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ज्ञान एवं पाठ्यक्रम

आजकल ज्ञान का महत्त्व बहुत ज्यादा है। जिसका ज्ञान जितना ज्यादा और नवीनतम  है वह उतना ही ज्यादा दूसरों को प्रभावित करता है। वह जहाँ भी होता है, या जहाँ भी जाता है वहीं उसे पहचान मिलती है। शिक्षा व्यक्ति को पर्याप्त ज्ञान देती है, उसे नवीनतम करती है तथा ज्ञान की दृष्टि से गम्भीर बनाती है। इस रूप में, शिक्षा के ज्ञान-लक्ष्य को हम एक ‘आधार लक्ष्य’ मान सकते हैं। सुकरात ने कहा, “जो सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह सर्वगुणसम्पन्न हो जाता है। ज्ञान एवं पाठ्यक्रम पाठ्यक्रम शिक्षा-संबंधी दौड़ का वह मार्ग है, जिस पर दौड़ कर बच्चे अपने व्यक्तित्व विकास लक्ष्य को प्राप्त करता है। पाठ्यक्रम वह साधन है जिसके द्वारा शिक्षा एवं जीवन के लक्ष्य प्राप्त होते हैं। यह अध्ययन का एक निश्चित एवं तर्कपूर्ण क्रम है, जिसके माध्यम से शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा नये ज्ञान एवं अनुभव का ग्रहण होता है।

ज्ञान (Knowledge)

आजकल ज्ञान का महत्त्व बहुत ज्यादा है। जिसका ज्ञान (जानकारी) जितना ज्यादा और नवीनतम (upto date) है वह उतना ही ज्यादा दूसरों को प्रभावित करता है। वह जहाँ भी होता है, या जहाँ भी जाता है वहीं उसे पहचान मिलती है। शिक्षा व्यक्ति को पर्याप्त ज्ञान देती है, उसे नवीनतम करती है तथा ज्ञान की दृष्टि से गम्भीर बनाती है। इस रूप में, शिक्षा के ज्ञान-लक्ष्य को हम एक ‘आधार लक्ष्य’ मान सकते हैं। सुकरात ने कहा, “जो सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह सर्वगुणसम्पन्न हो जाता है।

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ज्ञान का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Knowledge)

ज्ञान वास्तविकता के प्रति जागरूकता एवं विशेष पहलुओं के प्रति समझ है। यह वास्तविकता के लिए तर्क की प्रक्रिया द्वारा ज्ञात की गयी शुद्ध जानकारी है। ज्ञान की परम्परागत अवधारणा यह है कि ज्ञान के लिए निम्न तीन बातों का होना आवश्यक है-

(1) सत्य (Truth) 

सत्य ज्ञान की नींव है। कोई भी (Truth) असत्य चीज ज्ञात करना ज्ञान की श्रेणी में नहीं आता। इसका सत्य होना अति आवश्यक है।

महान दार्शनिक अरस्तू का कथन है, “किसी ऐसी वस्तु के विषय कहना जो असत्य है, या उसके विषय में वह कहना जो वह वास्तव में नहीं है-असत्य है। किसी भी वस्तु के विषय में यह कहना जैसी वह है या किसी वस्तु के विषय में जो वास्तव में नहीं यह कहना कि वह नहीं है, सत्य है।”

(2) आस्था (विश्वास) (Belief) 

ज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु विश्वास है क्योंकि व्यक्ति उस वस्तु या विषय के बारे में कुछ भी नहीं जान सकता है जिसमें उसकी आस्था न हो। किसी वस्तु के विषय में यह कहना – “मैं अमुक वस्तु को जानता हूँ परन्तु मैं यह नहीं मानता कि वह सत्य है, असत्य होगा।”

(3) तर्कसंगतता (Justification) 

तर्कसंगतता किसी भी ज्ञान की तीसरा महत्त्वपूर्ण गुण है। कोई भी ज्ञान तब ही सत्य माना जाता है अथवा उसमें लोगों का विश्वास केवल तब ही बनता है जब वह बात तर्कसंगत हो।

ज्ञान की विशेषताएँ (Characteristics of Knowledge)

ज्ञान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) ज्ञान धन की तरह है, जितना एक मनुष्य को प्राप्त होता है, वह उतना ही ज्यादा पाने की इच्छ करता है।

(2) ज्ञान सत्य तक पहुँचने का साधन है।

(3) धर्म की भाँति ज्ञान को भी जानने के लिए अनुभव करने चाहिए।

(4) ज्ञान प्रेम तथा मानव स्वतंत्रता के सिद्धान्तों का ही आधार है।

(5) एक बार प्राप्त किया गया ज्ञान अपनी ही सीमाओं से परे रोशनी प्रदान करता है।

(6) तथ्य और मूल्य ज्ञान के ढाँचे का आधार बनते हैं।

(7) ज्ञान कदम से कदम मिलाकर चलता है, उछलता नहीं है।

(8) ज्ञान कभी समाप्त नहीं होता।

(9) सूचना ज्ञान का स्रोत है।

(10) ज्ञान शक्ति है।

(11) ज्ञान दूसरों को प्रदान करने के लिए विद्यमान रहता है।

(12) ज्ञान समय का परिणाम है।

(13) ज्ञान की कोई सीमा नहीं है।

ज्ञान के प्रकार (Type of Knowledge)

प्रमुख रूप से ज्ञान के निम्नलिखित तीन प्रकार होते हैं-

(1) आगमनात्मक ज्ञान (A Posteriori Knowledge)

इस प्रकार का ज्ञान हमारे अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित है। जॉन लॉक (John locke) इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक थे। उनके मतानुसार बालक का मन जन्म के समय कोरी पट्टी (Tabula Rasa) के समान होता है। जैसे-जैसे उसे अनुभव मिलते जाते हैं. इस पट्टी पर लेखन होने लगता है। इससे तात्पर्य है कि ज्ञान अनुभवों द्वारा वृद्धि करता रहता है। सीखने के लिए समग्र अनुभव प्रदान करने चाहिए। इस प्रकार के ज्ञान में अलौकिक का कोई स्थान नहीं है।

(2) प्रयोगमूलक ज्ञान (Experimental Knowledge)

ज्ञान प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है, ऐसी प्रयोजनवादियों की धारणा है। एक विचार को अभ्यास में परिवर्तित करने का प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणाम से जो फल प्राप्त होते हैं उनसे सीखना चाहिए। इस धारणा के अनुसार ज्ञान कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसे हम समझे कि वह अनुभव या निरीक्षण से अन्तिम रूप से समझी जा सकती है, जबकि हम ऐसी विधियों का प्रयोग करते हैं जैसे आगमन। यह तो कुछ ऐसी वस्तु है जो अनुभव में सक्रिय होती है, एक कृत्य की भाँति जो अनुभव को सन्तोषपूर्ण ढंग से आगे की ओर ले जाती है।

(3) प्रागानुभव ज्ञान (A Priori Knowledge)

ज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष की भाँति समझा जाता है। सिद्धान्त जब समझ लिये जाते हैं, सत्य पहचान लिये जाते हैं, तब उन्हें निरीक्षण, अनुभव या प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इस विचारधारा के प्रवर्तक दार्शनिक काण्ट (Kant) थे। उनके अनुसार, सामान्य सत्य अनुभव से स्वतन्त्र होने चाहिए, उन्हें स्वयं में स्पष्ट तथा निश्चित होना चाहिए। गणित का ज्ञान प्रागानुभव ज्ञान समझा जाता है।

कौशल का अर्थ 

कौशल का शाब्दिक अर्थ है कुशलता, दक्षता, निपुणता अथवा कुशल होने की अवस्था । कौशल शब्द के शाब्दिक अर्थ से यह स्पष्ट होता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को निपुणता के साथ अथवा अपनी मेहनत और अभ्यास द्वारा उस कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है तो वह व्यक्ति उस कार्य में कुशलता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। और यह कुशलता की अवस्था ही कौशल कहलाता है। अर्थात हम कह सकते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को बार-बार दोहराकर उस कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है तो वह कौशल कहलाता है।

कौशल कोई एक बार में हासिल की गई उपलब्धि नहीं है बल्कि यह सोच -समझकर, निरंतर प्रयास से प्राप्त किया गया वह ज्ञान है जिसका जटिल परिस्थितियों में प्रयोग किया जाता है। भिन्न भिन्न प्रकार के कार्यों को करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के तरीके भी होते हैं और जब इन कार्यों को करने के तरीके में निपुणता हासिल हो जाती है तो उस कार्य का कौशल कहलाता है। उपरोक्त तथ्यों से यह बात उजागर होती है कि कौशल विभिन्न विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं उदाहरण के लिए – लेखन कौशल, वाहन को चलाने का कौशल, भाषा कौशल प्रबंधन कौशल इत्यादि।

कौशल की विशेषताएँ (Characteristics of Skills)

(1) कौशल छात्रों के व्यवहार में संशोधन करने में सहायक सिद्ध होते हैं। प्रत्येक कौशल को देखा, सुना व महसूस किया जा सकता है। सभी कौशलों का व्यवहार में प्रयोग किया जाना सम्भव है और वह यह कौशल अध्यापन कार्य में स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं।

(2) प्रत्येक कौशल शिक्षण कार्य का संकेतक होता है। अन्य शब्दों में कौशल शिक्षण कार्यों के किसी विशिष्ट प्रतिमान की ओर संकेत करता है और यह संकेत वांछित परिणामों को प्राप्त करने के लिए होता है।

(3) कौशलों के आयोजन से पता चलता है कि व्यक्ति क्रिया के सम्पादन में कितने सजग एवं जागरूक हैं।

(4) कौशल शिक्षण कार्यों का विश्लेषण करने में सहायक है। इनके द्वारा शिक्षण की क्रियाओं का विश्लेषण करते हुए उनकी संरचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है। शिक्षण क्रिया के संचालन की कौशल एक महत्त्वपूर्ण इकाई होती है।

(5) कौशल स्पष्ट चिन्तन, छात्रों की रुचि, कार्यशालाओं का विकास, बुद्धि का विकास एवं व्यक्तिगत सन्तुलन को विकसित करने में सहायक सिद्ध होते हैं।

(6) कौशल की कार्यकुशलता में वृद्धि करते हैं जिससे उन्हें उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में सहायता मिलती है और वे सरलता से अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर पाते हैं।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि कौशल व्यक्ति तथा छात्रों दोनों के लिए ही बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये कौशल की क्रियाओं तथा व्यवहारों से सम्बन्धित होते हैं और यह अन्तःक्रिया परिस्थितियों को उत्पन्न करने में सहायक होते हैं। इसके साथ ही साथ ये छात्रों को सीखने में सुगमता प्रदान करते हैं और उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करते हैं।

ज्ञान तथा कौशल के मध्य अंतर

ज्ञान कौशल
(1) ज्ञान प्राप्त करने वाले बालक संज्ञानात्मक योग्यताओं का प्रयोग करके सीखते हैं।

(2) ज्ञान देने के लिए तथ्यों, नियमों व सिद्धान्तों को पढ़ने के लिए बालकों को प्रवृत्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

(3) ज्ञान बालक को शिक्षा के उच्च स्तर तक पहुँचा सकता है।

(4) ज्ञान में किसी विशेष से संबंधित तथ्यों, सिद्धान्तों एवं नियमों को विभिन्न शर्तों से ग्रहण किया जा सकता है।

(5) ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

(6) ज्ञान का स्वरूप अमूर्त एवं अप्रत्यक्ष होता है।

(7) ज्ञान से किसी भी बालक को सरलता से स्थानान्तरित किया जा सकता है।

(8) ज्ञान का स्वरूप सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों रूपों में होता है परन्तु अधिकांशतः ज्ञान बालक के संज्ञानात्मक पथ को ही प्रकट करता है।

(1) जबकि कौशल प्राप्त करने वाले बालक करके सीखते हैं ।

(2) जबकि बालकों को कौशल सीखने के लिए प्रोत्साहन एवं कौशल में प्रवृत्त करने की आवश्यकता पड़ती है।

(3) जबकि कौशल के द्वारा बालक एक क्षेत्र में दक्षता प्राप्त कर सकता है।

(4) जबकि कौशल में ग्रहण की गई सूचनाओं एवं सिद्धान्तों को विभिन्न परिस्थितियों के संदर्भ में उपयोग किया जा सकता है।

(5) जबकि कौशल प्राप्त करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है।

(6) जबकि कौशल को प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है।

(7) जबकि कौशल को किसी दूसरे बालक को स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता है।

(8) जबकि कौशल का संबंध बालक के क्रियात्मक पक्ष से होता है।

ज्ञान तथा कौशल की बीच अंतर को इस संदर्भ में भी देख सकते हैं।

सूचना का अर्थ (Meaning of Information)

सूचना के अंग्रेजी समकक्ष शब्द information को लेटिन शब्द informare से लिया गया है जिसका अर्थ सूचना देना या मस्तिष्क को रूप देना या अनुशासित करना, शिक्षण करना या पढ़ाना होता है। एक अन्य लेटिन शब्द informatio भी इस शब्द का स्रोत है जिसका अर्थ विचार होता है। शब्द information को क्रिया informare से लिया गया है जिसका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है। शब्द inform को एक फ्रेंच शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ भी रूप देना या विचार बनाना होता है। सूचना वह तथ्य, रूप होती है जो सूचित करती है तथा कुछ प्रश्नों का उत्तर देती है जैसे यह क्या है, यह कहां है, यह कब है, यह कहां है आदि। सूचना वह रूप होती है जिसमें से तत्त्व तथा ज्ञान प्राप्त होते हैं।

सूचना शब्द का शब्दकोश के अनुसार अर्थ वह सूचना, समाचार या ज्ञान होता है। यह सूचित करने का कार्य या दशा होती है, यह शिकायत होती है जिसे अदालत में दिया जाता है तथा यह वह परिणाम होती है किसी विशिष्ट निर्देशों के अनुसार किसी कार्यक्रम से एकत्र किया जाता है।

सूचना एक मानवीय विचार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के कारण मानवीय गतिविधियों से सीधा जुड़ा रहता है। समाज में जब किसी चीज की आवश्यकता होती है, तो उस पर शोध होती है, नई परिकल्पनायें जन्म लेती हैं, नये विचार मानव-मस्तिष्क में आते हैं। पाच ज्ञानेन्द्रियों के जरिये ग्रहण की गई संवेदनाओं को तभी तान्त्रिकाओं के जरिये मस्तिष्क में ले जाया जाता है। मस्तिष्क कम्प्यूटर के सीपीयू की तरह उनका संसाधन करके एक विचार का रूप देता है। इस से नये तथ्य उत्पन्न होते हैं। इन्हें ही सूचनाओं के नाम से जाना जाता है। कहा जा सकता है कि जब जानने वाले तथा जानकार के बीच कोई अन्त:क्रिया होती है तो सूचना उत्पन्न होती है। इस प्रकार जब मनुष्य विचार या अन्त:क्रियायें करता है तो उसके मस्तिष्क में अनेक सूचनायें एकत्र हो जाती हैं।

इसी सूचना या ज्ञान को विभिन्न प्रकार से प्रकट किया जा सकता है जैसे मौखिक, संकेतों द्वारा, प्रलेखीय स्वरूपों द्वारा आदि। कोई भी अच्छी सूचना जब तक प्रभावी नहीं कही जा सकती, जब तक उचित संचार माध्यमों द्वारा प्राप्तकर्ता तक न पहुचे। सूचना को परिभाषित करना अति कठिन कार्य है। वैसे सम्कालीन घटनायें सूचना हैं। तथ्य आकड़े, डाटा आदि को सूचना माना जाता है।

सूचना की परिभाषा

विभिन्न संचार विशेषज्ञों व सूचना शास्त्रियों ने सूचना को इस प्रकार परिभाषित करने का प्रयास किया है –

(1) रोवली व टानर के अनुसार, ‘‘सूचना वह आकडे़ हैं जो व्यक्तियों के मध्य से प्रेषित हो सके तथा प्रत्येक व्यक्त उसका प्रयोग कर सके।’’

(2) J.H. Sherra के अनुसार, ‘‘सूचना का उपयोग जिस रूप में जीव विज्ञान व ग्रन्थावली में करते हैं, उसे तथ्य कहते हैं। यह एक उत्तेजना है, जिसे हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। यह एक प्रकार का तथ्य हो सकता है अथवा तथ्यों का सम्पूर्ण समूह हो सकता है तथापि (यह इकाइ होता है), यह विचारधारा की एक ईकाई होता है।’’

(3) बर्नर के अनुसार, बाह्य जगत के साथ जो विनियम होता है तथा जब हम इसके साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं और अप ने सामंजस्य के जिस पर अनुभव करते हैं, उसकी विषय वस्तु के नाम को सूचना कहते हैं। सक्रियता एवं प्रभावशाली ढंग से जीवन का अभिप्रायही सूचना के साथ जीना है।

(4) जे बेकर के शब्दों में, ‘‘किसी विषय से सम्बन्धित तथ्यों को सूचना कहते हैं।’’

(5) हॉफ मैन के विचारों में, ‘‘सूचना वक्तव्यों, तथ्यों तथा आकृतियों का संकलन होता है।’’

(6) बेल के अनुसार, ‘‘सूचना समचारों, तथ्यों, आकडों, प्रतिवेदनों, अधिनियमों कर सहिताओं, न्यायिक निर्णयों, प्रस्तावों और इसी तरह की अन्य चीजों से सम्बन्धित होती हैं।’’

सूचना की विशेषताएं (Characteristics of Information)

प्रत्येक सूचना का मूल्य (Value) होता है। इस मूल्य को कई कारक प्रभावित करते हैं। यही कारक ‘सूचना’ की विशेषताएँ होती हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. उपलब्धता (Availability)

कई बार कई सूचनाएँ पहले तो उपलब्ध नहीं होती लेकिन बाद में उपलब्ध हो जाती हैं। बाद में उपलब्ध सूचनाएँ व्यक्ति के लिए नई होती हैं तथा व्यक्ति के लिए निर्णय लेने में बहुत लाभदायक सिद्ध होती हैं।

  1. उपयुक्तता (Accuracy) 

सूचना बिल्कुल सही या उपयुक्त होनी चाहिए। गलत सूचना किसी व्यक्ति या संस्था को हानि पहुँचा सकती है।

  1. समयबद्धता (Timeliness) 

वांछित सूचना अति शीघ्रता से उपलब्ध हो जानी चाहिए। देर से उपलब्ध सूचना लाभकारी नहीं रहती है।

  1. सम्पूर्णता (Completeness)

केवल सम्पूर्ण सूचना ही लाभकारी हो सकती है। संग्रहित सूचना हर प्रकार से सम्पूर्ण होनी चाहिए। अपूर्ण सूचना भी हानिकारक हो सकती है।

  1. प्रस्तुतीकरण (Presentation)

सूचना को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इससे सूचना का मूल्य बढ़ता है। सूचना को अर्थपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने पर उसे अधिक प्रभावशाली और कीमती बनाया जा सकता है।

ज्ञान तथा सूचना के मध्य अंतर

ज्ञान सूचना
1. ज्ञान भली-भांति संगठित होता है।

2. ज्ञान परिवर्तन सूचना होता है।

3. ज्ञान सूचना पर आधारित होता है।

4. ज्ञान के लिए संज्ञानात्मक तथा विश्लेश्क योग्यताओं की आवश्यकता होती है।

5. ज्ञान एक ऐसा द्रव होता है जो अनुभव, मूल्यों, सूचना तथा अंतर्ज्ञान का मिश्रण होता है।

6. ज्ञान सत्य विश्वास होता है।

1. सूचना का संगठित होना या न होना आवश्यक नहीं।

2. सूचना परिष्कृत तथ्य होती है।

3. सूचना तथ्यों पर आधारित होती है।

4. सूचना के लिए ऐसी योग्यताओं की आवश्यकता नहीं होती।

5. सूचना किसी संदर्भ में दिए गए तथ्य होती है।

6. सूचना किसी संदर्भ तथा उद्देश्य से प्रेरित तथ्य होती है।

शिक्षण का अर्थ (Meaning of Teaching)

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है। शिक्षण शब्द अंग्रेजी भाषा के Teaching शब्द से मिलकर बना है, जिसका तात्पर्य है- सीखाना। शिक्षण एक त्रियामी प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और छात्र, पाठ्यक्रम के माध्यम से अपने स्वरूप को प्राप्त करते हैं। अर्थात किसी विषय वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अंतःप्रक्रिया को ही हम शिक्षण कहते हैं।

शिक्षण का संकुचित अर्थ (Narrower Meaning of Teaching)

शिक्षण के संकुचित अर्थ का संबंध स्कूली शिक्षा से है जिसमें अध्यापक द्वारा एक बालक को निश्चित स्थान पर एक विशिष्ट वातावरण मे निश्चित अध्यापको द्वारा उसके व्यवहार में पाठ्यक्रम के अनुसार परिवर्तन किया जाता है। इसमें शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को कक्षा में कुछ ज्ञान या परामर्श दिया जाता है.

प्राचीन काल मे शिक्षा, शिक्षक–केन्द्रित थी अर्थात शिक्षक अपने अनुसार बालको को शिक्षा देता था इसमे बालक के रुचियों एवं अभिरुचियों को ध्यान मे नहीं रखा जाता था। लेकिन वर्तमान समय मे शिक्षा बालक-केन्द्रित हो गई है. अर्थात वर्तमान समय मे बालक के रुचियों एवं अभिरुचियों के अनुसार शिक्षा दी जाती है।

शिक्षण का व्यापक अर्थ (Wider meaning of Teaching)

शिक्षण के व्यापक अर्थ में वह सब शामिल कर लिया जाता है जो व्यक्ति अपने पूरे जीवन मे सीखता है। अर्थात शिक्षण का व्यापक अर्थ वह है, जिसमें व्यक्ति औपचारिक, अनौपचारिक एवं निरौपचारिक साधनो के द्वारा सीखता है। इसमें शिक्षार्थी जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी समस्त शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास करता रहता है।

शिक्षण की परिभाषाएँ (Definitions of Teaching)

  1. एचoसीo मॉरिसन के अनुसार, “शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें अधिक विकसित व्यक्तित्व कम विकसित व्यक्तित्व के संपर्क में आता है और कम विकसित व्यक्तित्व के अग्रिम शिक्षा के लिए विकसित व्यक्तित्व की व्यवस्था करता है”.
  2. बी० एफ० स्किनर के अनुसार, “शिक्षण पुनर्वलन की आकस्मिकताओं का क्रम है।”
  3. बर्टन के अनुसार, “शिक्षण सीखने के लिए दी जाने वाली प्रेरणा, निदेशन, निर्देशन एवं प्रोत्साहन है।”
  4. रायबर्न के अनुसार, “शिक्षण के तीन बिन्दु हैं – शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यवस्तु। इन तीनों के बीच संबंध स्थापित करना ही शिक्षण है। यह सम्बंध बालक की शक्तियों के विकास मे सहायता प्रदान करता है।”

शिक्षण की प्रकृति (Nature of Teaching)

निम्नलिखत कथनों के रूप में शिक्षण की प्रकृति की व्याख्या की जा सकती है-

(1). शिक्षण एक अन्तः प्रक्रिया है

यह शिक्षक तथा छात्रों के मध्य विशेष कार्य के लिए संचालित होती है। इसमें शिक्षण की वह प्रक्रिया कक्षा-कक्ष में चलती है जिसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों निहित रहते हैं। यदि शिक्षक कोरा व्याख्यान देता रहे और शिक्षार्थी निष्क्रिय श्रोता चना रहे तो अन्तः क्रिया सम्भव नहीं होगी।

(2). शिक्षण कला तथा विज्ञान दोनों ही है

शिक्षण की प्रकृति कलात्मक तथा वैज्ञानिक दोनों ही है। शिक्षण नियोजन तथा मूल्यांकन क्रियाओं की प्रकृति वैज्ञानिक अधिक है जबकि शिक्षण का प्रक्रिया पक्ष कलात्मक है जिसमे शिक्षक अपने कौशल का प्रयोग करता है। शिक्षण का प्रस्तुतीकरण वाला पक्ष कला है जिसमें शिक्षक द्वारा उपयुक्त शिक्षण कौशलों का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि विषय-वस्तु का शिक्षार्थियों को अच्छी प्रकार बोध हो जाये तथा अन्य शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाये। शिक्षण नीरस न बन जाये, इसके लिए मनोरंजन का पुट भी दिया जाता है।

(3). शिक्षण एक विकासात्मक प्रक्रिया है

शिक्षण प्रक्रिया के द्वारा बालकों का विकास किया जाता है और उनसे व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जाता है। ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों का विकास किया जाता है।

(4). शिक्षण एक सतत प्रक्रिया है 

शिक्षण निरन्तर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की सम्प्राप्ति तक चलती ही रहती है। इसके तीन पक्ष हैं— क्रिया, शिक्षण एवं मूल्यांकन।

(5) शिक्षण एक निर्देशन की प्रक्रिया है

शिक्षण में छात्रों की योग्यताओं के अनुसार उनके विकास का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार लक्ष्य निर्देशन का होता है।

(6). शिक्षण एक त्रिघुवीय प्रक्रिया है

अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षण को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया कहा है। ब्लूम के अनुसार, शिक्षण के तीन पक्ष- (i) शिक्षण उद्देश्य, (ii) सीखने के अनुभव तथा (iii) व्यवहार परिवर्तन हैं।

(7). शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है

शिक्षण की क्रियाएँ किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये की जाती है। उनके लिये उसी प्रकार नियोजित प्रक्रिया का स्वरूप अपनाती है।

(8). शिक्षण एक सामाजिक तथा व्यावसायिक प्रक्रिया है

शिक्षण की प्रक्रिया शिक्षण तथा छात्रों के समूह में ही सम्पादित की जाती है। कम-से-कम एक शिक्षक और एक छात्र होना नितान्त आवश्यक होता है। शिक्षण एक व्यावसायिक क्रिया है जिसे व्यक्ति अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाते है जिन्हें शिक्षक कहते हैं।

(9). शिक्षण का मापन किया जाता है

शिक्षण का मापन शिक्षक के व्यवहार के रूप में किया जाता है। निरीक्षण विधियों द्वारा शिक्षक व्यवहारों का मापन और व्यवहार के स्वरूप का विश्लेषण भी किया जाता है।

(10). शिक्षण एक विज्ञान है

शिक्षण का प्रस्तुतीकरण का कौशल पक्ष कला है, परन्तु इनकी क्रियाओं का तार्किक निरीक्षण एवं मूल्यांकन भी किया जा सकता है। यह इसको वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।

शिक्षण के कार्य (Functions of Teaching)

शिक्षण के निम्नलिखित कार्य हैं-

1 कक्षा को संगठित तथा व्यवस्थित रुप प्रदान करना।

2 अधिगम (सीखने) की परिस्थितियों का निर्माण करना।

3 विषय वस्तु तथा कार्य का विश्लेषण करना।

4 सीखने के लिए विद्यार्थी को प्रेरित करना।

5 छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की जानकारी प्रदान करना।

6 बच्चों को सामान्य से सृजनात्मक प्राणी के रुप में विकसित करना।

7 छात्रों के अधिगम की समस्याओं का निदान करना।

8 छात्रों के प्रारंभिक व्यवहार को समझना।

9 अभिवृद्धि, विश्वास संप्रत्यय एवं समस्याओं को स्पष्ट करना।

10 छात्रों के अंतिम व्यवहार की जांच करने के लिए मूल्यांकन करना।

11 पाठ्यक्रम सामग्री तैयार करना।

12 मूल्यांकन करना।

शिक्षण की विशेषताएं (Characteristics of Teaching)

शिक्षण निम्नलिखित विशेषताएं हैं–

  1. सीखने में सहायक

शिक्षण के द्वारा विद्यार्थी विभिन्न विषयों के ज्ञान से सीखते हैं। विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षण की महत्वपूर्ण आवश्‍यकता होती हैं। शिक्षण ही वह माध्यम है जिसके जरिए शिक्षार्थियों को विभिन्न विषयों की जानकारी प्रदान की जाती हैं।

  1. सूचना संप्रेषण

शिक्षण ज्ञानार्जन का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी भी परिवेश में हो सकती है तथा जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार की सूचनाओं का संप्रेषण किया जाता हैं।

  1. कौशल क्षमता का विकास

शिक्षार्थी में कौशल क्षमता को विकसित करने में शिक्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।

  1. छात्रों का व्यवहार परिवर्तन करने में सहायक

शिक्षण शिक्षार्थियों के व्यवहार को परिवर्तित करने में सहायक होता हैं। शिक्षण के मध्य से शिक्षक-विद्यार्थियों को विभिन्न प्राचीन एवं सामयिक सूचनाएँ देता हैं। शिक्षार्थियों को जैसी सूचनाएँ दी जाती हैं वे वैसा ही व्यवहार करने की ओर प्रेरित होते हैं। अतः शिक्षण व्यवहार परिवर्तन की एक प्रक्रिया हैं।

  1. बेहतर संबंधों का निर्माण

शिक्षण का तात्पर्य शिक्षक-शिक्षार्थी यथा पाठ्यचर्या के मध्य एक अच्छा संबंध स्थापित करना हैं। शिक्षण शिक्षक शिक्षार्थी तथा विषय में संबंध स्थापित करता है। शिक्षण शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य सामाजिक व जनतांत्रिक संबंधों का निर्माण करता है तथा अतःक्रिया द्वारा ज्ञान का आदान-प्रदान करता हैं। जाॅन डी.वी तथा रायबर्न ने शिक्षण को एक त्रिमुखी प्रक्रिया बताया हैं। ये त्रिमुखी हैं– शिक्षक, शिक्षार्थी एवं विषय।

  1. उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति

उचित शिक्षण के द्वारा उद्देश्यों अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती हैं। शिक्षण एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया हैं।

  1. सामाजिक विकास

शिक्षण शिक्षार्थी के सामाजिक विकास में सहायक होती हैं। शिक्षण शिक्षक व छात्रों के बीच में ही सम्पादित होती है। उत्तम शिक्षण के द्वारा व्यक्ति व समाज दोनों ही उन्नति करते हैं। उत्तम शिक्षण सहानुभूतिपूर्वक होता हैं।

  1. अनुकूलन में सहायक

शिक्षण अनुकूलन करने मे भी सहायक होता हैं। शिक्षण विद्यार्थी को वातावरण के अनुकूलन बनाता हैं। यह छात्र को संवेगात्मक स्थायित्व देने के साथ-साथ उसे वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने के योग्य बनाता हैं।

  1. व्यावसायिक प्रक्रिया

शिक्षण एक व्यावसायिक प्रक्रिया हैं। इसको बहुत से व्यक्ति जीविकोपार्जन का साधन मानते हैं। यह छात्र में विभिन्न कौशल विकसित करते हुए उसे व्यवसाय विशेष के लिए निपुण बनाता हैं।

शिक्षण और भी अनेक विशेषताएं है जोकि निम्नलिखित है-

1 शिक्षण का स्पष्ट एवं निश्चित लक्ष्य रखना।

2 छात्र प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा देना।

3 प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्यों के प्रति छात्रों में रुचि का विकास करना।

4 छात्र नेतृत्व एवं उत्तरदायित्व को प्रोत्साहन देना।

5 कार्य को छात्रों की क्षमता एवं वातावरण के अनुकूल बनाना।

6 छात्रों के ध्यान को केंद्रित करना।

7 पूर्व ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान प्रदान करना।

8 त्रुटियों को निर्धारित करना और उन्हें ठीक करना।

9 छात्रों की प्रगति का मापन एवं मूल्यांकन करना।

10 परीक्षा के परिणाम से छात्रों को अवगत कराना।

11 शिक्षक का ईमानदार होना।

शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्वव (Need and Importance of Teaching)

1 शिक्षण एक कौशल युक्त प्रक्रिया है। शिक्षण का तात्पर्य ज्ञान प्रदान करना है।

2 छात्रों के व्यवहारों एवं मनोवृत्तियों में शिक्षण द्वारा परिवर्तन लाया जाता है।

3 वर्तमान तथा भावी जीवन की सफलता के लिए शिक्षण एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में है।

4 अनुदेशन प्रारूप तैयार करने के लिए शिक्षण वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।

5 छात्रों को ज्ञान प्रदान करने हेतु शिक्षण आवश्यक है।

6 शिक्षण छात्रों को सूचनाएँ प्रदान करता है।

7 छात्रों में विभिन्न योग्यताओं एवं क्षमताओं को विकसित करने के लिए शिक्षण आवश्यक है।

8 शिक्षण छात्रों को जीवन के अनुभवों से अवगत कराता है।

प्रशिक्षण का अर्थ

प्रशिक्षण संगठन के निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक संगठित गतिविधि है जिसमें लोगों के ज्ञान और कौशल में वृद्धि की जाती है और नए प्रासंगिक ज्ञान और कौशल का परिचय दिया जाता है। प्रशिक्षण में व्यावसायिक पर्यावरण के सार्थक एवं महत्वपूर्ण तत्वों की जानकारी प्रदान की जाती है ताकि लोग कार्यों का प्रभावी निष्पादन सुनिश्चित कर सकें। इस प्रकार प्रशिक्षण के अन्तर्गत व्यक्ति की योग्यता, दक्षता एवं कुशलता में वृद्धि होती है।

सरल शब्दों में, प्रशिक्षण किसी विशेष कार्य को पूरा करने के लिए किसी व्यक्ति के ज्ञान और कौशल को बढ़ाने का कार्य है। प्रशिक्षण एक अल्पकालिक शैक्षिक प्रक्रिया है और इसमें एक व्यवस्थित और संगठित पद्धति का अनुप्रयोग शामिल है जिसके द्वारा एक व्यक्ति एक निश्चित उद्देश्य के लिए तकनीकी ज्ञान और कौशल सीखता है।

दूसरे शब्दों में, प्रशिक्षण किसी व्यक्ति के ज्ञान कौशल, व्यवहार, योग्यता और कार्य और संगठन की जरूरतों के प्रति दृष्टिकोण में सुधार, परिवर्तन और अनुकूलन करता है। इस प्रकार प्रशिक्षण एक सीखने का अनुभव है। जिसमें यह एक व्यक्ति में तुलनात्मक रूप से स्थायी बदलाव लाने की कोशिश करता है, जिससे उसके काम के प्रदर्शन में सुधार होता है।

प्रशिक्षण की परिभाषा

प्रशिक्षण की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं:-

एडविन बी. फिलप्पो के अनुसार– “प्रशिक्षण किसी विशेष कार्य को करने के लिए कर्मचारी के ज्ञान और कौशल वृद्धि करने का कार्य है।”

डेल एस. बीच के अनुसार– “प्रशिक्षण एक संगठित प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग एक निश्चित उद्देश्य के लिए ज्ञान और/या निपुणताओं को सीखते हैं।”

माइकल जूसियस के अनुसार– “प्रशिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए कर्मचारियों के अभिवृत्तियों, निपुणताओं और योग्यताओं को बढ़ाया जाता है।”

प्रशिक्षण की विशेषताएं

उपरोक्त विवरण के आधार पर, प्रशिक्षण की प्रकृति निम्नलिखित विशेषताओं को दर्शाती है:-

1 प्रशिक्षण एक सतत प्रक्रिया है।

2 प्रशिक्षण से कर्मचारियों की कार्यक्षमता बढ़ती है।

3 प्रशिक्षण प्रबंधन की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।

4 प्रशिक्षण सीखने का अनुभव प्राप्त करने की प्रक्रिया है।

5 प्रशिक्षण किसी कार्य की व्यावहारिक शिक्षा का रूप है।

6 प्रशिक्षण कर्मचारियों के विकास की एक व्यवस्थित और पूर्व नियोजित प्रक्रिया है।

7 प्रशिक्षण मानव संसाधनों का उद्देश्यपूर्ण विनियोग है, क्योंकि यह संगठनात्मक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करता है।

8 प्रशिक्षण मानव संसाधन विकास की एक महत्वपूर्ण उप-प्रणाली है और मानव संसाधन प्रबंधन के लिए बुनियादी परिचालन कार्यों में से एक है।

9 प्रशिक्षण के माध्यम से, कर्मचारियों के ज्ञान और कौशल में वृद्धि होती है और उनके विचारों, रुचियों और व्यवहारों में परिवर्तन लाया जाता है।

प्रशिक्षण का महत्व

प्रशिक्षण एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह संगठन के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह न केवल संगठन की उत्पादकता बढ़ाता है बल्कि कर्मचारियों के ज्ञान और कौशल को भी बढ़ाता है और उन्हें दुर्घटनाओं से बचाता है। इसके माध्यम से पर्यावरण के संसाधनों का इष्टतम उपयोग होता है और सतत विकास सुनिश्चित करते हुए समाज और राष्ट्र के विकास को सकारात्मक दिशा दी जाती है। प्रशिक्षण के महत्व को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है:

1 संगठन की उत्पादकता और दक्षता में वृद्धि

एक अच्छा प्रशिक्षण कार्यक्रम उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता को बढ़ाता है। काम तेजी से हो रहे हैं, जिससे उत्पादकता में इजाफा हो रहा है। अधिक कौशल और ज्ञान भौतिक अपव्यय और गिरावट को कम करता है, और मशीनों और उपकरणों के टूट-फूट को कम करता है। इस प्रकार, प्रशिक्षण के माध्यम से दक्षता बढ़ती है।

2 सुरक्षा में वृद्धि

प्रशिक्षण कार्यक्रम कार्य करने का सही और आसान तरीका बताता है। इन तरीकों से काम करने से दुर्घटनाओं की संख्या और गंभीरता कम हो जाती है, जिससे मशीनों और कर्मचारियों की सुरक्षा बढ़ जाती है। कर्मचारियों में मौजूदा कार्य अक्षमता, अज्ञानता और दोषपूर्ण आदतों का समाधान किया जाता है या उनका स्तर प्रशिक्षण द्वारा कम किया जाता है। इस तरह के काम से कर्मचारियों की सुरक्षा बढ़ती है।

3 निरीक्षण की आवश्यकता में कमी

प्रशिक्षण कार्यक्रम में कर्मचारियों को कार्य करने की उचित विधि से अवगत कराया जाता है। इसलिए, कर्मचारी अपना काम कुशलता से करना शुरू कर देते हैं और कम गलतियाँ करते हैं, जिससे समस्याएं कम होती हैं और निरीक्षक के समय और श्रम की बचत होती है।

4 संगठन में स्थिरता और लचीलापन

प्रशिक्षण संगठन में स्थिरता और लचीलापन पैदा करता है। प्रशिक्षण द्वारा तैयार कर्मी कुशल कर्मचारियों के अभाव में कार्यभार संभालते हैं और संगठन में स्थिरता प्रदान करते हैं। इस प्रकार, संगठन की गतिविधियाँ प्रभावशीलता के साथ जारी रहती हैं।

संगठन की लोच संगठन की क्षमता है जिसमें संगठन के कर्मचारी संगठन के अनुसार अल्पावधि में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार खुद को समायोजित करते हैं। लचीलापन प्रगतिशील संस्थानों में पाया जाता है। इस प्रकार के संगठन में ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों की बहुत आवश्यकता है, ताकि वे कम से कम समय में प्रगतिशील तकनीकी और व्यावहारिक परिवर्तनों को कुशलतापूर्वक समायोजित कर सकें। यह प्रशिक्षण से ही संभव है।

5 कर्मचारियों में जिम्मेदारी की भावना विकसित

एक अच्छा प्रशिक्षण कार्यक्रम कर्मचारियों में जिम्मेदारी की भावना विकसित करता है। प्रशिक्षक कर्मचारियों को उनकी जिम्मेदारियों से अवगत कराता है और उन्हें उनका निर्वहन करने के लिए प्रेरित करता है।

शिक्षण तथा प्रशिक्षण में अंतर

इन दोनों के मध्य अंतर को निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया गया है-

शिक्षण प्रशिक्षण
1. शिक्षण अवैयक्तिक प्रभाव होता है, यह एक कला तथा विज्ञान है तथा अधिगम की समस्याओं का निदान करने की तार्किक प्रक्रिया होता है जो अधिगम वातावरणका निर्माण करता है, छात्रों को प्रेरित करता है, उन्हें सूचना प्रदान करता है तथा उनका | प्रशिक्षण उनसे अधिक समझदार व्यक्ति द्वारा होता है जो कक्षाकक्ष, प्रयोगशाला, खेल का मैदान या किसी अन्य स्थान पर होता है जिससे छात्रों की आंतरिक शक्तियों, समायोजन क्षमता, व्यवहार तथा व्यक्तित्व तथा व्यक्तित्व का विकास होता है।

2. शिक्षण से सामान्यरूप से विभिन्न तथा क्षेत्रों के बारे में सूचना तथ्यों का ज्ञान होता है।

3. शिक्षण का अधिक संबंध सैद्धान्तिक पक्ष से होता है।

4. शिक्षण में किसी विचार तथा ज्ञान के बारे में चेतनता को उपलब्ध कराया जाता है।

5. शिक्षण से ज्ञान प्राप्त होता है।

6. शिक्षण से बड़े क्षेत्र की सामान्य सूचना की आपूर्ति होती है।

7. शिक्षण से ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त होती है।

8. सामान्यरूप में शिक्षण का प्रयोग विद्यालयों में होता है।

9. शिक्षण में सामान्यरूप से छात्रों को उनकी सफलता के बारे में प्रतिपुष्टि दी जाती है।

10. जिसे शिक्षण दिया जाता है उसे छात्र कहा जाता है।

11. जो व्यक्ति शिक्षण देता है उसे शिक्षक या अध्यापक कहा जाता है।

12. शिक्षण से छात्रों के मस्तिष्क में ज्ञान भरा जाता है।

13. इसकी दीर्घकालिक अवधि होती है।

14. यह सभी क्षेत्रों में सामान्य ज्ञान के विस्तार से संबधित होता है।

15. यह दूसरों को जानने की प्रेरणा देता है।

16. यह किसी विषय क्षेत्र से संबधित होता है।

17. शिक्षण में अनेक विधियां प्रयुक्त होती है जैसे भाषण विधि, पाठ्यपुस्तक विधि, सैद्धान्तिक विधि, खोज विधि, प्रयोग विधि, कार्य विधि प्रोजेक्ट विधि, प्रयोगशाला विधि आदि।

1. प्रशिक्षण स्वयं में या अन्य लोगों में मूल्य वर्धन तथा योग्यता तथा ज्ञान विकसित करने की प्रक्रिया होता है जिससे क्षमता, योग्यता, अभिवृद्धि, अभिवृत्ति, उत्पादकता, कार्यशीलता आदि का विकास होता है।

2. प्रशिक्षण से व्यक्ति को अपना कार्य अधिक क्षमतापूर्वक, शीघ्रतापूर्वक आर्थिकरूप से सस्ते ढंग से, प्रभावरूप से तथा सफलतापूर्वक करने की योग्यता प्राप्त होती है।

3. प्रशिक्षण का अधिक संबंध व्यावहारिक पक्ष से होता है।

4. प्रशिक्षण में ज्ञान को वास्तविकता से प्रयोग करने की समझ प्रदान की जाती है।

5. प्रशिक्षण से किसी को अधिक क्षमतापूर्वक कार्य करने की योग्यता प्राप्त होती है।

6. प्रशिक्षण से संपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है। लेकिन विस्तार सीमित होता है।

7. प्रशिक्षण से आंतरिक तथा प्राप्त की गई छुपी हुई योग्यताओं का विकास होता है।

8. सामान्यतया प्रशिक्षण का अभ्यास कार्य स्थल पर होता है।

9.प्रशिक्षण में सामान्यतया प्रशिक्षुओं से प्रतिपुष्टि प्राप्त की जाती है।

10. प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले व्यक्ति को प्रशिक्षु कहा जाता है।

11. प्रशिक्षण देने वाले व्यक्ति को प्रशिक्षक कहा जाता है।

12. प्रशिक्षण से कार्य के प्रति आदत तथा सकारात्मक अभिवृत्ति पैदा होती है।

13. प्रशिक्षण की अवधि सीमित होती है।

14. यह किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशिष्ट ज्ञान को गहनता से उपलब्ध कराता है।

15. यह किसी कार्य को करने या सीखने का कारण होता है तथा इससे इनकी प्रेरणा प्राप्त होती है।

16. यह कार्यकारी अवस्था से संबधित होता है।

17. प्रशिक्षण की विधियां होती हैं वर्कशाप, सम्मेलन, खेल, नाटक, सिमुलेशन आदि।

तर्क का अर्थ (Meaning of Reason)

शाब्दिकरूप से तर्क के अंग्रेजी के समकक्ष शब्द Reason को लेटिन तथा फ्रेंच शब्द reason, reason and logos से लिया गया है जिनका प्रयोग एक-दूसरे के लिए किया जाता है। Logos का अर्थ बोली या विश्लेषण होता है। तर्क एक मानसिक क्षमता होता है जिसके कारण तर्क करने की शक्ति ज्ञात होती है। तर्क किसी वस्तु घटना, परिस्थिति या व्यवहार आदि के अर्थ को बताने वाली प्रक्रिया होती है जिसमें तर्क को लगाया जाता है, तथ्यों तथा व्यवहार को समुचित रूप प्रदान किया जाता है तथा न्यायोचित ठहराया जाता है। तर्क, विश्लेषक, लक्ष्य, आधार, न्यायोचित बिन्दु, बहस, वैधता, कारण तथा प्रभाव, सत्य तथा असत्य का मिश्रण होता है तथा यह कोई आधारभूत सिद्धान्त होता है जिसका संबंध विचार करने संज्ञान तथा बुद्धि से होता है।

तर्क की परिभाषाएं

(1) गेट्स के अनुसार (according to gates) तर्क की परिभाषा

चिंतन जिसमे किसी समस्या का समाधान करने के लिए पूर्वानुभावो को नवीन रूप और तरीको से पुनः संगठित या सम्मिलित किए जाता है।

(2) गैरेट के अनुसार(according to gairet) तर्क की परिभाषा

मन में किसी उद्देश्य एवं लक्ष्य को रखकर क्रमानुसार चिंतन करना तर्क है।

(3) मन के अनुसार(according to man) तर्क की परिभाषा

तर्क एक समस्या को हल करने के लिए अतीत के अनुभवों को सम्मिलित रूप से मिलाना है जिसको केवल पिछले समाधान के प्रयोग से हल नहीं किया जा सकता है।

तर्क की विशेषताएँ (Characteristics of Reason)

उपर्युक्त विद्वानों के मतों का विश्लेषण करने पर हम तर्क सम्बन्धी अग्रलिखित विशेषताओं को पाते हैं-

  1. निश्चित् लक्ष्य (Definite goal)

तर्क शक्ति का प्रारम्भ लक्ष्य प्राप्ति के लिये होता है। मानव प्रगति लक्ष्य प्राप्ति पर निर्भर करती है। अत: चिन्तन और तर्क के द्वारा जीवन के लक्ष्यों को निर्धारित किया जाता है।

  1. प्रतिक्रिया में शिथिलता (Slackness in response)

तर्क शक्ति का प्रारम्भ प्रतिक्रिया की शिथिलता से होता है। जब व्यक्ति किसी कार्य को करने में असमर्थ होता है तो वह विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है लेकिन सफलता न मिलने परे शिथिल हो जाता है और तर्क का सहारा लेता है।

  1. पूर्वज्ञान (Previous knowledge)

तर्क में पूर्वज्ञान, पूर्व अनुभव तथा पूर्व अनुभूतियों का विश्लेषण किया जाता है। इसमें समस्या समाधान के नवीन तरीकों का जन्म होता है।

  1. कारण की खोज (Discovey of cause)

तर्क में किसी घटना के कारण को खोजा जाता है। ‘क्यों, कैसे’ आदि प्रश्नों के उत्तर खोज कर’कारण और प्रभाव’ के बीच सम्बन्ध देखा जाता है। कारण खोज से समस्या का समाधान सरल हो जाता है।

  1. सीखने की विधियों का उपयोग (Use of learning method)

तर्क में सीखने की विभिन्न विधियों ‘प्रयत्न एवं भूल’, ‘सूझ द्वारा’, ‘अनुकरण द्वारा’, ‘साहचर्य द्वारा’ आदि का सहारा लिया जाता है। ये विधियाँ क्रमवार प्रयोग की जाती हैं ताकि समस्या का समाधान सही प्रकार से हो।

  1. समस्या – समाधान (Problem-solving)

तर्क का प्रयोग समस्या समाधान के लिये किया जाता है। जब तक समस्याएँ हैं तर्क का प्रयोग होता रहेगा।

विश्वास का अर्थ (Meaning of Belief)

विश्वास शब्द का अंग्रेजी समकक्ष शब्द Belief होता है जो दो शब्दों be = life को जोड़कर बना है। जिसमें पहले का अर्थ अस्तित्व या अस्तित्व की दशा होता है तथा बाद वाला शब्द इंडो-यूरोपियन शब्द Leubh से बना है, जिसका अर्थ प्यार होता है। इसलिए, विश्वास का शाब्दिक अर्थ ‘के साथ प्यार में’ होता है।

विश्वास उस दशा को दर्शाता है जिसमें निश्चितता होती है तथा संदेह का स्थान नहीं होता। इसका अर्थ आस्था, विश्वास सकारात्मक मानसिक अभिवृद्धि आश्वासन, निश्चितता, स्वीकार्यता तथा दृढ़ता होता है। विश्वास व्यक्तिगत या सामूहिक हो सकता है। व्यक्तिगत विश्वास का अर्थ आस्था विश्वास, अभिवृत्ति, निश्चितता, आश्वासन तथा दृढ़ता होता है जो किसी व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति, घटना, वस्तु से जुड़ा हो। सामूहिक विभिन्न के संयुक्त विचार होते हैं जिसमें किसी निश्चित आस्था को माना जाता है। यह मानसिक दशा होता है जिसमें कोई व्यक्ति या समूह किसी वस्तु को सत्य या वास्तविक मानता हो तथा जिसके लिए कोई अनुभवजन्य प्रमाण या वैधता उपलब्ध न हो। दूसरे शब्दों में, विश्वास वह स्थिति होता है जब कोई व्यक्ति किसी चीज का सत्य या वास्तविक मानता है जबकि उसके पास इसे प्रमाणित करने के लिए कोई सही वैध आधार नहीं होता।

विश्वास की परिभाषाएं

विश्वास की कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित है

(1) बेनेट के शब्दों में, “विश्वास हम क्या हैं, हम क्या करते हैं तथा वह सफलता जो हम प्राप्त करते हैं का मूल होते हैं।”

(2) विलियम जेम्स के अनुसार, ‘विश्वास करो कि जीवन जीने लायक है तथा आपका विश्वास इस तथ्य को रचित करने में सहायता करेगा।’

(3) फ्रेंकलिन डी० रूजवेल्ट के अनुसार, ‘हम इस आशा, विश्वास तथा आस्था से बंधे हुए हैं कि क्षितिज के पार एक बेहतर जीवन संसार उपस्थित हैं।’

(4) एलेक्सिस केरेल के अनुसार, ‘जो लोग उतना ऊंचा उठना चाहते हैं जितना मानवीय स्थिति आज्ञा दे, उसे अपने बौद्धिक घमंड, स्पष्ट सोच की सर्वोच्च शक्ति तथा तर्क की पूर्ण शक्ति में विश्वास को त्याग देना चाहिए।’

तर्क तथा विश्वास में अंतर (Difference between Reason and Belif)

तर्क विश्वास
1. शाब्दिकरूप से तर्क का समकक्ष अंग्रेजी शब्द Reason लेटिन तथा फ्रेंच शब्द raison से निकला है जिसका अर्थ बोलचाल या विश्लेषण होता है जिससे तर्क की शक्ति का संकेत प्राप्त होता है।

2. तर्क एक मानसिक क्षमता होता है जिससे तर्क की शक्ति का संकेत प्राप्त होता है।

3. तर्क अर्थ बनाने, तर्क लगाने, वैधता प्रदान करने तथा तथ्यों तथा व्यवहारों को न्यायोचित ठहराने की तार्किक प्रक्रिया होता है।

4. तर्क, कारण, तार्किकता, उद्देश्य, विश्लेषण, आधार, न्यायोचित, बहस, वैधता, कारण तथा सत्य तथा असत्य तथा आधारभूत सिद्धान्त का मिश्रण होता है तथा इसका संबंध विचार करने, संज्ञान तथा बुद्धि से होता है।

5. यह तथ्यों की जांच की प्रक्रिया होता है।

6. यह तथ्यों तथा व्यवहारों को वैधता प्रदान करने तथा न्यायोचित ठहराने की प्रक्रिया होता है।

1. विश्वास शब्द का अंग्रेजी समकक्ष शब्द Belief दो शब्दों be = life से मिलकर बना है जिसमें पहले का अर्थ अस्तित्व तथा दूसरे का स्रोत इंडो-यूरोपियन शब्द leubh है जिसका अर्थ प्यार होता है।

2. विश्वास से मानसिक अवस्था का संकेत प्राप्त होता है जिसमें संदेह अनुपस्थित होता है।

3. विश्वास किन्हीं व्यक्ति का किन्हीं सत्य या असत्य विचारों के प्रति अभिवृत्ति होता है।

4. विश्वास में विश्वास, आस्था, भावना, निश्चितता, सत्यता, आश्वासन, दृढ़ता आदि होते हैं।

5. विश्वास के संबंध में कोई जांच संभव नहीं होती।

6. विश्वास के मामले में कोई वैधता या प्रामाणिकता नहीं होती।

शिक्षा और मानव संसाधन विकास (Education and Human Resource Development)

मानव जीवन में शिक्षा बहुत जरुरी हैं क्योंकि शिक्षा ना केवल हमारी सोच बदलने के काम आती हैं बल्कि पूरे समाज में हमे सबकी बराबरी का स्थान भी दिलवाती हैं। शिक्षा का महत्व ना केवल चार किताबो का ज्ञान पाना होता है बल्कि शिक्षित व्यक्ति शिक्षा को जीवन में सभ्य तरीके से खुद के बर्ताव में उतारता हैं। शिक्षा व्यक्तित्व का निर्माण, ज्ञान और उसके कौशल में सुधार करती है और साथ ही मनुष्य को सभ्यता की तरफ ले जाती है | एक शिक्षित व्यक्ति सही और गलत में भलीभांति अंतर जानता है, और साथ ही उसके सोचने और समझने की शक्ति प्रबल होती है। अच्छी शिक्षा लोगों को उच्च पद की प्राप्ति का सही रास्ता दिखाता है। उचित शिक्षा मनुष्य को भविष्य में आगे बढ़ने का सही मौका देती है और साथ ही कई सारे रास्ते खोल देती है | सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि समाज में रहने का सही तरीका और आर्थिक समस्याओं से लड़ने के लिए कई सारे विकल्प देती है।

पूरे राष्ट्र की प्रगति को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा बहुत जरुरी हैं , यह ना केवल हमे Self-confidence देती हैं बल्कि हर व्यक्ति की बुद्धि का विकास करने में भी सहायक मानी जाती हैं | कहने को हम ऐसे युग में हैं जहाँ पर आज व्यक्ति चाँद तक जा सकते हैं , लेकिन आज भी सामाज़ में कही न कही ऐसे लोग हैं जिन्हे महिलाओ की पढाई से ज्यादा उन्हें घूँघट में रखना उनको सम्मान देना लगता हैं।

ऐसी ही रूढ़िवादी सोच के कारण महिलाओ की प्रगति नहीं होती और अगर किसी देश में महिलाओ की प्रगति पर रोक लगाई जाती हैं तो वह पूरे देश के लिए नुक्सानदेह बात साबित हो सकती हैं , यही कारण हैं की हमे शिक्षा का महत्व समझना चाहिए क्योंकि सही शिक्षा ही एकमात्र साधन हैं ऐसी रूढ़िवादी सोच को दूर करके समाज में बदलाव लाने का | इसलिए हर व्यक्ति को शिक्षा लेना बहुत जरुरी हैं ताकि हर इंसान प्रगति की राह पर आगे बढे और सबको एक समान समझे।

स्वामी विवेकानन्द – मनुष्य निर्माण शिक्षा (Swami Vivekananda – Man Making Education)

स्वामी विवेकानन्द ने मुख्यतः मनुष्य निर्माण की शिक्षा पर बल दिया। मनुष्य निर्माण का अर्थ है बच्चे का भावनात्मक, नैतिकता, मानवता, चरित्र, शारीरिक, स्वास्थ्य आदि के संबंध में विकास करना। यहां हम शिक्षा विकास, दर्शन, पाठ्यक्रम के साथ स्वामी विवेकानन्द – मनुष्य निर्माण शिक्षा के बारे में विस्तार से जानने जा रहे हैं।

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन्‌ 1863 को हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।

सन्‌ 1884 में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।

रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ।

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूंक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे।

गुरु के प्रति अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा।

25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।

फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। ‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।

4 जुलाई सन्‌ 1902 को उन्होंने देह त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।

स्वामी विवेकानंद का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, केवल शिक्षा की प्रक्रिया से ही भारतीय संस्कृति को सदियों पुरानी पीड़ाओं से, उसकी असभ्य परिस्थितियों से मुक्ति दिलाना संभव था। पतन और दरिद्रता की पीड़ा, सदियों पुरानी भुखमरी, स्तब्धता, अप्राप्यता जैसी सामाजिक बाधाएं और धर्म के कार्य से जुड़ी अमानवीय प्रथाएं (जैसे सती), और इसके अलावा, शिक्षा की अनुपस्थिति ने व्यक्तियों की क्षमता को धक्का दे दिया था। स्वतंत्र रूप से सोचें और सामाजिक परिस्थितियों के उचित मूल्यांकन पर निर्भर संतुलित निर्णयों को कुछ धुंधली नींव में ढालें।

मन के बुनियादी, तार्किक ढाँचे को विकसित किए बिना भारतीय संस्कृति में सामाजिक और मौद्रिक सुधार लाना अवास्तविक था, जिसके लिए स्वामी विवेकानन्द काम कर रहे थे। इस तरह की पुनर्प्राप्ति के बिना, स्वामीजी ने दृढ़ता से भरोसा किया, कि बहुसंख्यकों में परलोक के आकलन को समझने की क्षमता नहीं होगी, जो भारतीय संस्कृति की जड़ और स्थापना है। परलोक का रास्ता जीवन की सामाजिक और भौतिक अवस्थाओं की उन्नति से होकर गुजरता है। तो इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए स्वामीजी ने वेदांत से एक सामाजिक सिद्धांत निकाला, जो गतिशील और व्यावहारिक दोनों था। दूसरे भारत के बारे में स्वामीजी का दृष्टिकोण एक ऐसे भारत का था जो अलौकिकता में मजबूती से स्थापित हो, फिर भी अत्याधुनिक, प्रगतिशील समाज के सभी गुणों से युक्त हो। सामाजिक परिवेश में, परलोक में स्थापित होना,

सामाजिक परिवेश में, तार्किक दृष्टिकोण का सुधार, मानवतावादी मानसिकता की उन्नति का सुझाव देता है जो निष्पक्ष है और स्थान, नेटवर्क, जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के व्यक्तिगत विरोधाभासों की पकड़ से मुक्त है, और अत्यधिक, मूर्खतापूर्ण विश्वासों से मुक्त है। अभ्यास.

यह स्वामीजी का महत्वपूर्ण विश्वास था कि मानव आत्म की ऐसी उन्नति शिक्षा के माध्यम से पूरी की जा सकती है, जिसमें शारीरिक और मानसिक आत्म का प्रशिक्षण शामिल है, दोनों को सबसे ऊंचे गहन आयाम तक ऊपर उठाने के लिए। स्वामीजी की मानव निर्माण शिक्षा की अवधारणा, इस प्रकार, मानव पहचान की काफी हद तक महान, आशावादी और उचित छवि देती है।

मनुष्य निर्माण की शिक्षा के बारे में स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण

स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य-निर्माण की शिक्षा उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए और बमुश्किल कल्पना किए गए लक्ष्यों से मुक्त होनी चाहिए। शिक्षा सभी के लिए होनी चाहिए और इसमें पहचान का निरंतर विकास, चरित्र की निरंतर उन्नति और जीवन की व्यक्तिपरक वृद्धि शामिल होनी चाहिए। शिक्षा में अनिवार्य रूप से मस्तिष्क को भरना नहीं, बल्कि मस्तिष्क को प्रशिक्षित करना शामिल होना चाहिए।

“हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की गुणवत्ता बढ़े, बुद्धि का विस्तार हो और जिसके द्वारा व्यक्ति किसी और के पैरों के बिना रह सके।”

स्वामीजी इस संभावना का समर्थन नहीं करते थे कि शिक्षा परीक्षा पर आधारित होनी चाहिए, व्यक्तियों को व्यवसायों के लिए तैयार करना। इसे हमेशा के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए।

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में – “सभी शिक्षा का अंत मनुष्य निर्माण होना चाहिए। सभी प्रशिक्षण का अंत और बिंदु मनुष्य को विकसित होने के लिए प्रभावित करना है। वह प्रशिक्षण जिसके द्वारा इच्छाशक्ति की धारा और अभिव्यक्ति को नियंत्रण में लाया जाता है और अंततः उत्पादक बनाया जाता है शिक्षा कहा जाता है.

शिक्षा की यह दृष्टि उन्नत आवश्यकता के अनुरूप थी, हालाँकि भारतीय शिक्षा की पुरानी व्यवस्था के संबंध में स्पष्ट रूप से भिन्न दिखाई देती है।

शिक्षा की प्रथागत प्रणाली

पारंपरिक शिक्षा की अस्पष्ट और अलौकिक व्यवस्था स्वामीजी की शिक्षा की गतिशील और व्यापक अवधारणा के लिए तीव्र जटिलता बनी रही। इस ढाँचे को एक अटल ढाँचे द्वारा वर्णित किया गया था, जो केवल विशेषाधिकार प्राप्त समाजों या दो-कल्पित स्थिति के लिए निहित था। इसके विशेषज्ञ संघ की संरचना आनुवंशिक और बंद थी। शिक्षकों और विद्यार्थियों के कार्य व्यक्तिपरक वर्णनात्मक थे। इस ढाँचे ने औचित्य सिद्ध करने के लिए स्वीकृति प्रदान नहीं की। ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा की पारंपरिक संरचना हिंदू धर्म द्वारा बनाए गए आदेश की श्रृंखला के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास पर निर्भर थी। तदनुसार, मनुष्यों के जन्मजात अच्छे और व्यक्तिपरक गुणों के बारे में उत्तरोत्तर सोचा गया यानी उच्च या निम्न स्टेशनों में दुनिया के सामने उनके परिचय के अनुरूप। उच्च पदों से संबंधित लोगों पर निचले स्तर के लोगों की तुलना में अधिक मात्रा में चुंबकीय अच्छा आशीर्वाद होने की उम्मीद की गई थी। मानव प्रवृत्ति में आकर्षक विशेषताओं के चोंच क्रम की अवधारणा निम्न स्तर की ओर गैर-समतावादी मानसिकता की ओर बढ़ती है। इस प्रकार, एक मास्टर या प्रशिक्षक को निश्चित रूप से ब्राह्मण होना चाहिए।

विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार की बंद सामाजिक मांग ने स्वामीजी के संज्ञान को विद्रोह कर दिया। यह अनुरोध अवसर के प्रति सहज मानवीय झुकाव और अपनी इच्छा के अनुसार मानवीय पहचान के मुक्त सुधार के विरुद्ध था। इसने आवश्यक मानवीय सम्मान और जागरूकता को कमज़ोर कर दिया और व्यक्तियों को तब भी दबाए रखा जब वे अच्छी उपलब्धियाँ हासिल करने के लिए तैयार थे।

शिक्षा और आधुनिकीकरण

स्वामीजी के समय की भारतीय संस्कृति की स्थिति को देखकर यह भली-भाँति कहा जा सकता है कि शिक्षा की नवीन व्यवस्था की आवश्यकता तीव्र थी। यह महत्वपूर्ण था कि यह ढाँचा उन मूल्यों की व्यवस्था का प्रतीक हो जो सामान्य, तार्किक, व्यापक आधार वाले और दयालु हों। इसके अतिरिक्त, इसमें मनुष्य और समाज की सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता होनी चाहिए। इसमें अवसर, निष्पक्षता, मानवतावाद और आधिकारिक राय में विश्वास से इनकार के मानक शामिल होने चाहिए। इसे मनुष्य के संज्ञान का विस्तार करना चाहिए।

भारतीय समाज की पतनशील स्थिति के लिए उत्तरदायी कारक

स्वामी विवेकानंद जी भारतीय संस्कृति की भ्रष्ट स्थिति के पीछे कुछ तत्वों को मानते थे, जिन्हें उन्होंने वर्तमान शिक्षा के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया। वह इन स्थितियों का संदर्भ इस प्रकार देता है।

  1. अतीत की उपेक्षा

ऐसी विस्मृति के कारण स्वामीजी का विचार था कि भारतीय संस्कृति बोलने के ढंग से मृतप्राय हो गई है। उन्होंने इस प्रकार कहा है, ”आजकल हर कोई उन लोगों पर आरोप लगाता है जो हमेशा अपने अतीत के बारे में सोचते रहते हैं। कहा जाता है कि अतीत में पीछे मुड़कर देखना ही भारत के सभी दुर्भाग्य का कारण है।” जो अपेक्षा की जा सकती है उसके बावजूद, ऐसा प्रतीत होता है कि उलटा वैध है। जब तक उन्होंने अतीत की अनदेखी की, हिंदू देश असमंजस की स्थिति में रहा; और जब उन्होंने अपने अतीत की जांच करना शुरू किया, तो हर तरफ एक नया रूप सामने आया जीवन।

  1. हमारे दृष्टिकोण को संकुचित करना

मन के पतन को हमारी गतिविधियों की सीमा को संकुचित करने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। स्वामीजी इस प्रकार कहते हैं, “हम चीजों और विभिन्न देशों की तुलना करने में असफल रहे, अपने आस-पास के कामकाज पर मुहर नहीं लगा सके, यही भारतीय मन की इस गिरावट का एक अविश्वसनीय कारण रहा है।”

  1. धर्म की विकृति

स्वामीजी ने बताया कि कैसे भारत का महान धर्म, हिंदू धर्म, खुद को ‘न छूओ’ और उथले रीति-रिवाजों के रसोई धर्म में बदल गया है। बड़े लोगों ने धर्म के स्वरूप को समझने की उपेक्षा की और काफी समय तक धर्म के लिए छोटी-मोटी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया। स्वामीजी ने कहा है, “हमारे धर्म के रसोई में प्रवेश करने का खतरा है। हम न तो वेदांतवादी हैं, न ही अब हममें से अधिकांश, न ही पौराणिक, न ही तांत्रिक। हम बस ‘छूने वाले नहीं’ हैं हमारा धर्म है रसोई।

  1. जनता पर अत्याचार

स्वामीजी चाहते थे कि भारतीय जनता को स्तब्धता, अधीनता और लालसा से बाहर निकाला जाए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “मुझे लगता है कि सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप बहुमत की उपेक्षा है, और यह हमारी बर्बादी का एक कारण है। नहीं, विधायी मुद्दों का उपाय तब तक कोई लाभ नहीं देगा जब तक कि भारत में बहुमत न हो जाए।” फिर से जानकार, हर तरह से प्रोत्साहित और बहुत विचारशील। वे हमारी शिक्षा के लिए भुगतान करते हैं, वे हमारे मंदिर बनाते हैं, लेकिन परिणामस्वरूप उन्हें लात मिलती है। वे सभी उद्देश्यों और उद्देश्यों के लिए हमारे गुलाम हैं। यदि हमें भारत को पुनः प्राप्त करना है तो हम उनके लिए काम करना चाहिए।”

  1. महिलाओं की उपेक्षा

स्वामीजी मान ने जो कहा है, ‘जहां महिलाओं का सम्मान किया जाता है, वहां देवता संतुष्ट होते हैं’ की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि लोगों के बीच जो अविश्वसनीय विरोधाभास बना है, वह समझ से परे है। वेदांत ने घोषणा की है कि प्रत्येक जीवित प्राणी में समान ज्ञानी आत्मा मौजूद है, फिर मनुष्य विरोधाभासों से क्यों चिपके रहें। स्वामीजी को महिलाओं को बुलाना, ‘भयानक कीड़े’, ‘नरक की आग में प्रवेश द्वार आदि’ से नफरत थी। महिला में उन्होंने दिव्य माँ का जीवंत उदाहरण देखा।

  1. स्वयं में आत्मविश्वास की कमी

स्वामीजी ने कहा, विदेशी मानक के तहत लंबे समय तक अधीनता ने भारतीय व्यक्तियों को स्वयं में आत्मविश्वास से मुक्त कर दिया है। उन्होंने कहा है, “एक पराजित जाति होने के नाते, हमने खुद को यह विश्वास करने के लिए मजबूर कर दिया है कि हम कमजोर हैं और हमें किसी भी चीज़ में कोई स्वतंत्रता नहीं है। वैसे भी, फिर भी ऐसा कैसे हो सकता है कि श्राद्ध खो गया है? सच्ची श्रद्धा को हमें नए सिरे से वापस लाना होगा।” हमें अपने आप में आत्मविश्वास जगाना होगा, और तभी, हमारे देश के सामने आने वाली सभी समस्याएं धीरे-धीरे हमें समझ आ जाएंगी।”

  1. स्व-सहायता का अभाव

स्वामीजी का विचार था कि संपूर्ण राष्ट्रीय चरित्र बचकानी निर्भरता का था। उन्होंने कहा है, कि…. “यदि आप अपनी मदद नहीं कर सकते तो आपको जीने का अधिकार नहीं है।” मदद के लिए दूसरों की तलाश करें।” स्वतंत्रता की मानसिकता के बिना किसी देश या व्यक्ति की प्रगति नहीं हो सकती। मानव संस्कृति के एक व्यक्ति के रूप में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की क्षमता ही उन्नति का प्रतीक है।

  1. आलस्य, बचकानापन और इच्छा

स्वामीजी एक साथ न आने की प्रवृत्ति की जोरदार निंदा कर रहे थे। उनका मानना ​​था कि भारतीय संस्कृति के महत्व के बारे में तोते की तरह बोलने से आम जनता की सहमति के अनुरूप आदर्श सुधार नहीं होने वाला है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है, “हम सुस्त हैं, हम काम नहीं कर सकते, हम एकजुट नहीं हो सकते, हम एक-दूसरे से प्यार नहीं करते; हम बेहद बचकाने हैं, हममें से तीन लोग एक-दूसरे से नफरत किए बिना, ईर्ष्या किए बिना एक साथ नहीं मिल सकते।” एक दूसरे की। यही वह स्थिति है जिसमें हम हैं – दयनीय रूप से विघटित भीड़, बड़े पैमाने पर संकीर्ण मानसिकता वाले, काफी लंबे समय से एक दूसरे से इस बात पर लड़ रहे हैं कि हमारे मंदिर पर इस तरह से या उस तरह से एक निश्चित जांच लगाई जाए या नहीं,

  1. संगठन क्षमता का अभाव

स्वामीजी ने संगठन के संबंध में सीमा के असाधारण महत्व को उजागर किया, इस वास्तविकता की ओर इशारा करते हुए कि चालीस करोड़ अंग्रेज तीन सौ करोड़ भारतीयों को चला सकते थे, संगठन के संबंध में सीमा की ठोस निकटता के आलोक में पिछले अंग्रेज।

  1. व्यावसायिक निष्ठा का अभाव

स्वामीजी ने देखा कि भारतीय व्यक्तियों की व्यावसायिक भावना पर्याप्त रूप से कुशल नहीं है। उदाहरण के लिए, व्यक्ति हिसाब-किताब रखने में सख्त नहीं थे। सख्त व्यापारिक सिद्धांत नहीं बनाए गए, जिसके आलोक में फेलोशिप को व्यापारिक सौदेबाजी से दूर रखने की भावना नहीं थी।

11  प्रेम की कमी

स्वामीजी ने आम जनता के एक क्षेत्र को जाति से बहिष्कृत मानने और उन्हें सामाजिक मुख्यधारा से अलग करने के कृत्य की जमकर निंदा की। उन्होंने महसूस किया कि यह प्रशिक्षण अपने आप में उल्टा और प्रतिगामी था और बाद में, समाज के सुधार में एक अविश्वसनीय बाधा थी। उन्होंने कहा है, “कोई भी व्यक्ति, कोई भी देश… दूसरों का तिरस्कार करके जीवित नहीं रह सकता। भारत का भाग्य उसी दिन तय हो गया था जिस दिन उन्होंने म्लेच्छ शब्द का आविष्कार किया था और दूसरों के साथ मेलजोल बंद कर दिया था।”

सामाजिक और मौद्रिक उन्नति प्राप्त करने के लिए स्वामीजी कहते हैं – “हमें जिस चीज की आवश्यकता है वह है विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्र, सीखने के विभिन्न हिस्सों पर विचार करना जो हमारी अपनी है, और इसके साथ अंग्रेजी बोली और पश्चिमी विज्ञान; हमें विशेष शिक्षा और बाकी सभी चीजों की आवश्यकता है उद्योगों का निर्माण करें ताकि लोग, प्रशासन की तलाश करने के बजाय, खुद को समायोजित करने के लिए पर्याप्त जीत सकें, और बरसात के दिन के लिए कुछ बचा सकें।”

शिक्षा पर स्वामीजी के दृष्टिकोण उनकी कैथोलिक और तार्किक मानसिकता को प्रतिबिंबित करते हैं, जिसमें उन्होंने शिक्षा को आम जनता की वित्तीय और भौतिक उन्नति के विशेषज्ञ के रूप में देखा, फिर भी एक अग्रणी संचालक के रूप में देखा जो मनुष्य को सामाजिक और नैतिक रूप से सराहनीय बनाता है। व्यक्ति। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य के ज्ञान में निहित दोषहीनता के प्रकट होने की संभावना भी इस आधार पर उल्लेखनीय है कि यह प्रकटीकरण आम जनता की दोषहीनता को बढ़ाता है जिसका वह एक हिस्सा है। मनुष्य-निर्माण की शिक्षा के माध्यम से जीवन के सामाजिक उपयोगी आयाम से लेकर अच्छे और अंत में सबसे आश्चर्यजनक पारलौकिक आयाम तक मनुष्य के ज्ञान की उन्नति की स्वामीजी की अवधारणा हमें मानव पहचान की काफी हद तक महान, आदर्शवादी और उचित छवि प्रदान करती है।

बाल-केन्द्रित शिक्षा

बाल-केन्द्रित शिक्षा एक प्रकार से विषय केन्द्रित शिक्षा के विरूद्ध विद्रोह है । बाल-केंद्रित शिक्षा बच्चे की गतिविधि का प्राकृतिक प्रवाह और सहज विकास प्रदान करना चाहती है। उसे कार्रवाई की पूर्ण स्वतंत्रता का आनंद लेने की अनुमति दी जानी चाहिए, बशर्ते कि वह दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करे।

शिक्षक की भूमिका एक इच्छुक पर्यवेक्षक और अधिक से अधिक एक मार्गदर्शक की होती है जो जरूरत पड़ने पर बच्चे को प्रोत्साहित करता है, सलाह देता है और उत्साहित करता है । बच्चा अपनी स्वयं की महसूस की गई जरूरतों और आंतरिक प्रेरणाओं से गतिविधि के लिए प्रेरित होता है। सीखना तब घटित होता है जब वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करता है और अपनी प्रेरणाओं को अभिव्यक्ति देता है। यहां तात्कालिक उद्देश्य और रुचियां प्रेरक कारक हैं, जो परिस्थिति के साथ बदलती रह सकती हैं, आधुनिक शिक्षा बाल-केन्द्रित है।

बालक सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया का केन्द्र है। अलग-अलग समय पर महान दार्शनिकों ने इस पर जोर दिया। शिक्षक की भूमिका बच्चे को स्वाभाविक रूप से विकसित होने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए एक मार्गदर्शक और पर्यवेक्षक की तरह होती है। बाल केन्द्रित शिक्षा बालक की गुप्त प्रतिभा को प्रकट करने की आदर्श व्यवस्था है। इस प्रक्रिया में शिक्षा कोई अतिरिक्त शिरापरक थोपना नहीं है बल्कि बच्चे के विकास के लिए प्राकृतिक उत्तेजना है।

महात्मा गांधी का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण 

महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित शिक्षा प्रणाली को “बुनियादी शिक्षा” कहा जाता है। उनका मुख्य लक्ष्य मातृभाषा में शिक्षा है और उन्होंने बच्चों को कुशल और स्वतंत्र बनाने के लिए उद्यमिता शिक्षा देना कहा। गांधीजी छोटे, आत्मनिर्भर समूह का निर्माण करना चाहते थे, आदर्श नागरिक सहयोग छोटे और समुदाय में रहने वाले सभी मेहनती, रूमानी और उदार व्यक्ति हों। उनकी इच्छा थी कि बच्चों को किसी स्थानीय शिल्प की शिक्षा दी जाए ताकि वे अपने मन, शरीर और आत्मा का विकास कर सकें और अपने भावी जीवन की झलक को भी माध्यम से पूरा कर सकें। ऐसे गांधीवादी स्टार्टअप विचार विकास के लिए बेरोजगारी, दरिद्रता, गरीबी और कई अन्य स्थिर समस्याओं का समाधान प्रदान करते हैं।

महात्मा गांधी का जीवन परिचय

महात्मा गांधी जी का जन्म 2 अक्टूबर सन् 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हिन्दू परिवार में हुआ। पिता करमचंद गांधी और मां पुतलीबाई द्वारा उनका नाम मोहनदास रखा गया, जिससे उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी हुआ। महात्मा गांधी की माता अत्यधिक धार्मिक महिला थी, अत: उनका पालन वैष्णव मत को मानने वाले परिवार में हुआ और उन पर जैन धर्म का भी गहरा प्रभाव रहा। यही कारण था कि इसके मुख्य सिद्धांतों जैसे- अहिंसा, आत्मशुद्ध‍ि और शाकाहार को उन्होंने अपने जीवन में उतारा था।

मोहनदास शिक्षा के दृष्टिकोण से एक औसत दर्जे के विद्यार्थी रहे, लेकिन समय-समय पर उन्होंने पुरस्कार और छात्रवृत्त‍ियां भी मिलीं। वे अंग्रेजी विषय में काफी होनहार थे, लेकिन भूगोल जैसे विषयों में उनका प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहता था। वहीं अंक गणित में वे मध्यम दर्जे के विद्यार्थी रहे और लिखावट के मामले में भी उन्हें अच्छी टिप्पणियां नहीं मिली।

हालांकि गांधी जी, अपने माता-पिता की सेवा, घर के कार्यों में मां का हाथ बंटाना, आज्ञा का पालन करना, सैर के लिए जाना, यह सब करते थे लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा के महात्मा गांधी ने अपने जीवन के विद्रोही समय में गुप्त नास्त‍िकवाद को भी अपनाया, धूम्रपान और मांसाहार का सेवन भी किया। लेकिन उसके बाद उन्होंने इन सभी चीजों को जीवन में कभी न दोहराने का दृढ़ निश्चय कर फिर कभी नहीं दोहराया। गांधी जी ने प्रहृलाद और राजा हरिश्चंद्र को आदर्श के रूप में ग्रहण किया।

महात्मा गांधी का विवाह मात्र 13 वर्ष की आयु में ही कर दिया गया था। जब वे स्कूल में पढ़ते थे, तभी पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबा माखनजी से उनका विवाह हुआ और मात्र 15 वर्ष की अवस्था में गांधी जी एक पुत्र के पिता बन गए।लेकिन वह पुत्र जीवित न रह सका। इस तरह गांधी जी के कुल चार पुत्र हरिलाल, मनिलाल, रामदास और देवदास हुए। विवाह के पश्चात और स्कूल का जीवन समाप्त होने पर मुंबई के एक कॉलेज में कुछ दिन पढ़ने के बाद वे लंदन चले गए और उनकी आगे की शिक्षा दीक्षा लंदन में हुई। 3 वर्ष की शिक्षा के बाद वे बैरिस्टर बने। इसके बाद उनके जीवन की असल यात्रा शुरू हुई जो अहिंसा आंदोलन से लेकर उनके राष्ट्रपिता बनने तक, और उनके जीवन पर्यंत चलती रही…।

सन् 1914 में गांधी जी भारत लौट आए। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा उन लोगों को तैयार करने में बिताए जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका साथ दे सकें।

फरवरी 1919 में अंग्रेजों के बनाए रॉलेट एक्ट कानून पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया। फिर गांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन की घोषणा कर दी। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया।

इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्‍मा गांधी ने भारतीय स्‍वतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्‍य अभियानों में सत्‍याग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’, ‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’। गांधी जी के इन सारे प्रयासों से भारत को 15 अगस्‍त 1947 को स्‍वतंत्रता मिल गई। ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी महात्मा गांधी की 30 जनवरी, 1948 को नई दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई।

महात्मा गांधी के पूर्व भी शांति और अहिंसा की के बारे में लोग जानते थे, परंतु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह, शांति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता।उनकी यह यात्रा अहिंसा आंदोलन से लेकर उनके राष्ट्रपिता बनने तक, और उनके जीवन पर्यंत चलती रही…।

महात्मा गाँधी का जीवन दर्शन

गाँधी जी जीवन दर्शन जैसा उदाहरण मानव जाति के इतिहास में दूसरा नहीं मिलता है। इनके जीवन में हमें चार महत्वपूर्ण तत्व मिलते हैं।

  1. सत्य

गाँधी जी के सिद्धांतों में ‘सत्य’ सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत है। इसमें अनेक सिद्धांत निहित है। गाँधी जी का सम्पूर्ण जीवन सत्य के लिये एक प्रयोग है। गाँधीजी का सत्य पूर्ण सत्य है उनके अनुसार सत्य व ईश्वर एक ही बात है। विचार में सत्य भाषण में सत्य और कार्य में सत्य होना चाहिए यदि उनका दर्शन था।

  1. अहिंसा

महात्मा गाँधी ने अहिंसा के साथ विभिन्न प्रयोग किये एवं अहिंसा के बल पर भारत को स्वतंत्रता दिलवायी उनका अहिंसा से सम्बन्धित एक ही सिद्धांत था कि “यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर चाँटा मारे तो उसके सामने अपना दूसरा गाल भी कर दो। ”

  1. निर्भयता

निर्भयता को व्यापक अर्थ देते हुये गाँधीजी ने लिखा है- निर्भयता का अर्थ है समस्त बाध्य भय से मुक्ति, जैसे बीमारी का भय, प्रतिष्ठा खोने का भय, शारीरिक चोट का भय, मृत्यु का भय इत्यादि ।

  1. सत्याग्रह

सत्याग्रह से गाँधी जी का तात्पर्य सत्यबल का अवलंबन था। उन्होंने इसे आत्मबल से भी पुकारा था। वे अपने विरोधी पर बल प्रयोग की आज्ञा नहीं देते थे बल्कि धैर्य और सहानुभूति पूर्वक ढंग से उसे गलत मार्ग से हटाना चाहते थे।

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन मनुष्य के शरीर,मन तथा आत्मा का सर्वागीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से अभिप्रेरित हैं। महात्मा गांधी जी के अनुसार शिक्षा वह है जो बालक के शरीर , मन और आत्मा का विकास करें। गांधी जी मनुष्य जीवन का अंतिम उद्धेश्य मुक्ति को मानते मुक्ति से तात्पर्य शारिरीक ,मानसिक,आर्थिक,राजनीतिक और आध्यात्मिकता से मानते है।

दोस्तों गाँधी जी एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों में से एक थे। गांधी जी को भारत में राष्ट्र पिता के नाम से और बापू जैसे सम्मानित नाम से पुकारा जाता हैं। आज हम ऐसे महान व्यक्ति के शैक्षिक विचारों के संबंध में जानेंगे।

शैक्षिक चिन्तन

गाँधी जी को अधिकांश लोग एक महान् राजनीतिक ही मानते हैं, किन्तु जीवन और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी देन अमूल्य है। उन्होंने राजनीतिक क्रांन्ति के साथ-साथ सामाजिक क्रान्ति को भी जन्म दिया और इसमें शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया। वे एक श्रेष्ठ शैक्षिक विचारक थे। ‘बेसिक शिक्षा प्रणाली’ उनके शैक्षिक विचारों का एक व्यावहारिक रूप है।

बेसिक शिक्षा (Basic Education)

वर्धा शिक्षा योजना को ‘बेसिक शिक्षा’, बुनियादी शिक्षा’, ‘नई तालीम’ के नामों से भी जाना जाता है। लेकिन यह ‘बेसिक शिक्षा’ के नाम से अधिक लोकप्रिय है। ‘बेसिक’ का अर्थ हैं, आधारभूत तत्त्व (Fundamentals), क्योंकि यह शिक्षा योजना भारत की राष्ट्रीय संस्कृति और सभ्यता पर आधारित थी। यह भी आशा की जाती थी कि इस शिक्षा योजना का छात्र की बुनियादी आवश्यकताओं और रुचियों से निकट का सम्बन्ध होगा और यह शिक्षा छात्र को ऐसा ज्ञान प्रदान करेगी, जो उसे वातावरण के साथ उचित सम्बन्ध बनाने में और इस कार्य में अपने ज्ञान का उपयोग करने में सहायता करेगी। यह भी आशा की जाती थी कि इस शिक्षा योजना का केन्द्र बिन्दु कुछ हस्तकलाएँ (Crafts) होंगी, जिन्हें सीखने से छात्र को अपनी जीविका की समस्या का समाधान करने में सहायता मिलेगी।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)

गाँधी जी ने शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये “जो मुक्ति के योग्य बनाये वही विद्या है।” अतः जो चित्त की शुद्धि न करे, मन और इन्द्रियों को वंश में करना न सिखाये, निर्भयता तथा स्वावलम्बन उत्पन्न न करे, जीवन निर्वाह का साधन न बताये, दासता से मुक्ति और स्वतन्त्रता से रहने का उत्साह तथा सामर्थ्य उत्पन्न न करे उस शिक्षा में चाहे जितने ज्ञान का कोश, तर्क की कुशलता और भाषा की प्रवीणता क्यों न उपस्थित हो, वह शिक्षा नहीं है। शिक्षा के सम्बन्ध में गाँधी जी ने यह भी कहा- “शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और आदमी में, शरीर, मस्तिष्क और आत्म में जो कुछ सर्वोत्तम है उसे समग्र रूप से अभिव्यक्त करना है। साक्षरता शिक्षा का न तो अन्त है और न आरम्भ ही है। वह उन साधनों में से एक है, जिससे पुरुष और स्त्री को शिक्षित किया जा सकता है। साक्षरता स्वयं कोई शिक्षा नहीं है।”

गाँधी जी चाहते थे कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित बने। वे मात्र साक्षरता को शिक्षा नहीं मानते थे। वे इसे ज्ञान या ज्ञान का माध्यम भी स्वीकार नहीं करते थे। उनके शब्दों में, “साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और प्रारम्भ। यह केवल एक साधन है, जिसके द्वारा पुरुष और स्त्री को शिक्षित किया जा सकता है।”

बेसिक शिक्षा की रूपरेखा

प्रारम्भ में बेसिक शिक्षा निम्नलिखित रूप में स्वीकार की गई थी-

(1) राष्ट्रीय स्तर पर देश के समस्त बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो ।

(3) शिक्षा का केन्द्र कोई उत्पादक हस्त-उद्योग हो।

(4) शिक्षा प्रणाली से शनैःशनैः अध्यापक के वेतन का खर्च भी निकल आयेगा।

(5) श्रम पर विशेष महत्त्व दिया जाए और श्रमनिष्ठ भावना उत्पन्न की जाए।

(6) शिक्षा बालक के वातावरण के अनुकूल हो।

(7) बालक अच्छा नागरिक बन सके।

(8) शिल्पों की शिक्षा इस प्रकार दी जाए कि उससे बच्चे जीविकोपार्जन कर सकें।

(9) शिल्पों की शिक्षा में आर्थिक महत्त्व के साथ-साथ उसके सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व को स्थान

(10) बच्चों द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग हो और उनसे आर्थिक लाभ किया जाए, स्कूलों का व्यय पूरा किया जाए।

गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के उद्धेश्य

(1) शारीरिक विकास 

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन के अनुसार छात्रों को शारीरिक शिक्षा भी प्रदान की जानी चाहिए।शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बालक के शरीर का विकास होना चाहिए क्योंकि उनके अनुसार स्वस्थ शरीर मे ही स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण होता है इसीलिए सबसे पहले उन्होंने शारीरिक विकास पर बल दिया।

(2) मानसिक एवं बौद्धिक विकास 

गंधी जी के अनुसार जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए शिशु को माँ के दूध की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता है।

व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास – गंधी जी व्यक्ति ,समाज और राष्ट के विकास पर बल देते है सामाजिक विकास से तात्पर्य मनुष्य को समाज मे प्रेम और मानव मात्र की सेवा करने से ही आत्मिक विकास संभव हैं।

(3) सांस्कृतिक विकास 

गांधी जी आत्मिक विकास के लिए संस्कृति के ज्ञान की आवश्यकता पर विशेष बल देते थे उनके अनुसार शिक्षा दर्शन में संस्कृति के अहम भूमिका होती हैं।

(4) नैतिक एवं चारित्रिक विकास 

गांधी जी शिक्षा के माध्यम से बालक में सत्य,अहिंसा, ब्रमचर्य, अस्वाद, अपरिग्रह ओर निर्भरता आदि गुणों का विकास होना चाहिए।

(5) व्यावसायिक विकास

गांधी जी आर्थिक विकास अभाव की मुक्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा पर बल देते थे और मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाना चाहते है इसीलिए वह हस्तकला ओर उद्योग पर बल देते है

(6) आध्यात्मिक विकास 

गांधी जी मनुष्य जीवन का अंतिम उद्धेश्य मुक्ति आत्मानुभूति व आत्मबोध मानते हैं। गाँधी जी ने ज्ञान कर्म भक्ति और योग पर समान बल देते है यह अहिंसा और सत्याग्रह को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।

(7) पाठ्यक्रम 

बेसिक शिक्षा 1 से 8 तक इसमे हस्तकला , उद्योग , को प्रमुख स्थान मातृभाषा व्यावहारिक गणित , सामाजिक विषय , सामान्य विज्ञान , संगीत चित्रकला , स्वास्थ्य विज्ञान और आचरण की शिक्षा पर बल देते हैं।

(8) सर्वोदय समाज की स्थापना

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; अतः शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होना चाहिए, परन्तु गाँधी जी का सामाजिक विकास से एक विशिष्ट अर्थ था। वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, सब एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, सब एक-दूसरे का सहयोग करेंगे, सब एक-दूसरे की उन्नति में सहायक बनेंगे, सबका उदय होगा।

(9) नागरिकता का विकास 

राष्ट्र की दृष्टि से व्यक्ति नागरिक कहा जाता है। किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के लिए यह आवश्यक होता है कि वे राष्ट्र के नियमों का पालन करें, राष्ट्र के प्रति संवेदनशील हों, अपने कर्त्तव्यों का पालन करें, अपने अधिकारों की रक्षा करें। किसी भी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का यह प्रमुख उद्देश्य होता है। बेसिक शिक्षा एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना है, इसका यह उद्देश्य होना स्वाभाविक है।

बेसिक शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त

बेसिक शिक्षा निम्नलिखित आधारभूत तत्त्वों पर विकसित की गई थी-

(1) शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का सिद्धान्त 

गाँधी जी शिक्षा को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि किसी भी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना उसके अधिकार का हनन है, यह कार्य असत्य है और मानवीय कसौटी पर हिंसा है। उन्होंने सर्वप्रथम इस बात पर ही बल दिया कि राज्य को 7 से 17 आयु-वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवावर्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने का सिद्धान्त 

गाँधी जी ने स्पष्ट किया कि मातृभाषा पर बच्चों का स्वाभाविक अधिकार होता है, उसी के माध्यम से जन शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है। यहीं कारण है कि बेसिक शिक्षा में अभिव्यक्ति के आधारभूत माध्यम मातृभाष को शिक्षा का माध्यम बनाना सिद्धान्त स्वीकार किया गया।

(3) शिक्षा को हस्तकौशलों पर केन्द्रित करने का सिद्धान्त

शिक्षा को किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग पर केन्द्रित करने के पीछे गाँधी जी के कई विचार थे। पहला यह किवे बच्चों को श्रम का महत्त्व बताना चाहते थे। दूसरा यह कि वे बच्चों को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे, उन्हें जीविकोपार्जन करने योग्य बनाना चाहते थे। तीसरा यह कि वे सबका उदय करना चाहते थे। चौथा यह कि वे शिक्षा को गाँवों के जीवन से जोड़ना चाहते थे, और पाँचवाँ एवं अन्तिम यह कि वे शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। स्कूलों में होने वाले उत्पादन से स्कूलों का व्यय निकालना चाहते थे।

(4) शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाने का सिद्धान्त 

गाँधी जी के सामने सार्वभौमिक, अनिवार्य और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का प्रश्न था और उस समय राज्य के पास इसकी व्यवस्था करने के साधन नहीं थे; अतः उन्होंने स्कूलों में हस्तशिल्पों की शिक्षा अनिवार्य करने पर बल दिया। उनका अनुमान था कि बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से स्कूलों का व्यय निकल सकेगा।

(5) सत्य, अहिंसा और सर्वोदय का सिद्धान्त

गाँधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे समाज में होने वाले किसी भी प्रकार के शोषण को हिंसा मानते थे और उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों का शोषण कर रहे थे। तभी गाँधी जी ने सबके लिए समान शिक्षा के सिद्धान्त को स्वीकार किया, इसमें छोटे-बड़े का भेद नहीं होगा, कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, सबको अपने उत्थान के समान अवसर प्राप्त होंगे।

(7) ज्ञान को एक इकाई के रूप में विकसित करने का सिद्धान्त

यदि भौतिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा का एक ही लक्ष्य होता है—मनुष्य को वास्तविक जीवन के लिए तैयार करना। तब पाठ्यक्रम के समस्त विषयों एवं क्रियाओं का सम्बन्ध मनुष्य के वास्तविक जीवन से होना चाहिए। इसी दृष्टि से गाँधी जी ने ज्ञान को पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने पर बल दिया था। उनके इसी विचार ने शिक्षण की एकीकरण विधि को जन्म दिया। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी ज्ञान पूर्ण इकाई होता है, उसे पूर्ण इकाई के रूप में ही विकसित करना चाहिए।

शिक्षा का पाठ्यक्रम

बेसिक शिक्षा योजना का उद्देश्य है पूर्ण व्यक्ति का विकास – सर्वोत्तम विधि से उसकी शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना-

(1) बुनियादी हस्तकलाएँ (Basic Crafts) 

चुनी हुई हस्तकलाओं में ऐसा विवेकपूर्ण कौशल प्राप्त किया जाना चाहिए, जो छात्रों की उनके कोर्स को समाप्त करने के बाद व्यवसाय के रूप में उसका उपयोग करने में उनकी सहायता करे। विभिन्न विद्यालयों में निम्नलिखित को बुनियादी हस्तकलाओं के रूप में चुना जा सकता है-

(i) कृषि, (ii) कताई और बुनाई, (iii) बढ़ई का कार्य (लकड़ी की दस्तकारी), (iv) फलों और सब्जियों की बागवानी, (v) मत्स्य (मछली) पालन, (vi) चमड़े का काम, (vii) कुम्हार का कार्य, (viii) क्षेत्र के भौगोलिक वातावरण के अनुसार कोई अन्य हस्तकला

(2) मातृभाषा (Mother-tongue) 

विद्यालयों में शिक्षण के माध्यम के रूप में मातृभाषा का प्रयोग किया जाना है, क्योंकि विचारों की अभिव्यक्ति और आदान-प्रदान के लिए यह एक प्रभावशाली साधन है। मातृभाषा का उचित शिक्षण सभी प्रकार की शिक्षा का आधार है। प्रभावशाली रूप से बोलने की और सही-सही तथा स्पष्ट पढ़ने और लिखने की योग्यता के बिना कोई भी व्यक्ति विचार या धारणाओं की स्पष्टता को विकसित नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त यह बालक का अपने समाज के विचारों, भावनाओं और आकांक्षाओं की अमूल्य सांस्कृतिक परम्परा से परिचय कराने का एक साधन है, इसलिए इसे सामाजिक शिक्षा का एक अमूल्य साधन बनाया जा सकता है और साथ ही साथ नैतिक आदर्शों को मन में बैठाया जा सकता है। बालक की सौन्दर्य सम्बन्धी समझ और प्रशंसा की अभिव्यक्ति के लिए यह एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति का साधन भी मातृ-भाषा है और यदि उचित दृष्टिकोण अपनाया जाए तो साहित्य का अध्ययन आनन्द और सर्जनात्मक प्रशंसा का स्रोत बन जाता है।

(3) गणित (Mathematics)

यह लक्ष्य है छात्र में उसकी हस्तकला और उसके घर तथा सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में उत्पन्न हो रही साधारण संख्यात्मक और रेखागणित की समस्याओं का तेजी से हल निकालने की योग्यता को विकसित करना। छात्रों को व्यवसाय की विधि और वित्तीय का भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। गणित का जीवन की परिस्थितियों और बुनियादी हस्तकला के साथ पारस्परिक सम्बन्ध होना चाहिए। दैनिक जीवन के लिए गणित एक बहुत उपयोगी विषय है।

(4) सामान्य विज्ञान (General Sciences) 

सामान्य विज्ञान में निम्नलिखित शामिल हैं— (i) प्रकृति अध्ययन, (ii) वनस्पति विज्ञान, (ii) जन्तु विज्ञान, (iv) रसायनशास्त्र, (v) खगोलशास्त्र, (vi) प्रारम्भिक स्वास्थ्य विज्ञान, (vii) प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की जीवन-कथाएँ का ज्ञान प्रदान किया जाये।

(5) चित्रकारी (Drawing) 

यह लक्ष्य निम्नलिखित हैं- (i) आकारों और रंगों का निरीक्षण करने में और उनमें अन्तर करने में आँखों को प्रशिक्षित करना, (ii) आकारों को याद रखने के लिए स्मरण-शक्ति विकसितकरना, (iii) प्रकृति और कला में जो सुन्दर चीजें हैं उनके लिए ज्ञान और प्रशंसा पैदा करना, (iv) रुचिपूर्ण रूपांकन और सजावट के लिए योग्यता विकसित करना, (v) निर्माण कीजाने वाली चीजों के कार्य सम्बन्धी चित्र बनाने की योग्यता विकसित करना।

(6) संगीत (Music)

यह लक्ष्य है छात्रों को अनेक मधुर गीतों को सिखाना और उनमें मधुर संगीत के लए प्रेम पैदा करना। बालक को हाथों से ताल देना सिखाकर लय की उसकी स्वाभाविक समझ को विकसित किया जाना चाहिए। एक निश्चित लक्ष्य के साथ-साथ चलना इसे प्राप्त करने में सहायक हो सकता है। केवल सर्वोत्तम और अत्यधिक प्रेरित करने वाले गीतों के चयन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। सामूहिक गायन पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।

बेसिक शिक्षा हेतु समय-सारिणी (Time-Table)

विषय समय
बुनियादी हस्तकला

मातृभाषा

संगीत, चित्रकारी और गणित

सामाजिक अध्ययन और सामान्य विज्ञान

शारीरिक शिक्षा

अवकाश काल

 

योग (समय अवधि )

3 घंटे 20 मिनट

40 मिनट

40 मिनट

30 मिनट

10 मिनट

10 मिनट

 

5 घंटे 30 मिनट

बेसिक शिक्षा की शिक्षण विधि

बेसिक शिक्षा में परम्परागत कथन और पुस्तक प्रणाली के स्थान पर क्रिया प्रधान शिक्षण विधि पर बल दिया गया है। इस विधि की मुख्य विशेषताएँ हैं-

(1) बेसिक शिक्षा में क्रिया एवं अनुभवों को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है। बच्चें को प्रकृति का निरीक्षण करने और सामाजिक कार्यों में भाग लेने के अवसर दिए जाते हैं और इस प्रकार उन्हें स्वानुभव तथा करके सीखने के अवसर दिए जाते हैं।

(2) बेसिक शिक्षा में समस्त विषयों एवं क्रियाओं को एक-दूसरे के सम्बन्धित करके पढ़ाया जाता है, इसे सह-सम्बन्ध विधि कहते हैं। प्रारम्भ में सह-सम्बन्ध का आधार किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग को ही रखा गया था, आगे चलकर प्राकृतिक पर्यावरण अथवा सामाजिक पर्यावरण को भी उसका आधार बनाए जाने की स्वीकृति दी गई। इस विधि में बच्चे वास्तविक परिस्थितियों में वास्तविक क्रियाओं में भाग लेते हुए वास्तविक ज्ञान एवं कौशल प्राप्त करते हैं और उस सबको एक पूर्ण इकाई के रूप में प्राप्त करते हैं।

(3) बेसिक शिक्षा में बच्चों को जीवन की वास्तविक क्रियाओं के माध्यम से वास्तविक ज्ञान कराया जाता है।

(4) बेसिक शिक्षा में मातृभाषा का ज्ञान भी स्वाभाविक रूप से कराया जाता है—पहले मौखिक भाषा (सुनना-बोलना) सिखाई जाती है, उसके बाद लिखित भाषा (पढ़ना और लिखना) सिखाई जाती है।

(5) बेसिक शिक्षा में बच्चों को आत्माभिव्यक्ति के स्वतन्त्र अवसर प्रदान किए जाते हैं।

छात्र (Student)

छात्र तो शिक्षा की प्रक्रिया का केन्द्र होता है। गाँधी जी के विचार से छात्रों को अनुशासित रहना चाहिए और उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। गाँधी जी बच्चों को उनके वैयक्तिक विकास की पूरी-पूरी छूट देते थे, पर उनके सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास को दृष्टि में रखते हुए। गाँधी जी प्रारम्भ में ही बच्चों में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक बल का विकास करने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने पर बल देते थे। इनके विचार से ऐसा ही व्यक्ति अपना और संसार का भला कर सकता है। गाँधी जी के अनुसार छात्रों को संयमी के साथ-साथ जिज्ञासु भी होना चाहिए।

अध्यापक (Teacher)

महात्मा गाँधी के विचारानुकूल शिक्षा की बहुत कुछ सफल्ता शिक्षकों पर निर्भर है। अतएव शिक्षक ऐसे होने चाहिये जो मानवीय गुणों से युक्त हो, बालको की जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ाये उनकी भावनाओ, रुचियों और आवश्यकताओ का मार्ग-दर्शन करें और उनकी चिन्ताओं तथा समस्याओं को सुलझाये। उन्हें स्थानीय परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान हो जिससे कि वे स्थानीय व्यवसायो, हस्तकलाओं एवं उद्योग-धन्धो को शिक्षा के लिए सफलतापूर्वक उपयोग कर सके। गाँधी जी के कथानुसार शिक्षकों को बालकों का विश्वास पात्र बन जाना चाहिए और उन्हें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण रूप से निभाने का प्रयास करना चाहिए। यद्यपि गाँधी जी अध्यापक केन्द्रित शिक्षा में विश्वास नहीं करते थे, परन्तु वे शिक्षक को बालक का मित्र, परामर्शदाता एवं पथ-प्रदर्शक मानते थे और यह चाहते थे कि वे मैत्रीपूर्ण ढंग से बालक में समस्त मानवीय गुणों का विकास करें।

विद्यालय (School)

गाँधी जी विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र के रूप में व्यवस्थित करना चाहते थे। उनके अनुसार विद्यालय ऐसे केन्द्र होने चाहिएं जहाँ छात्रों का सब प्रकार का विकास हो, जो समाज की सेवा करे और जो समाज के साथ सहयोग रखे। विद्यालय का संगठन इस ढंग से होना चाहिए जिससे वे आत्म-निर्भर बन सके अर्थात् हस्तकौशल के उत्पादनों से विद्यालय का खर्च निकाला जा सके।

अनुशासन (Discipline)

गाँधी जी अनुशासन की आवश्यकता को स्वीकार करते थे, परन्तु उनका मत था कि अनुशासन आत्म-प्रेरित हो। वे अनुशासन के लिए शारीरिक दण्ड का विरोध करते थे और अनुशासन को ऊपर या बाहर से लादने के पक्ष में न थे। वे शिक्षकों से यह आशा करते हो कि शिक्षा अपने आत्मबल तथा आदर्शों से बालकों को प्रभावित करें और बालक अनुसरण द्वारा उच्च आदर्श ग्रहण करें। इस प्रकार गाँधी जी स्वयं नियन्त्रण द्वारा आत्मानुशासन को सर्वोच्च मानते थे।

गाँधी जी का शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित बेसिक शिक्षा आज भी भारत में प्रचलित है। उन्होंने हाथ, हृदय और मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की योजना विकसित थी। उन्होंने समाज को उन्नत बनाने के लिये सामाजिक वातावरण को शिक्षा का माध्यम बनाया।

शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये हस्त कौशलों पर आधारित पाठ्यचर्या का निर्माण किया। उन्होंने करके सीखने पर बल दिया। अध्यापक से यह अपेक्षा की बच्चों के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार कर उनका मार्गदर्शन करें। इसके अतिरिक्त जन शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, स्त्री शिक्षा और धार्मिक शिक्षा के विषय में विचार व्यक्त किये। उनके शैक्षिक विचारों के सम्बंध में एम. एस. पटेल ने कहा कि “गाँधी जी का शिक्षा दर्शन योजना में प्रकृतिवादी, उद्देश्यों में आदर्शवाद और कार्य पद्धति में व्यावहारिकतावादी है।”

रवींद्रनाथ टैगोर का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण

टैगोर (Tagore) ने शिक्षा शब्द का अर्थ व्यापक अर्थ में लिया है, उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Personality’ में लिखा है- “सर्वोत्तम शिक्षा वही है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” “The highest Education is that which make’s in our life harmony with all existence.” सम्पूर्ण दृष्टि से टैगोर का अभिप्राय है संसार की चार और अचर, जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता है जब हमारी समस्त शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित होकर, उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जायें, इसी को टैगोर ने पूर्ण मनुष्यत्व कहा है। शिक्षा का कार्य है, हमें इस स्थिति में पहुँचाना। इस दृष्टिकोण से टैगोर के अनुसार शिक्षा विकास की प्रक्रिया है। वह मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, व्यावसायिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विकास करती है। अतः टैगोर के विचार में शिक्षा का रूप अत्यन्त व्यापक है। शिक्षा को व्यापक अर्थ के अन्तर्गत टैगोर ने शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श को ध्यान में रखा है। वह आदर्श है-‘सा विद्या या विमुक्तये’। इस आदर्श के अनुसार शिक्षा मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान देकर उसे जीवन एवं मरण से मुक्ति प्रदान करती है। टैगोर ने शिक्षा के इस प्राचीन आदर्श को भी व्यापक रूप दिया है। उनका कहना है कि शिक्षा न केवल आवागमन से वरन् आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक दासता से भी मनुष्य को मुक्ति प्रदान करती है। अत: मनुष्य को शिक्षा द्वारा उस ज्ञान का संग्रहण करना चाहिये जो उसके पूर्वजों द्वारा संचित किया जा चुका है, यही सच्ची शिक्षा है। स्वयं टैगोर ने लिखा है-“सच्ची शिक्षा संग्रह किये गये लाभप्रद ज्ञान के प्रत्येक अंग के प्रयोग करने में, उस अंग के वास्तविक स्वरूप को जानने में और जीवन में जीवन के लिये सच्चे आश्रय का निर्माण करने में है।”

रविंद्र नाथ टैगोर का जीवन परिचय

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का जन्‍म 7 मई सन् 1861 को कोलकाता में हुआ था। रवींद्रनाथ टैगोर एक कवि, उपन्‍यासकार, नाटककार, चित्रकार, और दार्शनिक थे। रवींद्रनाथ टैगोर एशिया के प्रथम व्‍यक्ति थे, जिन्‍हें नोबल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था।

वे अपने माता-पिता की तेरहवीं संतान थे। बचपन में उन्‍हें प्‍यार से ‘रबी’ बुलाया जाता था। आठ वर्ष की उम्र में उन्‍होंने अपनी पहली कविता लिखी, सोलह साल की उम्र में उन्‍होंने कहानियां और नाटक लिखना प्रारंभ कर दिया था।

अपने जीवन में उन्‍होंने एक हजार कविताएं, आठ उपन्‍यास, आठ कहानी संग्रह और विभिन्‍न विषयों पर अनेक लेख लिखे। इतना ही नहीं रवींद्रनाथ टैगोर संगीतप्रेमी थे और उन्‍होंने अपने जीवन में 2000 से अधिक गीतों की रचना की। उनके लिखे दो गीत आज भारत और बांग्‍लादेश के राष्‍ट्रगान हैं।

जीवन के 51 वर्षों तक उनकी सारी उप‍लब्धियां और सफलताएं केवल कोकाता और उसके आसपास के क्षेत्र तक ही सीमित रही। 51 वर्ष की उम्र में वे अपने बेटे के साथ इंग्‍लैंड जा रहे थे। समुद्री मार्ग से भारत से इंग्‍लैंड जाते समय उन्‍होंने अपने कविता संग्रह गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद करना प्रारंभ किया। गीतांजलि का अनुवाद करने के पीछे उनका कोई उद्देश्‍य नहीं था केवल समय काटने के लिए कुछ करने की गरज से उन्‍होंने गीतांजलि का अनुवाद करना प्रारंभ किया। उन्‍होंने एक नोटबुक में अपने हाथ से गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद किया।

लंदन में जहाज से उतरते समय उनका पुत्र उस सूटकेस को ही भूल गया जिसमें वह नोटबुक रखी थी। इस ऐतिहासिक कृति की नियति में किसी बंद सूटकेस में लुप्‍त होना नहीं लिखा था। वह सूटकेस जिस व्‍यक्ति को मिला उसने स्‍वयं उस सूटकेस को रवींद्रनाथ टैगोर तक अगले ही दिन पहुंचा दिया।

लंदन में टैगोर के अंग्रेज मित्र चित्रकार रोथेंस्टिन को जब यह पता चला कि गीतांजलि को स्‍वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने अनुवादित किया है तो उन्‍होंने उसे पढ़ने की इच्‍छा जाहिर की। गीतांजलि पढ़ने के बाद रोथेंस्टिन उस पर मुग्‍ध हो गए। उन्‍होंने अपने मित्र डब्‍ल्‍यू.बी. यीट्स को गीतांजलि के बारे में बताया और वहीं नोटबुक उन्‍हें भी पढ़ने के लिए दी। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। यीट्‍स ने स्‍वयं गीतांजलि के अंग्रेजी के मूल संस्‍करण का प्रस्‍तावना लिखा। सितंबर सन् 1912 में गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद की कुछ सीमित प्रतियां इंडिया सोसायटी के सहयोग से प्रकाशित की गई।

लंदन के साहित्यिक गलियारों में इस किताब की खूब सराहना हुई। जल्‍द ही गीतांजलि के शब्‍द माधुर्य ने संपूर्ण विश्‍व को सम्‍मोहित कर लिया। पहली बार भारतीय मनीषा की झलक पश्चिमी जगत ने देखी। गीतांजलि के प्रकाशित होने के एक साल बाद सन् 1913 में रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया। टैगोर सिर्फ महान रचनाधर्मी ही नहीं थे, बल्कि वो पहले ऐसे इंसान थे जिन्होंने पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के मध्‍य सेतु बनने का कार्य किया था। टैगोर केवल भारत के ही नहीं समूचे विश्‍व के साहित्‍य, कला और संगीत के एक महान प्रकाश स्‍तंभ हैं, जो स्‍तंभ अनंतकाल तक प्रकाशमान रहेगा। रवीन्द्रनाथ टैगोर का निधन 7 अगस्त 1941 को कोलकत्ता में हुआ. यह भारतीय साहित्य के लिए अभूतपूर्व क्षति थी।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन

टैगोर की पारिवारिक पृष्ठभूमि दर्शन, विज्ञान, कला, संगीत, कविता, सम्पन्नता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध थी। उनका परिवार विभिन्न सामाजिक व सांस्कृतिक आन्दोलनों का केन्द्र था। टैगोर शीघ्रता से किसी भी बात को ग्रहण करने की क्षमता थी जिससे वे महान् शिक्षा शास्त्री व साहित्यकार बने ।

टैगोर ने शिक्षा के सिद्धांतों की खोज अपने अनुभव से की है उन्होंने भारतीय शिक्षा में नये प्रयोगों की शुरुआत की। उन्होंने भारतीय व पाश्चात्य विचारों का सम्मिश्रण किया एवं अपने शिक्षा सिद्धांतों की खोज स्वयं की । जिस समय भारत में विदेशी शिक्षा का अंधानुकरण किया जा रहा था उस समय उन्होंने विदशी शिक्षा को पूर्णरूप से अपनाने से मना किया।

टैगोर के समय मे समाज में दया व प्रेम का भाव था। वे प्रकृतिवादी थे किंतु उसके उनके स्वयं के सिद्धांत थे वे समाज को आगे बढ़ते देखना चाहते थे उनके शिक्षा दर्शन में ‘रहस्यवाद’ के भी दर्शन देखने को मिलते हैं। वे मनुष्य के मूल्यों के गिरने का घोर विरोध करते थे एवं मानव जाति का उद्धार करना चाहते थे वे एक मानवतावादी शिक्षा शास्त्री भी थे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ 

टैगोर (Tagore) ने शिक्षा शब्द का अर्थ व्यापक अर्थ में लिया है, उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Personality’ में लिखा है- “सर्वोत्तम शिक्षा वही है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” “The highest Education is that which make’s in our life harmony with all existence.” सम्पूर्ण दृष्टि से टैगोर का अभिप्राय है संसार की चार और अचर, जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता है जब हमारी समस्त शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित होकर, उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जायें, इसी को टैगोर ने पूर्ण मनुष्यत्व कहा है। शिक्षा का कार्य है, हमें इस स्थिति में पहुँचाना। इस दृष्टिकोण से टैगोर के अनुसार शिक्षा विकास की प्रक्रिया है। वह मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, व्यावसायिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विकास करती है। अतः टैगोर के विचार में शिक्षा का रूप अत्यन्त व्यापक है। शिक्षा को व्यापक अर्थ के अन्तर्गत टैगोर ने शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श को ध्यान में रखा है। वह आदर्श है-‘सा विद्या या विमुक्तये’। इस आदर्श के अनुसार शिक्षा मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान देकर उसे जीवन एवं मरण से मुक्ति प्रदान करती है। टैगोर ने शिक्षा के इस प्राचीन आदर्श को भी व्यापक रूप दिया है। उनका कहना है कि शिक्षा न केवल आवागमन से वरन् आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक दासता से भी मनुष्य को मुक्ति प्रदान करती है। अत: मनुष्य को शिक्षा द्वारा उस ज्ञान का संग्रहण करना चाहिये जो उसके पूर्वजों द्वारा संचित किया जा चुका है, यही सच्ची शिक्षा है। स्वयं टैगोर ने लिखा है-“सच्ची शिक्षा संग्रह किये गये लाभप्रद ज्ञान के प्रत्येक अंग के प्रयोग करने में, उस अंग के वास्तविक स्वरूप को जानने में और जीवन में जीवन के लिये सच्चे आश्रय का निर्माण करने में है।”

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

टैगोर द्वारा निर्धारित किये जाने वाले शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. शारीरिक विकास (Physical development) 

टैगोर का विश्वास था कि स्वस्थ मन के लिये स्वस्थ शरीर परम आवश्यक है। अत: उन्होंने इस बात पर बल दिया कि बालक का शारीरिक विकास करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है। उनका कहना था कि शारीरिक विकास के लिये यदि आवश्यक हो तो अध्ययन को कुछ समय के लिये छोड़ देना चाहिये। शारीरिक विकास के लिये टैगोर ने पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में गोता लगाने, फलों को तोड़ने तथा प्रकृति माता के साथ अनेक प्रकार की शैतानियाँ करके खेलकूद तथा व्यायाम को आवश्यक बताते हुए पौष्टिक भोजन पर बल दिया।

  1. मानसिक विकास (Mental development) 

टैगोर के अनुसार प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना ही सच्ची शिक्षा है। इससे कुछ ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता, अपितु जानने की शक्ति का विकास हो जाता है, जितना कक्षा में दिये जाने वाले व्याख्यानों द्वारा असम्भव है। उनका विश्वास था कि मानसिक विकास तब ही सम्भव है, जब वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त किया जाय। इसके लिये बालक को प्राकृतिक क्रियाएँ करने के लिये अधिक से अधिक अवसर मिलने चाहिये।

  1. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास (Moral and spiritual development) 

आदर्शवादी होने के नाते टैगोर ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा का उद्देश्य नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास होना चाहिये। अपने लेखो में उन्होंने अनेक नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की है और इसकी प्राप्ति के लिये आन्तरिक शक्ति, आत्मानुशासन, धैर्य एवं ज्ञान को परम आवश्यक बतलाया है।

  1. समस्त शक्तियों का विकास (Development of all powers) 

टैगोर यह मानने थे कि बालक के अन्दर सभी सुषुप्त शक्तियों का विकास करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। टैगोर एक महान् व्यक्तिवादी थे। अत: वे व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास को विशेष महत्व देते थे। वे व्यक्ति को सम्मान तथा स्वतन्त्रता देने के पक्षपाती थे। इसके अतिरिक्त वे शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के मस्तिष्क को स्वतन्त्रता प्रदान करना मानते थे जिससे वे पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त अन्य साधनों द्वारा भी स्वतन्त्र रूप से अपना विकास कर सके।

5.सामाजिक विकास (Social development) 

टैगोर व्यक्तिवादी होने के साथ-साथ समाजवादी भी थे। वे जितना महत्व व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व के विकास को देते थे उतना ही महत्व वे समाज तथा सामाजिक सेवा को भी देते थे। वे व्यक्ति की आध्यात्मिकता पूर्णता के लिये उसका सामाजिक विकास आवश्यक मानते थे। अत: शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को एक ऐसे सामाजिक बन्धन में बाँधना चाहते थे जिससे व्यक्ति सामाजिक विकास करने के लिये प्रयत्नशील रहे। अत: उन्होंने अपनी संस्था में सामूहिक कार्यों एवं जन सेवा को अधिक महत्व दिया।

  1. राष्ट्रीयता का विकास (Development of nationalism) 

रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवादी होने के नाते शिक्षा को राष्ट्रीय जागृति का उत्तम एवं सफल साधन मानते थे। उन्होंने अपने विचारों, लेखों एवं कविताओं के द्वारा व्यक्तियों को राष्ट्र प्रेम की ओर आकर्षित किया और उन्हें राष्ट्रीय एकता की अनुभूति करायी।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास (Development of international attitude) 

टैगोर के अनुसार शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बालक में अन्तर्राष्ट्रीय समाज के प्रति चेतना उत्पन्न करना है। वे विश्व में एकता स्थापित करना चाहते थे। अत: वे चाहते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के बन्धन में बाँधा जाय जिससे वह अन्तर्राष्ट्रीय समाज के विकास हेतु प्रयास करता रहे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार पाठ्यक्रम

उन्होंने “जीवन की पूर्णता” को जीवन का लक्ष्य बताया। इस आधार पर उनके विचार हैं कि पाठ्यक्रम बालक के जीवन पूर्ण अनुभवों से सम्बन्धित हो, ज्ञान की जिज्ञासा पूरी करने में समर्थ हो राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय आधारों पर निर्मित हो। इस सन्दर्भ में भाषा, साहित्य, गणित, विज्ञान, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, भूगोल, कला संगीता नृत्य, चित्रण, भ्रमण, खेल- कूद, व्यायाम समाज और मानव सेवा आदि के समावेश का समर्थन किया।

टैगोर पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने के पक्षधर थे। उनके अनुसार पाठ्यक्रम को इतना व्यापक होना चाहिये कि उसकी परिधि में बालक के जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सके। अत: बालक के समुचित विकास के लिये क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम का निर्माण होना चाहिये। दूसरी बात यह है कि इन्होंने अपनी भाषा एवं संस्कृति के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषा एवं संस्कृतियों के ज्ञान पर भी बल दिया है। प्रकृति एवं ललित कलाओं के तो ये अनन्य प्रेमी थे। इनको तो इन्होंने पाठ्यक्रम में मुख्य स्थान दिया है। इन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सह-पाठ्यचारी क्रियाएँ बालक के विकास में बड़ा योग देती हैं। अतः खेलकूद और अभिनय आदि को पाठ्यक्रम में स्थान देना चाहिये। इनके इस व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही इनके द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम बहुत विस्तृत था। इन्होंने प्रारम्भ में अपने शान्ति निकेतन स्थित विद्यालय के लिये जिस क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम को रखा था। उसका रूप निम्नलिखित था-

(1) विषय – मातृभाषा, संस्कृत, अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल, प्रकृति अध्ययन विज्ञान, कला और संगीत।

(2) उपयोगी वस्तुएँ – इसके अन्तर्गत, बागवानी, कृषि, क्षेत्रीय अध्ययन, ब्रह्माण्ड विभिन्न वस्तुओं का संग्रह एवं प्रयोगशाला कार्य।

(3) अन्य क्रियाएँ – खेलकूद, नाटक, संगीत, नृत्य मौलिक रचना, ग्रामोत्थान और समाज सेवा कार्य।

टैगोर के अनुसार शिक्षण की विधियाँ

टैगोर ने प्रचलित पाठ्यक्रम की भाँति तत्कालीन नीरस शिक्षा पद्धति की कृत्रिमता का विरोध करते हुए इस बात पर बल दिया कि शिक्षा की प्रक्रिया जीवन से पूर्व होनी चाहिये। उसे जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित होना चाहिये। इस सम्बन्ध में विचार था कि बालक का विकास उसकी रुचियों तथा आवेगों के अनुसार होना चाहिये। इसके लिये उसे प्रत्यक्ष स्रोतों से स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को अर्जित करने के अवसर मिलने परम आवश्यक हैं। अत: टैगोर ने बालक की शिक्षा के लिये निम्नलिखित गतिविधियों को उपयुक्त माना तथा उनका प्रयोग अपनी प्रसिद्ध शैक्षिक संस्था शान्ति निकेतन में किया।

  1. भ्रमण के समय पढ़ना (During the working time) 

टैगोर का विश्वास था कि कक्षा में पढ़ायी जाने वाली शिक्षा का प्रभाव न तो बालक के मस्तिष्क पर पड़ता है और न बालक के शरीर पर। ऐसी मतिहीन शिक्षा व्यर्थ है। वे कहते थे कि भ्रमण के समय बालकों की मानसिक शश्तियाँ सतर्क रहती हैं। अत: वे अनेक विषयों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर उनके विषय में ज्ञान को सरलता से प्राप्त कर लेते हैं। इस दृष्टि से टैगोर के ही शब्दों में-“भ्रमण के समय पढ़ना शिक्षण की सर्वोतम विधि है।”

  1. वाद-विवाद तथा प्रश्नोत्तर विधि (Discussion and question-answer method) 

टैगोर का विश्वास था कि वास्तविक शिक्षा केवल पुस्तकों के रट लेने तक ही सीमित नहीं होती अपितु वह जीवन तथा समाज के अध्ययन पर आधारित होती है। वे कहते थे कि बालकों को प्रश्नों तथा उत्तरों के द्वारा शिक्षा प्रदान करनी चाहिये। यही नहीं उनके समक्ष अनेक प्रकार की समस्याओं को भी रखना चाहिये, जिससे वे इन समस्याओं का हल वाद-विवाद द्वारा आसानी से निकाल सकें।

  1. क्रिया विधि (Activity method) 

टैगोर ने क्रिया सिद्धान्त को विशेष महत्व प्रदान किया। उनका विश्वास था कि क्रिया शरीर एवं मस्तिष्क दोनों को शक्ति देती है। इसलिये उन्होंने शान्ति निकेतन में किसी न किसी दस्तकारी को सीखना अनिवार्य कर दिया। टैगोर क्रया के सिद्धान्त पर इतना विश्वास करते थे कि यदि कोई बालक शिक्षा प्राप्त करते समय भी उनसे पूछे-“क्या मैं दौड़ जाऊँ ” तो वे कहते थे-अवश्य। उनका विश्वास था कि पेड़ पर चढ़ने, फल तोड़ने तथा कूदने-फाँदने से थकावट दूर हो जाती है जिससे बालक ज्ञान प्राप्त करने के लिये अधिक अच्छी दशा में आ जाता है तथा बालक के अनुभवों का महत्व बढ़ जाता है।

  1. मातृभाषा द्वारा शिक्षण (Teaching through mother language) 

टैगोर मातृभाषा कोशि का सरलतम माध्यम समझते थे। उन्होंने कहा कि विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनुचित है। इसके अतिरिक्त टैगोर विश्वबन्धुत्व की भावना के भी समर्थक थे। अत: उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम में सभी संस्कृतियों को स्थान दिया जाना चाहिये।

  1. खेल द्वारा शिक्षण (Teaching through play) 

टैगोर का कहना था कि बालकों को शिक्षण खेल द्वारा दिया जाना चाहिये। खेल द्वारा शिक्षण उत्तम होता है क्योंकि खेल में बालक रुचि लेते हैं। आनन्द का अनुभव करते हैं तथा स्वतन्त्रता का भी अनुभव करते हैं। इससे शिक्षण मनोरंजक तथा सरल हो जाता है।

  1. स्वानुभव द्वारा शिक्षण (Learning through experience) 

टैगोर का विश्वास था कि शिक्षण इस प्रकार किया जाना चाहिये कि जिससे बालक स्वयं के अनुभवों से कुछ सीखें इसीलिये आवश्यक है कि शिक्षा को बालक के जीवन पर केन्द्रित किया जाय। जब शिक्षा जीवन से सम्बन्धित हो जाती है तो उसकी कृत्रिमता समाप्त हो जाती है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षक, विद्यार्थी और विद्यालय

उन्होंने शिक्षकों की नितान् आवश्यकता पर बल दिया उनके अनुसार अध्यापक को पूर्ण रूप से प्रशिक्षित होना चाहिए । अध्यापक में सेवा, त्याग, सहयोग, शिक्षण में रुचि, लगन, कर्तव्य परायणता के गुण हो ताकि वह छात्रों का आदर्श बन सके।

टैगोर ने छात्रों के लिये विशेष गुण बताये जैसे व्यवहार में विनम्रता, स्फूर्तिवान, अनुशासित, समाजिकता, साधना आदि। वे उनके व्यक्तित्व का समन्वित विकास करने के पक्ष में हैं।

उन्होंने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को स्वीकार किया। अर्थात् विद्यालय शान्त वातावरण, प्रकृति की गोद में स्थित हो । प्राइमरी, सेकेण्ड्री, उच्च, व्यावसायिक एवं कृषि सम्बंधी शिक्षा के अलग-अलग व्यवस्था हो।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा में योगदान

उन्होंने देश में विश्वभारतीय की स्थापना कर शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। वे जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा आदि के समर्थक थे। उनके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम शिक्षण विधि आदि की व्यवस्था वास्तविक जीवन की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करे| टैगोर ने सौन्दर्यबोध की शिक्षा के अन्तर्गत ललित कलाओं को शिक्षा में स्थान दिया। वे रूसों की भांति मुक्त अनुशासन के यत को मानने वाले थे उनके दर्शन पर आदर्शवाद, प्रकृतिवाद यथार्थवाद प्रयोजनवाद एवं मानववाद दर्शनों को प्रभाव है। उनकी प्रबल इच्छा थी कि शिक्षा के द्वारा निरक्षता का निराकरण हो।

औद्योगीकरण

औद्योगीकरण एक सामाजिक तथा आर्थिक प्रक्रिया का नाम है। इसमें मानव-समूह की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदल जाती है जिसमें उद्योग-धन्धों का बोलबाला होता है। वस्तुत: यह आधुनीकीकरण का एक अंग है। बड़े-पैमाने की उर्जा-खपत, बड़े पैमाने पर उत्पादन, धातुकर्म की अधिकता आदि औद्योगीकरण के लक्षण हैं। एक प्रकार से यह निर्माण कार्यों को बढ़ावा देने के हिसाब से अर्थप्रणाली का बड़े पैमाने पर संगठन है।

औद्योगीकरण की प्रक्रिया और संपूर्ण सामाजिक-आर्थिक संरचना को बदल दिया गया है जिसका जन्म और स्थिति के पारंपरिक सांतती पूर्व-सामंती सिद्धांतों पर आधारित था। प्रॉपर्टी सिस्टम और श्रम विभाजन में बदलाव लाया गया है, और नए सामाजिक स्तर और कलाकारों का जन्म हुआ है जो क्षेत्र और धर्म के पारंपरिक विभाजन से ऊपर हैं।

औद्योगीकरण में ऐसे कई बदलाव शामिल हैं जो पूर्व-औद्योगिक समाज में मौजूद नहीं थे। नए सामाजिक संबंध, शहरीकरण, जनसंख्या की एकता और व्यावसायिक संरचना में बदलाव पेश किए गए हैं। इसके परिणामस्वरूप कुछ सामान्य विशेषताएं सामने आई हैं जो पूर्व-औद्योगिक या पारंपरिक कृषि समाजों की नियुक्तियों से भिन्न हैं। औद्यौगिकीकरण के प्रभाव के कारण राजनीतिक, आरंभिक, धार्मिक, पारिवारिक और स्तरीकरण क्षेत्रों में विभिन्न विश्वविद्यालयों की चर्चा नीचे दी गई है।

भारत में औद्योगीकरण का सामाजिक प्रभाव क्या पड़ रहा है?

(1) भारत में स्थापित जाति व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है। लोग अब राजवंशानुगत से साझेदार नहीं हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने सामाजिक कल्याण और सामाजिक न्याय को मजबूत किया है।

(2) कोई गरीब परिवार में जन्म ‘सकता है लेकिन बड़ा अमीर बन सकता हैं। शोषण जन्म का विषय नहीं होना चाहिए। डेमोक्रेसी ने एक ऐसा माहौल पेश किया है जहां अस्पृश्यता खत्म हो गई है। आधुनिक औद्योगीकरण ने इस संबंध में बहुत मदद की है।

(3) औद्योगीकरण के कारण सामाजिक भेदभाव बढ़ता है क्योंकि पूरा समाज दो भागों में विभाजित हो गया है-पूंजीपति और औद्योगिक श्रमिक | निश्चित रूप से आर्थिक रूप से कमजोर एक शक्तिशाली कारक है जो भारतीय लोकतंत्र की प्रगति को रोक सकता है। लोगों का मानना है कि समाज में उत्पादन और शोषण के नये मुद्दे उभर कर सामने आ रहे हैं। गरीब चार्टर, बच्चों और महिलाओं का शोषण दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।

औद्योगिकरण का प्रभाव

औद्योगिक क्रांति ने समाज के सभी पहलुओं, जैसे- आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था आदि को प्रभावित किया। यही नहीं, इस क्रांति ने समस्त मानव जाति की गतिविधियों में हलचल मचा दी। ‘क्रांति का परिणाम था नयी जनता, नये वर्ग, नयी नीतियां, नयी समस्यायें और नये साम्राज्य ।’ औद्योगिक क्रांति जो लम्बी अवधि तक चली. का आधार ही नवीन आविष्कार, नवीन प्रणालियां तथा नवीन विचारधारा थी । औद्योगिक क्रांति ने ही इंग्लैण्ड को विश्व में आर्थिक प्रभुसत्ता दिलवायी। औद्योगिक क्रांति के मुख्य रूप से निम्नलिखित परिणाम निकले, जिन्हें हम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में विभक्त कर सकते है-

(2) उत्पादन में वृद्धि

औद्योगिक क्रांति का प्रथम प्रभाव उत्पादन पर पड़ा। यन्त्रों के द्वारा कम समय में अधिक मात्रा में वस्तुओं का निर्माण होने लगा। पहले मशीनों का उपयोग कुछ सीमित उद्योगों में हुआ, लेकिन धीरे-धीरे सभी उद्योगों का मशीनीकरण हो गया। उत्पादन बढ़ने से ही इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि देश समृद्ध हो गये।

(2) घरेलू उद्योगों का विनाश

क्रांति से पूर्व कारीगर लोग अपने परिवार के साथ सीमित पूंजी से तथा थोड़े से औजारों से उत्पादन करते थे। अपनी रूचि की वस्तु का निर्माण करते थे तथा उसी से जीवनयापन करते थे। मशीनों से उत्पादन अधिक मात्रा में तथा काफी सस्ता एवं सुन्दर होने लग गया। अत: घरेलू उत्पादन की वस्तुओं के ग्राहक कम हो गये और कटीर उद्योगों में काम करने वाले कारीगर बेकार हो गये इस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया।

(3) बड़े कारखानों की स्थापना

औद्योगिक क्रांति के प्रांरभिक काल में छोटे-छोटे कारखाने स्थापित किये गये। इनकी सफलता से प्रोत्साहित होकर बड़े- बडे कारखाने लगाये गये। इनमें हजारों व्यक्ति एक साथ कार्य कर सकते थे ये बड़े कारखाने सफल हुए। इनमें मजदूरों के अलावा ऐसे लोगों को भी सेवा में रख लिया । जाता था जो हर समय खर्च घटाने, प्रति व्यक्ति काम लेने और कारखाने में तैयार माल के लिए और बाजार खोजने के तौर-तरीकों का अध्ययन कर सकें।

(4) फैक्ट्ररी पद्धति की स्थापना

बड़े कारखानों में फैक्ट्ररी पद्धति अपनाई गई। इसकी निम्न विशेषतायें थी-

  1. हजारों लोगों का एक साथ कारखाने में काम करना,
  2. कार्य विभाजन,
  3. श्रमिकों पर निरीक्षकों की नियुक्ति.
  4. मशीनों का यांत्रिक शक्ति से चलना.
  5. पूंजी का विशेष उद्योग में फंसा होना,
  6. श्रम के मूल्य को लेकर मजदूर मालिक संघर्ष । इस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने वर्ग-संघर्ष को अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया।

(4) विशेषज्ञता का विकास

कारखाना पद्धति में प्रत्येक व्यक्ति को एक ही वस्तु का छोटा- छोटा काम करने को दिया जाता था प्रायः एक व्यक्ति को दूसरे लोगों के कार्यों के बारे में अधिक जानकारी नहीं होती थी इस प्रकार की विशेषज्ञता का विकास हुआ।

(6) नये नगरों का विकास

मशीनों से चलने वाले बड़े-बड़े कारखाने ऐसे स्थानों पर स्थापित हुए जहां उनको चलाने के लिए कोयला एवं अन्य साधन उपलब्ध थे। काम करने के लिए गांव से बेरोजगार लोग आकर कारखानों के पास ही बसने लगे। परिणामस्वरूप नये-नये नगरों का विकास सम्भव हुआ। इंग्लैण्ड में मेनचेस्टर, ग्लासगो, लिवरपूल आदि नगरों का विकास इस दौरान ही संभव हुआ ।

(7) बेरोजगारी की समस्या

इस क्रांति से पूर्व प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी काम में संलग्न था। लेकिन औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप बहुत से लोगों को काम मिलना कठिन हो गया। इन बड़े-बड़े यन्त्रीकृत कारखानों से कई व्यक्ति का कार्य कम समय में ही होना सम्भव हो गया। समय-समय पर व्यापारिक मंदी के दौरान भी कारखानों में मजदूरों की छंटनी की जाती थी जिससे बेरोजगारी की समस्या बढ़ जाती थी।

(8) राष्ट्रीय बाजारों को संरक्षण

औद्योगिक क्रांति के बाद राष्ट्रीय उत्पादन को महत्व दिया जाने लगा। अन्य राष्ट्रों की निर्मित वस्तुओं पर भारी आयात कर लगाया जाने लगा, ताकि वे स्वदेशी वस्तुओं से प्रतिस्पर्धा न कर सकें और यदि करें भी तो अधिक मुनाफा न कमा सके। इस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने राष्ट्रीय बाजार को संरक्षण प्रदान करना आवश्यक कर दिया।

(9) परस्पर निर्भरता बढ़ाना

आर्थिक दृष्टि से औद्योगिक विकास ने संसार के सभी देशों को परस्पर निर्भर बना दिया। पहले प्रत्येक देश अपनी आवश्यकताओं को अपने आप पूरा करता था अब यातायात के साधन भी विकसित हो गये थे जिससे संसार के सभी बाजार आपस में जड गये। औद्योगिक देशों को पिछडे देशों से कच्चा माल चाहिये और पिछडे देशों को मशीनें तथा तैयार माल चाहिये। इस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने सभी को एक-दूसरे पर निर्भर बना दिया ।।

(10) संयुक्त पूंजी वाली कंपनियों का विकास 

औद्योगिक क्रांति से पूर्व उद्योग की स्थापना के लिए बहुत ही कम पंजी की आवश्यकता होती थी। औद्योगिक कांति से उत्पादन की विधि में परिवर्तन हुआ और विशाल पूंजी की आवश्यकता पड़ने लगी जो कि एक व्यक्ति के द्वारा जुटाया जाना सामर्थ्य के बाहर था। फलतः संयुक्त पूंजी वाली कम्पनियों या प्रमण्डलों का विकास हुआ। प्रारंभ में ऐसी कम्पनियां असीमित दायित्व वाली थी, किन्तु बाद में सन् 1862 से सीमित दायित्व वाली कम्पनियों की स्थापना हुई।

(11) पूंजीपतियों एवं श्रमिकों के संबंधों में परिवर्तन

औद्योगिक क्रांति ने नियोजक और नियोजित; पूंजीपति और श्रमिकों के संबंधों में परिवर्तन किया। घरेलू उत्पादन प्रणाली में नियोजक-नियोजित या तो एक ही परिवार के सदस्य होते थे अथवा उनकी संख्या बहुत कम होने के कारण उनमें पारिवारिक सम्बंध स्थापित हो जाते थे। परन्तु संयुक्त पूंजी वाली कम्पनियों की कारखाना प्रणाली में श्रमिक एक मशीन का पुर्जा मात्र रह गया और उसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया । फलस्वरूप पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग पर हावी होने लगा और उसका शोषण किया जाने लगा, जिससे बाद में श्रमिक संघों के विकास को – प्रोत्साहन मिला।

(12) पूंजीपतियों का औद्योगिक एकाधिकार

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप बड़े-बड़े कारखाने तथा संयुक्त प्रमण्डल अस्तित्व में आये, जिन पर धीरे-धीरे पूंजीपतियों का एकाधिकार सा हो गया और मजदूरों की स्थिति बहुत ही दयनीय और शोचनीय होती गयी। उद्योगों पर पूंजीपतियों का एकाधिकार होने से पूंजीपतियों का राजनीतिक सत्ता पर भी प्रभुत्व बढ़ा।

(13) बैंकिंग एवं बीमा व्यवसाय का संगठन

उत्पादन वृद्धि व व्यापार क्षेत्र की वृद्धि से जोखिम का क्षेत्र बढ़ा और इसका अन्य साख सबधा आवश्यकत बढ़ी। इन समस्याओं का समाधान बेकिंग संस्थाओं और बीमा कम्पनियों के संगठन द्वारा तथा मुद्रा और पूंजी बाजार के विकास द्वारा किया गया।

(14) आर्थिक संकटों की उत्पत्ति

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के बीच प्रत्यक्ष संबंध समाप्त हो गया। फलतः कभी उत्पादन मांग से कम और कभी अधिक होने लगा। इससे वस्तुओं के मूल्यों में उतार-चढ़ाव आने लगे।

(15) उद्योगों का स्थानीयकरण

औद्योगिक क्रांति से पूर्व उद्योग छोटी-छोटी उत्पादन इकाइयों के रूप में विकेन्द्रित थे। परन्तु औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप बड़े पैमाने की उत्पत्ति, कारखाना प्रणाली तथा कोयले की शक्ति के उपयोग के कारण उद्योग-धंधे, कोयला क्षेत्रों कच्चे माल उत्पादक क्षेत्रों तथा व्यापारिक केन्द्रों में स्थापित होने लगा। यातायात और सन्देशवाहन के साधनों के विकास ने उद्योगों के विकेन्द्रीकरण को और भी बढ़ावा दिया।

(16) उद्योगपतियों का संगठन

औद्योगिक क्रांति ने उद्योगपति वर्ग को ही जन्म नहीं दिया, वरन् उनमें अपने हितों और प्रतियोगिता को समाप्त करने के लिए संगठन की भावना भी उत्पन्न की फलतः 1785 ई. में उद्योगपतियों का चैम्बर स्थापित हुआ। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य सरकार की आर्थिक नीति को प्रभावित करना था।

(17) विकास दर में वृद्धि

इंग्लैण्ड की वकास दर, जो कि 1700-1780 ई. के बीच लगभग 1 प्रतिशत वार्षिक थी, औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप बढ़कर 1781-1913 ई. की अवधि में 3 प्रतिशत वार्षिक हो गई। विकास दर में वृद्धि के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय औ प्रति व्यक्ति आय दोनों में वद्धि हुई ।

(18) यातायात के साधनों का विकास

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में यातायात के साधनों का भी तीव्र गति से विकास हुआ। सड़क, नहर, रेल तथा जहाजरानी आदि सभी यातायात साधनों का विकास हुआ।

(19) बड़े पैमाने पर कृषि एवं यन्त्रीकण

श्रमिकों की कमी के कारण कृषि में यन्त्रीकरण बढ़ा और कृषि में व्यावसायिक दष्टिकोण अपनाये जाने से बड़े पैमाने पर कृषि की जाने लगी। इस प्रकार औद्योगिक क्रांति से कृषि क्रांति का मार्ग प्रशस्त हुआ।

शिक्षा एवं औद्योगिकीकरण के मध्य क्या सम्बन्ध है

औद्योगिकरण का प्रमुख सम्बन्ध सामान्य शिक्षा के पश्चात् विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करने से होता है। यहाँ विशिष्ट शिक्षा से तात्पर्य व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा से है । औद्योगीकरण की प्रक्रिया एवं शिक्षा के मध्य सीधा सम्बन्ध है। शिक्षा के द्वारा विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास छात्रों में किया जाता है। जिसके फलस्वरूप औद्योगीकरण की प्रक्रिया को गति मिलती है। स्पष्ट है कि औद्योगीकरण की प्रक्रिया उन देशों में अच्छी होती है जहाँ शिक्षा का स्तर उच्च होता है। अतः शिक्षा एवं औद्योगीकरण में प्रत्यक्ष एवं गहरा सम्बन्ध है।

शिक्षा एवं औद्योगीकरण के मध्य सम्बन्ध निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट हैं

(1) सामाजिक विकास में सहायक 

शिक्षा एवं उद्योग दोनों ही ‘सामाजिक आवश्यकता है। किसी भी समाज का विकास दोनों पर ही निर्भर करता है। किसी भी समाज में जब शिक्षा का स्तर उच्च होता है तो प्रत्येक कार्य को करने की विधियाँ भी उच्च स्तरीय होती हैं।

(2) कौशलों का विकास एवं उपयोग 

शिक्षा के माध्यम से छात्र में निहित कौशलों का उपयोग होता है। इन कौशलों का उपयोग वह औद्योगिक क्षेत्र में करता है।

(3) मानवीय संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग 

मानवीय संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग शिक्षा एवं औद्योगीकरण द्वारा होता है। प्रत्येक छात्र की प्रतिभा का विकास शिक्षा द्वारा ही सम्भव होता है। जब किसी छात्र की प्रतिभा का विकास होता है तो उसका उपयोग वह मानवीय हित एवं समाज के विकास में करता है। इसके लिये वह अपनी प्रतिभा के अनुरूप उद्योगों का चयन करके स्वयं के हित एवं समाज के हित का कार्य करता है।

(4) प्राकृतिक संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग 

प्रकृति में अनेक प्रकार के महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी संसाधन हैं। इनका ज्ञान मानव को तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उसको शिक्षा प्राप्त न हो । शिक्षा के माध्यम से विविध प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का ज्ञान होता है। इसके उपरान्त उनका सर्वोत्तम उपयोग उद्योग द्वारा सम्भव होता है।

(5) रोजगार का विकास 

शिक्षा के माध्यम से औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र होती है परिणामस्वरूप विविध उद्योगों में रोजगार की उपलब्धि होती है। वर्तमान समय में औद्योगीकरण एवं शिक्षा के विविध रूपों में या क्षेत्रों में अनेक व्यक्ति रोजगार प्राप्त कर रहे हैं तथा विकास का मार्ग प्रशस्त कर रहे

(6) आर्थिक विकास का आधार 

औद्योगीकरण एवं शिक्षा आर्थिक विकास के प्रमुख आधार माने जाते हैं। सामान्य रूप से एक राष्ट्र को सर्वप्रथम शिक्षित होना आवश्यक है। इसके बाद ही वह विविध क्षेत्रों में उद्योगों को सर्वोत्तम रूप में विकसित करता है। परिणामस्वरूप देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से होता है।

(7) कृषि विकास में सहायक 

शिक्षा के द्वारा ही कृषि विकास की स्थिति उत्पन्न होती है। वर्तमान समय में कृषि ट्रैक्टर एवं अन्य उपकरणों के माध्यम से की जाती है। वर्तमान समय में उन्नत बीजों का उपयोग होता है जिससे उत्पादन अधिक होता है। इस प्रकार शिक्षा एवं कृषि उद्योग एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं ।

(8) जीवन स्तर का विकास 

वर्तमान समय में जिन राष्ट्रों की शिक्षा का स्तर उच्च है उन राष्ट्रों का जीवन स्तर भी उच्च होता है क्योंकि वहाँ औद्योगिक विकास की स्थिति सर्वोत्तम रूप में होती है। इससे प्रत्येक व्यक्ति को वह सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जो कि उसके सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक होती है।

(9) राष्ट्रीय विकास में सहायक 

शिक्षा एवं औद्योगीकरण का समन्वित रूप ही राष्ट्रीय विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। विश्व में जितने भी विकसित देश हैं उनमें औद्योगीकरण एवं शिक्षा दोनों ही सर्वोत्तम रूप में है।

(10) शिक्षा एवं औद्योगीकरण एक दूसरे के पूरक हैं

शिक्षा एवं औद्योगीकरण एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। किसी भी क्षेत्र में औद्योगिक विकास शिक्षा के द्वारा ही सम्भव होता है । औद्योगीकरण की आवश्यकता ने ही शिक्षा को नवीन स्वरूप प्रदान किया है। वर्तमान समय में तकनीकी शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि हुई है क्योंकि उद्योगों के विकास के लिये तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की जाती है।

शिक्षा पर आधुनिकीकरण का प्रभाव

सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से देखें तो पता चलता है कि जिन समाजों में शिक्षा पर्याप्त होती है, शिक्षा की व्यापकता होती है तथा जिनमें शिक्षा का उच्च स्तर तथा प्रचार-प्रसार पर्याप्त होता है। उन समाजों में आधनिकीकरण अधिक पाया जाता है तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तीव्र गति से होती है। इसके लिए निम्नलिखित कारण होते हैं –

(1) दृष्टिकोणों की विस्तृतता

शिक्षा द्वारा ही व्यक्तियों के दृष्टिकोणों में विस्तता आता है। उस विस्तृतता तथा व्यापकता के कारण नैतिक मूल्यों में गत्यात्मकता विकसित होती है। इस गत्यात्मकता के कारण व्यक्ति प्राचीन नैतिक मूल्यों को त्यागकर नये मूल्य ग्रहण करता है तथा संकीर्णता का परित्याग करता है।

(2) ज्ञान भण्डार में वृद्धि

जिन व्यक्तियों के समाज में शिक्षा का अभाव है वे समाज विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति नहीं कर पाते। शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्तियों को दर्शन, विज्ञान, साहित्य, प्रौद्योगिकी तथा इलेक्ट्रॉनिक्स के बारे में जानकारी मिलती है। इसके ज्ञान के आधार पर ही वह आधुनिक समाजों से सम्पर्क कर पाता है।

(3) सामाजिक परिवर्तन में तीव्रता

शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त साधन है। शिक्षा विभिन्न साधनों द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाती है और इस सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप आधुनिकीकरण का प्रादुर्भाव होता है। अतः सामाजिक परिवर्तन हेतु प्रेरणा का सृजित होता है ।

(4) आर्थिक विकास में सहायक

विकसित देशों ने यह सिद्ध कर दिया है कि शिक्षा आर्थिक, औद्योगिक एवं नैतिक विकास का सबसे उत्तम साधन है। शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा श्रमिकों की कार्यकुशलता बढ़ती है । उत्पादन के नये-नये साधन विकसित होते हैं, प्रबन्ध कौशल में परिपक्वता आती है एवं विनिमय तथा वितरण की नवीनतम विधियों की जानकारी होती है।

(5) जीवन-स्तर का उन्नयन

शिक्षा हर व्यक्ति के जीवन स्तर को उठाती है। व्यक्ति को सीमित साधनों की सहायता से अधिकतम उपयोगिता की विधि सिखाती है। आधुनिकीकरण के लिए अच्छा जीवन- स्तर आवश्यक है।

(6) साम्यावस्था का सृजन

जब समाज में कुछ परिवर्तन होता है तो इस संक्रामक स्थिति के अन्तर्गत उस समाज की सामाजिक व्यवस्था में असन्तुलन आ जाता है। असाम्यावस्था तथा अस्थिरता का यह काल अनिश्चितता लाता है और इस काल में ही व्यक्ति विभिन्न वर्गों में विभक्त होकर सन्देह की स्थिति में हो जाते हैं इस भ्रम की स्थिति में समाज या व्यक्ति यह निर्णय नहीं ले पाता कि जीवन के विकास हेतु प्राचीन मान्यताएँ अपनायी जायें अथवा नवीन मान्यताएँ। शिक्षा इस स्थिति में दूरदर्शिता उत्पन्न कर साम्यावस्था का सृजन करती है।

 BY : TEAM KALYAN INSTITUTE

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