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पाठ्यक्रम और विषयों की समझ

बच्चों के सर्वांगीण विकास में पाठ्यक्रम और विषयों की समझ बहुत ही अनिवार्य है। बच्चों की स्कूली शिक्षा में भाषा विज्ञान तथा भाषाई समझ के साथ-साथ अनुशासनात्मक ज्ञान और व्यक्तिपरक ज्ञान, प्रासंगिकता तथा पारंपरिक ज्ञान तथा वैज्ञानिक ज्ञान का समायोजन होना बहुत ही आवश्यक है। जिससे विद्यार्थी प्राचीनतम एवं आधुनिकता के साथ समन्वय स्थापित करके शैक्षणिक गतिविधियों को बेहतर तरीके से आगे बढ़ा सकता है।

ज्ञान का अर्थ (Meaning of Knowledge)

ज्ञान शब्द ‘ज्ञ’ धातु से बना है जिसका अर्थ है:- जानना, बोध, साक्षात अनुभव अथवा प्रकाश। सरल शब्दों में कहा जाए तो किसी वस्तु अथवा विषय के स्वरूप का वैसा ही अनुभव करना ही पूर्ण ज्ञान है।

ज्ञानेन्द्रियों से बौद्धिक अनुभव को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान प्राप्ति के निमित्तं बुद्धि का होना परम आवश्यक है। अतः स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष अनुभव, प्रायोगिक कौशल और जानकारी के द्वारा किसी तथ्य, तत्व अथवा वस्तु से परिचित होना ही ज्ञान है। पृथ्वी पर मनुष्य ही एक मात्र ऐसा चेतन प्राणी है, जो विचार, चिन्तन, मनन, मंथन और अनुभव प्राप्त करने में समर्थ है जिसके आधार पर वह नये तथ्यों व तत्वों से अवगत होता है और ज्ञान प्राप्त करता है।

नोट – हमारी वेबसाइट पर B.Ed प्रोग्राम के लगभग सभी टॉपिको पर विस्तारपूर्वक विशेषण किया गया है, यह विश्लेषण आपको हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में उपलब्ध है जिसके लिए आपको मेनू में जाकर B.Ed प्रोग्राम को सेलेक्ट करके देख सकते हैं।

ज्ञान की परिभाषाएं

प्रो. रसेल (Proof. Russel) – “ज्ञान वह है जो मनुष्य के मन को प्रकाशित करता है।”

प्रो. जोड (Prof. Joad) – “ज्ञान हमारी उपस्थिति, जानकारी और अनुभवों के भण्डार में वृद्धि का नाम है।”

सुकरात (Socrates) – “ज्ञान सर्वोच्च सद्गुण है।”

वस्तुवादी (Realists)– “ज्ञान को वस्तु का ज्ञान मानते है।”

प्रत्ययवादी (Idealists) – “ज्ञान को आदर्श का ज्ञान मानते हैं।”

ज्ञान का महत्व (Importance of Knowledge) 

मानव जीवन के लिए ज्ञान का महत्व बहुत अधिक है। मानव जीवन के लिए ज्ञान उसकी रीढ़ की हड्डी की तरह कार्य करता है। इसलिये ज्ञान का महत्व बहुत बढ़ गया है।

  1. ज्ञान को मनुष्य की तीसरी आँख कहा गया हैं।
  2. ज्ञान ही गुण है। ज्ञान मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
  3. ज्ञान मानव जीवन सार है, विश्व का नेत्र है, ज्ञान से बढ़कर कोई सुख नहीं है।
  4. ज्ञान का प्रकाश सूर्य के समान है, ज्ञानी मनुष्य ही अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम होता है।
  5. ज्ञान विश्व के रहस्यों को खोजता है।
  6. ज्ञान से चरित्र निर्माण व बोध होता है।
  7. ज्ञान धन की तरह हैं, जितना एक मनुष्य को प्राप्त होता है, वह उतना ही ज्यादा पाने की इच्छा रखता है।
  8. ज्ञान सत्य तक पहुँचने का साधन है।
  9. धर्म की भाँति ज्ञान को भी जानने के लिए अनुभव करने चाहिए।
  10. ज्ञान प्रेम तथा मानव स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों का ही आधार है।
  11. एक बार प्राप्त किया गया ज्ञान सतत् प्रयोग किया जाने वाला बन जाता है।
  12. तथ्य मूल्य ज्ञान के आधार के रूप में कार्य करता है। 13. ज्ञान क्रमबद्ध चलता है, आकस्मिक नहीं आ जाता।
  13. ज्ञान शक्ति है।

ज्ञान की प्राकृति (Nature of Knowledge) 

ज्ञान की प्रकृति को ज्ञान की विशेषताओं के माध्यम से समझा जा सकता है। ज्ञान के शाब्दिक अर्थ से भी ज्ञान की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। ज्ञान की विशेषताएँ व प्रकृति इस प्रकार है-

  1. ज्ञान में शक्ति है, ताकत है।
  2. ज्ञान कभी भी समाप्त नहीं होता।
  3. ज्ञान सत्य तक पहुँचने का साधन है।
  4. ज्ञान धन की तरह है, जितना एक मनुष्य को प्राप्त होता है, वह उतना ही ज्यादा पाने की इच्छा करता है।
  5. ज्ञान प्रेम तथा मानव स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों का ही आधार है।
  6. ज्ञान क्रमबद्ध बढ़ता रहता है, एकदम अचानक से नहीं मिल जाता।
  7. ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती।
  8. ज्ञान की पुष्टि की जा सकती है।
  9. ज्ञान सुनिश्चित है।
  10. तथ्य तथा मूल्य ज्ञान के आधार माने जाते हैं।
  11. शब्दों के अर्थ, शर्तें, विचार ज्ञान के आधार के रूप में कार्य करते हैं।
  12. सूचना ज्ञान का स्रोत है।
  13. धर्म की भांति ज्ञान को जानने के लिए अनुभव करने चाहिए।

ज्ञान के सिद्धान्त (Theories of knowledge)

ज्ञान के सिद्धान्त, ज्ञान की उत्पति, प्रकृति व उसके प्रकारों पर निर्भर करते हैं। ज्ञान के छह सिद्धान्त बताए गए है

  1. अनुभववादी सिद्धान्त (Theory of Empiricism)
  2. बुद्धिवाद का सिद्धान्त (Theory of Rationalism)
  3. संवेद विवेकपूर्ण सिद्धान्त (Sense Rationalisation Theory)
  4. प्रायोगिक सिद्धान्त (Experimental Theory)
  5. योग सिद्धान्त (Yogic Theory)
  6. समीक्षावाद का सिद्धान्त (Criticism Theory)
  1. अनुभववादी सिद्धान्त (Theory of Empiricism) 

अनुभववादी सिद्धान्त के अनुसार अनुभव ज्ञान की जननी है। अनुभववादी के जन्मदाता ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक के अनुसार, “जन्म के समय बालक का मन एक कोरी पट्टी या कागज के समान होता है।” जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। जैसे-जैसे वह बारी जगत के सम्पर्क में आता है, संवेदनाओ के रूप में वस्तुओं के चिन्ह मस्तिष्क की इस खाली पट्टी पर अंकित होते जाते हैं। इस प्रकार ज्ञान की सामग्री बाहर से आती है। ज्ञान जन्मजात नहीं है, परन्तु अर्पित है। सभी ज्ञान अनुभव द्वारा प्राप्त किया जाता है। अनुभव को समूचे ज्ञान का स्रोत माना जाता है। यह हमारे मस्तिष्क या मन के बाहर से आता है। यह स्वयं मन के अन्दर जन्म के पूर्व ही से निहित नहीं होता। मनुष्य को ज्ञान विभिन्न इन्द्रियो के माध्यम से प्राप्त संवेदनाओं के द्वारा होता है। अनुभववाद के प्राचीन रूप में ज्ञान-प्राप्ति में बुद्धि का तनिक भी सहयोग स्वीकार नहीं किया जाता। आधुनिक अनुभववादियों ने बौद्धिक प्रक्रियाओं की प्राथमिकता को ज्ञान-विस्तार में अस्वीकार तो नहीं किया है परन्तु वे यह कह देते हैं कि इस बौद्धिक सहयोग की अन्तिम उत्पत्ति अनुभव ही है। दूसरे शब्दों में बुद्धि ज्ञान में कुछ कभी कर सकती है, किन्तु इस कमी की सत्यता केवल अनुभव द्वारा ही प्राप्त होती है। अनुभववादियों के अनुसार ज्ञान बाहरी है। और उस पर मन अथवा मस्तिष्क का किसी भी प्रकार का आन्तरिक निर्धारण नहीं है। समस्त ज्ञान का अन्तिम उद्गम स्थल अनुभव है। अनुभव या संवेदना के बिना कोई ज्ञान सम्भव नहीं है। अनुभववादी जन्मजात प्रत्ययो के विरुद्ध है। अनुभववादी ऐसे किसी भी पदार्थ को नहीं मानते जो कि अनुभव से सिद्ध न होता हो।

  1. बुद्धिवाद का सिद्धान्त (Theory of Rationalism) 

सुकरात और प्लेटो ने यह सिद्धान्त दिया है कि सत् ज्ञान (Real Knowledge) की उत्पत्ति बुद्धि से होती है। उन्होंने यह भी कहा है कि इन्द्रिय ज्ञान असत् और अस्थायी (अल्पकालीन) है। इस दृष्टि से उन्हें बुद्धिवाद का आंदे प्रवर्तक कहा जा सकता है। ज्ञान मीमांसा के स्वरूप और स्रोत सम्बन्ध का दूसरा प्रमुख सिद्धान्त बुद्धिवाद का सिद्धान्त है। बुद्धिवादियों के अनुसार समस्त ज्ञान पर आधारित है। केवल बुद्धि के द्वारा ही निश्चित, सत् और सार्वभोम ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। बुद्धि ही ज्ञान का अन्तिम प्रमाण है। बुद्धि हमें जन्म से मिलती है और उसी से हम समस्त ज्ञान प्राप्त करते हैं। ज्ञान प्रत्यय (Ideas) के रूप में होता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि हमारे ये प्रत्यय जन्म से हमारे साथ हैं। अत: जन्मजात हैं। इस प्रकार के विचारकों को हम बुद्धिवादी और उनके इस बुद्धि के ज्ञान की उत्पत्ति मानने के सिद्धान्त को बुद्धिवाद कहते हैं। उनके विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बुद्धिवाद वह वाद है जिसके अनुसार ज्ञान के कुछ प्रत्यय (Ideas) जन्मजात होते हैं।

बुद्धिवाद और अनुभववाद में अन्तर (Difference Between Rationalism and Empiricism)

बुद्धिवाद (Rationalism) अनुभववाद (Empiricism)
1. वास्तविक ज्ञान वह है जो सार्वभौमिक (Universal) हो और जिसमें सन्देह न किया जा सके।

2. ज्ञान बौद्धिक (Intellectual) है।

3. ज्ञान का आधार बुद्धि (Intellect) है।

4. सत्य विचार या प्रत्यय बुद्धि में जन्मजात (Innate) | होते हैं।

5.सत्य अनुभव पूर्व हैं। (Truths are a priori)

6. ज्ञान में मन सक्रिय (Active) होता है।

7. ज्ञान का प्रमाण बुद्धि है।

8. ज्ञान की सीमा बुद्धि की सीमा है।

9. ज्ञान की विधि निगमनात्मक है।

10. मन अपने अन्दर से ज्ञान का विस्तार उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार मकड़ी अपने अन्दर से जाला पूरती है।

11. बुद्धिवाद देकार्तो (Descrates) के दर्शन में प्रारम्भ होकर स्पिनोजा (Spinoze) के दर्शन कें विकसित हुआ और लाइब निल्ज (Leibnitz) के दार्शन में अपनी चरम सीमा पर पहुँचा।

 

1- वास्तविक ज्ञान वह है जिसमें कुछ नयापन हो।

2- ज्ञान संवेदनात्मक है।

3- ज्ञान का आधार संवेदनात्मक अनुभव है।

4- सत्य विचार या प्रत्यय संवेदनाओं से उत्पन्न होते हैं। वे जन्म जात नहीं होते परन्तु अर्जित (Acquired) होते हैं।

5- सत्य अनुभव के पश्चात् मालूम होते हैं।

6- ज्ञान में मन निष्क्रिय होता है।

7- ज्ञान का प्रमाण प्रत्यक्ष है।

8- ज्ञान की सीमा अनुभव की सीमा है।

9- ज्ञान की विधि आगमनात्मक (Inductive) है।

10- मन शहद की तरह ज्ञान के एक-एक कण को बाहर से इकट्ठा करके ज्ञान का भण्डार करती है।

11- अनुभववाद जॉन लॉक (Locke) के दर्शन में प्रारम्भ होकर बर्कले (Berkeley) के दर्शन में विकसित हुआ और डेविड ह्यूम (Hume) के दर्शन में अपनी चरम सीमा पर पहुँचा।

 

  1. संवेद विवेकपूर्ण सिद्धान्त (Sense Rationalisation Theory) 

यह सिद्धान्त अरस्तु द्वारा दिया गया है। इस में अरस्तू ने पूर्ण अनुभववाद तथा पूर्ण तर्कवाद को स्वीकार नहीं किया। अरस्तू का मानना था कि चेतन सामग्री की क्षमता को तर्क के द्वारा वास्तविक बनाया जाता है और इस प्रकार तुम्हारे पास विचारों, तथ्यों, सिद्धान्तों तथा ज्ञान प्रणाली का विस्तृत स्वरूप होता है। कान्त के अनुसार अनुभववाद और बुद्धिवाद दोनों अन्धविश्वासी हैं। उसके अनुसार हम अनुभव के साथ ज्ञान के उद्देश्य के लिए कार्य आरम्भ कर सकते हैं; परन्तु अनुभव स्वयं में ज्ञान प्रदान नहीं करते। इसमें ज्ञान को रूप देने के लिए तर्क की आवश्यकता होती है। आजकल के आधुनिक विद्यालय मस्तिष्क तथा चेतना दोनों के प्रशिक्षण के कार्य करते हैं शिक्षण कौशल मस्तिष्क तथा चेतना की सहायता से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करते हैं ताकि वे स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें।

  1. प्रायोगिक सिद्धान्त (Experimental Theory)

यह सिद्धान्त ज्ञान के ऐन्द्रिक व तार्किक इन दोनों स्तरों में से सम्बन्ध रखता है। प्रयोजनावाद जीवन का सिद्धान्त है जो प्रयोगों पर आधारित ज्ञान के सिद्धान्त को स्वयं में समेटे हुए है। आजकल प्रायोगिक सिद्धान्त ज्ञान प्राप्त करने की इस विधि का समर्थन करते हैं। उसके अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की सर्वात्तम विधि है प्रयोग या अनुभव। वही ज्ञान उपयोगी है जिसे हम करके, अपने अनुभवों के आधार पर प्राप्त करते हैं। उसके अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि है। प्रयोग या अनुभव। वही ज्ञान उपयोगी है जिसे हम करके, अपने अनुभवों के आधार पर प्राप्त करते हैं। ज्ञान की सत्यता-असत्यता की जाँच प्रयोग के द्वारा की जा सकती है। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति प्रायोगिक विधि पर आधारित होने के कारण की ‘प्रयोजनवाद’ को ‘प्रयोगवाद’ भी कहा जाता है। इस विधि के अनुसार जैसे-जैसे व्यक्ति नये-नये अनुभव प्राप्त करता है वैसे-वैसे उसके पूर्व अर्जित ज्ञान में निखार व सुधार आ जाता है।

5. योग सिद्धान्त (Yogic Theory) 

योग सिद्धान्त के मुख्य प्रतिनिधि पातंजलि ने इस सिद्धान्त का काफी महत्त्व दर्शन के क्षेत्र में बताया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत उन्होंने बताया है कि मस्तिष्क की एक प्रमुख विशेषता है कि यह व्यग्र है व इसके साथ-साथ इसमें अज्ञानता है जो सभी शारीरिक तथा मानसिक विचलनों की जड़ है। योग का मुख्य उद्देश्य उस मानसिक चंचलता को नियन्त्रित करना है तथा इस मस्तिष्क को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना है और सभी बुराइयों की जड़ अज्ञानता को जड़ से खत्म करना है। यह केवल योग की साधना के विकास से ही संभव है जिसमें कुछ शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएँ करवाई जाएं जिससे केन्द्रीयकरण की सहायता से मानसिक संचेतना को उच्च स्तर तक ले जाया जा सके। जब एक योगी इस स्तर तक पहुँच जाता है तो ज्ञान आत्मा को अनुभव करने लगता है योग के सिद्धान्त के बल पर नैतिक क्षेत्र में जो स्थायी रूप से जरूरी है। नैतिकता पर चलने को अभिप्रेरित करता है। जो नैतिकता, सत्यता की अच्छाइयों रूपी ज्ञान हम योग के बल पर सीख सकते हैं। वह दूसरे किसी सिद्धान्त से इतना सहज नहीं है।

  1. समीक्षावाद का सिद्धान्त (Criticism Theory) 

आधुनिक दर्शन का महारथी, प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इमैनुअल काण्ट (Immanual Kant) ज्ञान के कारण की खोज के लिए बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों की ओर बढ़ा। उसने पक्षपात रहित होकर इन दोनों वादों और ज्ञान की शक्ति की परीक्षा की। इसलिए उसके निर्धारित सिद्धान्तों को परीक्षावाद का नाम दिया। इसके अनुसार दार्शनिक प्रणाली न बुद्धिवाद की प्रणाली है और न अनुभववाद की परन्तु, समीक्षा की प्रणाली है।

ज्ञान के उद्देश्य (Objectives of Knowledge)

  1. व्यक्तिगत विकास

ज्ञान से व्यक्तियों का व्यक्ति का व्यक्तिगत विकास होता है। व्यक्तिगत विकास के सभी पहलुओं का उद्देश्य; जैसे व्यवहार में सुधार, सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास, व्यक्तित्व को आकर्षक बनाना और भाषा पर नियंत्रण और कौशल का विकास शामिल है। यह सब ज्ञान के बलबूते ही होता है।

  1. व्यक्तिगत अनुभवों को सुदृढ़ बनाना

ज्ञान का दूसरा उद्देश्य व्यक्तिगत अनुभवों को सुदृढ़ करना है। जब तक हमारे व्यक्तिगत अनुभव अनुभूति के माध्यम से मानसिक तंत्रिका तंत्र का हिस्सा नहीं बन जाते, तब तक उन्हें ज्ञान नहीं कहा जा सकता।

  1. समस्याओं के समाधान में सहायक

ज्ञान का एक उद्देश्य समस्याओं के समाधान में सहायक होना भी है। ज्ञान के अभाव में हम न तो समस्याओं को पहचान पाते हैं और न ही उनका समाधान कर पाते हैं। उदाहरण के लिए शैक्षिक समस्याओं का समाधान शिक्षा संबंधी ज्ञान से ही संभव है। इसी प्रकार सभी क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान उस क्षेत्र विशेष के ज्ञान से ही संभव है।

  1. इतिहास, संस्कृति एवं समाज का विकास

ज्ञान का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य इतिहास, संस्कृति एवं समाज का विकास करना है। इतिहास प्रगति करता है, लेकिन इतिहास को समझने के लिए एक विशेष प्रकार का ज्ञान आवश्यक है; उदाहरण के लिए, पुरातत्व ज्ञान के विकास से पहले इतिहास का अस्तित्व तो था, लेकिन इतिहास का विकास नहीं हो सका। इतिहास के तथ्यों के विश्लेषण में ज्ञान महत्वपूर्ण है। संस्कृति ज्ञान पर निर्भर है, ज्ञान के बिना संस्कृति की प्रगति संभव नहीं है। संस्कृति से संबंधित पहलुओं जैसे काम करने का तरीका, व्यवहार का तरीका आदि का विकास ज्ञान का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।

  1. सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक विश्लेषण

सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण में भी ज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह विभिन्न प्रकार की स्थितियों का विश्लेषण करने तथा वृद्धि एवं विकास की मात्रा एवं दिशा निर्धारित करने में सहायक है।

  1. मानसिक संपदा का उत्पादन

मनुष्य जो भी सोचता है, उसे कार्य रूप में परिणित करने का प्रयास करता है, उसका विकास करता है और मस्तिष्क में सृजन करता है, जिसे उसकी मानसिक संपदा माना जाता है। ज्ञान का मुख्य उद्देश्य इसी मानसिक संपदा को धन के रूप में विकसित करना है। ऐसी मानसिक सम्पदाएँ सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए उपयोगी होती हैं और व्यक्तिगत मानसिक सम्पदा के रूप में स्थापित रहती हैं।

  1. सिद्धांतों एवं नियमों का निर्माण

प्रत्येक क्षेत्र की जानकारी से सिद्धांतों एवं नियमों का निर्माण होता है, जो सामान्यीकरण की प्रक्रिया से बनते हैं। इन सिद्धान्तों एवं नियमों का निर्माण करना ज्ञान का एक महत्वपूर्ण कार्य है। इस प्रकार सिद्धांतों एवं नियमों का निर्माण करना तथा सूचनाओं का सामान्यीकरण कर उन्हें नियमों एवं सिद्धांतों में परिवर्तित करना भी ज्ञान का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।

  1. व्याख्या

ज्ञान के माध्यम से अनिल जटिलताओं को सजया जा सकता है और उनकी व्याख्या कौशल किया जा सकता है। किसी प्रक्रिया, घटना या अवलोकन को देखना, समझना और समझाना। जटिलता और कठिनाई को केवल उस ज्ञान के माध्यम से समझाया जा सकता है जिसे समझा जा सकता है।

  1. कार्य करने की उचित क्षमता का विकास

किसी भी कार्य को उपयुक्त तरीके से करने की क्षमता विकसित करना ज्ञान का एक उद्देश्य है।

  1. सूचना को व्यवस्थित करना

ज्ञान का एक महत्वपूर्ण कार्य सूचना को व्यवस्थित करना तथा उसे एक निश्चित रूप देना है। जानकारी इधर-उधर बिखरी हुई है. ज्ञान स्वयं उन्हें व्यवस्थित क्रम में प्राप्त करता है।

  1. मानसिक विकास के लिए अवसर प्रदान करना

ज्ञान मानसिक विकास के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान करता है। यह हमारे मस्तिष्क के सामने ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करता है जिससे हमारी बुद्धि की सहायता से मानसिक क्षमताएँ विकसित होती हैं; उदाहरण के लिए, अंकगणित, तर्क-वितर्क और प्रश्न-विश्लेषण आदि के कारण हमारी मानसिक क्षमताएँ बढ़ती रहती हैं।

  1. प्रत्यय का निर्माण

कोई भी प्रत्यय ज्ञान के कारण ही हमारे सामने आता है। प्रत्यय हमारी समझ का विकास करते हैं। ये अवधारणाएँ सीखने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए पूरे समाज में रखी जाती हैं। ज्ञान का मुख्य उद्देश्य सभी महत्वपूर्ण अवलोकनों, तथ्यों और चीजों से संबंधित अवधारणाओं का निर्माण करना है।

वस्तुनिष्ठ ज्ञान का अर्थ

वस्तुनिष्ठता किसी अध्ययन से सम्बन्धित वह विशेषता है जो यथार्थ अवलोकन पर आधारित होती है। जब हम अपने धर्म, जाति प्रजाति, विश्वास – क्षेत्र एवं निजी विचारों से पृथक रहकर कोई अध्ययन करता है, तब ऐसे अध्ययन को हम वस्तुनिष्ठ अध्ययन कहते हैं।

सामाजिक अनुसंधानकर्ता सामाजिक घटनाओं और तथ्यों से संबंधित सामग्री का संकलन करता है। जब अनुसंधानकर्ता सामाजिक तथ्य और घटनाओं को उसी रूप में देखता है जिस रूप में वे वास्तव में होती है और ऐसा करते समय वह अपने विचारों और दृष्टिकोणों को अलग करके देखता है। इस प्रकार के अध्ययन को ही वास्तविक किया वस्तुनिष्ठ ज्ञान कहां जाता है।

ग्रीन के अनुसार,”वस्तुनिष्ठता प्रमाण की निष्पक्षता से परीक्षण करने की इच्छा एवं योग्यता है।”

वस्तुनिष्ठता की विशेषताएं

वस्तुनिष्ठता की विशेषताएं इस प्रकार है–

  1. वस्तुनिष्ठता सामाजिक अनुसंधान मे प्रयुक्त सामग्री संग्रहण का साधन नही है, अपितु यह स्वयं मे एक साध्य है।
  2. वस्तुनिष्ठता कोई भौतिक वस्तु नही है, इसका स्वरूप अमूर्त होता है।
  3. वस्तुनिष्ठता का संबंध व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, मानोवृत्तियों, क्षमताओं और योग्यताओं से है।
  4. वस्तुनिष्ठता वह शक्ति है जिसकी सहायता से व्यक्ति घटनाओं को उनके वास्तविक स्वरूप मे दिखाने का प्रयास करता है।
  5. वस्तुनिष्ठता वैज्ञानिक भावना का मुख्य तत्व है।

वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता और महत्व

वस्तुनिष्ठता सामाजिक अनुसंधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। इसके अभाव में अनुसंधान को विज्ञान सम्मत बनाना संभव नहीं है निम्न कारणों से सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता एवं महत्व–

  1. पक्षपात रहित निष्कर्ष

सामाजिक अनुसंधानओं को संपादित करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि जो निष्कर्ष निकाले जाएं वह पक्षपात रहित हो। अर्थात यह निष्कर्ष शोधकर्ता के व्यक्तिगत विचारों और दृष्टिकोण से प्रभावित ना हो। पक्षपात रहित निष्कर्ष की प्राप्ति के लिए अध्ययन में वस्तुनिष्ठता अनिवार्य है।

  1. मौलिक तथ्यों की प्राप्ति

मौलिक तथ्यों की प्राप्ति के लिए भी सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता जरूरी है। अध्ययन के द्वारा प्राप्त तथ्यों को सार्वभौमिक सत्य माना जाए इसके लिए यह जरूरी है की सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता को स्थान दिया जाए।

  1. वास्तविक अध्ययन

एक ही वस्तु या घटना का अध्ययन जब अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा किया जाए तो इस अध्ययन को वस्तुपरक अध्ययन कहा जाता है। किंतु जब एक ही घटना के बाद में अलग-अलग निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो इसका तात्पर्य होता है कि अध्ययन में वास्तविकता की उपेक्षा की गई है। इसलिए सामाजिक अनुसंधान में घटना और तथ्यों में वास्तविकता लाने के लिए वस्तुनिष्ठता अनिवार्य है।

  1. सत्यापन के लिए

विज्ञान की मौलिक विशेषता यह है कि उसकी सहायता से जो निष्कर्ष निकाले जाएं वे सत्य तो हो ही इसके साथ ही उनकी कभी भी परीक्षा और पुनः परीक्षा की जा सके। वस्तुनिष्ठ अध्ययन वैज्ञानिक एवं नियमबद्ध होता है। किसी भी वस्तुनिष्ठ अध्ययन को निश्चित नियमों एवं पद्धति के द्वारा दोहरा कर सत्यापित किया जा सकता है। अतः निश्चित एवं सत्यापित निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए वस्तुनिष्ठता बहुत जरूरी है।

  1. वैज्ञानिक पद्धति का सफल प्रयोग

सामाजिक अनुसंधान में वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति में वस्तुनिष्ठ नहीं है तब तक उस पद्धति को वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। अतः वैज्ञानिक पद्धति के सफल प्रयोग के लिए वस्तुनिष्ठता होना जरूरी है

प्रासंगिक ज्ञान 

प्रासंगिक ज्ञान का शाब्दिक ज्ञान साक्ष्यों पर आधारित ज्ञान होता है जब हम दूसरो के अनुभवों या निरीक्षण पर आधारित ज्ञान को मान्यता देते है तो इसे साक्षम कहा जाता है। साक्ष्य शाब्दिक होते है तथा दूसरों के निरीक्षण पर ही ज्ञान मिलता है। उदाहरणार्थ यद्यपि हमको स्वयं बहुत -से स्थानों को नही देखा होता है तथापि जब दूसरे उनका वर्णन करते है तो उन स्थानों अस्तित्व पर उसके द्वारा के कह गए शब्दो के आधार पर विश्वास करने लगते है।

प्रासंगिक ज्ञान अवधारणा पर आधारित होता है जो प्रत्यक्षीकरण द्वारा प्राप्त होती है। प्रत्यक्षकरण चेतन मूल मे अवधारणा उत्पन्न करते है तथा हमारा जो ज्ञान इन अवधारणाओं पर आधारित होता है उसे प्रामाणिक ज्ञान कहां जाता है। इन्द्रिय अनुभव द्वारा  प्राप्त ज्ञान, अनुभववादी, तार्किक प्रत्यक्षवाद यथाजवादी तथा विज्ञानवादी के मुख्य स्रोत माने जाते है। उदाहरणार्थ, जब किसी तथ्य पर आधारित शाब्दिक ज्ञान की सत्यता परख निरीक्षण था प्रत्यक्षीकरण द्वारा करने पर हमेशा एक नह “अवधारण मिल जाती है, उसे प्रासंगिक ज्ञान कहते हैं

संवादात्मक ज्ञान (Dialogical knowledge)

संवादात्मक अधिगम वह शिक्षण है जो संवाद के माध्यम से होता है। ज्ञान का एक संवादात्मक सिद्धांत अहं-परिवर्तन अंतःक्रिया पर आधारित है, यह तर्क देता है कि ज्ञान का निर्माण अहं-परिवर्तन अंतःक्रिया के साथ मिलकर होता है। संवाद सिद्धांत संचार को ज्ञान के सिद्धांत के केंद्र में लाया जाता है। ज्ञान की इस अवधारणा के अनुसार, “ज्ञान निर्माण एक संवादात्मक या संवादात्मक प्रयास है”

संवादात्मक शिक्षण विद्यार्थियों की सोच को उभारने और अभ्यास करने और उनकी सीख और समझ को आगे बढ़ाने के लिए बातचीत की शक्ति का उपयोग करता है। कक्षा अभ्यास के लिए संवाद दृष्टिकोण की तुलना एकलाप दृष्टिकोण से की जाती है जो दुनिया के कई सिद्धांतों में कक्षा अभ्यास पर हावी है। संवाद शिक्षण इस सिद्धांत में बताया गया है कि ज्ञान और समझ का परीक्षण करना, विचारधारा का विश्लेषण करना और शोध की खोज करना शामिल है, बजाय इसके कि किसी की निश्चितता को मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाए।

व्यक्तिगतपरक ज्ञान (SUBJECTIVE KNOWLEDGE)

व्यक्तिपरक उन भावनाओं और निर्बलों को सूचीबद्ध करता है जो लोग अपने विशेष दृष्टिकोण और सहिष्णुता पर प्रतिबंध लगाते हैं। ज्ञान और समझ के व्यक्तिपरक दृष्टिकोण की तुलना वस्तुनिष्ठ यथार्थवादी दृष्टिकोण से की जा सकती है। व्यक्तिपरक डेटा अनुभव को सामान्य व्यक्ति की आवश्यकता के रूप में देखा जा सकता है। व्यक्तिपरक का बारीकी से निरीक्षण किया जाता है, वह धीरे-धीरे पूर्व और कम व्याख्या करता है, वह जितना हो सके उतना अधिक डेटा एकत्र करता है। वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से बहुत अधिक बल प्राप्त होता है क्योंकि इसे विभिन्न लोगों द्वारा साझा किया जा सकता है, लेकिन व्यक्तिपरक ज्ञान को उस ज्ञान के रूप में परिभाषित किया जाता है जो उसके पास व्यक्तिगत रूप से होता है और जिस तक किसी अन्य की पहुंच नहीं होती है।

अनुशासनात्मक ज्ञान

ज्ञान का एक अनुशासन समय के साथ घटनाओं के प्रवाह आकित संरचनाओं और भौतिक दुनिया के कुछ पहलू के बारे में जांच का एक क्षेत्र है। ज्ञान का एक अनुशासन दुनिया को देखने के लिए एक लेंस प्रदान करता है। जिसके माध्यम से तकनीकियों का समुच्चय या प्रक्रियाओं द्वारा विभिन्न घटनाओं का वर्णन व व्याख्या की एक विशेष जाती है इसके अलावा एक अनुशासन एक साझा एवम विशेष रूचि के साथ लोगों के लिये समुदाय की भावना भी प्रदान करती है। एक अनुशासन के समाने किनारों पर अनुशासनात्मक सीमायें तरल पदार्थ के रूप में होती हैं और अक्सर अंतः विषय क्षेत्रों और परियोजनाओं को बनाने के लिये अन्य संगठनों एवम् विषयों के साथ जुड़ जाती है। अंतःविषय प्रकृति एक गतिविधि है जिसमें दो या दो से अधिक शैक्षणिक विषयों के संयोजन शामिल है। यह विधि विभिन्न शैक्षणिक विषयों की सीमाओं के परे से कुछ नया बनाने की सोच से सम्बन्धित है। यह एक ऐसी संगठनात्मक इकाई है जो परंपरागत सीमाओं के पार शैक्षणिक विषयों या विचारो के स्कूलों से संबंधित है चूँकि नई जरूरतें और व्यवसाय उदीयमान हो रहे हैं। अंतः विषय कई स्थापित विषयों या अध्ययन के पारंपरिक क्षेत्रों के तरीकों और अंतदृष्टि का उपयोग करने वाले के अध्ययन का वर्णन करने के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण शिक्षण के भीतर लागू किया जाता है।

अंत विषय ज्ञान वह ज्ञान की सीमा है जो मौजूदा शैक्षणिक विषयों या व्यवसायों से परे या बीच में मौजूद है नए ज्ञान का दावा कोई एक ही नहीं दोनों के सदस्यों या एक उभरते हुए नए अकादमिक अनुशासन द्वारा किया जा सकता है।

अंतःविषय प्रकृति, एकीकरण से संबंधित है। एकीकरण का शाब्दिक अर्थ है “पूर्ण बनाने के लिए” अंत विषय प्रकृति के संदर्भ मे एकीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा दो या अधिक विषयों को संश्लेषित किया जाता है। यह दो या अधिक विषयों को विचारों, डेटा और जानकारी विधियों, उपकरणों, अवधारणाओं, और / या सिध्दांतों के माध्यम से एकीकरण किया जाता है।

एक अंतः विषय ज्ञान या समुदाय ऐसे लोगों से मिलकर बना होता है जो विविध अनुशासनों और व्यवसायों से सम्बन्धित होते हैं तथा विविध अनुशासन तथा व्यवसायों से सम्बंधित लोग वे हैं जो कि ज्ञान के सृजन तथा अनुप्रयोग करने हेतु वचनबध्द हैं क्योंकि वे सार्वजनिक चुनौति की तरफ बराबर हिस्सेदारी के साथ मिलजुलकर कार्य करते हैं चूँकि इन चुनौतियों के विभिन्न पक्षों को मौजूदा वितरित ज्ञान से नहीं सुलझाया जा सकता है।

ज्ञान की अंतः विषय प्रकृति बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि अक्सर सृजनात्मकता हेतु अंतः विषय ज्ञान की आवश्यकता होती है। आप्रवासि अक्सर अपने नए क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण योगदान करते है। अनुशासनवादी अक्सर त्रुटियों करते हैं जो कि दो या अधिक विषयों या अनु सनों के साथ परिचित लोगों को द्वारा पता लगाया जा सकता है कई लोग बौद्धिक, सामाजिक और व्यवहारिक समस्याओं के लिये अंतः विषय दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। खंडित विषयों को पूरा करके अंत अनुासनवादी शैक्षिक स्वतंत्रता की रक्षा में एक मुख्य भूमिका निभा सकता है।

अनुशासन का अर्थ एवं परिभाषायें (Meaning and Definitions of Discipline)

परम्परागत अर्थ में अनुशासन से तात्पर्य नियन्त्रित तथा आदेशित आचरण से है। सरल शब्दों में अनुशासन से तात्पर्य उस आचरण से है जिसे वे निश्चित नियमों के अनुसार बिना किसी तर्क से प्रदर्शित करते हैं।

आधुनिक शैक्षिक विचारधारा अनुशासन के इन परम्परागत तथा शाब्दिक व्युत्पत्ति के अर्थ को नहीं मानती है। अब अनुशासन को बड़े ही व्यापक रूप में लिया जाता है। अनुशासन से तात्पर्य कक्षा में बिना आवाज किये विद्यालय में शान्त तथा अध्यापकादि से नम्रतापूर्वक व्यवहार करने से नहीं है वरन् ऐसे आन्तरिक एवं बाह्य व्यवहार से है जो छात्र के सामाजिक, मानसिक, शारीरिक तथा नैतिक विकास में सहायक होता है।

प्रो० ए०डी० मुलर (Prof. A. D. Muller) के शब्दों में– “अनुशासन का तात्पर्य बालक-बालिकाओं को प्रजातन्त्र के लिये तैयार करना है”।

प्रो०टी०पी०नन (Prof. T.P. Nunn) के शब्दों में- “अनुशासन से तात्पर्य प्राकृतिक आवेगों तथा उत्तेजनाओं को इस प्रकार से व्यवस्थित करना है जिससे अव्यवस्था तथा अराजकता के स्थान पर कुशलता एवं मितव्ययता आये और अप्रभावोत्पादकता तथा अपव्यय का अन्त हो।”

अनुशासनात्मक ज्ञान और विषयों की अवधारणा

अनुशासन तथा विषय एक दूसरे के साथ उसी तरह सम्बन्धित है जिस प्रकार पूर्ण और अंश एक अनुशासन संसार के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान की विस्तृत श्रेणी से मिलकर बना है. इसीलिये विज्ञान का अनुशासन उन सभी प्रकार के ज्ञान से मिलकर बना है जो कि विज्ञान के क्षेत्र में सम्मिलित है तथा ये क्षेत्र ज्योतिष शास्त्र से लेकर भौतिकी शास्त्र से होते हुये तारा- भौतिकी तक के क्षेत्र में सम्मिलित समस्त ज्ञान इसके विपरीत, विषय अनुशासन का एक भाग है उदाहरण के लिये कला अनुशासन में भाषा दर्शनशास्त्र, मानवज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि विषय सम्मिलित किये जाते हैं ये विषय कला अनुशासन की विस्तृत श्रेणी में आते हैं।

ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार एवम प्रगति विभिन्न घटको पर निर्भर करता है प्राचीन समय में ज्ञान एक पूर्ण एवम् समस्त प्रत्यय हुआ करता था जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण अनुशासन आते थे लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान का विस्तार होते गया वैसे-वैसे ज्ञान को विभिन्न अनुशासन में वर्गीकृत करने की आवश्यकता अनुभव की गयी और इन्हीं विभिन्न अनुशासनों से सम्बन्धित ज्ञान को अनुशासनात्कम ज्ञान कहते हैं यही एक कारण है कि एक व्यक्ति जो एक विशिष्ट क्षेत्र में अध्ययन करना चाहता है, उसे सम्पूर्ण ज्ञान की विस्तृत श्रेणी का अध्ययन करना आवश्यक नहीं है इसी कारण समस्त ज्ञान को विभिन्न अनुशासनों में बाँटा गया है। प्राचीन भारत में ज्ञान को विभिन्न अनुशासनों में विभक्त किया गया था। जैसे दर्शन शास्त्र साहित्य, ज्योतिषी / विभिन्न अनुशासनों में समय के साथ प्रगति होती गयी और प्रत्येक अनुशासन का क्षेत्र बढ़ता गया और इसीलिये अनुशासनों को और आगे वर्गीकृत करने की आवश्यकता अनुभव की गयी इसी कारण दर्शनशास्त्र को दर्शनशास्त्र तथा मनोविज्ञान में विभाजित किया गया था और आगे दर्शन शास्त्र को प्रकृतिवाद, व्यवहारवाद, आदशर्वाद तथा दूसरी शाखाओं में विभाजित किया गया उसी तरह मनोविज्ञान को बाल मनोविज्ञान, शिक्षा मनोविज्ञान और विभिन्न अनुशासनों में विभाजित किया गया यही करण हैं कि नये अनुशासन अभी भी उदीयमान हो रहे है।

अनुशासनात्मक ज्ञान की प्रकृति

इस प्रकार अनुशासनात्मक ज्ञान की प्रकृति को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –

  1. अनुशासन मस्तिष्क, आचरण और अभिवृत्ति का प्रशिक्षण है, जब तक बालक के चिन्तन, दृष्टिकोण और व्यवहार में स्थायी परिवर्तन न हो तब तक अनुशासन नहीं।
  2. मूल प्रवृत्तियों के शोधन को अनुशासन कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में मानव में पाशविक प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण कर उसमें मानवोचित गुण का संचार करना अनुशासन है।
  3. वांछित आदतों के माध्यम से सहज प्रवृत्तियों का रूपान्तर करना अनुशासन है।
  4. नियमों के अन्तर्गत प्रदान की गयी स्वतन्त्रता का दूसरा नाम अनुशासन है।
  5. व्यवहार पर नियन्त्रण एवं संवेगों का शोधन अनुशासन है। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि संवेगों की अभिव्यक्ति नियन्त्रित एवं संयमित ढंग से करना अनुशासन है।
  6. अनुशासन आत्म-संयम एवं आत्म-निर्देशन को कहते हैं।

इसके अनुसार व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति करते समय स्वयं पर नियन्त्रण रख सके तथा किस प्रकार व्यवहार करना है, इस दिशा में अपने आपको निर्देशित कर सके, यही अनुशासन की प्रकृति है।

अनुशासन की आधुनिक प्रकृति आनन्द और स्वतन्त्रता का मिश्रण है। विद्यालय अनुशासन का वास्तविक प्रयोजन विद्यालय के सामाजिक जीवन के माध्यम से बालकों में उचित अभिवृत्तियों, आदतों तथा आचरण के रखने की आदर्शों का विकास करना है।

अनुशासन के प्रकार (Types Of Discipline)

विशिष्ट रूप से मनुष्य के तीन तत्व आते हैं, पहला- अंतःप्रेरणा, दूसरा- आत्म-निमंत्रण की शक्ति और तीसरा- समाज-सम्मत आचरण विद्यालय में अनुशासन बनाए रखना, हमारे संस्कारों से समाज सम्मत आचरण के प्रति जागरूकता करना, उन्हें आचरण करने की प्रेरणा देना। , उन्हें अपने ऊपर नियन्त्रण रख-रखाव और स्कूली बच्चों का पालन-पोषण करने योग्य बनाना संभव होता है। जब सभी छात्र स्वयं से प्रेरित होकर विद्यालय का अनुदेशित आचरण करते हैं और समाज सम्मत आचरण करते हैं तो हम कह सकते हैं कि विद्यालय का अनुदेशित आचरण अच्छा है। मूलतः आचरण के विभिन्न दृष्टिकोणों से लेकर निर्देशों तक के विभिन्न रूप हैं। इस आधार पर अंग्रेजी विद्वान जॉन एडम (जॉन एडम) ने तीन कारों को विभाजित किया है-

(1) दमनात्मक

(2) प्रभावात्मक

(3) मुक्तात्मक

  1. दमनात्मक अनुशासन (Repressionistic Discipline)

प्राचीन काल में अधिकांश शिक्षक अपने अनुशासन का पालन करने के लिए शक्ति का प्रयोग करते थे। उस समय सिद्धांत के सिद्धांतों में अत्यधिक कठोरता होती थी, जिसमें सभी बच्चों को पालने से मना किया जाता था और जो बच्चा इसका पालन नहीं करता था, उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। आज भी इस प्रकार के सिद्धांत की कमी नहीं है। इस प्रकार के बच्चों की मूल प्रवृत्तियाँ, रुचियों का दमनकारी चित्रण एडम सर ने दमनकारी निर्देशों की दी है। अनुशासित का यह रूप अनेक दोषों से युक्त है-

(1) अधिक दण्ड देने से अंग-भंग का भय रहता है, इससे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्षति होती है।

(2) निजीकरण का दमन करने से बच्चों में मनोवैज्ञानिक ग्रंथियाँ बन जाती हैं और छात्र अपने स्वास्थ्य को खो देते हैं।

(3) डंडे के भय से मनुष्य व्यवहार करने की अप्राकृतिक प्रेरणा पैदा नहीं होती।

(4) इस निर्देश में छात्र बाहरी रूप से बैठे रहते हैं लेकिन उनका मन और मस्तिष्क भंडार नहीं रहता है।

(5) इस प्रकार के निर्देश में छात्र यंत्र संचालन अचूक रूप से कार्य करता है, उनमें स्वयं यंत्र और स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की क्षमता विकसित नहीं होती है।

(6) विद्यार्थियों की व्यक्तिगत रुचियों और शक्तियों का विकास नहीं होता, उनमें नेतृत्व शक्ति नहीं और गुण होते हैं। वे दास भावना से प्रभावित कथपुतली की तरह के अध्ययनों पर काम करते हैं।

(7) लोकतन्त्र में दण्ड मान्य नहीं है। हक्सले (हक्सले) सार का मत है-“यदि आपका लक्ष्य स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक समाज स्थापित करना है तो नागरिकों को स्वानुशासन और स्वतन्त्र रूप से जीवन की शिक्षा सिखानी चाहिए।”

  1. प्रभाववादी अनुशासन (Impressionistic Discipline)

आदर्शवाद की परिभाषा यह है कि शिक्षक को अपने आदर्श नैतिक व्यक्तित्व और आचरण से बच्चों को प्रभावित करना चाहिए और उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए कि वे अपने गुणों को ग्रहण कर व्यावहारिक और अपने आदर्श आचरण करना सीखें ।। प्राचीन भारत में सभी शिक्षक इसी विचार को मानते थे। वस्तुतः गुरु संयम के साथ जीवन शैली निभाते थे और अपने ज्ञान, आचरण और आचरण से अपने शिष्यों को प्रभावित करते थे। शिष्य भी अपने ज्ञान और आचरण से प्रभावित हो रहे थे और संयमित जीवन की ओर बढ़ रहे थे। एडम सर ने इस प्रकार के निर्देश को प्रभावात्मक निर्देश कहा है। आज के कुछ विद्वान इस निर्देश को अच्छा नहीं मानते हैं और इसके तर्क में तर्क देते है-

(1) गुरुओं का आदर्श जीवन होने पर ही यह उपदेश प्राप्त हो सकता है। आज उच्च आदर्श वाले शिक्षक नहीं हैं और न ही उनका समाज में सम्मान है। ऐसे में चाइल्ड टीचर से कम प्रभावित होते हैं।

(2) इस विधि में बच्चे शिक्षक से प्रभावित बुरा भला सब कुछ सीखें। इस प्रकार के सत्यनिर्देश प्राप्त नहीं किये जा सकते।

(3) रचना में यह तर्क है कि गुरुओं का अंधानुकरण करने से बच्चों में ही भावना आती है।

(4) गुरुओं से प्रभावित बच्चे उनके मूल निवास में रह जाते हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।

(5) हमारे प्रभाव को केवल परिस्थितियाँ ही प्रभावित नहीं करतीं अपितु हमारे आदर्श भी प्रभावित करते हैं।

(6) केवल अनुकरण द्वारा सीखा हुआ व्यवहार जीवन भर साथ नहीं दे सकता।

(7) आदर्श बनने के लिए हमारे सामने आदर्श का होना आवश्यक है।

  1. मुक्त्यात्मक अनुशासन (Emancipationistic Discipline)

मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि अनुशासन स्थापित करने के लिए बालक को स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपनी मूल प्रवृत्तियों, शक्तियों, रुचियों और योग्यतानुसार विकास के पूर्ण अवसर देने चाहिए, उस स्थिति में बच्चे सही आचरण करते हैं। प्रकृतिवादी रूसो और हरबर्ट स्पेन्सर इस विचारधारा के प्रतिपादक हैं। एडम महोदय ने इसे मुक्त्यात्मक अनुशासन की संज्ञा दी है। रूसो की यह विचारधारा आदर्शवादी विचारधारा की प्रतिक्रिया मात्र थी। यदि प्राचीन विचारधारा एक सीमा पर है तो दूसरी रूसी की विचारधारा दूसरी सीमा पर है। दोनों ही अव्यावहारिक हैं। रूसो के विचारों को मान्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि-

(1) बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता देने का अर्थ है मूल प्रवृत्ति के अधीन छोड़ना और इस प्रकार छोड़ना पशुवत् व्यवहार करने का अवसर देता है।

(2) पूर्ण स्वतन्त्रता पर आधारित अनुशासन बच्चों को असामाजिक और अशिष्ट बना देता है।

(3) रूसो बच्चों को पूर्ण रूप से प्रकृति पर छोड़कर प्रारम्भिक अवस्था को प्राप्त करने की बात करते थे।

(4) रूसो समाज को दोषी बताकर बच्चों को समाज से दूर रखने की बात करते थे। यह कल्पना सार्थक नहीं है।

(5) रूसो ने समाज की अवहेलना की है वे भूल गए कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।

(6) समाज से दूर रहकर मनुष्य में सामाजिक गुणों का विकास नहीं किया जा सकता।

(7) अनुशासन सम्बन्धी यह विचारधारा मनुष्य को प्रकृति के ऊपर छोड़कर उसके विकास में बाधा उत्पन्न करती है। प्रकृति के दण्ड विधान में भावना का कोई स्थान नहीं है।

विद्यालय में अनुशासनात्मक ज्ञान का महत्व

विद्यालय अनुशासित को आज व्यापक अर्थ में लिया गया है। व्यापक रूप से अभिप्राय ऐसे विशेषज्ञ हैं जो बच्चों में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक मूल्यों का विकास करें। यह आन्त्रिक और आकर्षक दोनों से संबंधित है। आन्त्रिक अनुशासन में आत्मा के विकास का अर्थ स्वानुशासन पर बल दिया जाता है जबकि वैज्ञानिक अनुशासन में समाज सम्मत अर्थात् सामाजिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। इस सन्दर्भ में जॉन डेवी का मत है।-“जिन कार्यों को करने में समाप्ति होती है उन कार्यों को सामाजिक एवं सहयोगी गुणों से करने पर अपने रूप में ही एवं अकुशल का निर्देश उत्पन्न होते हैं*” (उन कार्यों को करने से जो परिणाम उत्पन्न करना है और इन्हें सामाजिक और सहकारी तरीके से करने से, अपनी तरह और प्रकार का एक जन्मजात अनुशासन होता है।)

अत: कहा जा सकता है कि आज शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन का अर्थ विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय के शैक्षिक आचरण और समाज-सम्मत आचरण से लिया जाता है। लेकिन किसी भी स्थिति में विद्यालय के विद्यार्थियों को पदावनत नहीं किया जाता है और न ही समाज-सम्मत आचरण करने के लिए बाध्य किया जाता है। बल्कि आज उन्हें ऐसा माहौल दिया जाता है कि वे सब करने के लिए स्वयं को प्रकट करते हैं, स्वयं के विचार के लिए शक्ति का विकास करते हैं और अपनी इच्छा से आचरण करते हैं। इसे स्वानुशासन कहा जाता है। आज शिक्षाशास्त्री इसे ही अच्छा अनुशासित मानते हैं। लोकतांत्रिक समाज में निर्देश से अभिप्राय है कि बालकों का जीवन तैयार करना, उन्हें आदर्शों की प्राप्ति में सहायता करना और व्यक्ति का आचरण, ज्ञान, रुचि और शक्ति को प्राप्त करने में सहायता करना। मूलतः अनुशासित बाल विद्यालय और विद्यालय से बाहर किसी भी स्थान पर समाज सम्मत आचरण करते हैं जबकि दण्ड के भय से विद्यालयीय विद्यालय का शिक्षण करने वाले बालक दण्ड का भय साहस पर भी कुछ करने के लिए स्वतन्त्रता उत्पन्न करते हैं।

विद्यालयों में अनुशासन की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी खेल और सेना में। सेना की थोड़ी-सी अनुशासनहीनता से राष्ट्र खतरे में हो सकता है और खिलाड़ी की अनुशासनहीनता से खेल में पराजय अवश्यम्भावी है, उसी प्रकार विद्यालयों की अनुशासनहीनता से विद्यालय का वातावरण बिगड़ता है छात्र अपने मानसिक असन्तोष को उच्छृंखल व्यवहार के द्वारा प्रदर्शित करेंगे। फलत: विद्यालय-भवन की तोड़-फोड़, सहपाठियों से अपशब्द प्रयोग, लड़ाई-झगड़ा एवं अध्यापकों से दुर्व्यवहार करेंगे। विद्यालय औपचारिक शिक्षा प्रदान करने का प्रमुख साधन है, यह भावना समाप्त हो जाएगी।

अनुशासन का मानव, विद्यालय व सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनुशासन व्यवस्था का प्रतीक है। किसी भी व्यक्ति का अनुशासनबद्ध होना इस बात का परिचायक तो है ही कि वह व्यक्ति अपने जीवन को सुसंचालित व सुनियंत्रित किए हुए हैं, साथ ही वह इस बात का भी प्रतीक है कि वह अपने नियमित एवं अनुशासित व्यवहार से समाज की व्यवस्था को बनाये रखने में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सहयोग भी दे रहा है। यदि विद्यालय परिवेश में अनुशासन विद्यमान है तो इसका प्रभाव विद्यालय के सम्पूर्ण वातावरण पर पड़ेगा। सुअनुशासन का प्रभाव जिन क्षेत्रों पर पड़ता है वह इस प्रकार हैं-

(1) विद्यालय प्रशासन का अच्छा होना

यदि विद्यालय में व्यवस्था व अनुशासन विद्यमान है तो इसका प्रभाव विद्यालय प्रशासन पर सकारात्मक पड़ता है क्योंकि प्रशासक को बहुत सारी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता। इस कारण उसका प्रशासन सुचारू रूप से चलता रहा है। अनुशासन हीन परिवेश में प्रशासक को अनेकों प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है और परिणाम यह होता है कि वह इन समस्याओं के समाधान में ही उलझा रहता है तथा प्रशासक के रूप में नियोजन पर कम ध्यान दे पाता है और विद्यालय प्रशासक को शनै:- शनै: उपेक्षा होने लगती है।

(2) कक्षा शिक्षण का प्रभावशाली होना ( Effective Classroom Teaching)

शिक्षण की सफलता व असफलता कक्षा के अच्छे वातावरण पर निर्भर करती है। यदि विद्यालय या कक्षा का वातावरण अशांत रहता है व उसमें अराजकता स्थितियाँ विद्यमान रहती हैं तो कक्षा शिक्षण पर उसका उचित प्रभाव नहीं पड़ता। छात्र उद्वेलित रहते हैं। इस कारण वह पढ़ाई में ध्यान केन्द्रित करने में असमर्थ रहते हैं व शिक्षक परेशान रहते हैं। इस कारण वह शिक्षण में रुचि न लेकर सदैव इस बात पर ही ध्यान को केन्द्रित किये रहते हैं कि विद्यालय का अनुशासन क्यों बिगड़ रहा है? वह कौन-से छात्र हैं जो इसका नेतृत्व कर रहे हैं और इस अनुशासन को कैसे सुधारा जा सकता है ? इस कारण हम निःसंदेह यह कह सकते हैं कि यदि विद्यालय प्रशासन अच्छा है तो कक्षा में चलने वाली शैक्षणिक गतिविधियाँ भी प्रभावशाली होंगी।

(3) उचित व्यवहार को प्रोत्साहन देना (To Give Encouragement to proper Behaviour)

अनुशासन दृष्टि से भी बहुत अधिक है कि अनुशासित वातावरण में रहकर व्यक्ति व्यवहार करने के सही तरीकों को सीखता है। अनुशासित वातावरण छात्रों के समक्ष विद्यालय को नियमावलियों, अपेक्षाओं, मूल्यों आदि प्रस्तुत करता है व जिसको अनुपालित करने की अपेक्षा वह छात्रों से करता है और उनका अनुपालन करके छात्र व्यवहार करने के उचित तरीकों का ज्ञान करते हैं। इस कारण यह मानना सही है कि जो व्यक्ति स्वयं को अनुशासनबद्ध कर लेता है, वह स्वयं ही व्यवहार के उचित मानदण्ड सीख लेता है।

(4) उत्तम चरित्र का निर्माण (Formation of Good Character)

जैसा कि अभी कहा गया है कि अनुशासन में रहकर छात्र व्यवहार के उचित तरीके सौख लेता है। जब कोई छात्र व्यवहार करने के मान्य तरीके सोख लेता है तो उसका चरित्र निर्माण स्वत: हो हो जाता है। अनुशासन का तात्पर्य है स्वयं को समाज के मान्य तरीकों के अनुकूल ढालना। जब व्यक्ति अपने विचार, क्रियाओं व व्यवहार को समाज के अनुरूप ढालने लगता है तो वह समार्ग का अनुपालन करता है और समार्ग पर चलकर वह अपने चरित्र को अच्छा बना लेता है।

(5) विद्यालय में सुसम्बन्धों की स्थापना (To Establish Harmonious Relations in School)

अनुशासन में रहने का तात्पर्य है विद्यालय में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी एक ही प्रकार की नियमावली का अनुपालन कर रहा है। किसी के लिये व्यवहार के कोई अलग से मानदण्ड तय नहीं किये है अर्थात् सभी अपने को एक ही व्यवस्था का अभिन्न अंग मानते हैं जिसका परिणाम उसमें कार्यरत कर्मिकों के परस्पर सम्बन्धों पर पड़ता है। सुव्यवस्थित व अनुशासित वातावरण की मान्यताओं को स्वीकारने वाला व्यक्ति यह जान जाता है कि समूह में उसकी क्या स्थिति है। उसे अपने छोटों के साथ कैसे सम्बन्ध बनाने चाहिये तथा अपने बड़ों के साथ कैसे सम्बन्ध बनाने चाहिये ।

विद्यालयों का सुचारु रूप से संचालन अनुशासन पर ही निर्भर करता है।’ सुचारु रूप से संचालन’ का तात्पर्य विद्यालय में ऐसी स्थिति बनाए रखना है, जिससे शिक्षा तथा शिक्षणेतर अनेकानेक कार्य-कलाप सुचारु रूप से चलते रहें । इसके लिए व्यवस्थापकों, अध्यापकों तथा विद्यार्थियों, सभी के सहयोग की आवश्यकता है। जेम्स रॉस ने लिखा है कि “बहुत अच्छी व्यवस्था बुरा अनुशासन भी हो सकती है, परन्तु सच्चा अनुशासन सर्वदा अपने साथ व्यवस्था बनाए रखना है।

(6) विद्यालय की प्रतिष्ठा पर अनुकूल प्रभाव (Favourable Influence on the Prestige of the School)

जिस विद्यालय के छात्र, शिक्षक, कर्मचारी, मुख्याध्यापक अनुशासन का परिपालन करते हैं, उस विद्यालय की सकारात्मक छवि सभी के मस्तिष्क में रहती है और जब किसी अनुशासनहीन विद्यालय की चर्चा होती है तो सभी के सामने अनुशासित विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का व्यवहार उस विद्यालय की प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

वैज्ञानिक ज्ञान (Scientific Knowledge)

विज्ञान का उद्देश्य वैज्ञानिक ज्ञान का सृजन करना है। वैज्ञानिक ज्ञान किसी घटना या रुचि के व्यवहार की व्याख्या करने के लिए कानूनों और सिद्धांतों के एक सामान्यीकृत निकाय को संदर्भित करता है जो वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करके हासिल किए जाते हैं। कानून घटनाओं या व्यवहारों के देखे गए पैटर्न हैं, जबकि सिद्धांतअंतर्निहित घटना या व्यवहार की व्यवस्थित व्याख्याएँ हैं। उदाहरण के लिए, भौतिकी में, न्यूटोनियन गति के नियम बताते हैं कि जब कोई वस्तु आराम या गति की स्थिति में होती है तो क्या होता है (न्यूटन का पहला नियम), किसी स्थिर वस्तु को स्थानांतरित करने या चलती वस्तु को रोकने के लिए किस बल की आवश्यकता होती है (न्यूटन का दूसरा नियम) , और जब दो वस्तुएं टकराती हैं तो क्या होता है (न्यूटन का तीसरा नियम)। सामूहिक रूप से, तीन नियम शास्त्रीय यांत्रिकी का आधार बनते हैं – चलती वस्तुओं का एक सिद्धांत। इसी तरह, प्रकाशिकी का सिद्धांत प्रकाश के गुणों की व्याख्या करता है और यह विभिन्न मीडिया में कैसे व्यवहार करता है, विद्युत चुम्बकीय सिद्धांत बिजली के गुणों की व्याख्या करता है और इसे कैसे उत्पन्न किया जाता है, क्वांटम यांत्रिकी उप-परमाणु कणों के गुणों की व्याख्या करता है, और थर्मोडायनामिक्स ऊर्जा और यांत्रिक के गुणों की व्याख्या करता है। काम। भौतिकी में एक परिचयात्मक कॉलेज स्तर की पाठ्यपुस्तक में संभवतः इनमें से प्रत्येक सिद्धांत के लिए समर्पित अलग-अलग अध्याय होंगे। इसी तरह के सिद्धांत सामाजिक विज्ञान में भी उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, मनोविज्ञान में संज्ञानात्मक असंगति सिद्धांत बताता है कि लोग तब कैसे प्रतिक्रिया करते हैं जब किसी घटना के बारे में उनका अवलोकन उस घटना के बारे में उनकी अपेक्षा से भिन्न होता है, सामान्य निवारण सिद्धांत बताता है कि क्यों कुछ लोग अनुचित या आपराधिक व्यवहार में संलग्न होते हैं, जैसे अवैध रूप से संगीत डाउनलोड करना या सॉफ़्टवेयर बनाना चोरी, और नियोजित व्यवहार का सिद्धांत बताता है कि कैसे लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में सचेत और तर्कसंगत विकल्प चुनते हैं।

वैज्ञानिक अनुसंधान का लक्ष्य ऐसे कानूनों की खोज करना और ऐसे सिद्धांतों को प्रतिपादित करना है जो प्राकृतिक या सामाजिक घटनाओं की व्याख्या कर सकें, या दूसरे शब्दों में वैज्ञानिक ज्ञान का निर्माण कर सकें। यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह ज्ञान अपूर्ण हो सकता है या सत्य से काफी दूर भी हो सकता है। कभी-कभी, एक भी सार्वभौमिक सत्य नहीं हो सकता है, बल्कि “एकाधिक सत्य” का संतुलन हो सकता है। हमें यह समझना चाहिए कि सिद्धांत, जिन पर वैज्ञानिक ज्ञान आधारित है, केवल एक वैज्ञानिक द्वारा सुझाए गए किसी विशेष घटना की व्याख्या हैं। इस प्रकार, अच्छी या ख़राब व्याख्याएँ हो सकती हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे व्याख्याएँ किस हद तक वास्तविकता के साथ फिट बैठती हैं, और परिणामस्वरूप, अच्छे या ख़राब सिद्धांत हो सकते हैं। विज्ञान की प्रगति समय के साथ ख़राब सिद्धांतों से बेहतर सिद्धांतों की ओर हमारी प्रगति से चिह्नित होती है,

हम तर्क और साक्ष्य की प्रक्रिया के माध्यम से वैज्ञानिक कानूनों या सिद्धांतों तक पहुंचते हैं। तर्क (सिद्धांत) और साक्ष्य (अवलोकन) दो, और केवल दो, स्तंभ हैं जिन पर वैज्ञानिक ज्ञान आधारित है। विज्ञान में, सिद्धांत और अवलोकन आपस में जुड़े हुए हैं और एक दूसरे के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते। सिद्धांत हम जो देखते हैं उसे अर्थ और महत्व प्रदान करते हैं, और अवलोकन मौजूदा सिद्धांत को मान्य या परिष्कृत करने या नए सिद्धांत का निर्माण करने में मदद करते हैं। ज्ञान अर्जन का कोई अन्य साधन, जैसे आस्था या अधिकार, को विज्ञान नहीं माना जा सकता।

वैज्ञानिक ज्ञान की प्रकृति क्या है?

विज्ञान शब्द का अर्थ ही ज्ञान है। हम जिसे ज्ञान कहते हैं, उसे हम किन स्रोतों से प्राप्त कर सकते हैं, चाहे बाहरी या अपनी विचार प्रक्रियाओं के भीतर से, हम प्राप्त कर सकते हैं।

शायद पहले हम यह कहें कि विज्ञान क्या नहीं कर सकता। विज्ञान अस्तित्व संबंधी प्रश्नों के उत्तर खोजने में अच्छा नहीं है। हमारी स्थिति के बारे में प्रश्न जो “क्यों?” से शुरू होते हैं ऐसी किसी भी चीज़ के बारे में घोषणा करना अच्छा नहीं है जिसे दृष्टि, स्पर्श, श्रवण, स्वाद और गंध जैसी हमारी इंद्रियों का उपयोग करके भौतिक रूप से नहीं समझा जा सकता है।

विज्ञान मानव संवेदी धारणा से प्राप्त जानकारी के डेटाबेस से संचालित होता है, और यह वर्णन करने, मापने और समझाने का प्रयास करता है कि इसकी खोजें कैसे एक साथ फिट होती हैं, संचालित होती हैं और ब्रह्मांड के कामकाज में अपनी भूमिका निभाती हैं। किसी वैज्ञानिक से ईश्वर, धर्म, मिथकों या पारलौकिक मामलों जैसी आध्यात्मिक चीज़ों को समझाने, साबित करने या उस मामले को अस्वीकार करने के लिए कहना अच्छा नहीं है।

आप पूछ सकते हैं कि क्या मनोविज्ञान एक विज्ञान है? हाँ, चूँकि यह देखे गए मानव व्यवहार से संबंधित है और उसका विश्लेषण करता है।

वैज्ञानिक ज्ञान का महत्व तथा आवश्यकता :

हम आज वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। हमारे चारों तरफ विज्ञान ही दृष्टिगोचर होता है। फलस्वरूप आज मानव-जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं है, जो विज्ञान के चमत्कारों से अप्रभावित रह गया हो। खाने-पीने,उठने-बैठने,लिखने-पढ़ने,यात्रा,उद्योग तथा ईंधन के अतिरिक्त कला एवं साहित्य भी आज विज्ञान से प्रभावित हैं। प्रकृति पर क्रमशः विजय के द्वारा सुख-सुविधाओं में वृद्धि विज्ञान की ही देन है। मानव-जीवन में विज्ञान की महत्ता तथा जरूरत को हम निम्न शीर्षकों में विभाजित कर सकते हैं-

  1. विश्वबंधुत्व की भावना का विकास

संचार तथा परिवहन के क्षेत्र में हुए क्रांतिकारी आविष्कारों; जैसे-रेल,वायुयान,रेडियो, टेलीविजन, दूरभाष आदि के कारण आज दुनिया सिमटकर एक बड़े परिवार के रूप में रह गयी है। आपसी संपर्क तथा आदान-प्रदान सुलभ होने से सभी देशों की सभ्यता, रहन-सहन और सोचने-विचारने के तरीकों में बहुत परिवर्तन हुआ है। इस प्रकार विज्ञान ने अंतर्राष्ट्रीय एवं विश्व-बंधुत्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

  1. शक्ति के साधनों का विकास

मानव का अस्तित्व तथा विकास शक्ति के साधनों पर निर्भर हैं। विद्युत-शक्ति विकास की जननी कही जा सकती है। कोक तथा पेट्रोलियम शक्ति के लिए महत्वपूर्ण ईधन हैं। जल-स्रोतों से विद्युत प्राप्त करने की योजनाएं बनायी जा रही हैं। परमाणु तथा न्यूक्लियर ऊर्जा का आज उपयोग होने लगा है, लेकिन इन प्राकृतिक साधनों के खत्म होने की आशंका है, अतएव अक्षय स्रोत सौर ऊर्जा का उपयोग भी हो रहा है। विश्व में उद्योग-धंधे, कल-कारखाने सभी इन शक्ति के साधनों द्वारा संचालित हो रहे हैं। यह सब विज्ञान के द्वारा ही संभव है।

  1. अंतरिक्ष का ज्ञान

अंतरिक्ष विज्ञान ने मानव को अंतरिक्ष में प्रवेश कर सौर-मंडल की जानकारी दी है। चंद्र-तल पर मानव का पहुँचना इस युग की सबसे चमत्कारी घटना है। इस ज्ञान का तात्कालिक लाभ भले ही दृष्टिगोचर नहीं हो, लेकिन अंतग्रहीय संबंधों की यह महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके अलावा कृत्रिम उपग्रहों द्वारा मौसम विज्ञान की उन्नति, भू-संपदा की सही खोज, दूरदर्शन संचार के सफल प्रयोगों ने भावी विकास की विशाल संभावनाओं का अवश्य ही उपचार किया है।

  1. चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति

मनुष्य के स्वास्थ्य को बनाये रखने हेतु लगातार खोजें हो रही हैं। नित्य नये-नये वैज्ञानिक यंत्रों तथा उपकरणों का आविष्कार हो रहा है, जो रोगों का सही निदान एवं प्रभावशाली इलाज करने में सफल हो रहे हैं। कई घातक बीमारियाँ नियंत्रित की जा चुकी हैं। इस प्रकार मानवता के कष्टों का निवारण करते हुए मनुष्य को दीर्घजीवी बनाने का काम आज विज्ञान कर रहा है।

  1. औद्योगिक विकास में तीव्रता

वर्तमान युग कल-कारखानों का युग है जहाँ वैज्ञानिक है यंत्रों की मदद से जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन विशाल पैमाने पर हो रहा है। बढ़ती हुई जनसंख्या की माँगों की पूर्ति मात्र मानव-श्रम से संभव नहीं रह गई है। यह विज्ञान की ही देन है कि तीव्र गति से उत्पादन वृद्धि कर सामान्य स्तर के व्यक्तियों हेतु भी आज वस्तुएं सुलभ हो सकी हैं।

पारंपरिक ज्ञान (Traditional Knowledge)

पारंपरिक ज्ञान वह ज्ञान, जानकारी, कौशल और प्रथाएं हैं जो एक समुदाय के भीतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित, कायम और हस्तांतरित होती हैं, जो अक्सर इसकी सांस्कृतिक या आध्यात्मिक पहचान का हिस्सा बनती हैं।

पारंपरिक ज्ञान विभिन्न प्रकार के संदर्भों में पाया जा सकता है, जिनमें शामिल हैं: कृषि, वैज्ञानिक, तकनीकी, पारिस्थितिक और औषधीय ज्ञान के साथ-साथ जैव विविधता से संबंधित ज्ञान।

पारंपरिक ज्ञान का स्रोत है:

1- पीढ़ी-दर-पीढ़ी वैध ज्ञान या प्राथमिक जो मूलनिवासियों की उत्पत्ति या विरासत का हिस्सा हैं

2- ज्ञान या अभ्यास के लिए स्वदेशी समुदाय संरक्षक या संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं

पारंपरिक ज्ञान का महत्व

पारंपरिक ज्ञान स्वदेशी लोगों की बौद्धिक संपदा है जो पीढ़ियों से चली आ रही है और उनके अस्तित्व का अभिन्न अंग है। यह उनकी सांस्कृतिक विरासत, रीति-रिवाजों, विश्वासों और ज्ञान प्रणालियों को पीढ़ी से पीढ़ी तक पारित कर दिया गया है। इन जन्मों के लिए, ज्ञान उनके जीवन का एक गहरा हिस्सा है। यह लगभग सभी स्वदेशी लोगों के लिए सच है और आज दुनिया के अन्य स्वदेशी लोगों के लिए भी सच है। इसका मतलब यह है कि उनकी ज्ञान प्रणाली और पहचान जो वे बढ़ावा देते हैं और अभ्यास करते हैं, वे गहराई से निहित हैं और उन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है क्योंकि उन्हें उपनिवेश बनाने वाले देशों के अंदर और बाहर दोनों से खतरों का सामना करना पड़ता है।

मानवाधिकार रक्षकों की ओर से सरकारों से स्वदेशी लोगों के सांस्कृतिक अधिकारों के संरक्षण का समर्थन करने का आह्वान किया जा रहा है। तर्क दिया गया है कि आज दुनिया के कई हिस्सों में पारंपरिक ज्ञान और उन पर बनी अर्थव्यवस्थाएं खतरे में हैं। पारंपरिक ज्ञान को बढ़ावा देना एक तरीका है जिससे लोगों के विभिन्न समूह यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके अपने सांस्कृतिक अधिकार सुरक्षित हैं। यह स्वदेशी लोगों के लिए अधिक आर्थिक स्थिरता और बेहतर जीवन स्तर की उपलब्धि की कुंजी है।

पारंपरिक ज्ञान आम तौर पर एक समुदाय को दूसरे से अलग करता है। कुछ समुदायों में, पारंपरिक ज्ञान व्यक्तिगत और आध्यात्मिक अर्थ ग्रहण करता है । पारंपरिक ज्ञान किसी समुदाय के हितों को भी प्रतिबिंबित कर सकता है। कुछ समुदाय जीवित रहने के लिए अपने पारंपरिक ज्ञान पर निर्भर हैं। पर्यावरण के संबंध में पारंपरिक ज्ञान, जैसे वर्जनाएँ, कहावतें और ब्रह्माण्ड संबंधी ज्ञान प्रणालियाँ, जैव विविधता संरक्षण के लिए एक संरक्षण लोकाचार प्रदान कर सकती हैं। यह विशेष रूप से पारंपरिक पर्यावरण ज्ञान के बारे में सच है, जो “पौधों और जानवरों की प्रजातियों, भू-आकृतियों, जलधाराओं और किसी दिए गए स्थान पर जैव-भौतिकीय वातावरण के अन्य गुणों के बीच विविधता और बातचीत के स्थान-आधारित ज्ञान के विशेष रूप को संदर्भित करता है।

पारंपरिक ज्ञान स्थानीय रूप से उपयुक्त है और स्थानीय परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुसार विशेष रूप से अनुकूलित है। उनके पास एक ही संसाधन के अत्यधिक दोहन के बिना उत्पादन तंत्र में विविधता है। ये स्थानीय समुदायों की भलाई के साथ-साथ सतत विकास के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इन्हें अपने परिवेश की जैविक विविधता के संरक्षण और विकास के लिए विकसित किया गया है।

पारंपरिक ज्ञान आम तौर पर जैविक संसाधनों से जुड़ा होता है और यह निश्चित रूप से ऐसे जैविक संसाधन का एक अमूर्त घटक होता है। पारंपरिक ज्ञान में मानव जाति के लाभ के लिए उपयोगी प्रथाओं और प्रक्रियाओं के विकास के लिए सुराग / लीड प्रदान करके

व्यावसायिक लाभ में अनुवादित होने की क्षमता है। इस तरह के सुराग/लीड किसी भी अनुसंधान और उत्पाद विकास में आधुनिक बायोटेक और अन्य उद्योगों के समय, धन और निवेश को बचाते हैं। हालाँकि, आम तौर पर स्थानीय समुदाय को कोई लाभ साझा नहीं किया जाता था जिन्होंने वास्तव में ऐसा पारंपरिक ज्ञान विकसित किया था।

1- पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण की आवश्यकता

जैव विविधता और संबंधित पारंपरिक ज्ञान के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक नृवंशविज्ञानियों, फार्मास्युटिकल कंपनियों और अन्य लोगों की ओर से बढ़ती जैव-पूर्वेक्षण गतिविधियाँ हैं जो स्वदेशी क्षेत्रों में समृद्ध जैव विविधता और पारंपरिक ज्ञान से लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे कई कारण हैं जो स्वदेशी पारंपरिक ज्ञान की रक्षा करने की आवश्यकता को दर्शाते हैं।

2- पारंपरिक ज्ञान रखने वाले स्वदेशी समुदायों की आजीविका में सुधार करने के लिए

पारंपरिक ज्ञान स्वदेशी और स्थानीय समुदायों के लिए एक मूल्यवान संपत्ति है जो अपनी आजीविका के लिए पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ अपने स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्थायी तरीके से प्रबंधित और शोषण करने के लिए निर्भर करते हैं।

3- राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचाने के लिए

व्यावसायिक स्वीकार्यता वाले नवीन उत्पादों को विकसित करने के लिए पारंपरिक ज्ञान बहुत उपयोगी है। अतः भारत जैसे आर्थिक रूप से विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए यह आवश्यक है।

4- पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए

स्वदेशी समुदाय बुद्धिमान हैं और उन्होंने अपनी विभिन्न पारंपरिक खेती प्रथाओं के माध्यम से कृषि को टिकाऊ बनाया है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि, पारंपरिक ज्ञान पर्यावरण और मानव जाति की आवश्यकता के बीच संतुलन बना सकता है।

पारंपरिक ज्ञान की रक्षा कैसे करें?

कई लोगों ने भारत को एक अमीर देश बताया है, जहां गरीब लोग रहते हैं। यह समृद्धि हमारी बौद्धिक शक्तियों, जैव-विविधता, पारंपरिक ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जनशक्ति और हमारे संस्थानों और अन्य विशेषताओं की एक पूरी श्रृंखला के कारण है। हालाँकि, इन संसाधनों से धन और सामाजिक भलाई पैदा करने में हमारी असमर्थता ने हमें गरीब बनाए रखा है।

उदाहरण के लिए, “कलारीपयट्टू का समृद्ध पारंपरिक ज्ञान तेल, मुद्राओं, तकनीकों और स्वास्थ्य लाभों के बहुत सीमित वैज्ञानिक समर्थन के साथ कलारी गुरुओं के पास ही रहा है। एनईपी 2020 ऐसी समृद्ध भारतीय परंपराओं पर ध्यान वापस लाने का प्रयास करता है। भारतीय ज्ञान प्रणाली को पुनरुद्धार की आवश्यकता है। एनईपी 2020 वेदों, पुराणों और ऐसे अन्य ज्ञान भंडारों में उल्लिखित बातों को मान्य करने के लिए पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक अध्ययन के साथ संरेखित करने का प्रयास करता है। ज्ञान आधारित प्रतिस्पर्धा की वर्तमान – दुनिया में, बौद्धिक संपदा अधिकार एक प्रमुख रणनीतिक उपकरण के रूप में उभरेगा, और भारत बाकी दुनिया से काफी पीछे है और आईपीआर में निरक्षरता जारी रहने से हमें बहुत नुकसान होगा |

आईपीआर के सृजन, उसके संग्रहण, दस्तावेज़ीकरण, मूल्यांकन, संरक्षण और दोहन पर मजबूत प्रणालियों को शामिल करने के लिए बड़े पैमाने पर जोर देने की आवश्यकता होगी। इस प्रकार, केवल पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेज़ीकरण ऐसे ज्ञान के उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों को साझा करने में मदद नहीं करेगा जब तक कि इसे ज्ञान की सुरक्षा के लिए कुछ मजबूत तंत्रों द्वारा समर्थित न किया जाए।

अपनाए गए सभी मौजूदा सुरक्षात्मक उपाय एक आर्थिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हैं। हालाँकि, हमें वास्तव में पारंपरिक ज्ञान की रक्षा करने और भावी पीढ़ी तक ऐसे ज्ञान को स्थानांतरित करने की आवश्यकता है, जो वास्तव में नवाचार को प्रोत्साहित करेगा। हमें इस तरह के ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने के लिए उपयुक्त तरीके अपनाने चाहिए। यह तभी संभव है, जब हम इसे अपनी शिक्षा प्रणाली में कला, चिकित्सा, तकनीकी, वास्तुकला आदि जैसे विभिन्न शीर्षकों के तहत वर्गीकृत करते हुए अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाते हैं। ऐसे कदम पूर्व से ही शुरू करने के लिए उठाए जाएंगे।

अंतःविषय का अर्थ 

दो या दो से अधिक विषयों के सम्मिलित अध्ययन के ज्ञान को अंत: विषय ज्ञान कहा जाता है। यह समायोजित विषय का ज्ञान है। इसके अंतर्गत एक व्यक्ति दो या दो से अधिक विषय का ज्ञान संयुक्त रूप से एक साथ प्राप्त करता है।

अंतःविषय निर्देश में किसी विषय, मुद्दे, प्रश्न या विषय की जांच करने के लिए एक से अधिक अकादमिक अनुशासनों से विधियों और विश्लेषणात्मक ढांचे के उपयोग और एकीकरण पर जोर दिया जाता है। अंतःविषय शिक्षा विषयों की जांच करने के लिए अनुशासनात्मक दृष्टिकोण का उपयोग करती है, लेकिन इससे आगे भी बढ़ाती है: विभिन्न प्रासंगिक विषयों से अंतर्दृष्टि लेना, समझने में उनके योगदान को संश्लेषित करना, और फिर इन विचारों को अधिक संपूर्ण, और उम्मीद है कि सुसंगत, विश्लेषण के ढांचे में एकीकृत करना।

अंतःविषय निर्देश संपूर्ण छात्र अनुभवों को आकर्षक और कुशल बनाने की मजबूत प्रणाली विकसित करता है। जब हम प्रत्येक सामग्री क्षेत्र या शैक्षणिक क्षेत्र को शिक्षण प्रणाली के एक हिस्से के रूप में सोचते हैं तो शिक्षक शिक्षण की जटिलताओं और अपेक्षाओं से अभिभूत महसूस कर सकते हैं।

शिक्षण और सीखने के लिए एक अंतःविषय दृष्टिकोण अपनाकर, स्कूल कई शैक्षणिक क्षेत्रों को एकीकृत कर सकते हैं – और करना भी चाहिए। अंतःविषय निर्देश छात्रों की विभिन्न सीखने की शैलियों, विविध पृष्ठभूमि, रुचियों, प्रतिभाओं, पृष्ठभूमि और मूल्यों का समर्थन करते हुए छात्र ज्ञान, समस्या-समाधान कौशल, आत्मविश्वास, आत्म-प्रभावकारिता और सीखने के जुनून को विकसित करने के लिए एक साथ काम करने वाले कई सामग्री समूहों पर निर्भर करता है।

अंतःविषय और परियोजना सीखने के अवसर प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करने से, सीखने में छात्रों की व्यस्तता बढ़ती है, जिससे छात्र-निर्देशित सीखने की संस्कृति आदर्श बन जाती है, अपवाद नहीं। निर्देश और मूल्यांकन को मौन सामग्री क्षेत्र से हटाकर अंतःविषय में स्थानांतरित करने से शिक्षकों और छात्रों को सीखने का पता लगाने के अद्वितीय अवसर मिलेंगे जो उनके लिए प्रासंगिक और दिलचस्प दोनों हैं – एक ऐसा वातावरण तैयार करना जो शिक्षार्थियों को उत्साहित करता है और निरंतर जिज्ञासा जगाता है। विद्यार्थियों को सीखने का अनुभव प्रदान करने के कई अलग-अलग तरीके हैं जिनमें कई विषयों का ज्ञान और कौशल शामिल हैं। हालाँकि इनमें से कोई भी दृष्टिकोण नया नहीं है, मेन डीओई का अंतःविषय सीखने का समर्थन हमारे छात्रों को एक आकर्षक और फायदेमंद मार्ग खोजने के लिए बेहतर ढंग से तैयार करता है।

अंतःविषय की प्रकृति

(1) एक विशिष्ट कार्य की खोज के लिए अंत: विषयक विधालयों के विशिष्ट दृष्टिकोण के साथ उनके विचार, उनके व्यवसाय अथवा उनकी तकनीक को एकत्रित करने के उद्देश्य से उनके (विद्यालयों) के शिक्षकों, विद्यार्थियों तथा शोधकर्ताओं को सम्मिलित करता है।

(2) अंतः विषय उन क्षेत्रों में भी व्यवहार में लाया जा सकता है जिसमें अनुसंधान संस्थाओं के पारंपारिक अनुशासनात्मक संरचना के कारण कोई, विषय उपेक्षित या अनुचित रीति से प्रस्तुत किया गया है। जैसे-महिलाओं की शिक्षा।

(3) अंत विषय उपागम आधुनिक विषयों के लिए एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण है। यह उपागम शिक्षकों और विद्यार्थियों के समूह को उत्पन्न करता है।

अंतःविषय शिक्षा क्यों महत्वपूर्ण है?

अंतःविषय शिक्षण आलोचनात्मक सोच और संज्ञानात्मक विकास को आगे बढ़ाने में मदद करता है – अंतःविषय निर्देश छात्रों को उनकी संज्ञानात्मक क्षमताओं – मस्तिष्क-आधारित कौशल और मानसिक प्रक्रियाओं को विकसित करने में मदद करता है जो कार्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं। एलन रेप्को (2009) ने कई संज्ञानात्मक गुणों की पहचान की है जो अंतःविषय सीखने को बढ़ावा देते हैं।

परिप्रेक्ष्य लेने की तकनीक प्राप्त करें (बलोचे, हाइन्स और बर्जर 1996) – किसी दिए गए विषय पर कई दृष्टिकोणों को समझने की क्षमता।

छात्रों में किसी समस्या से निपटने के तरीके और व्यवहार्य साक्ष्य के संबंध में उनके अनुशासन के विशिष्ट नियमों के बीच अंतर की सराहना विकसित होती है। इससे जांच के तहत मुद्दे की व्यापक समझ पैदा होती है।

संरचनात्मक ज्ञान विकसित करें – घोषणात्मक ज्ञान (तथ्यात्मक जानकारी) और प्रक्रियात्मक ज्ञान (प्रक्रिया-आधारित जानकारी) दोनों। जटिल समस्याओं को हल करने के लिए ज्ञान के इन रूपों में से प्रत्येक की आवश्यकता होती है। इस प्रकार, जैसे-जैसे छात्र अपनी ज्ञान निर्माण क्षमता बढ़ाते हैं, शिक्षक उन्हें अधिक जटिल मुद्दों से निपटने वाली बातचीत में शामिल कर सकते हैं।

वैकल्पिक विषयों से परस्पर विरोधी अंतर्दृष्टि को एकीकृत करें। कई अनुशासन समान या संबंधित समस्याओं को समझने का प्रयास करते हैं, लेकिन प्रत्येक अनुशासन अपनी अंतर्दृष्टि की व्यवहार्यता का मूल्यांकन करने के लिए विश्लेषण और दृष्टिकोण के विभिन्न तंत्र अपनाता है। कई विषयों में निहित समस्याओं की स्पष्ट समझ प्राप्त करने के लिए विचारों को एकीकृत करने की क्षमता की आवश्यकता होती है और यह कौशल अंतःविषय शिक्षा द्वारा उन्नत होता है।

बहु-विषयक शिक्षा क्या है?

बहुविषयक शिक्षा का अर्थ एक ही विषय का एक से अधिक विषयों के दृष्टिकोण से अध्ययन करना है। इसे क्रॉस-डिसिप्लिनरी भी कहा जाता है जो विषयों के बीच की सीमा को पार करने के उद्देश्य को प्राप्त करता है।

बहुविषयक विधि विचारधारा पाठ्यक्रम एकीकरण की एक विधि है जो विविध दृष्टिकोणों को उजागर करती है जो विभिन्न विषयों को किसी भी विषय, विषय या मुद्दे को चित्रित करने के लिए ला सकती है। बहुविषयक पाठ्यक्रम में एक ही विषय के अध्ययन के लिए कई विषयों का उपयोग किया जाता है।

शिक्षा में बहु-विषयक दृष्टिकोण सीखने का एक तरीका है जो किसी भी विषय, अवधारणा या किसी मुद्दे को चित्रित करने के लिए सीखने के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण और विभिन्न विषयों पर मुख्य ध्यान केंद्रित करता है। इसमें एक से अधिक विषयों के कई दृष्टिकोणों के माध्यम से एक ही अवधारणा शामिल है। यह छात्रों को विविध यूनिवर्सल से दृष्टिकोण और ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है।

बहु-विषयक शिक्षा आज के समय की आवश्यकता क्यों है?

दुनिया अलग-अलग दिशाओं में तेजी से बदल रही है। बहुत सारे विषय आवश्यकता के कारण पैदा हो रहे हैं और समय के साथ यह बढ़ता ही जा रहा है। यदि किसी व्यक्ति को आज किसी चीज़ में विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है जब तक कि वह नौकरी की मदद से आज के प्रतिस्पर्धी माहौल में खुद को बनाए रखने में सक्षम न हो, तो वह न केवल दिवालिया हो जाएगा बल्कि शिक्षा में उसकी प्रगति में भी बाधा उत्पन्न होगी। ऐसी स्थिति में, सबसे अच्छा तरीका एक बहु-विषयक शिक्षा होगी जहां लोग विभिन्न विषयों का अध्ययन करेंगे, जिससे उन्हें अपने उपकरणों को बहुत अलग धाराओं में डुबोने के परिणामस्वरूप नौकरी प्राप्त करना आसान हो जाएगा।

बहु-विषयक शिक्षा को बढ़ावा देने का एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि इसमें रोजगारपरकता पर अधिक जोर दिया जाता है। ऐसे बहुत से छात्र हैं जो काफी अच्छे सीजीपीए के साथ कॉलेज से स्नातक होते हैं लेकिन उनके पास किसी कंपनी में रोजगार पाने के लिए आवश्यक कौशल नहीं होते हैं। रोजगार योग्यता सीधे उस ज्ञान से जुड़ी होती है जो एक छात्र के पास किसी विशेष विषय के बारे में होता है। किसी व्यक्ति के किसी विशेष विषय में ज्ञान बढ़ाने से उसमें कोई कमी नहीं आएगी क्योंकि आज अधिकांश कंपनियों के नौकरी विवरण बहुआयामी हैं। यहीं पर बहुविषयक शिक्षा आती है।

समाज को ऐसी दिशा में आगे बढ़ाने के लिए जो समावेशी और प्रगतिशील दोनों हो, बहु-विषयक शिक्षा महत्वपूर्ण है। जिसके महत्व को निम्नलिखित संदर्भों में विश्लेषण किया गया है-

(1) छात्रों को शैक्षणिक स्वायत्तता देना

आज की दुनिया में रचनात्मक माहौल की कमी है जहां छात्र अपनी गति से सीख सकें। यह अंतर ऑनलाइन शिक्षा द्वारा भरा जा रहा है, लेकिन इसे छात्र स्वायत्तता की मदद से और पूरा किया जा सकता है। छात्रों को उनकी रुचि के अनुसार अध्ययन करने की आजादी देना छात्रों में रचनात्मकता को बढ़ावा देने और उन्हें रचनात्मक विचारों को सामने लाने में मदद करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जो भविष्य को आकार दे सकते हैं। बहु-विषयक शिक्षा के साथ, छात्र अपने पसंदीदा विषय चुन सकते हैं, जिससे वे उन विषयों पर अत्यधिक विद्वान हो जाते हैं, जो बदले में उन्हें बेहतर शिक्षार्थी बनने में मदद करेगा।

(2) निरंतर सीखने वालों की एक पीढ़ी विकसित करना 

सतत शिक्षा एक अवधारणा है जिसके द्वारा छात्र स्नातक होने के बाद भी उन चीजों के बारे में खुद को अपडेट करते रहते हैं जो उन्होंने सीखी हैं, भले ही उन्हें पाठ्यक्रम द्वारा ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है। निरंतर सीखना छात्रों द्वारा सीखे गए विषय में रुचि बनाए रखने का एक परिणाम है जो केवल तभी हो सकता है जब वे वास्तव में उसी में निवेशित हों। एक बहु-विषयक पाठ्यक्रम यह सुनिश्चित करेगा कि छात्रों को केवल वही पढ़ना होगा जो उन्हें पसंद है, जिससे वे कॉलेज से स्नातक होने के बाद भी इसके बारे में अधिक से अधिक सीखना चाहेंगे। यह संभावित रूप से लोगों के एक समूह को आजीवन सीखने वाला बना सकता है जो 21वीं सदी में बेहद महत्वपूर्ण है।

(3) व्यावहारिक मानसिकता विकसित करने में मदद करता है

बहुविषयक शिक्षा इस मायने में अद्वितीय है कि यह छात्रों को नए विचारों की शक्ति को समझने में मदद कर सकती है। यह सीखने के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण विकसित करने में मदद कर सकता है क्योंकि उन्हें यह चुनने की स्वतंत्रता दी जाती है कि वे कौन से विषय चुनना चाहते हैं और उनके संभावित लाभ क्या हैं। इससे उन्हें जोखिम की गणना और इससे मिलने वाले फायदों के आधार पर निर्णय लेने का समय मिलेगा। इसलिए, यह छात्रों को अपना रास्ता खुद बनाने और अपनी मानसिक शक्तियों का पूरा उपयोग करने में सक्षम बनाता है।

(4) महत्वपूर्ण सॉफ्ट कौशल विकसित करने में मदद करता है

21वीं सदी में आवश्यक कुछ सबसे महत्वपूर्ण सॉफ्ट कौशल समय प्रबंधन , समस्या-समाधान और निर्णय लेने के कौशल हैं । इन सभी को एक बहु-विषयक पाठ्यक्रम में आसानी से बढ़ावा दिया जा सकता है क्योंकि जब आप किसी छात्र को यह चुनने की स्वायत्तता देते हैं कि वे क्या अध्ययन करना चाहते हैं तो वे अनिवार्य रूप से उस कार्य के साथ बेहतर समस्या समाधानकर्ता और निर्णय लेने वाले बन जाते हैं क्योंकि उन्हें मौलिक रूप से निर्णय लेना होगा। इतनी कम उम्र में उनका जीवन बदल जाता है कि उन्हें पता चलता है कि इसमें कितनी ज़िम्मेदारी आती है। उस बिंदु के बाद लिया गया प्रत्येक निर्णय उस छात्र द्वारा अच्छी तरह से सोचा जाएगा और इसलिए अधिक तर्कसंगत होगा।

 BY : TEAM KALYAN INSTITUTE

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