जब वे शब्दों अथवा वाक्यो के रूप में आते हैं। तभी वे सार्थक बनते हैं। अर्थात् उनका अर्थ होता है। अतएव शिक्षाशास्त्रियो ने इस विषय में जो प्रयोग किए हैं उनके आधार पर बालकों को पहले सार्थक शब्द अथवा वाक्य ही सिखाए जाये।
बालकों को अच्छा लिखने की प्रेरणा देने के लिए यह अच्छा होगा, यदि बालक अपनी लिखावट के सम्बन्ध में स्वयं ही निर्णय दे। अध्यापक बालकों के सामने उन्हीं के द्वारा लिखे गये कई प्रकार की लिखावट के नमूने प्रस्तुत करे और उनकी सहायता से सबसे सुन्दर और सबसे खराब और बीच की कुछ श्रेणियों के कुछ लेख चुने। फिर प्रत्येक बालक का लेख कौन-सी श्रेणी में आता है। यह देखा जाए इस प्रकार बालको को अपने लेख के बारे में स्वयं ही मालूम हो जाएगा और अध्यापक भी यह जान सकेगा कि उनकी प्रगति कैसी है। क्या अमुक बालक के लेख में कुछ सुधार हुआ है या वैसा ही है। अथवा पहले से कुछ बिगड़ गया है। इससे बालकों को अपना लेख और सुन्दर बनाने की प्रेरणा मिलेगी और अध्यापक भी उन बालकों के सम्बन्ध में अनुसन्धान कर सकेगा जिन के लिखने में कोई सुधार नहीं है। अथवा जो पहले से ही खराब लिखने लग गए।
भाषा सीखना आदत डालना है। प्रसिद्ध भाषा विशेषज्ञ पामर हरोल्ड (Pamer Herold) के अनुसार – “भाषा सीखना आदत डालने की प्रक्रिया है।” भाषा निरन्तर अभ्यास करने से आती है। सुनने, पढ़ने व लिखने का जितना अधिक अभ्यास छात्रों को होगा उतना ही अधिक उसको भाषा का ज्ञान भी होगा। प्राथमिक स्तर पर प्रथम कक्षा में प्रवेश करने से पहले बालक चारों भाषायी कौशलों का कुछ-न-कुछ ज्ञान अवश्य रखते हैं। जिन वस्तुओं अथवा विषयों में बालको की रुचि हो उसके सम्बन्ध में वे प्रायः बातचीत करते देखे जाते हैं। अतः प्रारम्भ में उन्हें स्वाभाविक रूप से अपने विचारों को प्रकट करने का अवसर मिलता है। मौखिक कार्य और बोलना सिखाना दोनों ही लिखना सिखाने के सर्वोत्तम साधन है। यदि बालक बातचीत में अपने विचारों को अच्छी तरह व्यक्त कर सकता है तो वह अच्छी तरह नोट्स लेने में प्रवाहयुक्त लिख भी सकता है।
सारांश लेखन से तात्पर्य है-विद्यार्थी का समुचित निर्देशन ताकि वह कक्षा में अध्यापक के निर्देशन में काम करता हुआ स्वाध्याय की कुशल विधियों से परिचित हो सके और उन पर अधिकार प्राप्त करके उनका कुशल प्रयोग कर सके।
अध्यापक विषय-वस्तु को प्रस्तुत करते हुए छात्र-छात्राओं को पाठ का सारांश लिखवाता है। विद्यार्थी उसका एक-एक शब्द अपनी आलोक-पुस्तिकाओं में नोट कर लेते हैं। जब बालक सारांश को लिख लेते हैं। और अपनी कॉपियाँ परे रख देते हैं; तब अध्यापक अपनी कुर्सी से उठते हुए सारांश का स्पष्टीकरण करता है। विस्तृत ब्यौरा देता है, सूक्ष्म बिन्दुओं को समझाता है उदाहरण देता है और सारी परिस्थिति को वास्तविकता प्रदान करता है। अध्यापक को विषय-वस्तु की पूरी-पूरी जानकारी होती है। मनोरंजक ढंग से विषय-वस्तु को स्पष्ट करता है और उसका स्वर प्रभावी होता है। स्पष्टीकरण के पश्चात् वह फिर बैठ पाता है।
अब बालक फिर पाठ का सारांश लिखते हैं और अध्यापक उसका स्पष्टीकरण करता है। एक चक्र में छात्र-छात्राएँ दो या तीन बार सारांश लिखते हैं और अध्यापक उन्हें स्पष्ट करता है। यह पहले दिन का कार्य हुआ। आगामी दिन चक्र के प्रथम भाग में प्रश्न पूछे जाते हैं। प्रत्येक विद्यार्थी बुलाने पर अध्यापक की मेज के पास आता है; अपनी आलोक-पुस्तिका अध्यापक को देता है और कक्षा के सामने मुख करके खड़ा हो जाता है। छात्र अध्यापक उसकी आलोक-पुस्तिका या कॉपी का निरीक्षण करता है।
अध्यापक यह देखने का प्रयास करता है कि छात्र-छात्रायों ने तथ्यों को कहाँ तक स्मरण रखा है और उनको कितना समझा है बालक की स्मरण शक्ति की अपेक्षा उसकी ग्राह्यता पर अधिक बल दिया जाता है। अध्यापक अपना अधिकांश समय यह ज्ञात करने में लगाता है कि बालक जो कुछ बोल रहा है। क्या उसे समझ भी पा रहा है। छात्र-छात्राएँ इधर-उधर की बात करके अथवा अस्पष्ट वक्तव्य देकर अपने आपको बचा नहीं सकते। उन्हें स्पष्ट तथा तथ्यों के अनुरूप उत्तर देना होता है। इनमें विषय-वस्तु को समझाने की पूरी-पूरी क्षमताक्षमता होनी चाहिए। अध्यापक केवल दो या तीन विद्यार्थियों को ही इस कार्य के निमित्त बुलाता है और सारी कक्षा इस चर्चा में बड़ी तत्परता से भाग लेती है।
किसी एक विषय या घटनाक्रम के संदर्भ में एक रिपोर्ट का प्रमुख उद्देश्य किसी विस्तृत विषय सामग्री को संक्षिप्त रूप मे इस तरह संगठित करना है जिसको देखकर विषय से संबंधित सही जानकारी को तत्काल प्रकट किया जा सके।
रिपोर्ट लेखन का प्रारूप क्या है?
रिपोर्ट आलेख का प्रारूप एक विभागीय संविधान की संरचना को निर्दिष्ट करता है जो किसी विशेष विषय या मुद्दे पर जानकारी प्रदान करता है। फ़ॉर्मेट में आम तौर पर कई घटक शामिल होते हैं, जिन्हें एक संघ और संरचित फ़ॉर्मेट में विशिष्ट विषयों को प्रस्तुत करने के लिए रिपोर्ट में शामिल किया जाना चाहिए।
1, शीर्षक पृष्ठ
इसमें रिपोर्ट का शीर्षक, लेखक का नाम, प्रस्तुतिकरण की तारीख और अन्य सामग्री की जानकारी शामिल है।
2, सामग्री
सामग्री रिपोर्ट के प्राथमिक प्लगइन्स और उपविभागों से संबंधित सामग्री को उनके संबंधित डेटाबेस के साथ सूचीबद्ध किया जाता है।
3, परिचय
इस विषय या मुद्दे पर पृष्ठभूमि की जानकारी प्रदान की गई है, रिपोर्ट का उद्देश्य और सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, और उपयोग की गई कार्यप्रणाली की पहचान बताई गई है।
4, मुख्य भाग
यह वह स्थान है जहां सबसे अधिक जानकारी प्रस्तुत की जाती है, जिसे आम तौर पर कई खंडों और उप-अनुभागों में विभाजित किया जाता है। मुख्य निकाय में विषय या मुद्दे का डेटा, विश्लेषण और चर्चा शामिल हो सकती है।
5, निष्कर्षक
यह रिपोर्ट प्राथमिक खोजों का सारांश प्रस्तुत करती है और कलाकारों और कलाकारों का सारांश प्रस्तुत करती है।
6, संदर्भ
यह एपीए, सोसाइटी, या शिकागो जैसा एक विशेष उद्धरण शैली का आवेदक रिपोर्ट में संसाधनों को सूचीबद्ध करता है।
7, परिशिष्ट
इसमें कोई भी अतिरिक्त सामग्री जैसे चार्ट, टेबल, ग्राफ़ या अन्य सहायक डेटा शामिल है।
रिपोर्ट लिखने की आवश्यक प्रक्रिया
प्रोटोकॉल योजना, संगठन और विश्लेषण के लिए रिपोर्ट लेखन की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि रिपोर्ट दर्शकों तक संदेश को प्रभावी ढंग से संप्रेषित कर सके। रिपोर्ट की प्रक्रिया में सामान्य चरण शामिल हैं यहां दिए गए हैं:
1, योजना बनायें और तैयारी करें
- रिपोर्ट के उद्देश्य, लक्ष्य दर्शक और रिपोर्ट के लोगो की पहचान करें।
- अनुसंधान अध्ययन, सर्वेक्षण या साक्षात्कार में शामिल विभिन्न संसाधनों से डेटा एकत्र करें और उसकी जांच करें।
- शीर्षक और उपशीर्षक सहित रिपोर्ट की एक राय।
2, परिचय
- रिपोर्ट और उसके उद्देश्य की रूपरेखा से शुरुआत करें।
- रिपोर्ट के लिए पृष्ठभूमि जानकारी और संदर्भ प्रदान करें।
- शोध पद्धति और दृष्टिकोण की व्याख्या करें।
3, मुख्य भाग
- रिपोर्ट को सूत्रधारों में विभाजित करें, प्रत्येक का स्पष्ट शीर्षक हो।
- शोध के निष्कर्ष और विश्लेषण को स्पष्ट और विश्वसनीय तरीकों से प्रस्तुत करें।
- दृश्य सहायता का उपयोग करने के लिए डेटा और जानकारी प्रस्तुत करें।
- ऐसी भाषा का उपयोग करें जो स्पष्ट हो।
- रिपोर्ट में सभी संसाधनों को निर्दिष्ट नामांकन शैली के अनुसार उद्धृत किया गया है।
4, निष्कर्ष
- रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष और निष्कर्ष का सारांश प्रस्तुत करें।
- रिपोर्ट का उद्देश्य कंपनी का पासपोर्ट और इसे कैसे हासिल किया गया।
- यदि लागू हो तो आगे की कार्रवाई के लिए सिफ़ारिशें या सुझाव प्रदान करें।
विभिन्न प्रकार की रिपोर्ट को समझने के लिए, व्यक्तिगत जानकारी को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने और अपने अनुयायियों को प्राप्त करने के लिए संरचना और संरचना का चयन कर सकते हैं। हालाँकि, उपयोग की जाने वाली रिपोर्ट का प्रकार रिपोर्ट के उद्देश्य, दर्शकों और संदर्भ पर सावधानी।
1, सूचनात्मक रिपोर्ट
यह रिपोर्ट किसी विषय, जैसे उत्पाद, सेवा या प्रक्रिया के बारे में जानकारी प्रदान करती है।
2, विश्लेषणात्मक रिपोर्ट
इस रिपोर्ट में पाठकों को रुझान, पैटर्न या आकृति को समझने में मदद करने के लिए बार-बार चार्ट, ग्राफ या आंकड़ों के साथ संरचित और सुरक्षा तरीकों से डेटा या जानकारी प्रस्तुत की जाती है।
3, ऑफिशियल रिपोर्ट
ये विशिष्ट दर्शकों के लिए, अक्सर एक विशिष्ट उद्देश्य के साथ लिखी गई विस्तृत और संरचित रिपोर्ट होती हैं। अनौपचारिक रिपोर्टों की तुलना में , अनौपचारिक रिपोर्टें आम तौर पर अन्य प्रकार की रिपोर्टों की तुलना में लंबी और अधिक जटिल होती हैं।
4, प्रगति रिपोर्ट
यह रिपोर्ट किसी परियोजना या प्रारंभिक प्रस्ताव की पेशकश करती है, जिसमें प्रगति और सामने आई किसी भी चुनौती या बाधा का विवरण दिया गया है।
5, तकनीकी रिपोर्ट
यह रिपोर्ट तकनीकी जानकारी प्रदान करती है, जैसे कि विशिष्टता, डिजाइन, या प्रदर्शन डेटा, जो अक्सर तकनीकी दर्शकों के लिए लक्षित होते हैं।
6, शोध रिपोर्ट
यह रिपोर्ट किसी विशेष विषय या मुद्दे पर किए गए शोध के निष्कर्ष प्रस्तुत करती है, जिसमें बार-बार साहित्यिक समीक्षा, डेटा विश्लेषण और निष्कर्ष शामिल होते हैं।
7, प्रोटोटाइप रिपोर्ट
एक सिद्धांत रिपोर्ट किसी सुझाए गए प्रोजेक्ट या प्रथम के लिए सफलता प्राप्त करने की संभावना का आकलन करती है।
8, व्यावसायिक रिपोर्ट
किसी भी कंपनी के प्रदर्शन, संचालन या बिक्री के बारे में जानकारी का उपयोग करने वाली इन रिपोर्टों में व्यावसायिक सेटिंग के लिए जानकारी दी जाती है। विभिन्न प्रकार की व्यावसायिक रिपोर्टों में वित्तीय विवरण, विपणन रिपोर्ट और वार्षिक रिपोर्ट शामिल हैं।
रिपोर्ट लेखन की विशेषताएँ / महत्व
प्रभावशाली रिपोर्ट लेखन की कई प्रमुख विशेषताएं हैं जो सुनिश्चित करने में सहायक हो सकती हैं कि प्रस्तुत की गई जानकारी स्पष्ट, प्रभावी और उपयोगी है। इनमें से कुछ व्यवसाय में शामिल हैं:
(1) स्पष्टता
रिपोर्ट स्पष्ट और मोहक भाषा में लिखी जानी चाहिए, ऐसे शब्दजाल या तकनीकी शब्दों से बचना चाहिए जो पाठकों को भ्रमित कर सकते हैं।
(2) वस्तुनिष्ठता
एक रिपोर्ट वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए, अर्थात यह विशिष्टता या व्यक्तिगत राय से मुक्त होनी चाहिए। डेटा या विश्लेषण प्रस्तुत समय यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
(3) विश्वसनीय डेटा
रिपोर्ट विश्वसनीय बेरोजगारों और रिक्तियों पर आधारित होनी चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि यह सही और अद्यतित है, जानकारी को सत्यापित और क्रॉस-चेक किया जाना चाहिए।
(4) संरचना
एक रिपोर्ट को स्पष्ट शीर्षकों, उपशीर्षकों और खंडों के साथ सिद्धांतों और सिद्धांतों के तरीकों से संरचित किया जाना चाहिए।
(5) दृश्य सहायक सामग्री
एक रिपोर्ट में चार्ट, टेबल और ग्राफ़ जैसे दृश्य सहायक उपकरण शामिल हो सकते हैं, जो मुख्य बिंदुओं को चित्रित करने और जानकारी को समझने में आसान बनाने में मदद कर सकते हैं।
(6) संकेत
रिपोर्ट में किसी भी दावे या निष्कर्ष का समर्थन करने के लिए संकेत शामिल होना चाहिए, जैसे आंकड़े, उद्धरण, या साहित्य के संदर्भ।
(7) सिफ़ारिशें
कई रिपोर्टों में भविष्य की कार्रवाई के आधार पर प्रस्तुत निष्कर्ष या विश्लेषण शामिल होते हैं।
(8) समस्याओं के क्षेत्र की पहचान
रिपोर्ट के अध्ययन से प्रबंधकों को इस बात की जानकारी मिल जाती है कि समस्याओं के क्षेत्र कौन से है अर्थात् किन क्षेत्रों मे समस्याएं है।
(9) समस्याओं के समाधान मे सहायक
रिपोर्ट से प्रबंधकों को जो सूचनाएं मिलती हैं उससे समस्याओं के समाधान मे सहायता मिलती है।
(10) निर्णयन मे सहायक
रिपोर्ट का उद्देश्य प्रबंधकों को अच्छी से अच्छी सूचनाएं देना होता है ताकि वह सही निर्णय पर पहुंच सके। अच्छी किस्म के निर्णयों मे रिर्पोट का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
किसी विषय का पूर्ण अध्ययन करके, सारे तथ्यों व सूचनाओं को एकत्रित करके, एवं उनकी जांच तथा छानबीन करके उपयुक्त निष्कर्ष निकालना तथा उस जांच के संबंध मे सुझावों को वैज्ञानिक ढंग से पेश करना रिर्पोट का उद्देश्य होता है। रिपोर्ट के माध्यम से पाठकों को एक विषय से संबंधित सभी पहलुओं पर एक ही स्थान पर पूर्ण जानकारी प्रदान की जाती है। रिपोर्ट के प्रायः तीन मुख्य उद्देश्य होते है–
- किसी विषय पर पूर्ण जानकारी एक ही स्थान पर उपलब्ध कराना,
- यदि भविष्य मे कभी आवश्यकता पड़े तो उस रिपोर्ट को संदर्भ के लिए प्रयोग किया जाना, एवं
- प्रबन्धकों, शेयरधारकों, ग्राहकों, जनता इत्यादि को किसी विषय पर आवश्यक सूचना प्रदान करना।
पाठ्य पुस्तकों के चयन के सिद्धान्त
पाठ्यपुस्तक एक व्यापक लिखित कार्य है जिसका उपयोग किसी विशेष विषय या अध्ययन पाठ्यक्रम में जानकारी के प्राथमिक स्रोत के रूप में किया जाता है। पाठ्यपुस्तकें क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा लिखी जाती हैं और आमतौर पर स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्रों को किसी विषय का बुनियादी ज्ञान और समझ प्रदान करने के लिए उपयोग की जाती हैं। वे प्रमुख विषयों, सिद्धांतों और अवधारणाओं को कवर करते हैं और अक्सर छात्रों को प्रस्तुत जानकारी को समझने और लागू करने में मदद करने के लिए उदाहरण, चित्र और समस्याएं शामिल करते हैं। पाठ्यपुस्तकें छात्रों के लिए एक संसाधन के रूप में उपयोग करने के लिए डिज़ाइन की गई हैं और आमतौर पर व्याख्यान, असाइनमेंट और परीक्षाओं के साथ होती हैं।
पाठ्यपुस्तक मूल्यांकन सामग्री की सटीकता, मुद्रा और प्रासंगिकता सुनिश्चित करके शैक्षिक सामग्री की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करता है। पाठ्यपुस्तक मूल्यांकन शैक्षिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यह पाठ्यपुस्तकों में प्रस्तुत सामग्री को सुनिश्चित करने में मदद करता है। यह यह भी सुनिश्चित करता है कि पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम के लक्ष्यों के अनुरूप हों और छात्रों की आवश्यकताओं और क्षमताओं को पूरा करें। मूल्यांकन के माध्यम से, सामग्री में कमियों को पहचाना और संबोधित किया जा सकता है, जिससे अधिक व्यापक और प्रभावी शिक्षण सामग्री तैयार की जा सकती है। कुल मिलाकर, पाठ्यपुस्तक मूल्यांकन छात्रों की सफलता को बढ़ावा देने और उन्हें भविष्य के लिए तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पाठ्य पुस्तकों को चयन के लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखना होता है जिसको लेकर के पाठ्य पुस्तकों का चयन किया जा सकता है बेहतर तरीके से जो हमारे लिए काफी उपयोगी होता है।
(1) उपयुक्त विषय-सामग्री
- पाठ्य पुस्तक की विषय सामग्री छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिए। छात्रों के वातावरण सम्बन्धी विषय-सामग्री पाठ्य पुस्तक में निहित होनी चाहिए।
- विषय-सामग्री भारतीय संस्कृति, जीवन और सभ्यता से सम्बन्धित होनी चाहिए।
- पाठ्य सामग्री में वे सभी तथ्य हो जिनका ज्ञान प्राप्त करना एक व्यय वर्ग के बालकों के लिए आवश्यक हो ।
- विषय-सामग्री सूचना प्रदान करने वाली तथा छात्रों के व्यावहारिक प्रयोग के लिए उपयुक्त होनी चाहिए।
- पाठ्य-सामग्री में विभिन्नता के साथ-साथ श्रमबद्धता भी आवश्यक होती हैं।
- पाठ्य सामग्री में नैतिकता की बाते अवश्य होनी चाहिए।
(2) भाषा तथा शब्दावली
- छोटे बच्चों की पुस्तकें सरल तथा स्पष्ट भाषा में लिखी होनी चाहिए। बड़े बालकों की पुस्तकें भी ऐसी होनी चाहिए।
- पाठ्य पुस्तक में शब्दावली का चयन सतर्कता से किया जाना चाहिए। प्राथमिक कक्षाओं में प्रयोग होने वाली पाठ्य पुस्तकों की शब्दावली सीमित होनी चाहिए।
- शब्दावली इस तरह की होनी चाहिए जिसे शीघ्रता से पढ़ा जा सके।
(3) छपाई
- छपाई के लिए काली, गहरी तथा चमकने वाली स्याही का प्रयोग किया जाना चाहिए।
- छपी पंक्तियों की दूरी एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर होनी चाहिए।
- प्रत्येक पृष्ठ के चारों ओर पर्याप्त स्थान होना चाहिए।
(4) आकर्षक कवर पेज
पुस्तक का कवर पेज आकर्षक होना जरूरी है जो एक बेहतर पुस्तक की गुणवत्ता को प्रदर्शित करता है आकर्षक कवर पेज उसे पुस्तक के शीर्षक के साथ इस तरह से आकर्षक होना चाहिए जो उसे संपूर्ण पुस्तक के कंटेंट को प्रदर्शित करता हो।
(5) उपयोगी- पाठ्य
पुस्तकों का चयन उसकी उपयोगिता को देखते हुए किया जाना चाहिए। बालक के बौद्धिक, सामाजिक, संवेगात्मक एवं शारीरिक विकास के अनुसार उसकी रुचियाँ एवं आवश्यकताएं परिवर्तित होती रहती है।
अतः बालक के लिए उपयोगी पुस्तकों का चयन किया जाना चाहिए। पाठय पुस्तक की पाठ्यवस्तु छात्रों हेतु अधिक से अधिक उपयोगी होना चाहिए जो कि उनके अध्ययन में सहायक बने तथा उन्हें संशयों से मुक्ति दिलाए । छात्रों के भविष्य में व्यावसायिक मार्गदर्शन तथा परामर्श भी पाठ्य पुस्तकें दे सकती है जो कि बालकों के लिए सबसे अधिक उपयोगी होगा।
(6) वैधता एवं विश्वसनीयता
किसी भी पाठ्य पुस्तक की वैधता उस पाठ्य पुस्तक के मानदण्ड होते है। विश्वसनीयता पुस्तक की होती है। कहने का शुद्धता एवं तथ्यों की सत्यता तात्पर्य है कि पाठ्य पुस्तक की समक्ष पाठ्यवस्तु सत्य एवं तार्किक रूप से शुद्ध हो। यह शिक्षक को समझकर पाठ्य पुस्तक के सार को छात्रों के प्रस्तुत कर सकता है। इसके अतिरिक्त व्याकरण से सम्बन्धित त्रुटियाँ आदि भी पाठ्य पुस्तक की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है।
(7) सम्पूर्णता
किसी भी प्रकार की पाठ्य पुस्तक छात्रों हेतु उपयोगी होगी तभी वह सम्पूर्ण मानी जाएगी जैसे- छात्रों की परीक्षा की दृष्टि से सहायता करें। पाठ्य पुस्तक के प्रकरणों की सम्पूर्णता से छात्रों का ज्ञानात्मक विकास होगा। इस प्रकार पाठ्य पुस्तक के तत्त्वों को संशयपूर्ण नहीं होना चाहिए न उन्हें अधूरा ही होना चाहिए।
(8) क्रमबद्धता
पाठ्य पुस्तक में पाठ्यवस्तु एवं प्रकरण एक क्रमबद्ध रूप से एक व्यवस्था के अन्तर्गत रखे जाने चाहिए जिससे छात्रों को पूर्व ज्ञान को नवीन ज्ञान के साथ सम्बद्ध करने में कठिनाई न आए तथा एक ही तारतम्य में ज्ञान का विकास एवं प्रसार हो सकें। पूर्व ज्ञान होने से आधार ज्ञान सुदृढ होगा।
पाठ्यक्रम का चयन हमेशा शैक्षिक उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। पाठ्यक्रम का चयन करने के बाद उसको श्रेणीबद्ध किया जाता है जिससे अभिगम उद्देश्यों की आसानी से पूर्ति हो सके। जो पाठ्यक्रम शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा नहीं करता है, वह पाठ्यक्रम उचित नहीं माना जाता है।
पाठ्यक्रम का चयन करते समय पाठ्यक्रम निर्माता के सामने कुछ समस्याएं भी आती हैं, जैसे-व्यक्तिगत भिन्नताएं, वर्तमान एवं निकट भविष्य में छात्र-संख्या की प्रकृति तथा संरचना, छात्रों की वर्तमान तथा भविष्य की आवश्यकताएं, निर्धनता उन्मूलन हेतु सर्वाधिक उत्पादन क्षमता की आवश्यकता, लोकतान्त्रिक नागरिकता का विकास तथा उसकी आवश्यकता, उपयोगिता या प्रदत्त सूचनाओं से जुड़ी सीमाएं, विषय की प्रकृति तथा संरचना से जुड़ी सीमाएं, प्रत्येक स्तर पर छात्रों के विकास तथा उनकी क्षमताओं से जुड़ी सीमाएं । इसलिए पाठ्यक्रम के चुनाव में कई तथ्यों को ध्यान में रखना पड़ता है
(1) अनुभवों की समग्रता का सिद्धांत
यह समझना जरूरी है कि पाठ्यक्रम केवल पारंपरिक रूप से स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले शैक्षणिक विषयों को इंगित नहीं करता है। इसमें कई पाठ्यचर्या संबंधी, पाठ्येतर और सह-शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से एक छात्र द्वारा प्राप्त अनुभवों की समग्रता भी शामिल है।
(2) बाल-केन्द्रितता का सिद्धांत
पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम पर अड़े रहने के बजाय, प्रशिक्षकों को पाठ्यक्रम विकसित करते समय बच्चे की चिंताओं, उद्देश्यों और जरूरतों पर विचार करना चाहिए। इसके अलावा, किसी भी पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों की योजना बनाते समय, शिक्षकों को शिक्षार्थियों की रुचियों को समृद्ध करने के तरीकों पर विचार करना चाहिए।
(3) संरक्षण और रचनात्मकता का सिद्धांत
पाठ्यक्रम विकसित करते समय उन विषयों और अनुभवों को शामिल करना अनिवार्य है जो सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में मदद करेंगे। इसके अलावा, पाठ्यक्रम विकास के सबसे आवश्यक सिद्धांतों में से एक यह है कि पाठ्यक्रम स्थिर नहीं हो सकता।
इसके विपरीत, इसमें बदलते वैश्विक शैक्षिक रुझानों और छात्रों की जरूरतों के अनुरूप आवश्यकता के अनुसार संशोधन किया जाना चाहिए।
(4) एकीकरण का सिद्धांत
पाठ्यक्रम की योजना इस प्रकार बनाई जानी चाहिए कि शिक्षा के विभिन्न चरणों में विभिन्न विषयों को जोड़ा जा सके। इसी प्रकार, छात्रों को सामग्री के साथ सहसंबंध बनाने में सक्षम बनाने के अलावा मौजूदा विषयों को अन्य विषयों के साथ एकीकृत करने में सक्षम होना चाहिए।
(5) लचीलेपन का सिद्धांत
एक पाठ्यक्रम में जो आदर्श गुण होने चाहिए उनमें से एक है लचीलापन और गतिशीलता, क्योंकि यह व्यक्तियों और समाज की जरूरतों और चिंताओं को पूरा करने में सहायक होगा। इसके अलावा, पाठ्यक्रम में समय पर परिवर्तन और उचित संशोधन शिक्षकों और शिक्षार्थियों को शैक्षणिक लक्ष्यों के साथ अद्यतन रहने की अनुमति देता है।
(6) उपयोगिता का सिद्धांत
पाठ्यक्रम निर्माण में उपयोगिता के सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए, जिसके अनुसार शिक्षकों को ऐसी सामग्री शामिल करनी चाहिए जो व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी हो। इसके अलावा, पाठ्यक्रम में समृद्ध और मूल्यवान सामग्री शामिल होनी चाहिए जो बाद में जीवन में उपयोगी हो।
(7) चरित्र निर्माण का सिद्धांत
पाठ्यक्रम का लक्ष्य केवल किताबी ज्ञान के माध्यम से शिक्षार्थियों को शिक्षित करना नहीं है। इसे छात्रों में चरित्र और व्यक्तित्व के विकास को भी प्रोत्साहित करना चाहिए। इसलिए, पाठ्यक्रम को पूरे शैक्षणिक वर्षों में छात्रों के चरित्र प्रशिक्षण में सहायता करनी चाहिए।
(8) मानसिक अनुशासन का सिद्धांत
पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण कार्य संज्ञानात्मक प्रशिक्षण और अभ्यास के माध्यम से शिक्षार्थियों की विभिन्न मानसिक क्षमताओं या शक्तियों को बढ़ावा देना है।
(9) सामाजिक पूर्ति का सिद्धांत
शिक्षा का उद्देश्य व्यापक शिक्षण शैलियों और सामग्री के माध्यम से छात्रों का समग्र विकास प्रदान करना है। इसके अलावा, पाठ्यक्रम में सामाजिक जीवन के तत्व को जोड़ने पर भी विचार किया जाना चाहिए ताकि शिक्षार्थी जिम्मेदार नागरिक बनने के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें।
संप्रेषण का अर्थ (Meaning of Communication)
- संप्रेषण का अर्थ किसी सूचना या संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाना है।
- संप्रेषण का हमारे जीवन के शिक्षा, शैक्षिक, व्यापारिक, प्रशासनिक तथा सामाजिक आदि क्षेत्रों में अत्यंत महत्व है।
संचार प्रणाली के तत्व
(1) विषय सामग्री
- जिसका संप्रेषण करना है वह विशेष सामग्री होती है। जैसे आदेश, निर्णय, सूचना, आंकड़े आदि।
(2) संप्रेषण की विधि
- संप्रेषण की अनेक विधियां है। जैसे कि, लिखकर, बोलकर, सुनकर, हाव भाव द्वारा।
(3) संप्रेषण प्रक्रिया
- इसमें संदेश के स्त्रोत से लेकर संदेश पहुंचने तक सभी आवश्यक अंग आते हैं। जैसी संवाददाता, संवाद, माध्यम, संवाद प्राप्तकर्ता आदि।
संप्रेषण की प्रकृति (Nature of Communication)
(1) प्रगतिशील प्रक्रिया
- संप्रेषण विचारों का आदान-प्रदान माना जाता है जो निरंतर चलता रहता है।
(2) संप्रेषण कौशल
- संप्रेषण एक प्रकार का कौशल है जो चार प्रकार के होते हैं।
- श्रवण कौशल, वादक कौशल, लेखन कौशल, पठन कौशल।
(3) द्विमार्गीय संदेशवाहक
- प्रभावी संप्रेषण को दो तरफा रास्ता माना जाता है।
(4) भाव प्रदर्शन (Gestures)
- संप्रेषण को संकेतों के माध्यम से भी आयोजित किया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि संप्रेषण सदैव मौखिक या लिखित हो।
Note- Decoder संप्रेषण प्रक्रिया में वह होता है जो संदेश प्राप्तकर्ता होता है।
Note- Encoder संप्रेषण प्रक्रिया में वह होता है जो संदेश भेजता है।
संप्रेषण के प्रकार (Types of Communication)
संबंधों के आधार पर संप्रेषण का वर्गीकरण
(1) अवैयक्तिक संप्रेषण (Impersonal Communication)
- अवैयक्तिक संप्रेषण आत्म चर्चा, आत्म विचार, आत्ममथन के रूप में जाना जाता है।
- इसमें संदेश प्रेषक एवं संदेश प्राप्तकर्ता एक ही व्यक्ति होता है।
- यह एक स्वचालित संप्रेषण प्रक्रिया है।
- इसमें ध्यान लगाना, चिंतन करना, इष्ट देव से प्रार्थना करना आदि शामिल है।
(2) अतवैयक्तिक संप्रेषण (Interpersonal Communication)
- अतवैयक्तिक संप्रेषण से तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच विचारों, भावनाओं और सूचनाओं के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आदान-प्रदान से है।
- इसमें दो व्यक्तियों के बीच संपर्क होना जरूरी है।
(3) समूह संप्रेक्षण (Group Communication)
- समूह संप्रेषण दो से अधिक व्यक्तियों के विचारों एवं कौशल का आदान-प्रदान है।
- इसमें सामूहिक निर्णय लेने, आत्म अभिव्यक्ति, व्यक्तिगत प्रभाव में वृद्धि आदि शामिल है।
(4) जन संप्रेषण (Mass Communication)
- जहां विशाल जनसमूह के साथ संप्रेषण होता है।
- इसे मध्यस्था संप्रेषण भी कहा जाता है। जिससे कई संदेशों को एक साथ बहुत लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।
- जन संप्रेषण के उदाहरण समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमाघर, इंटरनेट आदि है।
चैनल के आधार पर संप्रेषण के प्रकार
(1) शाब्दिक संप्रेषण (Verbal Communication)
- इसमें शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिसमें की लिखकर और बोलकर दोनों में से कोई भी हो सकता है।
(2) मौखिक संप्रेषण (Oral Communication)
- इसमें मौखिक रूप से वाणी द्वारा विचारों एवं सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाता है।
- मौखिक संप्रेषण में प्रेषक और प्राप्तकर्ता दोनों आमने सामने रहते हैं।
- इसमें प्रत्यक्ष वार्तालाप, टेलीफोन के माध्यम से वार्तालाप, भाषण, सामूहिक चर्चा, रेडियो, टीवी आदि शामिल है।
लिखित संप्रेषण (Writing Communication)
- इसमें संप्रेक्षण लिखित रूप में होता है जो कि मुद्रित या हस्तलिखित दोनों ही हो सकता है।
- इसका स्वरूप मौखिक ना होकर लिखित होता है जैसे ईमेल, पत्र, रिपोर्ट और ज्ञापन आदि।
अशाब्दिक संप्रेषण (Non-Verbal Communication)
- अशाब्दिक संप्रेषण बिना शब्दों के व्यक्त किया जाता है।
- इसमें शारीरिक मुद्रा, मुख मुद्रा, स्पर्श, निकटता, वेशभूषा, वाणी संकेत आदि शामिल है।
उद्देश्य और शैली के आधार पर संप्रेषण के प्रकार
(1) औपचारिक संप्रेषण (Formal Communication)
- औपचारिक संप्रेषण में कुछ निश्चित नियमों और अधिनियमों का पालन किया जाता है।
- इसमें सही भाषा और सही उच्चारण की आवश्यकता होती है।
- यह संप्रेषण विश्वसनीय होते हैं जिसमें आदेश, निर्देश अधिक विश्वसनीय होते हैं।
- औपचारिक संप्रेषण स्थाई रिकॉर्ड होता है जिसमें पत्र, रिपोर्ट आदि को संभाल कर रखा जाता है जो भविष्य में निर्णय लेने में सहायक होता है।
(2) अनौपचारिक संप्रेषण (Informal Communication)
- यह संप्रेषण औपचारिक संप्रेषण के ठीक विपरीत होता है।
- कोई भी व्यक्ति या संस्थान अनौपचारिक संप्रेषण के बिना संभव नहीं है।
- अनौपचारिक संप्रेषण का प्रयोग आम बोलचाल में किया जाता है।
संप्रेषण का महत्व
- शिक्षा और कक्षा अनुदेश के लिए आवश्यक
- समूह के सुचारू संचालन के लिए
- प्रेरणा और मनोबल के रूप में
- व्यवहार नियंत्रण का कार्य
- सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ाने में सहायक
- सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता में सहायक
BY: TEAM KALYAN INSTITUTE
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