दुनिया की नजर अफगानिस्तान की ओर तालिबान की वजह से। इन दिनों काफी चर्चाओं में अफगानिस्तान में तालिबान को लेकर काफी चर्चा हो रही है इसके अंतर्गत हम इन प्रमुख बिंदुओं को देखते हुए बात करेंगे।
1- अफगानिस्तान का इतिहास।
2- तालिबान का उदय ।
3- अमेरिका की वापसी ।
4- अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं।
5- भारत का पक्ष।
1-अफगानिस्तान का इतिहास-
अफगानिस्तान में 1973 से पहले जाहिर शाह अफगानिस्तान के राजा थे, इनका शासन बहुत अच्छा माना जाता था। 1973 में अफगानिस्तान में तख्तापलट हो जाता है और जाहिर शाह के प्रधान मंत्री मोहब्बत दाऊद खान के पास सत्ता की कमान आ जाती है।
1965 में PDPA (Peoples democratic party of Afghanistan) का गठन हुआ और यह पार्टी कम्युनिस्टों की पार्टी है। इस पार्टी को minority की पार्टी भी कहा जाता है, और 1973 में जब तख्तापलट हुआ तो इस पार्टी से मोहब्बत दाऊद खान ने सत्ता संभाली और इसी के बाद से ही अफगानिस्तान में अस्थिरता की स्थिति को देखा जाता है।
PDPA (Peoples Democratic Party of Afghanistan) बहुत ही जल्द दो भागों में बट गई,
1- खलंक पार्टी ।
2- परचम पार्टी।
इन दोनों पार्टियों में अभी तक तो लगभग सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन 17 अप्रैल 1978 को परचम पार्टी के मीर अकबर खाइबर की हत्या खलंक पार्टी के द्वारा करवा दी गई। क्योंकि इन दोनों गुटों के बीच आपसी टकराव आम से हो गए थे। 27 अप्रैल 1978 को मोहब्बत दाऊद खान ने खलंक पार्टी खिलाफ सख्त रुख अपनाया। तो इस तरह से अफगानिस्तान में 1978 में पूरी तरह से कम्युनिस्टों का बोलबाला हो गया।
सोवियत भी चाहता था कि अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों की हुकुमत रहे जिसके लिए सोवियत संघ ने peoples democratic party of Afghanistan को 1979 में सहायता की जिसकी वजह से अफगानिस्तान में स्थिरता की स्थिति दोबारा से लौटकर आई जिससे अफगानिस्तान में विकास होने लगा।
लेकिन यहीं से उजाहिदीन का उदय हुआ इनका मानना था कि कम्युनिस्टों के हाथों में सत्ता की कमान नहीं होनी चाहिए। यहां पर उजाहिदीन का सहयोग अमेरिका ने किया, एक तरफ PDPA पार्टी के साथ सोवियत दूसरी ओर उजाहिदीन के साथ अमेरिका समर्थन व सहयोग मिला। इन सभी कारणों से ही 1979 से 1989 तक युद्ध चला।
1989 तक आते-आते सोवियत को यह पता चल गया कि इनसे नहीं लड़ा जा सकता क्योंकि अफगानिस्तान का ज्यादातर हिस्सा पर्वतीय क्षेत्रों में है जहां पर युद्ध करना असंभव है और सोवियत ने अपने पांव पीछे कर दिया। इसके बाद अफगनिस्तान सरकार अकेली रह गई, और जिसके बाद से ही उजाहिदीन के फन और ज्यादा फैलने लगे। और उजाहिदीन ने अफगानिस्तान में कई छोटे-छोटे क्षेत्रों में कब्जा करने का प्रयास किया, इसके परिणाम स्वरूप 1902 से 1906 तक सिविल वॉर भी शुरू हुआ।
2-तालिबान की स्थापना
सिविल वॉर के दौरान ही 1904 में मुल्ला मोहब्बत ने तालिबान की स्थापना की तालिब का मतलब ही छात्रों से होता है, मुल्ला मोहब्बत ने सबसे पहले 50 छात्रों को जोड़ा जिसको देखते ही देखते 1 महीने में 15000 छात्र जुड़ने लगे और धीरे-धीरे तालिबान की ताकत और मजबूत होने लगी। अमेरिका ने भी इनसे संयोग करना धीरे-धीरे बंद किया, जिस कारण से तालिबान और ज्यादा ताकतवर होने लगे इनके पास हथियार भी प्रचुर मात्रा में थे जिससे देखते ही देखते 26 सितंबर 1996 को तालिबान ने अफगानिस्तान की कई छोटे शहरों में कब्जा कर लिया। तालिबान महिलाओं के अधिकारों के घोर विरोधी थे यह क्रूरता की एक अपनी पराकाष्ठा को पार करते थे।
अभी तक तालिबान दुनिया के लिए आतंकवाद का उद्गम स्थल बन गया था यहां तक की ओसामा बिन लादेन भी इन्हीं के बीच प्लानिंग करता था।
3- अमेरिका की वापसी
11 सितंबर 2001 को ट्विन टावर में तालिबान ने हमला किया अमेरिका ने इस आतंकी हमले को अक्टूबर 2001 को स्पष्ट रूप से कह दिया की तालिबान हमें ओसामा बिन लादेन सौंप दें और जितने भी इसके लीडर है उन्हें भी हमें सौंप दें, और जितने भी आतंकी प्रशिक्षण कैंप चल रहे हैं उन्हें तुरंत बंद कर दे, यह अमेरिका ने स्पष्ट रूप से तालिबान को कह दिया। लेकिन तालिबान ने मानने से इनकार कर दिया इसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में फोर्स अफगानिस्तान पहुंची अमेरिका ने अफगानिस्तान की स्थिति लगभग सामान्य की और अमेरिका ने वहां पर विकास कार्यों में भी व्यय किया। क्योंकि अफगानिस्तान में नेचुरल गैस, पेट्रोलियम प्रचुर मात्रा में पाया जाता है इसीलिए अमेरिका ने भी अफगानिस्तान में विकास कार्यों में खर्च किया 2007 तक लगभग अफगानिस्तान में स्थिति सामान्य बनी रही, लेकिन तालिबान छुप छुप कर वार करने लगता था अफगानिस्तान पहाड़ी क्षेत्रों में होने के कारण तालिबान उन क्षेत्रों में महारत हासिल थी और अमेरिकी सैनिकों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, और अमेरिका ने भी धीरे-धीरे अपने सैनिकों को कम करने लगे जिससे कि तालिबान पूरे अफगानिस्तान में फैलने लगे और कब्जा भी करने लगे।
अमेरिका व तालिबान के बीच एक दोहरी वार्ता हुई यह वार्ता फरवरी 2020 में कतर के दोहा मैं अमेरिका और तालिबानियों के बीच हुई इसमें यह तय हुआ कि यदि तालिबान अमेरिका वह नाटो की सेना पर हमला नहीं करेगा तू अमेरिका कुछ रियायत बरतेगा और जो तालिबान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा है उस पर भी विचार किया जाएगा। जो यह वार्ता हुई इस वार्ता से अफगानिस्तान सरकार को दूर रखा गया जबकि अफगानिस्तान सरकार अमेरिका पर तकनीकी, हथियार आदि अनेक मामलों पर निर्भर है जबकि तालिबान ज्यादा शक्तिशाली को वर्कर सामने आने लगे जैसी ही अमेरिका अपनी सेना को वापस लेता है तो तालिबान पूरे अफगानिस्तान में कब्जा करने का प्रयास करते हैं तथा अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर भाग जाते हैं।
4- अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं
अफगानिस्तान और तालिबान के प्रति विभिन्न देशों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आने लगी।
1-ब्रिटेन
ब्रिटेन का मानना है कि जिस तरह से अफगानिस्तान में तालिबान ने कब्जा किया है और इनकी क्रूरता व्यवहार को देखते हुए ब्रिटेन तालिबान का समर्थन नहीं करता है।
2- रूस
इस संदर्भ में रूस का रुख स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है रूस का मानना है कि जिस तरह से अफगानिस्तान में तालिबान शासन स्थापित होने जा रहा है अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि तालिबान का समर्थन किया जाए या नहीं और यह भी देखना होगा कि बदलते हुए तालिबान की स्थिति भी स्पष्ट हो जाए।
3- कनाडा
अफगानिस्तान और तालिबान के संदर्भ कनाडा का रुख स्पष्ट है कि तालिबान का वह समर्थक नहीं है।
4- चीन
तालिबान शासन के प्रति चीन का रुख तालिबान के समर्थन में है।
5- पाकिस्तान
पाकिस्तान तालिबानी शासन के प्रति चीन की तरह इसका समर्थक रहा है समर्थक ही नहीं इसको सहयोग भी करता आया है।
6- तुर्की
तुर्की का मानना है की अफगानिस्तान सरकार से अमेरिका ने अपना सहयोग वापस लेने के बाद जिस तरह से तालिबानी पूरे देश में कब्जा करने का प्रयास करते हैं इस रुख के प्रति तुर्की का मत स्पष्ट है कि वह तालिबानी शासन का समर्थन नहीं करते हैं।
5-भारत का पक्ष
भारत का पक्ष हमेशा ही अंतरराष्ट्रीय दृष्टि में कूटनीतिक रहा है। हालांकि भारत पहले से तालिबानी का समर्थक नहीं रहा हैअफगानिस्तानजब से तालिबानी शासन स्थापित होने जा रहा है अफगानिस्तान में इसके बाद से अभी कोई स्पष्ट रुक सामने नहीं आ पाया है।
हालांकि भारत ने अफगानिस्तान में संरचनात्मक विकास में काफी सहयोग किया है। जिसमें की भारत ने अफगानिस्तान में सलमा डैम, शहतूत डैम, जाराज डेलाराम हाईवे, यहां तक कि भारत ने अफगानिस्तान में अफगानी संसद का निर्माण भी करवाया।
कहीं आप इन्हें देखना भूल तो नहीं गए।