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अधिगम और शिक्षण

आज के समय शिक्षण व्यवस्था को और ज्यादा रोचक पूर्ण बनाने की बेहद आवश्यकता है, जिसमें अधिगम और शिक्षण को संसाधित करते हुए बेहतर किया जा सकता है। जिसके फलस्वरुप हम शिक्षण को बेहद उपयोगी बना सकते हैं। जिसकी सहायता से छात्रों में सीखने की ललक तथा अध्यापकों में शिक्षण के कौशलों का विकास किया जा सकता है। इन सबके चलते संपूर्ण शिक्षण प्रणाली का विकसित होगी, जिसको हम आगे इस लेख के माध्यम से अधिगम और शिक्षण को और भी विस्तृत रूप से समझने वाले हैं।

अधिगम (Learning) का अर्थ 

सीखना या अधिगम एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है।

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इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।

सीखना एक निरन्तर चलने वाली सार्वभौमिक प्रक्रिया है। व्यक्ति जन्म से ही सीखना प्रारंभ कर देता है तथा मृत्युपर्यन्त कुछ न कुछ सीखता रहता है। परिस्थिति तथा आवश्यकता के अनुरूप सीखने की गति घटती-बढती रहती है। सीखने के लिए कोई स्थान विशेष निश्चित नहीं होता है। व्यक्ति कहीं भी, किसी भी समय, किसी से भी सीख सकता है। सीखने को अधिगम भी कहते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में सीखने तथा अधिगम को पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त किया गया है। सीखने का मानव जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति जो भी व्यवहार करता है अथवा नहीं करता है, उसका अधिकांश भाग सीखने से अथवा सीखने की प्रक्रिया से प्रभावित रहता है। वास्तव में सीखना मानव जीवन की कुंजी है।

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

अधिगम की प्रक्रिया अनेक कारकों से प्रभावित हो सकती है। अधिगम को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारकों का वर्णन आगे किया गया है –

(1) विद्यार्थी से सम्बन्धित कारक

  1. सीखने की इच्छा
  2. शैक्षिक योग्यता
  3. आकांक्षा का स्तर
  4. बुद्धि (Intelligence)
  5. संवेगात्मक स्थिति

(2) अध्यापक से सम्बन्धित कारक

  1. विषय का ज्ञान
  2. अध्यापक का व्यवहार
  3. शिक्षण विधि
  4. अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य एवं समायोजन स्तर
  5. सिखाने की इच्छा

(3) विषय-वस्तु से सम्बन्धित कारक

  1. विषय-वस्तु की प्रकृति
  2. जीवन से सम्बन्धित उदाहरण
  3. पूर्व अधिगम
  4. विभिन्न विषयों में कठिनाई स्तर

(4) वातावरण से सम्बन्धित कारक

  1. भौतिक वातावरण
  2. परिवारिक वातावरण
  3. सामाजिक एवं संवेगात्मक वातावरण
  4. उचित सामग्री और सुविधाएँ

(5) अनुदेशन से सम्बन्धित कारक

  1. अधिगम विधि
  2. अभ्यास (Practice)
  3. परिणाम का ज्ञान
  4. नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करना

विद्यार्थी से सम्बन्धित कारक (Factors related to Learner)

  1. सीखने की इच्छा (wish to Learn)

यदि बच्चे में सीखने की इच्छा है तो नया ज्ञान उसे सरल तरीके से सिखाया जा सकता है। बालक यदि सीखने के लिए तैयार नहीं है तो शिक्षक के सामने बहुत गम्भीर समस्या उत्पन्न हो जाती है। सीखने की इच्छा, रुचि तथा अभिप्रेरणा बहुत सीमा तक अधिगम को प्रभावित करते हैं।

  1. शैक्षिक योग्यता (Educational Achievement)

विद्यार्थी की शैक्षिक योग्यता का अधिगम पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यार्थी किसी विषय में पिछड़ा है तो उस विषय से सम्बन्धित नवीन ज्ञान सीखने में उसे कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। यदि विद्यार्थी की किसी विषय में शैक्षिक योग्यता सामान्य से अधिक है तो विद्यार्थी नया ज्ञान सुगमता से सीख लेता।

  1. आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiation) 

बालक की महत्वाकाक्षा पर अधिगम की सफलता काफी कुछ निर्भर करती है। जब तक विद्यार्थी में महत्वाकांक्षा नहीं होगी, वह सीखने के लिए प्रयत्नशील नहीं होगा।

  1. बुद्धि (Intelligence)

सीखना बहुत कुछ सीखने वाले की बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है। तीव्र बृद्धि वाले बालक कम बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा शीघ्र सीख लेते हैं।

  1. संवेगात्मक स्थिति (Emotional Condition) 

सीखने में संवेगात्मक स्थिति एक महत्वपूर्ण कारक है। संवेगात्मक रूप से स्वस्थ विद्यार्थी शीघ्रता से सीखता है।

अध्यापक से सम्बन्धित कारक (Factars related to Teacher)

  1. विषय का ज्ञान (Knowledge of the Subject)

अध्यापक का किसी विषय का ज्ञान, अनुभव तथा योग्यता आदि के सीखने पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं। यदि अध्यापकों को अपने विषय का ज्ञान नहीं है तो वे विद्यार्थी को सीखने के लिए उत्साहित नहीं कर सकेंगे।

  1. अध्यापक का व्यवहार (Behaviour of the Teacher)

अधिगम प्रक्रिया में अध्यापक का महत्वपूर्ण स्थान होता है। अध्यापक के आचार-विचार और व्यवहार को बालकों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है तथा वह उनका अनुकरण करने का भी प्रयास करता है।

  1. शिक्षण विधि (Method of Teaching)

शिक्षण विधि का सीधा सम्बन्ध अधिगस प्रक्रिया से है। सभी बालक एक-सी विधि से नहीं सीख सकते। शिक्षण की विधि जितनी अधिक प्रभावशाली तथा वैज्ञानिक होगी, उतनी ही सीखने के लिए लाभदायक सिद्ध होगी। करके सीखना, निरीक्षण द्वारा सीखना, प्रयोग द्वारा सीखना, खेल विधि आदि का अपना अलग-अलग महत्व है।

  1. अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य एवं समायोजन स्तर (Level of Adjustment and Mentel Health of the Teacher)

वे अध्यापक जो मानसिक रूप से अशान्त तथा अस्वस्थ रहते है। अथवा जो अपने आपको अध्यापक के रूप में समायोजित नहीं कर पाते, वे शिक्षण के क्षेत्र में सदैव ही अपना संतुलन खोये रहते हैं और उनसे जितना अहित बालकों का हो सकता है उसकी कोई सीमा नहीं। इसके विपरीत भली-भाँति समायोजित और मानसिक रूप से स्वस्थ अध्यापक, अध्यापन और विद्यार्थियों के लिए वरदान सिद्ध होते हैं।

  1. सिखाने की इच्छा (Will to Teach)

जिन अध्यापकों में सिखाने की इच्छा होती है वही सफलतापूर्वक बालकों को सिखा पाते हैं। इच्छा न रखने वाले व्यक्ति सिखाने के लिए विविध प्रयास नहीं करते। वे विद्याथियों में सीखने की रुचि और जिज्ञासा जाग्रत नहीं कर सकते।

विषय-वस्तु से सम्बन्धित कारक (Factors related to Subject-Matter)

  1. विषय-वस्तु की प्रकृति (Nature of Subject-Matter)

विषय वस्तु का स्वरूप भी अधिगम-प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। कठिन, उबाऊ एवं अरुचिकर विषय-वस्तु की अपेक्षा सरल एवं रोचक विषय-वस्तु जल्दी सीख ली जाती है।

  1. जीवन से सम्बन्धित उदाहरण (Examples Related to Life)

विषय-वस्तु में यदि उदाहरण ऐसे हैं जो बालक के जीवन से सम्बन्धित हैं, बालक उनसे भली-भांति परिचित हैं तो उन्हें याद करने में सरलता होती है और वे अधिक समय तक याद रहते हैं।

  1. पूर्व अधिगम (Previous Learning)

बालक किसी विषय-वस्तु को कितनी शीघता या कितनी अच्छी तरह से सीखता है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह पहले क्या सीख चुका है। नवीन अधिगम की प्रक्रिया शून्य से प्रारम्भ नहीं होती है वरन् बालक द्वारा पूर्व अर्जित ज्ञान से प्रारम्भ होती है।

  1. विभिन्न विषयों में कठिनाई स्तर (Difficulty level of Different Subject)

विभिन्न विषयों में कठिनाई स्तर भिन्न होता है। एक विषय में विद्यार्थी बहुत अच्छा सीखता है जबकि किसी अन्य विषय में उसके सीखने की गति बहुत धीमी हो सकती

वातावरण से सम्बन्धित कारक (Factor related to Environment)

  1. भौतिक वातावरण (Physical Environment)

अधिगम के लिए अनुकूल वातावरण का होना आवश्यक है। प्रतिकूल परिस्थितियों में सीखने की प्रक्रिया ठीक प्रकार से सम्पन्न नहीं हो सकती है। पढ़ने के लिए उचित भौतिक वातावरण, जैसे स्वच्छ वायु एवं प्रकाश, सफाई तथा बैठने आदि की व्यवस्था भी सीखने पर प्रभाव डालती है।

  1. परिवारिक वातावरण (Family Environment)

बालक के सीखने में उनके परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिन परिवारों में शांतिपूर्ण और सौहार्द का वातावरण होता है, बालक शीघ सीखने में सक्षम होते हैं। कलहपूर्ण वातावरण अधिगम में बाधक होता है।

  1. सामाजिक एवं संवेगात्मक वातावरण (The Socio-emotional Environment)

सीखने का समय जिस प्रकार का सामाजिक संवेगात्मक वातावरण शिक्षण-अधिगम कार्य को ठीक प्रकार से सम्पन्न करने के लिए कक्षा, विद्यालय तथा अन्य सीखने की परिस्थितियों में प्राप्त होता उतनी ही अच्छी तरह से अधिगम प्रक्रिया को संचालित किया जा सकेगा।

  1. उचित सामग्री और सुविधाएँ (Appropriate Learning Material and Facilities)

जब बालकों को उपयुक्त अध्ययन सामग्री और सुविधाएँ प्राप्त होती है तो आशाजनक सफलता प्राप्त होती है। इसके विपरीत दे विद्यार्थी, जिन्हें सीखने में सहायक आवश्यक साज-सज्जा, अधिक सामग्री और सुविधाएँ (पाठ्य-पुस्तक, लिखने-पढ़ने के अन्य सामग्री पुस्तकालय, प्रयोगशाला सम्बन्धी सुविधाएँ, गृहकार्य करने के लिए आवश्यक समय एवं सुविधाएँ आदि) नहीं प्राप्त होती, वे पिछड़ जाते हैं।

अनुदेशन से सम्बन्धित कारक (Factors related to Instruction)

  1. अधिगम विधि (Learning Method)

अध्यापक द्वारा अपनाई गई अधिगम विधि का प्रभाव विद्यार्थी के अधिगम पर पड़ता है। किसी प्रकरण को पढ़ाने की एक विधि से सभी बालक प्रभावित नहीं होते हैं यदि कोई अध्यापक अपने विषय को दबाव के साथ अवैज्ञानिक और अगनोवैज्ञानिक तरीके से बालक को पढ़ाता है तो बालक उसमें रुचि नहीं लेते हैं। मगर जो अध्यापक बालकों की रुचि, योग्यता और आवश्यकता के अनुरूप अधिगम विधि का चुनाव करते हैं, बालक उनकी कक्षा में उत्साहित रहते हैं।

  1. अभ्यास (Practice)

सीखने की क्रिया के ऊपर अभ्यास का काफी प्रभाव पड़ता है। किसी कार्य को बार-बार करने से कार्य की गति बढ़ती है तथा त्रुटियाँ कम हो जाती हैं। अभ्यास द्वारा सीख हुआ शान स्थायी होता है।

  1. परिणाम का ज्ञान (Knowledge of Achievement)

सीखने के दौरान यदि समय-समय पर सीखने की प्रगति का ज्ञान होता रहता है तो सीखने वाले में उत्साह बना रहता है। उसे अपनी त्रुटियों का ज्ञान होता रहता है जिससे वह उन्हें सुधार लेता है। अधिगम के परिणाम का ज्ञान पुनर्बलन का कार्य करता है।

  1. नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करना (Learning of the ney Learning)

नए ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित कर पढ़ाने पर बालक शीघ्रता से सीखता है।

अधिगम का स्थानांतरण (Transfer of Training)

प्रायः यह देखा जाता है कि प्राणी द्वारा किसी कार्य को सीख लेने के उपरांत उसके लिए उसी प्रकार के अन्य कार्यों को सीख लेना अथवा करना अत्यन्त सरल व सुविधाजनक हो जाता है। वास्तव में जब किसी नवीन कार्य को करने अथवा सीखने का प्रयास करता है तो उसके द्वारा उस कार्य को करने अथवा सीखने में उसके द्वारा पूर्व अर्जित ज्ञान अथवा अनुभवों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। वस्तुतः दूसरी परिस्थिति में कार्य को करने अथवा सीखते समय पूर्व अनुभवों या ज्ञान का कुछ-न-कुछ अन्तरण अवश्य होता है। एक विषय के सीखने का प्रभाव दूसरे विषय के सीखने पर पड़ता है।

एटकिंसन (Atkinson, 1998) के अनुसार

“सीखना स्थानान्तरण का तात्पर्य वर्तमान शिक्षण पर पूर्वशिक्षण के प्रभाव से है, यदि नए विषय को सीखने में यह सहायक हो तो धनात्मक स्थानान्तरण है, यदि नए विषय के सीखने में यह बाधक हो तो नकारात्मक स्थानान्तरण है।”

अधिगम के स्थानान्तरण के प्रकार (Types of Transfer)

स्थानान्तरण के तीन प्रकार हैं-

1- धनात्मक स्थानान्तरण (Positive Transfer)

जब पहले का सीखना वर्त्तमान के सीखने में सहायक होता है तो उसे धनात्मक स्थानान्तरण कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब एक परिस्थिति या विषय का सीखना दूसरी परिस्थिति या विषय के सोखने में सहायता करता है तो इसे धनात्मक स्थानान्तरण की संज्ञा दी जाती है। जैसे-हिन्दी सीखने के बाद बंगला सीखने में आसानी होती है।

2- ऋणात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer)

जब एक परिस्थिति या विषय का सीखना दूसरी परिस्थिति या विषय के सीखने में बाधक होता है तो इसे ऋणात्मक स्थानान्तरण कहते हैं। जैसे निरर्थक पदों की एक सूची को सीख लेने के बाद दूसरी सूची को याद करने में अधिक कठिनाई होती है। यहाँ पहली आदत दूसरी आदत के निर्माण में बाधक होती है।

  1. शून्य स्थानान्तरण (Zero Transfer)

जब एक विषय या परिस्थिति का सीखना दूसरे विषय या परिस्थिति के सीखने में न तो सहायक होता है और न बाधक तो इसे शून्य स्थानान्तरण कहते हैं। यहाँ पहले के शिक्षण का प्रभाव वर्तमान के शिक्षण पर किसी रूप में नहीं पड़ता है। जैसे गेंद उछालने या तैरना सीखने का प्रभाव अंग्रेजी या हिन्दी सीखने में न तो सहायक होता है और न ही बाधक।

विद्यार्थियों को स्कूल के अंदर और बाहर सीखने की जरूरत

स्कूल का उद्देश्य छात्रों को स्कूल से परे जीवन के लिए तैयार करना है। आज के समाज में आत्म-जागरूकता और अधिक विशिष्ट कौशल की अधिक मांग है। छात्रों को आगे बढ़ने में मदद करने का सबसे आसान तरीका कक्षा के बाहर सीखने के अनुभवों को शामिल करना है । कक्षा की पढ़ाई को बाहर ले जाने से किसी छात्र को स्कूल में सीखे जा रहे सिद्धांतों के वास्तविक जीवन में अनुप्रयोग दिखाकर उनके शैक्षिक अनुभव को समृद्ध करने में मदद मिल सकती है।

कक्षा के अंदर सीखना क्या है?

कक्षा में सीखना सीखने का एक पारंपरिक तरीका है जिसमें सीखने का माहौल कक्षा की भौतिक दीवारों के भीतर बनाया जाता है। जैसा कि नाम से पता चलता है, कक्षा में सीखने के लिए शिक्षक और छात्र दोनों को कक्षा के अंदर शारीरिक रूप से उपस्थित होना पड़ता है।

उदाहरण: जब से कोई छात्र शिक्षा में प्रवेश करता है, तब से लेकर संपूर्ण शैक्षिक प्रणाली कक्षा में सीखने की पद्धति पर आधारित होती है। नर्सरी, स्कूलों से लेकर वरिष्ठ स्कूलों, कॉलेज और विश्वविद्यालयों तक – इनमें से अधिकांश पारंपरिक शिक्षण स्थान पर आधारित हैं, जो कक्षा में है।

कक्षा के अंदर सीखने के लाभ

  1. निश्चित नियमों एवं सिद्धांतों का अनुपालन
  2. निर्देशन का अनुपालन
  3. निश्चित पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या
  4. बौद्धिक एवं तार्किक क्षमता का विकास
  5. विश्वसनीय पर आधारित

कक्षा के बाहर सीखना क्या है?

कक्षा के बाहर सीखना शिक्षण और सीखने के लिए स्कूल के अलावा अन्य स्थानों का उपयोग है। यह बच्चों और युवाओं को बाहर ले जाने, उन्हें सीखने में मदद करने के लिए चुनौतीपूर्ण, रोमांचक और अलग-अलग अनुभव प्रदान करने के बारे में है।

स्थान किसी स्थान, गतिविधि या कार्यशाला को संदर्भित कर सकते हैं, लेकिन इस पर ध्यान दिए बिना कि कक्षा के बाहर सीखना कहाँ होता है, उद्देश्य एक ही है। छात्रों को वास्तविक दुनिया का सीखने का अनुभव दें जो उन्हें स्कूल से परे जीवन में सफलता के लिए तैयार करेगा।

कक्षा के बाहर सीखने के अनुभव पारंपरिक शिक्षण विधियों के माध्यम से उत्पन्न होने वाले अनुभवों से भिन्न होते हैं क्योंकि छात्रों को अपने सीखने के माहौल में टीमवर्क, नेतृत्व और समझौता जैसे व्यापक कौशल को शामिल करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।

पारंपरिक शिक्षण छात्रों को शिक्षित करने के लिए दोहराव और याद रखने पर ध्यान केंद्रित करता है और नए ज्ञान को साझा करने और उन छात्रों को पढ़ाने के लिए फायदेमंद है जो सुनकर सबसे अच्छा सीखते हैं। हालाँकि, पारंपरिक शिक्षण छात्रों को आलोचनात्मक सोच, समस्या-समाधान और निर्णय लेने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता है, जो कक्षा के बाहर सीखने से हो सकता है। कक्षा के बाहर सीखने से न केवल चुनौतीपूर्ण अवधारणाओं की गहरी समझ पैदा हो सकती है, बल्कि यह कई क्षेत्रों में सीखने के लिए एक संदर्भ भी प्रदान कर सकता है।

स्कूल के बाहर सीखने के लाभ

  1. करके सीखना को प्रोत्साहन
  2. व्यावहारिकता का विकास
  3. सामाजिकता का विकास
  4. आवश्यकता की पूर्ति
  5. मानवीय मूल्यों का विकास

शिक्षण-अधिगम में शिक्षक की भूमिका

1- ज्ञानदाता के रूप में भूमिका

शिक्षक की भूमिका ज्ञानदाता के रूप में होती है। शिक्षक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया इस प्रकार से सिखाई जानी चाहिए कि छात्रों का शिक्षण हो। स्टॉक एक्सचेंज को छात्रों के किताबों की मदद से किताबों और किताबों की किताबों में भूमिका निभानी चाहिए। बच्चों में अंतरदृष्टि का विकास करने में अहम शिक्षक भूमिका निभाती है। सत्य ज्ञान वही होता है। जब छात्र ज्ञान का स्व-सृजन करते हैं।

2- सुविधा प्रदाता के रूप में भूमिका (Role as Familitator)

शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षण सम्बन्धी ऐसा घटिया माहौल बनाना होता है जिससे उन्हें शिक्षा में सुविधा हो। शिक्षक की भूमिका ज्ञान के स्रोत के साथ-साथ एक सुविधा प्रदाता की भी है। वह विविध मंचों से सूचना को ज्ञान एवं अवबोध में बदलने की प्रक्रिया में सहायक होता है। वह छात्रों की यथोचित मदद करता है।

3- मार्गदर्शक के रूप में भूमिका

शिक्षक-विद्यार्थियों द्वारा विभिन्न प्रकार से मार्गदर्शन किया जाता है। वह अपने वास्तविक गुणों के आधार पर छात्रों को कैरियर आदि संबंधित दिशानिर्देश देता है। वह छात्रों की सहायता, साहस, क्षमता, शैक्षणिक योग्यता, वैज्ञानिक आदि को परखता और मार्गदर्शन देता है।

शिक्षक ज्ञान के प्रसारक, सूचना एवं ज्ञान सृजन को आसान बनाने वाले के रूप में कार्य करता है। वह मुक्त वातावरण में शिक्षण अधिगम का विकास करती है। वह छात्रों के विकास में जाति, धर्म, क्षेत्र, समुदाय व वर्ग में भेदभाव के बिना छात्रों को ज्ञान और मार्गदर्शन देता है वह छात्रों को इस प्रकार तैयार करता है जिससे उन्हें ज्ञान के विभिन्न स्रोतों में समन्वय मिलता है।

4- बालकों में संवेगात्मक विकास करना (To Develop Emotion of the Learner)

अध्यापक शिक्षा प्रक्रिया के द्वारा छात्रों में संवेगात्मक विकास करता है। यह विकास शिक्षक की सहानुभूति, प्रेम, उचित कार्य, वैयक्तिक सम्पर्क तथा उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा सुगमता से सम्पन्न होता है।

5- शिक्षक एक सूचनादाता के रूप में (Teacher as Source Information)

अध्यापक शिक्षण के माध्यम से छात्रों को ज्ञान की नवीन सूचना प्रदान करता है। वह उन्हें विभिन्न प्रकार के विचार एवं वस्तुओं से अवगत कराता है जो अध्यापक विषय प्रस्तुतीकरण की विधि जानते हैं, उन्हें इस क्षेत्र में पर्याप्त सफलता मिलती है।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं दक्षतापूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक छात्रों के ज्ञान वृद्धि में सहायक हो। शिक्षण अधिगम में शिक्षक की निम्नलिखित भूमिकाएं होती है-

  1. वह सूचना देने वाला होना चाहिए।
  2. वह साधन उपलब्ध कराने वाला होना चाहिए।
  3. वह शिल्पकार तथा कलाकार के रूप में कार्य करे।
  4. शिक्षक प्रबन्धक के रूप में कार्य करने वाला हो।
  5. वह मार्गदर्शक के रूप में कार्य करे।
  6. शिक्षक दार्शनिक तथा मित्र के रूप में कार्य करे।
  7. वह समुदाय के लिए ज्ञान के प्रमुख साधन के रूप में कार्य करे।
  8. शिक्षक छात्रों के आत्मसम्मान के रक्षक के रूप में कार्य करने वाला हो।
  9. शिक्षक छात्रों के विश्वासपात्र के रूप में कार्य करने वाला हो।
  10. वह परामर्शदाता तथा नवाचारकर्त्ता के रूप में कार्य करने वाला हो।
  11. वह अभिभावक के रूप में कार्य करे।
  12. वह नैतिक मूल्यों के पालनहार के रूप में कार्य करने वाला हो।

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (Cognitive Development Theory of Piaget)

जीन पियाजे (1896-1980) ने मनोविज्ञान की किसी अवधारणा को नहीं दिया और न किसी अध्ययन के उपक्रम को संपन्न किया फिर भी बच्चों के मनोवैज्ञानिक अन्वेषण करने वाले विद्वानों में उनका नाम अग्रणी है। वे स्विट्जरलैंड के एक जीव विज्ञानी थे। 22 वर्ष की आयु में उन्होंने Mullusks of Vlios पर जंतुविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। सन् 1920 में वे पेरिस की विनेट टैस्टिंग लेबोरेट्री के साथ जुड़े। बच्चों के साथ प्रेक्षण, विच्छेदन तथा प्रयोग करते हुए उन्होंने ज्ञानात्मक विकास या बाल बोध ग्रहण के सम्बन्ध में अपने शैक्षणिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया पियाजे (Piaget) ने कला विकास का अपना अध्ययन अपनी ही तीन संतानों का प्रेक्षण करते हुए आरम्भ किया। इस शुरुआत के क्रम में उन्होंने आगे अन्य बच्चों का अन्वेषण भी किया।

पियाजे के अनुसार, किशोरावस्था से बालकों का संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) एक नया रुख अपनाता है। पियाजे ने यह बताया कि किशोरावस्था से ही संज्ञानात्मक विकास की एक विशेष अवस्था प्रारम्भ होती है जिसे औपचारिक परिचालन की अवस्था कहा जाता है। बालक इस अवस्था में किसी समस्या का समाधान करने में उस समस्या के सभी पहलुओं की परख करता है, सभी संभावित समाधानों को मन में एकत्र करता है तथा किसी वस्तु के सभी तरह के गुणों के बीच संबंधों की जाँच भी करता है। किसी समस्या के समाधान में बालक क्रमबद्ध निगमनात्मक चिन्तन करता है जो स्पष्टतः इस प्रकार का वैज्ञानिक चिन्तन है क्योंकि इसमें समस्या के सभी संभावित समाधान होते हैं और बालक तार्किक रूप से सभी अनुपयुक्त समाधानों को छाँटते हुए एक अन्तिम वैज्ञानिक निष्कर्ष पर पहुँचता है। किशोरों में औपचारिक परिचालन का गुण बहुत हद तक उनके शैक्षिक स्तर द्वारा प्रभावित होता है। उनके द्वारा किए गए मनोवैज्ञानिक प्रत्ययों के क्रमिक विकास को संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त कहा जाता है।

पियाजे के संज्ञानात्मक  विकास की अवस्थाएँ

पियाजे ने पर्यावरण के साथ मानव ज्ञानात्मक विकास की शुरुआत को अंतर्क्रिया करने के जीवविज्ञानी अंतर्निहित तरीकों से खोजा है। उन्होंने बच्चे के ज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं को निम्नलिखित 4 श्रेणियों में बाँटा है-

(1) संवेदी गामक अवस्था (Sensory Motor Period)

(2) प्राक् संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Period)

(3) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational Period)

(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational Period)

(1) संवेदी गामक अवस्था (Sensory Motor Period)

यह जन्म से 2 वर्ष तक की अवस्था हैं। इसमें बालक अपनी इन्द्रियों द्वारा प्राथमिक अनुभव प्राप्त करते हैं। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक का संज्ञानात्मक विकास निम्नलिखित 6 अवस्थाओं में होता है-

(i) सहज क्रियाओं की अवस्था 

यह अवस्था जन्म से 3 दिन तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक केवल सहज क्रियायें करते हैं। इन क्रियाओं में बालक किसी भी वस्तु को मुँह में लेकर चूसने की क्रिया सबसे अधिक करते हैं।

(ii) प्राथमिक वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था 

यह अवस्था 1 माह से 4 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालकों की सहज क्रियायें कुछ सीमा तक उनकी अनुभूतियों द्वारा परिवर्तित होती हैं, दोहरायी जाती हैं और एक-दूसरे के साथ समान्वित होती हैं। इन अनुक्रियाओं को प्राथमिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये बालकों के शरीर की प्रमुख अनुक्रियायें होती हैं और इनको वृत्तीय इस लिए कहा जाता है क्योंकि बालक इनको बार-बार दोहराते हैं।

(iii) गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था

यह अवस्था 4 माह से 6 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं को स्पर्श करने और उनको इधर-उधर करने की अनुक्रियायें करते हैं। वे कुछ ऐसी अनुक्रियायें भी करते हैं, जिनसे उनको सुख मिलता है।

(iv) गौण स्कीमेटा के समन्वय की अवस्था 

यह अवस्था 8 माह से 11 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक लक्ष्य और उसको प्राप्त करने के साधन में अन्तर करने लगते हैं और अपने से बड़ों की क्रियाओं का अनुकरण करने लगते । इस अवस्था में बालक जो स्कीमा सीखते हैं, उनका सामान्यीकरण करने लगते हैं।

(v) क्षेत्रवृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था

यह अवस्था 11 माह से 18 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखकर जानते हैं।

(vi) मानवीय संयोग द्वारा नए साधनों के खोज की अवस्था

यह अवस्था 18 माह से 24 माह तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक देखी गयी वस्तु की अनुपस्थिति में भी उसके अस्तित्व को समझने लगते

(2) प्राक् संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Period)

यह 2 वर्ष से 7 वर्ष तक की अवस्था है। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक का संज्ञानात्मक विकास निम्नलिखित 2 अवस्थाओं में होता है-

(i) पूर्व कार्यात्मक संक्रियात्मक अवस्था 

यह अवस्था 2 वर्ष से 4 वर्ष तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक अपने आसपास की वस्तुओं और प्राणियों में वस्तुओं और शब्दों में सम्बन्ध स्थापित करने लगते हैं। वे यह सब प्रायः अनुकरण और खेल के द्वारा सीखते हैं।

(ii) अन्तर्दर्शी कार्यात्मक संक्रियात्मक अवस्था 

यह अवस्था 4 वर्ष से 7 वर्ष तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक भाषा सीखने लगते हैं और चिन्तन तथा तर्क करने लगते हैं, लेकिन उनके चिन्तन एवं तर्क में कोई क्रमबद्धता नहीं होती। इस अवस्था में बालक भाषा की दृष्टि से सीखी हुई बातों को अपने ही ढंग से अभिव्यक्त करना सीख लेते हैं। इसी अवस्था में उनके मस्तिष्क में वस्तुओं के बिम्ब भी बनने लगते हैं अर्थात् उनकी कल्पना-शक्ति काम करने लगती है।

(3) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational Period)

यह 7 वर्ष से 11 वर्ष तक की अवस्था है। यह अवस्था मूर्त क्रियाओं के ज्ञान की अवस्था है। बालक इन्हें तथा इनसे सम्बन्धित तथ्यों को समझने लगते हैं। इस अवस्था में बालक यह भी समझने लगते हैं कि वस्तु का आकार या रूप भले ही बदल जाए परन्तु उसके भार आदि में कोई कमी नहीं आती। इसी प्रकार वस्तु के आयतन, संख्या, राशि, वजन, मात्रा आदि में भी कोई परिवर्तन नहीं आता।

इस अवस्था में बालक अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी होते । उनमें तर्क एवं समस्या समाधान की क्षमता का विकास होने लगता है। वे मूर्त समस्याओं का समाधान तो तलाशने लगते हैं लेकिन अमूर्त समस्याओं के विषय में नहीं सोच पाते।

(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational Period)

यह 11 वर्ष से वयस्क होने तक की अवस्था है। इस अवस्था में बालकों के चिन्तन में क्रमबद्धता आनी शुरू हो जाती है। वे तर्कपूर्ण क्रियाकलाप करने लगते हैं। वे भावात्मक और अमूर्त स्तर पर चिन्तन, बौद्धिक क्रियायें तथा समस्या समाधान करने लगते हैं। अब वे किसी भी तार्किक विवाद की वैधता को उसके प्रत्पक्ष विषयगत सन्दर्भ से हटकर भी औपचारिक स्तर पर प्रमाणित कर सकने की क्षमता रखते हैं। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालक प्रतीकात्मक शब्दों, रूपकों एवं उपमानों का अर्थ भी समझने लगते हैं और अमूर्त प्रत्ययों के निर्माण में ऊँची-ऊँची उड़ान भरने लगते हैं।

रचनावाद क्या है?

रचनावाद दो शब्दों से मिलकर बना है रचना + वाद, रचना का अर्थ है निर्माण वाद का अर्थ है विचार, यानी कि इसका शाब्दिक अर्थ है विचारों का निर्माण करना। यह सीखने का प्राकृतिक या स्वाभाविक सिद्धांत है। इसमें अलग-अलग स्रोत से जानकारी एकत्रित करके स्वयं से विचारों का निर्माण किया जाता है जो व्यक्तियों के आचार विचार से झलकता है। रचनावाद में विद्यार्थियों में ज्ञान का निर्माण वातावरण से अंत क्रिया करके अपने अनुभवों से किया जाता है। रचनावाद में शिक्षक की भूमिका सुविधा प्रदाता के रूप में होती है, जिसमें क्षमताओं के विकास के लिए अवसर उपलब्ध करना और व्यापक मूल्यांकन शामिल है।

रचनावाद का मूल शब्द “निर्माण” है। मूल रूप से, रचनावाद का सिद्धांत यह है कि ज्ञान का निर्माण किसी व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए, न कि केवल किसी व्यक्ति द्वारा प्रसारित किया जाना चाहिए। लोग नई जानकारी लेकर आए और उसे अपने पहले से मौजूद ज्ञान के साथ मिलकर ज्ञान का निर्माण किया। रचनावाद के अध्ययन को सीखने का प्रयास करने में समय लगता है।

अधिगम की प्रक्रिया में रचनावाद का महत्व

1- छात्र केंद्रित अधिगम

रचनावाद वास्तव में छात्र केंद्रित अधिगम है जिसमें छात्र को प्राथमिकता दी जाती है की किस तरह से छात्र सामाजिक अंतः क्रिया के द्वारा संज्ञानात्मक विकास कर सके।

2- Creativity का विकास

विद्यार्थियों में रचनावाद के माध्यम से वास्तव में रचनात्मक का विकास होता है जिससे अनेक प्रकार की क्रिएटिविटी देखी जा सकती है। क्योंकि रचनावाद में विद्यार्थियों को उसे हद तक अपनी क्रिएटिविटी को विकसित करने के लिए वह अवसर मिलता है।

3- व्यवहारिक दृष्टिकोण का विकास

रचनावाद के द्वारा विद्यार्थियों में व्यवहारिकता का विकास होता है जिसमें की व्यक्ति समाज से एकत्र की गई जानकारी को व्यवहारिक संदर्भ में उसे समायोजित करता है।

4- अनुभव के माध्यम से सीखना

जब भी हमें कोई नया अनुभव मिलता है, तो हम उसे अपने दिमाग में संसाधित करते हैं। हम उस अनुभव का उपयोग अपनी दुनिया को समझने के लिए करेंगे।

5- संज्ञानात्मक असंतुलन

जब हम किसी नए अनुभव से परिचित होते हैं, तो यह हमारे पूर्व ज्ञान के विपरीत हो सकता है। एक शिक्षार्थी भ्रमित हो जाएगा और समझ नहीं पाएगा कि वह क्या देख सकता है। इस बिंदु पर, एक शिक्षार्थी संज्ञानात्मक असंतुलन की स्थिति में है। हम हमेशा संज्ञानात्मक संतुलन की स्थिति में रहना चाहते हैं जहां सब कुछ समझ में आता है।

Elements of constructivism (रचनात्मकवाद के तत्व)

1- पूर्व ज्ञान को क्रियाशील करना Activating prior knowledge

2- नए ज्ञान को प्राप्त करना Acquiring new knowledge

3- नए ज्ञान को समझना Understanding new knowledge:

4- नए ज्ञान को प्रयोग करना Using new knowledge

5- नए ज्ञान का प्रतिक्षेपण करना Reflecting new knowledge

Main features of constructivism (रचनावाद की मुख्य विशेषताएं या लाभ)

1- रचनात्मक उपागम में विद्यार्थी समूह में कार्य करते हैं और विद्यार्थी स्वयं ज्ञान का सृजन करता है।

2- रचनात्मक उपागम में कक्षा का वातावरण प्रजातांत्रिक होता है।

3- इस उपागम में अधिक से अधिक शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग किया जाता है।

4- अध्यापक अधिगम प्रक्रिया में सहायता करता है जिससे विद्यार्थी एक उत्तरदायी सदस्य के रूप में कार्य करने के लिए उत्साहित रहते हैं ।

5- रचनात्मक उपागम शिक्षण पर नहीं अपितु अधिगम पर केंद्रित है।

6- इस उपागम में विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

प्रेरणा का अर्थ

अंग्रेजी के ‘मोटीवेशन’ (Motivation) शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा की ‘मोटम’ (Motum) धातु से हुई है, जिसका अर्थ है, मूव मोटर (Move Motor) और मोशन (Motion)। मनोवैज्ञानिक अर्थ में प्रेरणा से हमारा अभिप्राय केवल आन्तरिक उत्तेजनाओं से होता है, जिन पर हमारा व्यवहार आधारित होता है। इन अर्थ में बाह्य उत्तेजनाओं को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, प्रेरणा एक आन्तरिक शक्ति है, जो व्यक्ति का कार्य करने के लिये प्रेरित कर सकती है। यह एक अदृश्य शक्ति है, जिसको देखा नहीं जा सकता है। इस पर आधारित व्यवहार को देखकर केवल इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

प्रेरणा के प्रकार

प्रेरणा दो प्रकार की होती है-

(1) आन्तरिक प्रेरणा

(2) बाह्य प्रेरणा।

1- आन्तरिक प्रेरणा (Intrinsic Motivation)

इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से करता है। इस कार्य को करने से उसे सुख और सन्तोष प्राप्त होता है। शिक्षक विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन और स्थितियों का निर्माण करके बालक को सकारात्मक प्रेरणा प्रदान करता है। इस प्रेरणा को आन्तरिक प्रेरणा (Intrinsic Motivation) कहते है।

2- बाह्य प्रेरणा (Extrinsic Motivation)

इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से न करके, किसी दूसरे की इच्छा या बाह्य प्रभाव के कारण करता है। इस कार्य को करने से उसे किसी वांछनीय या निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति होती है। शिक्षक-प्रशंसा, निन्दा पुरस्कार प्रतिद्वन्द्विता आदि का प्रयोग करके बालक को प्रेरणा प्रदान करता है। इस प्रेरणा को बाह्य प्रेरणा (Extrinsic Motivation) कहते हैं।

प्रेरणा के स्रोत

प्रेरणा के चार प्रमुख स्रोत हैं:

(1) आवश्यकताएँ

(2) Drives चालक

(3) प्रोत्साहन

(4) उद्देश्य।

(1) आवश्यकताएँ

प्रत्येक व्यक्ति, जिसका इस संसार में अस्तित्व है, को अपनी आवश्यकताओं या चाहतों की संतुष्टि के लिए प्रयास करना पड़ता है। बोरिंग, लैंगफेल्ड और वेल्ड के शब्दों में, “आवश्यकता जीव के भीतर एक तनाव है जो कुछ प्रोत्साहनों या लक्ष्यों के संबंध में जीव के क्षेत्र को व्यवस्थित करती है और उनकी प्राप्ति के लिए निर्देशित गतिविधि को उत्तेजित करती है।”

आवश्यकताएँ अपेक्षाकृत स्थायी प्रवृत्तियाँ हैं जो कुछ विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपनी संतुष्टि चाहती हैं। जब ये लक्ष्य प्राप्त हो जाते हैं, तो कुछ समय के लिए इसकी आवश्यकता नहीं रह जाती है। आवश्यकता, चाहत से इस अर्थ में भिन्न है कि मुझे एक कार चाहिए। यह चाह या चाहत हो सकती है लेकिन मूलतः आवश्यकता नहीं। लेकिन जरूरत तो हमेशा ही चाहिए होती है.

(2) चालक Drives 

प्राणी की आवश्यकताएँ उनसे सम्बन्धित चालकों को जन्म देती है। उदाहरणार्थ, भोजन प्राणी की आवश्यकता है। यह आवश्यकता उसमें भूख चालक (Hunger-Drive) को जन्म देती है। इसी प्रकार पानी की आवश्यकता प्यास- चालक की उत्पत्ति का कारण होती है। चालक, प्राणी को एक निश्चित प्रकार की क्रिया या व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है, उदाहरणार्थ, भूख चालक उसे भोजन करने के लिए प्रेरित करता है।

(3) प्रोत्साहन

वे पर्यावरणीय वस्तुएँ जो किसी जीवित प्राणी की अभिलाषाओं को संतुष्ट करती हैं, प्रोत्साहन कहलाती हैं। उदाहरण के लिए, भूख की प्रेरणा भोजन से संतुष्ट होती है, इसलिए भोजन को प्रोत्साहन कहा जाता है। लेकिन आवश्यकताएं और आंतरिक आवश्यकताओं को संचालित करती हैं जबकि प्रोत्साहन एक ऐसी चीज या अस्तित्व है जो पर्यावरण में पाया जाता है। प्रोत्साहन उत्तेजित करते हैं, उत्तेजित करते हैं और कार्रवाई की ओर बढ़ते हैं जब वे कुछ उत्तेजनाओं से जुड़े होते हैं जो उनकी उपस्थिति का संकेत देते हैं

(4) उद्देश्य

उद्देश्य कई प्रकार के रूप लेते हैं और कई अलग-अलग शब्दों से निर्दिष्ट होते हैं जैसे आवश्यकताएं, इच्छाएं, तनाव, सेट, प्रवृत्तियों का निर्धारण, दृष्टिकोण, रुचियां, लगातार उत्तेजनाएं इत्यादि। कुछ मनोवैज्ञानिक उद्देश्यों को जन्मजात या अर्जित ऊर्जा कहते हैं, और कुछ मनोवैज्ञानिक उन्हें शारीरिक या मनोवैज्ञानिक स्थिति कहते हैं।

प्रेरणा की आवश्यकता

किसी संगठन में, यदि कर्मचारियों को प्रेरित किया जाता है, तो वे संगठनात्मक लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रति अधिक प्रतिबद्धता दिखाएंगे।

1- मानव संसाधन का उत्पादक उपयोग

2- कम अनुपस्थिति और टर्नओवर

3- अच्छी कॉर्पोरेट छवि

4- मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास

5- लक्ष्यों की प्राप्ति

1- मानव संसाधन का उत्पादक उपयोग

मानव संसाधन किसी संगठन की मूल्यवान संपत्ति है। कर्मचारियों के खराब प्रदर्शन का संगठन के प्रदर्शन पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। यदि कर्मचारियों को प्रेरित किया जाता है, तो वे कार्य करने के लिए अपने कौशल और दक्षताओं का कुशल उपयोग करेंगे, जिससे समग्र संगठनात्मक दक्षता में वृद्धि होगी।

2- कम अनुपस्थिति और टर्नओवर

प्रेरित कर्मचारियों के अनुपस्थित होने या अन्य संगठनों में जाने की संभावना कम होती है। अनुपस्थिति और नौकरी छोड़ने की उच्च दर किसी संगठन के लिए वित्तीय नुकसान ला सकती है, जो उसके प्रदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। प्रेरित कर्मचारी अपना काम अधिक जोश और उत्साह से करते हैं, बार-बार छुट्टी नहीं लेते हैं और संगठन में स्थिरता दिखाते हैं। इसके अलावा, प्रेरित कर्मचारी संगठन के प्रति वफादार होते हैं।

3- अच्छी कॉर्पोरेट छवि

कर्मचारी किसी संगठन की कॉर्पोरेट छवि को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि कर्मचारियों को कुशलतापूर्वक काम करने के लिए प्रेरित किया जाता है, तो वे ग्राहकों की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में भी काम करेंगे। इससे बाजार में संगठन की अच्छी छवि बनती है।

4- मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास

प्रेरित कर्मचारी आमतौर पर दूसरों के साथ अपने विचार व्यक्त करने के लिए खुले रहते हैं। यह संचार अंतराल को पाटता है और कर्मचारियों के बीच विवादों को हल करता है; जिससे कर्मचारियों के बीच तथा प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध विकसित होंगे।

5- लक्ष्यों की प्राप्ति

प्रेरणा एक लक्ष्य-निर्देशित व्यवहार को संचालित करती है जो कर्मचारियों को अपने प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करती है

शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में प्रेणा की भूमिका

(1) अभिप्रेरणाएँ व्यवहार को प्रत्यक्ष करती हैं 

अर्थात् वे व्यक्ति के व्यवहार को एक प्रकार की दिशा देते हैं जिससे उसे सन्तोषजनक अनुभूति प्राप्त होती है। शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को अच्छी तरह से परिभाषित और प्राप्य लक्ष्यों पर अपनी ऊर्जा लगाने के लिए सक्रिय और प्रेरित बनाना चाहिए।

(2) उद्देश्य व्यवहार को ऊर्जावान बनाते हैं 

अर्थात वे शिक्षार्थी को उसकी सीखने की गतिविधियों में ऊर्जा प्रदान करते हैं। पुरस्कार आगे सफलता के लिए प्रेरित करता है और विफलता के लिए सज़ा उपलब्धि के लिए कार्रवाई के लिए प्रेरित करती है। इसलिए पुरस्कार और दंड आदि जैसे उद्देश्य सीखने की प्रक्रिया में बहुत सहायक होते हैं।

(3) उद्देश्यों का चयन करते

अर्थात सीखने के केवल उन्हीं कार्यों का चयन करते हैं जो हमारे उद्देश्यों द्वारा समर्थित होते हैं। वे शिक्षार्थी को कुछ स्थितियों पर प्रतिक्रिया करने के लिए प्रेरित करते हैं और अन्य को नजरअंदाज कर देते हैं अर्थात, वे शिक्षार्थी को सही प्रतिक्रिया प्राप्त करने और गलत प्रतिक्रिया को खत्म करने में मदद करते हैं।

(4) ध्यान खींचने में सहायक

प्रेरणा ध्यान खींचने में मदद करती है। शिक्षक छात्रों को प्रेरित करके उनका ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करने में मदद कर सकते हैं।

(5) रुचि विकसित करने में सहायक

प्रेरणा विद्यार्थियों में रुचि पैदा करने की एक कला है। अतः शिक्षक विद्यार्थियों को प्रेरित करके उनमें कार्य के प्रति रुचि जगा सकता है।

(6) ज्ञान अर्जन

प्रेरणा शीघ्र ज्ञान अर्जन में सहायता करती है। इसलिए शिक्षक शिक्षण के सर्वोत्तम तरीकों का उपयोग करके छात्रों को अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है।

(7) चरित्र निर्माण में सहायक

शिक्षक विद्यार्थियों को श्रेष्ठ मूल्यों एवं आदर्शों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। इस प्रकार, वह उनके चरित्र निर्माण में सहायता कर सकता है।

(8) सामाजिक गुणों का विकास

प्रेरणा सामाजिक गुणों के विकास में सहायता करती है। शिक्षक छात्रों को समूह गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करके सामुदायिक भावना और सामाजिक गुणों को विकसित करने के लिए प्रेरित कर सकता है।

(9) अनुशासन की भावना का विकास

शिक्षक छात्रों को वांछनीय गतिविधियों के लिए प्रेरित कर सकता है। वह विद्यार्थियों में अनुशासन की भावना विकसित करके अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान कर सकता है।

(10) व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार प्रगति

शिक्षक उचित प्रेरणा का उपयोग करके विद्यार्थियों को व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार कार्य करने में सहायता कर सकता है। इस प्रकार, वह विद्यार्थियों को व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुरूप प्रगति करने के अवसर प्रदान कर सकता है।

(11) व्यक्तित्व की आधारशिला

प्रेरणा व्यक्तित्व के शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक, सामाजिक, शैक्षणिक, व्यावसायिक आदि विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसे व्यक्तित्व की आधारशिला माना गया है। शिक्षक को विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के सर्वोत्तम विकास में सहायता करने के उद्देश्य से समय-समय पर उन्हें प्रेरित करना चाहिए।

शिक्षण का अर्थ (Meaning of Teaching)

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है। शिक्षण शब्द अंग्रेजी भाषा के Teaching शब्द से मिलकर बना है, जिसका तात्पर्य है- सीखाना। शिक्षण एक त्रियामी प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और छात्र, पाठ्यक्रम के माध्यम से अपने स्वरूप को प्राप्त करते हैं। अर्थात किसी विषय वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अंतःप्रक्रिया को ही हम शिक्षण कहते हैं।

शिक्षण का संकुचित अर्थ (Narrower Meaning of Teaching)

शिक्षण के संकुचित अर्थ का संबंध स्कूली शिक्षा से है जिसमें अध्यापक द्वारा एक बालक को निश्चित स्थान पर एक विशिष्ट वातावरण मे निश्चित अध्यापको द्वारा उसके व्यवहार में पाठ्यक्रम के अनुसार परिवर्तन किया जाता है। इसमें शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को कक्षा में कुछ ज्ञान या परामर्श दिया जाता है।

शिक्षण का व्यापक अर्थ (Wider meaning of Teaching)

शिक्षण के व्यापक अर्थ में वह सब शामिल कर लिया जाता है जो व्यक्ति अपने पूरे जीवन मे सीखता है। अर्थात शिक्षण का व्यापक अर्थ वह है, जिसमें व्यक्ति औपचारिक, अनौपचारिक एवं निरौपचारिक साधनो के द्वारा सीखता है। इसमें शिक्षार्थी जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी समस्त शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास करता रहता है।

शिक्षण की प्रकृति (Nature of Teaching)

निम्नलिखत कथनों के रूप में शिक्षण की प्रकृति की व्याख्या की जा सकती है-

(1). शिक्षण एक अन्तः प्रक्रिया है

यह शिक्षक तथा छात्रों के मध्य विशेष कार्य के लिए संचालित होती है। इसमें शिक्षण की वह प्रक्रिया कक्षा-कक्ष में चलती है जिसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों निहित रहते हैं। यदि शिक्षक कोरा व्याख्यान देता रहे और शिक्षार्थी निष्क्रिय श्रोता चना रहे तो अन्तः क्रिया सम्भव नहीं होगी।

(2). शिक्षण कला तथा विज्ञान दोनों ही है

शिक्षण की प्रकृति कलात्मक तथा वैज्ञानिक दोनों ही है। शिक्षण नियोजन तथा मूल्यांकन क्रियाओं की प्रकृति वैज्ञानिक अधिक है जबकि शिक्षण का प्रक्रिया पक्ष कलात्मक है जिसमे शिक्षक अपने कौशल का प्रयोग करता है। शिक्षण का प्रस्तुतीकरण वाला पक्ष कला है जिसमें शिक्षक द्वारा उपयुक्त शिक्षण कौशलों का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि विषय-वस्तु का शिक्षार्थियों को अच्छी प्रकार बोध हो जाये तथा अन्य शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाये। शिक्षण नीरस न बन जाये, इसके लिए मनोरंजन का पुट भी दिया जाता है।

(3). शिक्षण एक विकासात्मक प्रक्रिया है

शिक्षण प्रक्रिया के द्वारा बालकों का विकास किया जाता है और उनसे व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जाता है। ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों का विकास किया जाता है।

(4). शिक्षण एक सतत प्रक्रिया है

शिक्षण निरन्तर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की सम्प्राप्ति तक चलती ही रहती है। इसके तीन पक्ष हैं— क्रिया, शिक्षण एवं मूल्यांकन।

(5) शिक्षण एक निर्देशन की प्रक्रिया है

शिक्षण में छात्रों की योग्यताओं के अनुसार उनके विकास का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार लक्ष्य निर्देशन का होता है।

(6). शिक्षण एक त्रिघुवीय प्रक्रिया है

अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षण को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया कहा है। ब्लूम के अनुसार, शिक्षण के तीन पक्ष- (i) शिक्षण उद्देश्य, (ii) सीखने के अनुभव तथा (iii) व्यवहार परिवर्तन हैं।

(7). शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है

शिक्षण की क्रियाएँ किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये की जाती है। उनके लिये उसी प्रकार नियोजित प्रक्रिया का स्वरूप अपनाती है।

(8). शिक्षण एक सामाजिक तथा व्यावसायिक प्रक्रिया है

शिक्षण की प्रक्रिया शिक्षण तथा छात्रों के समूह में ही सम्पादित की जाती है। कम-से-कम एक शिक्षक और एक छात्र होना नितान्त आवश्यक होता है। शिक्षण एक व्यावसायिक क्रिया है जिसे व्यक्ति अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाते है जिन्हें शिक्षक कहते हैं।

(9). शिक्षण का मापन किया जाता है

शिक्षण का मापन शिक्षक के व्यवहार के रूप में किया जाता है। निरीक्षण विधियों द्वारा शिक्षक व्यवहारों का मापन और व्यवहार के स्वरूप का विश्लेषण भी किया जाता है।

(10). शिक्षण एक विज्ञान है

शिक्षण का प्रस्तुतीकरण का कौशल पक्ष कला है, परन्तु इनकी क्रियाओं का तार्किक निरीक्षण एवं मूल्यांकन भी किया जा सकता है। यह इसको वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।

(11). शिक्षण एक औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रक्रिया है

शिक्षा प्रक्रिया विद्यालय में निश्चित कार्यक्रम के अनुसार सम्पादित की जाती है और विद्यालय के बाहर भी संचालित की जाती है।

शिक्षण अवस्थाएँ या चरण (Phases or Stages of Teaching)

एक शिक्षक को अपने शिक्षण उत्तरदायित्व को निभाने हेतु विभिन्न प्रकार की शिक्षण गतिविधियाँ अपने विद्यार्थियों के साथ मिलकर सम्पन्न करनी होती हैं और इसके लिए विधिवत् नियोजन तथा कार्यान्वयन सम्बन्धी उचित प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। यह सब करने के लिए उसे अपने शिक्षण कार्य को कुछ निश्चित सोपानों या अवस्थाओं में व्यवस्थित करके आगे बढ़ना होता है।

इन्हीं सोपानों या अवस्थाओं को शिक्षण अवस्थाओं या शिक्षण चरणों (Phases of Teaching) की संज्ञा दी जाती है।

जैक्सन के अनुसार, शिक्षण प्रक्रिया को वैज्ञानिक ढंग से निम्नांकित तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है।

  1. पूर्व-क्रिया अवस्था (Pre-active Stage)

शिक्षण से संबंधित अनेक क्रियाकलाप ऐसे होते हैं जिन्हें कक्षा-शिक्षण के पूर्व शिक्षक को करना पड़ता है। इन क्रियाकलापों में शिक्षक अपनी योग्यता और अनुभव के अनुसार कक्षा शिक्षण के उद्देश्य निर्धारित करता है। उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किस पाठ्य-वस्तु को किस क्रम से प्रस्तुत किया जाए, इसकी योजना बनाता है। इस योजना के अनुसार शिक्षण की युक्तियों का चयन करते हुए शिक्षण की विशिष्ट व्यूहरचना करता है। ये सभी क्रियाएँ पाठ को सफल बनाने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस सोपान पर ही शिक्षक के अन्य सोपानों की सफलता आधारित है।

शिक्षक पाठ की तैयारी स्वयं करता है तथा विषय- विशेषज्ञ व्यक्ति की सहायता ली जा सकती है। पाठ्य- पुस्तक एवं सहायक/सन्दर्भ पाठ तैयार हेतु आधार बन सकती हैं। इस सोपान में शिक्षण के लिए योजना तैयार करना महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह लिखित या मौखिक (मानसिक रूप से अध्ययन हेतु तैयार होना) रूप से हो सकती है। इसमें शिक्षक कक्षा प्रवेश से पूर्व वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए तैयारी करता है। शिक्षक सामग्री एवं विधि से सम्बन्धित निर्णय लेता है।

पूर्व क्रिया अवस्था में निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं

(i) शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण

अध्यापक शिक्षण के सोपानों में अध्यापन से पहले उद्देश्यों को निश्चित करता है। उद्देश्यों को निश्चित करने के बाद उनको व्यवहार परिवर्तन के रूप में भी उनको स्पष्ट करता है। इसमें अध्यापक यह भी निश्चित करता है कि पूर्व व्यवहार के रूप में और अन्तिम व्यवहार के रूप में क्या उद्देश्य होंगे?

(ii) पाठ्य-वस्तु का चुनाव

शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण करने के बाद शिक्षक पाठ्य-वस्तु का चयन करेगा। शिक्षक इसमें यह देखेगा कि यह पाठ्य-वस्तु इस पाठ्यक्रम के लिए क्यों आवश्यक है और विद्यार्थियों के लिए किस स्तर की अभिप्रेरणा प्रभावशाली होगी और उनके मूल्यांकन के लिए किन-किन विधियों का प्रयोग किया जाए? आदि।

(iii) पाठ्य-वस्तु के भागों की क्रमबद्धता

शिक्षक द्वारा उद्देश्यों व पाठ्य-वस्तु का चयन करने के बाद पाठ्य-वस्तु के विभिन्न भागों को क्रमबद्ध रूप से रखा जाना बहुत आवश्यक है। पाठ्य-वस्तु की यह क्रमबद्धता मनोवैज्ञानिक ढंग से रखी जानी चाहिए जिससे कि बालकअच्छी प्रकार से सीख सके।

(iv) शिक्षण की व्यूह

रचना के संबंध में निर्णय इस क्रिया में शिक्षक छात्रों की आयु, परि क्वता, योग्यताओं आदि के आधार पर ज्ञान प्रदान करने के लिए इस बात पर चिन्तन करता है क वह शिक्षण की कौन-सी व्यूह रचनाओं का प्रयोग करे ताकि छात्र सरलता से ज्ञान प्राप्त कर सकें। सभी प्रशिक्षण संस्थान छात्राध्यापकों को विभिन्न व्यूह रचनाओं के विषय में इसीलिए ज्ञान प्रदान करते हैं जिससे कि वे कक्षा में सही व्यूह रचनाओं आदि का चयन कर सके और शिक्षण कार्य को सुचारु रूप से कर सकें।

(v) शिक्षण युक्तियों का चुनाव

शिक्षक को कक्षा में जाने से पहले ही इस बात का निर्णय करना चाहिए कि पाठ्य-वस्तु के किन-किन शिक्षण बिन्दुओं को स्पष्ट करने के लिए शिक्षण के समय कौन-सी शिक्षण युक्तियाँ तथा प्रविधियों, उदाहरण तथा सहायक सामग्री का प्रयोग करेगा। कक्षा में कब प्रश्न करेगा, व्याख्यान देगा और किस समय कौन-सी श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग करेगा। शिक्षक को पहले से योजना बना लेनी चाहिए कि वह शिक्षण का मूल्यांकन कैसे और किन प्रविधियों के माध्यम से करेगा।

  1. अन्तः क्रिया अवस्था (Inter-active Stage)

इस अवस्था या सोपान के अन्तर्गत शिक्षण की वे सभी क्रियाएँ आती हैं जो शिक्षक कक्षा में प्रवेश करने के पश्चात् करता है। पाठ के प्रस्तुतीकरण से संबंधित सभी क्रियाएँ इसमें सम्मिलित हैं। शिक्षक को कक्षा में विभिन्न प्रकार के कौशलों का प्रयोग करना पड़ता है। इसमें से कक्षा व्यवस्था कौशल व सम्प्रेषण कौशल बहुत महत्त्वपूर्ण है। शिक्षक का शिक्षण कार्य में कक्षा व्यवस्था का कौशल बहुत महत्त्वपूर्ण है। विद्यालय में कक्षा में जाने पर सबसे पहले कक्षा व्यवस्था का कौशल काम में लेना होता है। अच्छी शिक्षण कक्षा व्यवस्था के कौशल पर बहुत कुछ निर्भर करता है। अधिगम के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण इस कौशल के द्वारा ही होता है। इसलिए कक्षा में विद्यार्थियों के बैठने की समुचित व्यवस्था, कक्षा के आवश्यक साधन व व्यवस्थाएँ (फर्नीचर, दरी, श्यामपट्ट, चॉक, डस्टर) आदि को ध्यान में रखना होगा। कक्षा में विद्यार्थियों के बैठने के लिए लम्बाई के अनुसार, दृष्टि-दोष, श्रव्य-दोष आदि को ध्यान में रखकर व्यवस्था की जानी चाहिए। कक्षा की शैक्षिक क्रियाओं, भौतिक व सामाजिक क्रियाओं के अनुसार व्यवस्था होनी चाहिए। तैयारी की अवस्था के बाद दूसरी अवस्था इस प्रकार से शिक्षण की वास्तविक अवस्था में जाना है।

शिक्षण के अन्तःप्रक्रिया अवस्था पर निम्नलिखित क्रियाएँ प्रमुख रूप से होती हैं

  1. कक्षा के आकार की अनुभूति,
  2. छात्रों का निदान,
  3. क्रिया तथा प्रतिक्रिया। इसमें निम्नलिखित बातें आती हैं

(अ) उद्दीपन का चयन,

(ब) उद्दीपनों का प्रस्तुतीकरण,

(स) युक्तियों का प्रयोग,

(द) युक्तियों का विस्तार।

(i) कक्षा की अनुभूति

शिक्षण की अन्तःप्रक्रिया में सबसे पहले अध्यापक कक्षा में जाता है और यही से यह प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसमें शिक्षक कक्षा के आकार की अनुभूति करता है। इसके बाद छात्रों के सम्बन्ध में अनुभूति करता है। साथ ही विद्यार्थी भी अध्यापक के बारे में अनुभूति करते हैं। छात्रों के सम्बन्ध में अध्यापक यह पता लगाता है कि कौन-से छात्र प्रेरक के रूप में हैं और कौनसे निराशा के रूप में ? कौन-से छात्र समस्यात्मक हैं और कौन-से छात्र अध्ययन में सहायक; इससे शिक्षक को छात्रों की सही स्थिति का पता लग जाता है। इसके साथ ही शिक्षक के व्यक्तित्व की अनुभूति भी छात्र कुछ ही समय में कर लेते हैं।

(ii) छात्रों के स्तर का ज्ञान (निदान)

शिक्षण की अन्तःप्रक्रिया में दूसरा मुख्य सोपान छात्रों के स्तर का ज्ञान प्राप्त करना है। शिक्षक को यह जानना बहुत आवश्यक है कि उसको अपने विषय का कितना ज्ञान है और सामान्य ज्ञान का स्तर कैसा है? इसके लिए वह विभिन्न प्रश्नों की सहायता लेता है। प्रश्नों के माध्यम से छात्रों के ज्ञान व स्तर का पता आसानी से चल जाता है।

(iii) अनुक्रिया एवं प्रतिक्रिया शिक्षक

शिक्षार्थी के मध्य जो क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रहती है, वह सभी इसमें आता है। इसमें शाब्दिक व अशाब्दिक दोनों प्रकार की क्रिया प्रतिक्रिया आती हैं। शिक्षक जो कहता है या क्रियाएँ करता है, शिक्षार्थी उनके प्रति प्रतिक्रिया करते हैं और शिक्षार्थी जो कहते हैं या क्रियाएँ करते हैं, शिक्षक उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया करता है। शिक्षण में इस क्रिया-प्रतिक्रिया का विशेष महत्त्व है।

(अ) उद्दीपन का चयन

शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया में प्रेरणा का बहुत महत्त्व होता है। अतः अध्यापक को यह निश्चित करना होता है कि शिक्षण कार्य के दौरान कौनसा प्रेरक प्रभावशाली होता है और कौन-सा नहीं? इस प्रेरणा के द्वारा ही शिक्षण की अपेक्षित परिस्थिति उत्पन्न की जा सकती है। प्रेरकों को प्रस्तुत करते समय शिक्षक को शिक्षण के क्रम को अवश्य ध्यान में रखना होगा।

(ब) उद्दीपनों का प्रस्तुतीकरण

शिक्षक को यह भी देखना होगा कि ये प्रेरक किस सन्दर्भ में और किस स्वरूप में प्रस्तुत किए जाने हैं? उन्हीं सन्दर्भ व स्वरूप में प्रस्तुत किए जाने पर ये अधिक उपयोगी होंगे।

(स) पृष्ठपोषण तथा पुनर्बलन

अनुक्रिया की वृद्धि के लिए शिक्षण में पृष्ठ-पोषण (Feed-back) व पुनर्बलन (Reinforcement) भी किया जाना बहुत महत्त्वपूर्ण है। इनसे शिक्षण में सहायता मिलती है। यह सकारात्मक व नकारात्मक दो प्रकार से होती है

‘सकारात्मक’ पुनर्बलन में शिक्षक छात्रों को प्रेरित करता है। शाबाशी देकर, प्रशंसा करके, पुरस्कार देकर, आदि। इससे अपेक्षित व वांछनीय क्रियाओं के होने की सम्भावना में बहुत वृद्धि होती है। नकारात्मक पुनर्बलन में डांटना, दण्ड देना, अपमानित करना, आदि आते हैं। इससे अवांछनीय क्रियाओं की फिर से होने की सम्भावना नहीं होती है। सकारात्मक व नकारात्मक पुनर्बलन दोनों का उद्देश्य छात्रों के व्यवहार में सुधार लाना ही है।

(द) शिक्षण, युक्तियों का विस्तार

पुनर्बलन की युक्तियाँ छात्रों के शाब्दिक तथा अशाब्दिक व्यवहार को नियंत्रण करती हैं और पाठ्य-वस्तु को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में सहायक हैं। शिक्षा की युक्तियों का विस्तार छात्र तथा शिक्षक की अन्तःप्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने में सहायक होता है। शिक्षण की युक्तियों के विस्तार में निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है।

  1. उत्तर-क्रिया अवस्था (Post-active Stage)

शिक्षण-प्रक्रिया का अन्तिम सोपान शिक्षण अथवा छात्रों के मूल्यांकन से संबंधित है। बिना मूल्यांकन के शिक्षण अपूर्ण रहता है। इस अवस्था के अन्तर्गत शिक्षक अनेक औपचारिक एवं अनौपचारिक विधियों द्वारा दिए गए ज्ञान का मूल्याकंन करके इस बात की जाँच करता है कि छात्रों का वांछित व्यवहार परिवर्तन किस दिशा में तथा किस सीमा तक हुआ है। शिक्षण किसी शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संचालित किया जाता है। मूल्यांकन के द्वारा शिक्षक यह ज्ञात करता है कि शिक्षण उद्देश्यों के सन्दर्भ में कितना सफल था अर्थात् छात्र शैक्षिक ‘उद्देश्यों की प्राप्ति’ किस सीमा तक कर सके। छात्रों में वांछित व्यवहार-परिवर्तन का मापन एवं मूल्यांकन, शिक्षण की इस अवस्था में शिक्षक मौखिक या लिखित अथवा व्यावहारिक परीक्षणों के सहारे करता है। इस सोपान की प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. शिक्षक द्वारा छात्रों के वांछित व्यवहार का मापन।
  2. समुचित मूल्यांकन प्रविधियों का चयन।
  3. छात्रों की निष्पत्तियों (उद्देश्यों की प्राप्ति) के आधार पर अनुदेशन एवं शिक्षण युक्तियों के सुधार एवं विकास और शिक्षण व्यूह-रचना में परिवर्तन पर विचार।

शिक्षण एवं अधिगम में अन्तर (Difference Between Teaching and Learning)

शिक्षण (Teaching)

अधिगम (Learning)

1. शिक्षण एक ऐसी क्रिया है जो बच्चों के व्यवहार को बदलती है।

2. पूर्व निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षण दिया जाता है।

3. शिक्षण कारण है।

4. शिक्षण की अन्य क्रियाएँ हैं – जैसे भाषण, प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया, प्रेरणा देना, निर्देशन देना आदि।

5. शिक्षण का सम्बन्ध अध्यापक से है।

6. शिक्षण अध्यापक की इच्छा से होता है।

7. शिक्षण एक सामजिक कार्य है।

8. शिक्षण देने वाले अध्यापक को वेतन मिलता है।

9. शिक्षण कार्य को सफलता अथवा असफलता का मूल्यांकन हो सकता है।

10. अध्यापक शिक्षण से पूर्व विषय – वस्तु को पढ़कर कक्षा में आता है।

11. शिक्षण की प्रक्रिया अध्यापक और विद्यर्थियों दोनों के स्वभाव में परिवर्तन करती है।

12. प्रत्येक शिक्षण का कोई – न – कोई निश्चित उद्देश्य अवश्य होता है।

13. शिक्षण प्रायः औपचारिक होता है।

1. अधिगम ऐसी प्रक्रिया है जो बच्चों के व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती है।

2. अधिगम से लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

3. अधिगम कार्य है, परिणाम है।

4. अधिगम में सुनना, सुनकर उत्तर देना, अध्यापक द्वारा निर्देशन एवं प्रोत्साहन देना आदि।

5. अधिगम का संबंध विद्यार्थी से है।

6. अधिगम बच्चों की इच्छा से होता है।

7. अधिगम व्यक्तिगत कार्य है।

8. लेकिन अधिगम के लिए बच्चों को फीस देनी पड़ती है।

9. अधिगम में बच्चे कुछ न कुछ अवश्य ग्रहण करते हैं।

10. अधिगम बच्चों के लिए लाभकारी होता है।

11. बच्चे विषय – वस्तु को पढ़े बिना ही कक्षा में आते है।

12. अधिगम की प्रक्रिया केवल विद्यार्थियों के स्वभाव में परिवर्तन करती है।

13. अधिगम औपचारिक और अनौपचारिक हो सकता है।

1- अधिगम का क्षेत्र व्यापक है जबकि शिक्षण में इतनी व्यापकता नहीं है

2- शिक्षण ही अधिगम का एकमात्र साधन नहीं है। प्राणी ‘शिक्षण के अलावा अपने अनुभव, ज्ञानेन्द्रियों, अनुकरण एवं अर्न्तदृष्टि आदि से भी अधिगम करता है

3- शिक्षण प्राणी के व्यक्तित्व से केवल एक अंश को ही प्रभावित करता है जबकि अधिगम का प्रभाव सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर पड़ता है।

4- शिक्षण सदैव औपचारिक होता है। जबकि अधिगम औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही प्रकार का होता है ।

5- शिक्षण एक कार्य व्यवस्था है तो अधिगम उसका परिणाम है।

6- शिक्षण एक सामाजिक कार्य है जबकि अधिगम व्यक्तिगत कार्य है। शिक्षण कार्य पूरक प्रक्रिया है जबकि अधिगम-निष्पत्ति परक प्रक्रिया है।

शिक्षण एवं अधिगम में सम्बन्ध (Relationship between Teaching and Learning)

शिक्षण तथा अधिगम में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। वैसे यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक शिक्षण में अधिगम हो, किन्तु इतना निश्चित है कि प्रत्येक शिक्षण का मूल एवं एकमात्र अन्तिम उद्देश्य अधिगम होता है। उद्देश्य की दृष्टि से देखें तो कह सकते हैं कि शिक्षण साधन है एवं अधिगम साध्य है। शिक्षण एक प्रक्रिया है तो अधिगम उसका परिणाम है। इस प्रकार शिक्षण एवं अधिगम एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। कक्षा के छात्रों का जो पूर्व अधिगम होता है, उसी को आधार बनाकर शिक्षक अपने शिक्षण का आयोजन करता है। छात्रों के पूर्व अनुभवों की जैसी स्थिति तथा अवस्था होगी, शिक्षण का स्तर भी उसी के अनुसार ही करना होगा। इतना ही नहीं शिक्षक को उसी के अनुरूप शिक्षण प्रविधियाँ तथा नीतियाँ प्रयोग करनी होगी। शिक्षण सिद्धान्तों का विकास अधिगम सिद्धान्तों के आधार पर होता है। वास्तव में शिक्षण अधिगम परिस्थितियों का व्यवस्थीकरण है। शिक्षण तथा अधिगम का आधार शिक्षा मनोविज्ञान है। शिक्षण तथा अधिगम दोनों ही अपने-अपने सिद्धान्तों का निरूपण मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर करते हैं।

  1. शिक्षण के बिना अधिगम असम्भव

शिक्षण के बिना अधिगम सम्भव नहीं है। भाव यह है कि जब तक कोई शिक्षा देने वाला अथवा सिखाने वाला नहीं है, तब तक विद्यार्थी किससे क्या सीखेगा। उसका अधिगम अधूरा ही रहेगा।

  1. शिक्षण का लक्ष्य अधिगम

अधिगम – अधिगम के बिना शिक्षण का कोई महत्त्व नहीं है। कारण यह है कि अधिगम के लिए ही शिक्षण होता है, बल्कि हम यह कह सकते हैं कि शिक्षण का लक्ष्य ही अधिगम है। अतः यदि अधिगम नहीं तो शिक्षण भी नहीं।

  1. शिक्षण एवं अधिगम कलाएँ

शिक्षण तथा अधिगम दोनों ही श्रेष्ठ कलाएँ हैं। पढ़ाना यदि कला है तो सीखाना भी एक कला है। अतः दोनों का गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक – दूसरे पर आश्रित हैं।

  1. शिक्षण एवं अधिगम समय से सम्बद्ध

शिक्षण तथा अधिगम दोनों का सम्बन्ध समय से है। इसका मतलब यह है कि जिस प्रकार का देश और काल होगा, उसी प्रकार का शिक्षण और अधिगम होगा। तानाशाह राजाओं के काल में अध्यापक बच्चों को तानाशाही ढंग से शिक्षा देता था। बच्चे स्वतंत्र नहीं होते थे, परन्तु लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था में अध्यापक लोकतान्त्रिक ढंग से शिक्षा देता है। यही कारण है कि जो अध्यापक तानाशाही ढंग से पढ़ाते है, वे सफल अध्यापक नहीं कहे जा सकते।

  1. लक्ष्य की समानता

शिक्षण और अधिगम में लक्ष्य की भी समानता है। शिक्षण का लक्ष्य अधिगम है और अधिगम शिक्षण के लक्ष्य की प्राप्ति है।

  1. नियमों पर आधारित

शिक्षण और अधिगम में सबसे बड़ी समानता यह है कि दोनों ही कुध नियमों पर आधारित हैं। यदि अध्यापक इन नियमों का समुचित ढंग से पालन करता है तो शिक्षण और अधिगम दोनों के लक्ष्य प्राप्त हो जाते हैं।

प्रभावी शिक्षण के सिद्धान्त  (Principles of Effective Teaching)

शिक्षक शिक्षण के माध्यम से विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। शिक्षण एक कला है और शिक्षक एक कलाकार। प्रत्येक कला के कुछ सिद्धान्त होते हैं। वही शिक्षक या कलाकार के सिद्धान्त बन जाते हैं। इसी प्रकार शिक्षण के भी सिद्धान्त होते हैं। इन सिद्धान्तों की सहायता से शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

सिद्धान्त किसी भी विषय, क्षेत्र या प्रक्रिया के विषय में वैज्ञानिक तरीके से आयोजन करना होता है कि वह प्रक्रिया स्पष्ट रूप में सभी के सामने आ सके।

(1). प्रेरणा का सिद्धांत (Principle of Motivation)

मानव स्वभाव है- प्रशंसा से खुश और आलोचना से मायूस होना. प्रशंसा पाकर हम और अच्छा प्रदर्शन या मेहनत करने की ठान लेते हैं और उसमें सफल भी होते हैं. यह प्रशंसा और शाबाशी ही मनोविज्ञान की भाषा में प्रेरणा कहलाती है. प्रेरणा ही प्राणी को क्रियाशील बनाती है. व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया जो किसी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है, प्रेणात्मक होती है.

वास्तव में प्रेरणा वह प्रक्रिया है जो समस्त प्रकार के शिक्षण को प्रारंभ करती है और जारी रखते हुए पूरा होने तक चलती रहती है. शिक्षक को चाहिए कि वह प्रेरक तत्वों द्वारा अधिगम को रुचिकर बनाए ताकि प्रभावी संप्रेषण संभव हो सके. एक बार प्रेरित होने के बाद सीखने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है और इसी में शिक्षण की सफलता निहित है. वर्तमान शिक्षण विधि में प्रेरणा को बहुत ही महत्व दिया गया है. बिना प्रेरणा के बालक किसी भी कार्य में रुचि नहीं ले सकता. सफल शिक्षण वही है जिसमें बालकों को अध्यापक द्वारा स्वयं कार्य करने के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा मिलती है।

(2). क्रिया का सिद्धांत (Principle of Activity)

इसका अर्थ है करके सीखना. यह सिद्धांत बाल मनोविज्ञान का आधारभूत सिद्धांत है. इसमें सीखने वाले का पूरी अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रहना परम आवश्यक है. आधुनिक शिक्षण विधि में करके सीखने के सिद्धांत का पूर्णरूपेण पालन हो रहा है. बालक का विकास भाषण सुनने और पुस्तकों को रटने से नहीं हो सकता. यह उसी शिक्षण विधि के द्वारा हो सकता है जो बालक को अधिक से अधिक शारीरिक और मानसिक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है. इसी को सफल शिक्षण विधि कहते हैं. इसमें बालकों को तर्क और चिंतन करने एवं समस्याओं से लड़ने का अधिक से अधिक अवसर दिया जाता है.

जैसे साइकिल सीखने की प्रक्रिया में साइकिल को पकड़ना, पेडल मारना, कई बार साइकिल चलाते समय गिर जाना आदि को हम स्वयं जब तक साइकिल के साथ क्रिया नहीं करते तब तक हम साइकिल चलाना नहीं सीख सकते।

(3). रुचि का सिद्धांत (Principle of Interest)

जिस विषय या क्रिया में हमारी रुचि होती है, उसको हम आसानी से सीख लेते हैं. कारण कि हम उसको बड़ी तत्परता के साथ करते हैं. इसलिए कुछ कुशल शिक्षक शिक्षण विधियों को निर्धारित करते समय बालकों की रूचि पर विशेष ध्यान देते हैं. इसके लिए वह शिक्षण के विशेष सामग्रियों का चयन करते समय बालक की इच्छाओं, आवश्यकताओं और उसके चारों ओर व्याप्त परिस्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं. रुचि के सिद्धांत के अनुसार शिक्षण कार्य ऐसा हो कि सीखने वाला उसे तन्मय होकर सीखे. शिक्षक, शिक्षण सामग्री को इस तरीके से प्रस्तुत करें कि कक्षा का अनुशासन बना रहे और अधिगमकर्ता सीखने के प्रति सक्रिय रहे।

(4). निश्चित उद्देश्य का सिद्धांत (Principle of Definite Aim)

कोई भी प्राणी अनायास (useless)काम नहीं करता. उसके प्रत्येक काम का कोई ना कोई निश्चित उद्देश्य होता है. उस उद्देश्य के प्रति उसके हृदय में जितनी आस्था और निष्ठा होती है, उसको प्राप्त करने के लिए उतना ही वह अधिक प्रयास करता है. व्यक्ति कोई भी कार्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करता है. इसलिए कार्य करने वाले को कार्य के उद्देश्य से पर्याप्त प्रेरणा मिलती है. उद्देश्य निश्चित होने से दूसरा प्रत्यक्ष लाभ होता है कि बालक जो कार्य करते हैं उसको क्रमबद्ध किया जा सकता है. कोई भी कार्य किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है और वह कार्य उस उद्देश्य की प्राप्ति तक चलता है. वैसे ही कक्षा में भी बालकों को पहले प्रकरण का उद्देश्य बता दिया जाता है और उनको उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करने के लिए उत्तेजित किया जाता है. जिस कार्य का उद्देश्य जितना ही स्पष्ट होता है वह उतना ही प्रेरणादायक होता है, इसी के साथ व्यक्ति उसको उतने ही लगन और निष्ठा के साथ करता है।

(5). नियोजन का सिद्धांत (Principle of Planning)

शिक्षण हो या कोई भी कार्य, उसका पूरा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह कार्य योजना बनाकर किया गया है या नहीं. शिक्षण करते समय प्रत्येक शिक्षक को अपने शिक्षण योजना बनानी चाहिए, उसके प्रस्तुतीकरण का क्रम ज्ञात हो ताकि सीखने वाला भ्रमित ना हो कि गुरु जी ने आज क्या पढ़ाया था? वर्तमान शिक्षण कार्य में प्रत्येक प्रशिक्षु को पाठ योजना बनाने एवं उसके अभ्यास पर जोर दिया जाता है. एक कुशल शिक्षक शिक्षण विधियों को निर्धारित करते समय बालकों की रूचि पर विशेष ध्यान देते हैं. इसके लिए वह शिक्षण के विषय सामग्री का चयन करते समय बालक की इच्छा आवश्यकताओं का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं।

(6.) चयन का सिद्धांत (Principle of Selection)

हम बीमार हैं तो अगर हमें डॉक्टर के पास जाना हो और विद्यालय भी जाना हो तो इस समय जो ज्यादा जरूरी होगा उसी का चयन करेंगे ताकि दूरगामी प्रभाव हमारे पक्ष में हो इसी स्थिति को चयन करना कहते हैं. शिक्षण भी एक जटिल कार्य है, जिसमें हमें विभिन्न विषयों को पढ़ना-समझना होता है. चयन के सिद्धांत के अनुसार शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले उपयोगी तत्वों का चयन कर लेना चाहिए और अनुपयोगी तत्वों को छोड़ देना चाहिए. एक प्रकरण में केवल उन्हीं तत्वों या विषय सामग्रियों को लेना चाहिए, जिससे उद्देश्य की प्राप्ति समय के अंदर और सफलतापूर्वक हो सके. विषयों का चयन करते समय अध्यापक को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-

1- विषय सामग्री की मात्रा इतनी हो कि इससे उद्देश्य की प्राप्ति हो सके।

2- विषय सामग्री छात्रों की रुचि और योग्यता के अनुसार हो।

3- समय के अंदर समाप्त हो जाने वाला हो।

4- विषय सामग्री जीवनपयोगी हो।

(7). विभाजन का सिद्धांत (Principle of Division)

इसे लघु सोपानों का सिद्धांत भी कहते हैं. शिक्षण स्वयं में व्यापक प्रक्रिया है. इसको सफल बनाने का सबसे सरल तरीका है इसे विभाजित करके पढ़ाया जाए. शिक्षक को चाहिए पाठ्यवस्तु को विभाजित करके सरल से कठिन की ओर अग्रसर हों ताकि तारतम्यता (क्रमबद्धता) बनी रहे और संप्रेषण व्यवहारिक बना रहे. किसी पाठ का ‘पाठसूत्र’ बनाते समय हम लोग प्रस्तावना, उद्देश्य, कथन, प्रस्तुतीकरण, सामान्यीकरण, प्रयोग आदि अनेक सोपान बनाते हैं. जैसे व्याकरण का ज्ञान देने के लिए हम पहले अक्षर ज्ञान देंगे, शब्द बनाना सिखाएंगे, फिर वाक्य कैसे बनाए जाते हैं, यह बताएंगे तब व्याकरण की दृष्टि से इनका प्रयोग बताएंगे।

(8). आवृत्ति का सिद्धांत (Principle of Revision)

यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि किसी क्रिया या विषय-वस्तु को सीखने पर आत्मसात करने के बाद उसको कई बार दोहरा लेना चाहिए. इससे विषय का ज्ञान टिकाऊ एवं उपयोगी हो जाता है. थोर्नडाईक ने इसी को अभ्यास के नियम की संज्ञा दी है. आप सभी ने यह जुमला अक्सर सुना होगा- “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान! रस्सी आवत जात है सिल पर परत निशान” इसका आशय है कि जिस कार्य को हम बार-बार करते हैं, वह कार्य आसान हो जाता है. शिक्षण में जिस पाठ या तत्व को हम बार-बार पढ़ते-पढ़ाते हैं, उस पर हमारी पकड़ अच्छी होती है और उसमें रुचि व ध्यान भी केंद्रित होता है।

(9). रचना का सिद्धांत (Principle of Creation)

सफल शिक्षण वही है जो बालकों की रचनात्मक शक्ति का विकास करता है. इसके लिए अध्यापक को चाहिए कि वह शिक्षा में बालकों को इस प्रकार की क्रियाओं को करने के लिए प्रोत्साहित करें जो रचनात्मक हों. इस रचनात्मक क्रियाओं में बालकों का मस्तिष्क, हाथ और ह्रदय तीनों का योग होता है. इससे वह विषय में पर्याप्त रुचि लेता है, क्योंकि विषय का भार किसी एक अंग पर नहीं पड़ता. शिशु के लिए प्रयुक्त होने वाले ‘किंडरगार्टन’ और ‘मोंटेसरी’ विधि में बच्चों को रचना करने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है. वर्तमान में सभी आधुनिक शिक्षण विधियां इस सिद्धांत का सम्मान करती हैं।

(10). वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत (Principle of Individual Defferences)

प्रत्येक बालक अपनी रुचि, शारीरिक, मानसिक दशाओं और योग्यताओं में एक दूसरे से भिन्न होता है. इसी को व्यक्तिक विभिन्नता कहते हैं. एक कक्षा में कुछ मंदबुद्धि के बालक होते हैं, जो विषय को बहुत देर में समझते हैं और कुछ ऐसे भी छात्र होते हैं, जो थोड़े से संकेत पर ही विषय को समझ लेते हैं. अध्यापकों को चाहिए कि वह इन दोनों प्रकार के छात्रों पर हमेशा ध्यान रखें अन्यथा शिक्षण कुछ छात्रों की समझ में आएगा और कुछ की नहीं।

(11). पूर्व ज्ञान का सिद्धांत (Principle of Previous Knowledge)

इस सिद्धांत के अनुसार बालकों को किसी नवीन विषय का ज्ञान उनके पूर्व ज्ञान के आधार पर ही देना चाहिए. बालक जितना जानता है उसी से संबंधित जो नवीन ज्ञान दिया जाता है वह टिकाऊ होता है. जैसे कक्षा में बच्चों को हिरण के बारे में बताना है, परंतु बच्चों ने कभी हिरन को नहीं देखा है. बकरी के शरीर की बनावट बहुत कुछ हिरन से मिलती जुलती है और बच्चों ने बकरी को देखा भी है तो ऐसी अवस्था में अध्यापक हिरण का परिचय बकरी के आधार पर देता है, तो बच्चे हिरण के विषय में अच्छी तरह से जान पाएंगे।

(12). जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धांत (Principle of Linking with Life)

शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है. शिक्षा के द्वारा ही मानव जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है. इसलिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में शिक्षा को जीवन से जोड़ने की बात पर जोर दिया गया है. शिक्षा देने का कार्य शिक्षण के माध्यम से होता है, शिक्षक को किसी भी पाठ को पढ़ाते समय उन तथ्यों, पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो विद्यार्थी को उसके जीवन की क्रिया से जोड़ते हैं. यह संबंध स्थापित हो जाने पर नया ज्ञान या कौशल बालक के जीवन का स्थाई अंग बन जाता है और वह इस ज्ञान का प्रयोग जीवन में आने वाली परिस्थितियों को सुलझाने में करता है. सभी नवीन शिक्षण विधियों में इस सिद्धांत का पूर्णरूपेण पालन किया जाता है।

(13) सहसम्बन्ध का सिद्धांत (Principle of Correlation)

किसी भी विषय को पढ़ाते समय उसे अन्य विषयों से जोड़ते हुए पढ़ाया जाना चाहिए; जैसे विज्ञान को भूगोल, इतिहास, संगीत आदि से जोड़ते हुए पढ़ाने से शिक्षा कार्य रुचिकर बन जाता है।

(14)  लचीलेपन का सिद्धांत (Principle of flexibility)

शिक्षा-प्रक्रिया सृजनात्मक व छात्र के अनुकूल होनी चाहिए अर्थात् शिक्षा परिस्थितियों एवं तत्वों के अनुसार लचीला होना चाहिए।

(15) बाल केन्द्रित शिक्षा का सिद्धांत (Principle Education of Child Centered)

शिक्षा, तभी प्रभावशाली बन सकता है जब वह विद्यार्थियों की आवश्यकताओं, क्षमताओं, रुचियों व मानसिक स्तर आदि के अनुसार व्यवस्थित रहता

(16) प्रजातान्त्रिक व्यवहार का सिद्धांत (Principle of Democratic Behaviour)

विद्यार्थियों में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति, आत्मविश्वास के विकास, आत्मसम्मान आदि गुणों के विकास के लिए राजनीतिक व्यवहार की अपेक्षा लोकतान्त्रिक व्यवहार को अपनाना चाहिए।

शिक्षण रणनीतियाँ क्या हैं? 

शिक्षण रणनीतियाँ वे विधियाँ और तकनीकें हैं जिनका उपयोग एक शिक्षक सीखने की प्रक्रिया के माध्यम से अपने छात्रों का समर्थन करने के लिए करेगा; एक शिक्षक अध्ययन किए जा रहे विषय, शिक्षार्थी की विशेषज्ञता के स्तर और उनकी सीखने की यात्रा के चरण के लिए सबसे उपयुक्त शिक्षण रणनीति का चयन करेगा।

एक पाठ में, एक शिक्षक अलग-अलग अंतिम लक्ष्यों के साथ कई अलग-अलग शिक्षण रणनीतियों का उपयोग कर सकता है। सबसे प्रभावी शिक्षण रणनीतियाँ वे हैं जो बड़े पैमाने पर परीक्षणों पर काम करने में सिद्ध होती हैं। किसी शिक्षण रणनीति के नवीन होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

शिक्षण की रणनीतियाँ

  1. अपने छात्रों को जानें और उनके प्रति सम्मान विकसित करें

यह बुनियादी लग सकता है, लेकिन सभी अच्छे शिक्षण का आधार आपके छात्रों और उनकी सीखने की ज़रूरतों की समझ है। यह आपके और आपके छात्रों के बीच सम्मान से जुड़ा है। शिक्षक और छात्र के बीच का संबंध सीखने के अनुभव का एक महत्वपूर्ण तत्व है। नाम याद रखना, पहले दिन से नई कक्षा को जानने के लिए समय निकालना, और यह समझना कि उन्हें क्या प्रेरित करता है और सीखने में उनकी बाधाएँ – यह अक्सर अनदेखी की जाने वाली शिक्षण रणनीति है।

  1. योगात्मक एवं रचनात्मक आकलन का उचित उपयोग

योगात्मक मूल्यांकन से तात्पर्य उस मूल्यांकन से है जो कार्य के एक ब्लॉक के पूरा होने के बाद होता है, चाहे वह एक इकाई हो या एक स्कूल वर्ष। इन्हें सीखने के आकलन के रूप में सबसे अच्छा माना जाता है ।

रचनात्मक मूल्यांकन वे होते हैं जो दिन-प्रतिदिन होते हैं और किसी विषय के बारे में छात्रों की समझ को मापने के लिए उपयोग किए जाते हैं – वे सीखने के लिए मूल्यांकन हैं। रचनात्मक मूल्यांकन का उपयोग अक्सर निदान क्षमता में किया जाता है ताकि हमें यह पहचानने में मदद मिल सके कि छात्र इस समय किसी विषय से जूझ रहे हैं या नहीं। इसके बाद यह बच्चों की ज़रूरतों को बेहतर ढंग से पूरा करने के लिए पाठ के दौरान हमारे निर्देशों का मार्गदर्शन और अनुकूलन कर सकता है।

  1. शब्दावली सिखाएंजाए

पाठ्यक्रम में ज्ञान आयोजकों पर नए फोकस के साथ, बच्चों के लिए प्रासंगिक विषय शब्दावली से वंचित होने का कोई बहाना नहीं है। उन्हें किसी दिए गए विषय पर आत्मविश्वास से बात करने के लिए विचार और वाक्य बनाने में सक्षम होने के लिए शब्दों की आवश्यकता होती है।

यही कारण है कि हमारे शिक्षक हमेशा अपने छात्रों के साथ पाठ की शुरुआत में महत्वपूर्ण गणित शब्दावली को पहले से पढ़ाएंगे, किसी भी नए शब्दों को समझाएंगे और पहले से कवर किए गए शब्दों की समझ की जांच करेंगे।

  1. स्पष्ट निर्देश

प्रत्यक्ष निर्देश के रूप में भी जाना जाता है, यह शिक्षण रणनीति शिक्षक के नेतृत्व वाली है और छात्रों को किसी विषय को सीखने में मदद करने के लिए लगातार पूछताछ और निर्देशित अभ्यास पर ध्यान केंद्रित करती है। स्पष्ट निर्देश की रीढ़ उदाहरण-समस्या जोड़ी में काम किए गए उदाहरण का उपयोग है । इसमें एक समस्या के साथ-साथ चुपचाप एक काम किए गए उदाहरण को उसकी संपूर्णता में प्रदर्शित करना शामिल है जिसे छात्र तब हल करने का प्रयास करेंगे।

  1. प्रभावी तकनीक काप्रयोग

जबकि हम सभी किसी विषय के बारे में छात्रों की समझ को मापने के लिए एक उपकरण के रूप में प्रश्न पूछने के महत्व से अवगत हैं, कक्षा में आपके प्रश्न पूछने की प्रभावशीलता में सुधार करने के लिए निश्चित तकनीकें हैं ।

“क्या आप निश्चित हैं?” जैसे प्रश्न और “तुम्हें कैसे पता?” छात्रों को ग्रेड-स्तर-उपयुक्त आलोचनात्मक सोच में संलग्न होने के लिए प्रोत्साहित करें ताकि यह स्थापित किया जा सके कि वे किसी उत्तर में कितने आश्वस्त हैं और क्यों , जबकि अन्य जैसे “क्या कोई और तरीका है?” यह उजागर करने में सहायता करें कि समाधान प्राप्त करने के लिए कई विधियाँ कहाँ मौजूद हो सकती हैं।

हमारे शिक्षक छात्रों को अपने तर्क को मौखिक रूप से व्यक्त करने और प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि छात्रों को वास्तव में विषय पर पकड़ मिल गई है: “आप कैसे जानते हैं कि उत्तर सही है?”, “क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आप इसे और कैसे हल कर सकते हैं ?” या “इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आपको सबसे पहले क्या करने की आवश्यकता है?” ये सभी प्रश्न हैं जो हमारे पाठों के दौरान बार-बार आते हैं।

  1.  निरन्तर अभ्यास

किसी कक्षा में नई अवधारणाओं को पेश करने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक, जानबूझकर अभ्यास में सीखने को उप कौशल की एक श्रृंखला में विभाजित करना शामिल है, जिनमें से प्रत्येक का जानबूझकर बारी-बारी से अभ्यास किया जाता है।

  1. उचितभेदभाव

केवल “पूरी कक्षा को उपलब्धि के आधार पर छोटे समूहों में विभाजित करने” से कहीं अधिक, प्राथमिक विद्यालय स्तर पर सकारात्मक और प्रभावी भेदभाव हासिल करना मुश्किल हो सकता है – खराब भेदभाव रणनीतियों से वास्तव में उस अंतर को बढ़ने का खतरा होता है जिसे हम बंद करने का प्रयास कर रहे हैं।

लेकिन बहुत सारी प्रभावशाली विभेदीकरण रणनीतियाँ हैं ; इंटरलीविंग और चरणबद्ध सीखने के साथ-साथ गणित जोड़-तोड़ और रचनात्मक मूल्यांकन जैसी तकनीकें उन तकनीकों में से हैं जो सही ढंग से नियोजित होने पर छात्रों पर लाभकारी प्रभाव डालती हैं।

  1. प्रयास को सुदृढ़ करना

छात्रों को किसी कार्य में प्रयास करने और मान्यता प्राप्त करने के बीच संबंध बनाने में मदद करना कक्षा के माहौल को विकसित करने में एक महत्वपूर्ण कदम है जो सक्रिय सीखने को बढ़ावा देता है।

छात्रों को गतिविधियों में अधिक प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करना केवल इतना ही है, उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरणा प्रदान करने के लिए कुछ भी नहीं है। प्रशंसा और मान्यता ऐसे प्रेरक हैं जिनसे छात्र पहले से ही परिचित हैं; उन्हें सही होने से पूर्ण प्रयास देने में स्थानांतरित करना अत्यधिक प्रभावी हो सकता है।

  1. मेटाकॉग्निशन

शाब्दिक रूप से “सोचने के बारे में सोचना”, मेटाकॉग्निशन को सबसे प्रभावी, सबसे कम लागत वाली शिक्षण रणनीतियों में से एक माना गया है, जिसमें छात्र औसतन सात महीने की अतिरिक्त प्रगति करते हैं।

प्राथमिक विद्यालयों में मेटाकॉग्निशन में अक्सर कुछ अन्य प्रभावी शिक्षण रणनीतियों को शामिल किया जाता है, जैसे कक्षा में प्रश्न पूछना – “आप कैसे जानते हैं?” न केवल छात्रों से उनके समाधानों को उचित ठहराने के लिए कहा जाता है, बल्कि उन्हें उस समाधान को प्राप्त करने के लिए अपनी स्वयं की विचार प्रक्रियाओं के बारे में भी सोचने को कहा जाता है।

  1. वैयक्तिकृत शिक्षण

यह स्पष्ट लग सकता है, लेकिन छात्रों के सीखने में शामिल होने की अधिक संभावना तब होती है जब यह उनके लिए अधिक लक्षित हो और उनकी रुचियों के अनुरूप हो! शुरुआत में इसे हासिल करना मुश्किल हो सकता है – विशेष रूप से 30 छात्रों की बड़ी कक्षाओं के साथ – लेकिन जैसे-जैसे पूरे वर्ष परिचितता और तालमेल बढ़ता है, गतिविधियों और यहां तक ​​कि प्रश्नों को व्यक्तिगत बच्चों के लिए अधिक व्यक्तिगत बनाना आसान हो जाना चाहिए।

  1. सहयोगात्मक शिक्षा

इसे “सहकारी शिक्षण” भी कहा जाता है, कुछ कक्षा गतिविधियों के लिए छात्रों को समूहों में काम करने का विचार अधिकांश शिक्षकों के लिए नया नहीं होगा। इस सहयोग को बढ़ावा देने की एक लोकप्रिय तकनीक थिंक-पेयर-शेयर के माध्यम से है।

हालाँकि, समूह कार्य का प्रभाव व्यापक रूप से भिन्न हो सकता है, और इसे सबसे प्रभावी बनाने के लिए, शिक्षकों को अच्छी तरह से संरचित कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो छात्रों के बीच बातचीत और बातचीत को बढ़ावा देते हैं।

12- छात्र केंद्र शिक्षा

सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति वास्तव में छात्र को केंद्र में रखकर होनी चाहिए जिससे वास्तव में छात्र का सर्वांगीण विकास हो सके और छात्रों के हितों को शिक्षा के माध्यम से प्रोटेक्ट किया जाए।

शैक्षिक प्रौद्योगिकी का अर्थ

Educational Technology (शैक्षिक प्रौद्योगिकी) का मतलब शिक्षक अपने पढ़ाने के ढंग को प्रभावी, रुचि पूर्ण, आसान बनाने के लिए शैक्षिक और वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग करते हैं। उस तकनीक को ‘Educational Technology’ कहा जाता है।

शिक्षा को तकनीक के जरिए हर विद्यार्थी तक पहुंचा सकते हैं। जिसमें इंटरनेट, कंप्यूटर, शिक्षण मशीन, टेलीविजन जैसे संसाधनों का उपयोग किया जाता है। वही पहले के समय के मुकाबले आज के समय की कक्षाओं में Digital Technology का प्रयोग किया जाता है। जिसे हर विद्यार्थी शिक्षक के माध्यम से अपने हर विषय से संबंधित सवालों के जवाब बेझिझक पूछ सकता है। एजुकेशनल टेक्नोलॉजी से शिक्षक और विद्यार्थी दोनों को सुविधा मिलती है।

शैक्षिक प्रौद्योगिकी शिक्षा की गुणवत्ता (दक्षता, इष्टतम, सत्य, आदि) में सुधार के लिए आधुनिक तकनीक को लागू करने की एक व्यवस्थित और संगठित प्रक्रिया है। यह शैक्षिक प्रक्रिया के निष्पादन और मूल्यांकन की अवधारणा का एक व्यवस्थित तरीका है, सीखना और पढ़ाना और आधुनिक शैक्षिक शिक्षण तकनीकों के अनुप्रयोग में मदद करना। इसमें निर्देशात्मक सामग्री, कार्य के तरीके और संगठन और संबंध शामिल हैं, अर्थात शैक्षिक प्रक्रिया में सभी प्रतिभागियों का व्यवहार। शिक्षण संसाधन शब्द का आमतौर पर उपयोग किया जाता है, हालांकि वे पर्यायवाची नहीं हैं (पेडागोस्की लेक-सिकोन, 1996)। टेक्नोलॉजी शब्द ग्रीक शब्द टेक्नो से लिया गया है जिसका अर्थ है इच्छा, कौशल, रास्ते का ज्ञान, नियम, कौशल, उपकरण से है शैक्षिक प्रौद्योगिकी के लिए एकल शब्द विभिन्न देश शैक्षिक प्रौद्योगिकी, शैक्षिक उपकरण, संसाधन, शिक्षण की तकनीक के रूप में विभिन्न शब्दों और समानार्थी शब्दों का उपयोग करते हैं।

Educational Technology के कितने प्रकार होते है?

एजुकेशनल टेक्नोलॉजी को अमेरिकन साइकोलॉजिस्ट “Arthur Allen Lumsdaine” ने तीन भागों में बांटा था। यह मीडिया के उपयोगों और शिक्षा अध्ययन में रिसर्चर थे। चलिए Educational Technology के तीन प्रकार के बारे में जानते हैं।

  1. Hardware Approach (हार्डवेयर दृष्टिकोण)

शैक्षिक प्रौद्योगिकी में Hardware को पहला स्थान दिया है। इसमें शिक्षा देने में उपयोग होने वाले सहायक उपकरणों पर जोर दिया गया है। इसे ‘मशीन टेक्नोलॉजी’ भी कहा जाता है। साथ ही शिक्षा में टेक्नोलॉजी (Technology In Education) से भी प्रयुक्त किया जाता है।

Hardware Educational Technology में प्रोजेक्टर, डिजिटल वाइट बोर्ड, स्लाइड प्रोजेक्टर, टी.वी और मॉनिटर, कंप्यूटर, केलकुलेटर, प्रिंटिंग मशीन जैसे सहायक उपकरण शामिल है। जिन्हें हाथ से छुआ जाता है।

  1. Software Approach (सॉफ्टवेयर दृष्टिकोण)

जिस प्रकार हार्डवेयर दृष्टिकोण में मशीन का उपयोग होता है। उसी प्रकार Software Approach सीखने और सिखाने के सिद्धांतों पर आधारित है। यानी कि विद्यार्थी के दिमागी विकास के लिए शिक्षक किन मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों ( विध्यार्थी के मन की बात जानना) का प्रयोग करते हैं।

जिससे विद्यार्थियों में आवश्यक परिवर्तन आ सकता है। इन्हें शैक्षिक प्रौद्योगिकी में सॉफ्टवेयर दृष्टिकोण में जोड़ा जाता है। इसे शिक्षा की तकनीक (Technology of Education) भी कहा जाता है।

  1. System Approach (प्रणाली दृष्टिकोण)

System Approach में हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों शैक्षिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर एक पूरी प्रणाली को संभालना है। जिसमें शिक्षण (Teaching) में उपयोग होने वाले सभी संसाधनों का उपयोग करना है।

जैसे कि हार्डवेयर दृष्टिकोण में कक्षा में Projector, Chalk, digital whiteboard का प्रयोग करना और सॉफ्टवेयर दृष्टिकोण में Videos, Slides, Computer Program, charts आदि का प्रयोग एक प्रणाली हेतु करना। इसे ही ‘Educational Technology’ कहते हैं। जिसमें सुव्यवस्थित ढंग से हर सिस्टम को मैनेज किया जाता है। जो हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों प्रकारों को मिलकर बनती है।

शैक्षिक प्रौद्योगिकी के उद्देश्य या आवश्यकताएं 

शैक्षिक प्रौद्योगिकी के उद्देश्य कुछ इस प्रकार हैं:

1- शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करना।

2- समुदाय की एजुकेशनल आवश्यकताओं और इच्छाओं की पहचान करना।

3- आर्ट्स, साइंस और ह्यूमन वैल्यूज़ से जुड़े करिकुलम को डिजाइन और डेवलप करना।

4- एजुकेशनल गोल्स को सपोर्ट करने वाले डिवाइस तैयार करना।

5- प्लानिंग से लेकर एक्सेक्यूशन, इम्प्लीमेंटेशन और इवैलुएशन तक की पूरी शिक्षा प्रोसेस को मैनेज करना।

6- व्यावहारिक रूप में इन उद्देश्यों को डिफाइन करना और लिखना।

7- एनालिसिस।

8- सीखने- सिखाने की प्रोसेस को मोडर्नाइज़ करना।

9- शिक्षण और सीखने की मौजूदा प्रोसेस को बेहतर बनाने के लिए शैक्षिक प्रौद्योगिकी मॉडल तैयार करना।

10- दुनिया भर के लोगों, विशेष रूप से कम्युनिटी के उपेक्षित वर्गों के लिए शैक्षिक अवसरों का विस्तार और समर्थन करना।

11- पाठ्य-वस्तु का एनालिसिस कर एलिमेंट्स और कंपोनेंट्स को एक आर्डर में सेट करना।

12- टीचिंग- लर्निंग प्रोसेस में सुधार लाना।

13- शिक्षको को ट्रेन कर उनकी योग्यता एवं क्षमताओं में वृद्धि करना।

14- स्टूडेंट्स के गुणों, क्षमताओं, उपलब्धियों और कौशलों का एनालिसिस करना।

शैक्षिक प्रौद्योगिकी का महत्व

21वीं सदी में, शैक्षिक प्रौद्योगिकी के एकीकरण के कारण, शिक्षा का परिदृश्य गहन परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। हम शैक्षिक प्रौद्योगिकी के महत्व का पता लगाएंगे और यह डिजिटल युग में सीखने में कैसे क्रांतिकारी बदलाव ला रहा है।

  1. भौगोलिक बाधाओं का समाधान

शैक्षिक प्रौद्योगिकी के प्राथमिक लाभों में से एक इसकी भौगोलिक बाधाओं को तोड़ने की क्षमता है। ऑनलाइन शिक्षण प्लेटफार्मों और आभासी कक्षाओं के माध्यम से, दुनिया के विभिन्न कोनों से छात्र समान उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा तक पहुंच सकते हैं। शिक्षा का यह लोकतंत्रीकरण यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों को, चाहे उनका स्थान कुछ भी हो, सीखने और मूल्यवान कौशल हासिल करने के समान अवसर मिले। यह न केवल वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देता है बल्कि आभासी कक्षा में विविध दृष्टिकोण भी लाता है, जिससे सीखने का अनुभव समृद्ध होता है।

  1. वैयक्तिकृत शिक्षण के अवसर

शैक्षिक प्रौद्योगिकी व्यक्तिगत छात्र आवश्यकताओं के अनुरूप व्यक्तिगत सीखने के अनुभवों को सक्षम बनाती है। अनुकूली शिक्षण प्लेटफ़ॉर्म किसी छात्र की ताकत और कमजोरियों का आकलन करने के लिए एल्गोरिदम और डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करते हैं, पाठ की गति और सामग्री को तदनुसार समायोजित करते हैं। यह सुनिश्चित करता है कि छात्र अपनी गति से अवधारणाओं को समझ सकें, जिससे सामग्री की गहरी समझ को बढ़ावा मिले। वैयक्तिकृत शिक्षण विभिन्न शिक्षण शैलियों को भी पूरा करता है, दृश्य, श्रवण और गतिज शिक्षार्थियों को समायोजित करता है, और अधिक समावेशी शैक्षिक वातावरण को बढ़ावा देता है।

  1. मल्टीमीडिया के माध्यम से बढ़ी सहभागिता

पारंपरिक पाठ्यपुस्तकों को धीरे-धीरे इंटरैक्टिव मल्टीमीडिया सामग्री द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है, जिससे सीखना अधिक आकर्षक और गतिशील हो गया है। शैक्षिक प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम में वीडियो, सिमुलेशन, आभासी वास्तविकता (वीआर), और संवर्धित वास्तविकता (एआर) को शामिल करने की अनुमति देती है। ये मल्टीमीडिया तत्व छात्रों का ध्यान आकर्षित करते हैं, जिससे जटिल अवधारणाएँ अधिक सुलभ और मनोरंजक बन जाती हैं। परिणामस्वरूप, छात्रों में जानकारी बनाए रखने और जिन विषयों का वे अध्ययन कर रहे हैं उनमें वास्तविक रुचि विकसित होने की अधिक संभावना है।

  1. ज्ञान का वास्तविक स्वरूप में प्रयोग

शैक्षिक प्रौद्योगिकी का एकीकरण सैद्धांतिक ज्ञान और वास्तविक दुनिया के अनुप्रयोग के बीच एक पुल को बढ़ावा देता है। सिमुलेशन और आभासी प्रयोगशालाएं छात्रों को नियंत्रित और सुरक्षित वातावरण में व्यावहारिक अनुभव प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, मेडिकल छात्र आभासी वास्तविकता में सर्जिकल प्रक्रियाओं का अभ्यास कर सकते हैं, और इंजीनियरिंग छात्र जटिल परियोजनाओं का अनुकरण कर सकते हैं। ज्ञान का यह व्यावहारिक अनुप्रयोग छात्रों को उनके भविष्य के करियर में आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करता है, जिससे शिक्षा से कार्यस्थल तक अधिक निर्बाध संक्रमण को बढ़ावा मिलता है।

  1. सहयोगात्मक शिक्षण को सुगम बनाना

शैक्षिक प्रौद्योगिकी भौतिक कक्षाओं की सीमाओं को पार करते हुए सहयोगात्मक शिक्षण की सुविधा प्रदान करती है। ऑनलाइन फ़ोरम, सहयोगी दस्तावेज़ और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग उपकरण छात्रों को प्रोजेक्ट और असाइनमेंट पर एक साथ काम करने, टीम वर्क और संचार कौशल को बढ़ावा देने में सक्षम बनाते हैं। यह न केवल कई व्यावसायिक वातावरणों की सहयोगात्मक प्रकृति को दर्शाता है बल्कि छात्रों को विविध दृष्टिकोणों और विचारों से भी परिचित कराता है। सहयोगात्मक शिक्षा छात्रों को एक ऐसी दुनिया के लिए तैयार करती है जहां टीम वर्क और प्रभावी संचार आवश्यक कौशल हैं।

  1. सतत मूल्यांकन एवं फीडबैक

मूल्यांकन के पारंपरिक तरीके, जैसे परीक्षा और क्विज़, शैक्षिक प्रौद्योगिकी की मदद से विकसित हो रहे हैं। ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म क्विज़, इंटरैक्टिव असाइनमेंट और वास्तविक समय फीडबैक के माध्यम से निरंतर मूल्यांकन की अनुमति देते हैं। यह चल रहा मूल्यांकन शिक्षकों को व्यक्तिगत छात्र प्रगति में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, जिससे जरूरत पड़ने पर समय पर हस्तक्षेप की अनुमति मिलती है। इसके अलावा, यह छात्र की समझ और प्रदर्शन के एक बार के, उच्च जोखिम वाले मूल्यांकन से अधिक व्यापक और निरंतर मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित करता है।

  1. शैक्षिक संसाधनों तक वैश्विक पहुंच

डिजिटल युग ने शैक्षिक संसाधनों तक अभूतपूर्व पहुंच के युग की शुरुआत की है। ऑनलाइन पुस्तकालय, मुक्त शैक्षिक संसाधन (ओईआर), और डिजिटल अभिलेखागार दुनिया भर में छात्रों और शिक्षकों को बड़ी मात्रा में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। ज्ञान का यह लोकतंत्रीकरण यह सुनिश्चित करता है कि वित्तीय बाधाएँ और भौगोलिक स्थिति अब गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक सामग्री तक पहुँचने में बाधा नहीं बनेंगी। छात्र स्व-निर्देशित और आजीवन सीखने की संस्कृति को बढ़ावा देते हुए, अपनी पाठ्यपुस्तकों से परे ढेर सारी जानकारी खोज सकते हैं।

  1. प्रौद्योगिकी की सहायता से क्षमताओं का विकास

जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी विभिन्न उद्योगों का अभिन्न अंग बनती जा रही है, छात्रों को कार्यबल के लिए तैयार करने के लिए शैक्षिक प्रौद्योगिकी को पाठ्यक्रम में शामिल करना महत्वपूर्ण है। कोडिंग, डिजिटल साक्षरता और उभरती प्रौद्योगिकियों से परिचित होना छात्रों को भविष्य की नौकरियों के लिए आवश्यक कौशल से लैस करता है। शैक्षिक प्रौद्योगिकी न केवल पारंपरिक विषयों को बढ़ाती है, बल्कि छात्रों को उन उपकरणों और प्रौद्योगिकियों से भी परिचित कराती है, जिनका उनके चुने हुए क्षेत्रों में सामना होने की संभावना होती है, जिससे उन्हें नौकरी बाजार में प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त मिलती है।

शिक्षण कौशल का अर्थ

शिक्षण कौशल व्यक्ति का वह गुणं होता है जिसके जरिए व्यक्ति अच्छा टीचर बनता है आसान शब्दो में समझे तो Teaching Skills यानि की पढ़ाने की कला। एक टीचर के अंदर अच्छी Teaching Skills होनी चाहिए तभी वो सही ढंग से बच्चो को पढ़ा सकते है और उनका भविष्य उज्जवल बना सकते हैं।

शिक्षण कौशल एक महत्वपूर्ण कौशल है जो हमें ज्ञान और अनुभव को आगे बढ़ाने की क्षमता प्रदान करता है। शिक्षण कौशल में शिक्षकों की कौशल को निखारा जाता है जिससे शिक्षक उच्च गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान कर सके। अच्छे शिक्षक न केवल ज्ञान का संचार करते हैं बल्कि वे अपने छात्रों को सोचने, समझने और संवाद करने की क्षमता भी प्रदान करते हैं।

अच्छे शिक्षकों के माध्यम से हम विद्यार्थियों को सकारात्मक और साक्षात्कार आधारित शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। वे अपने उच्च मानकों, योग्यता, और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के माध्यम से छात्रों को मार्गदर्शन करते हैं। शिक्षा में अच्छा शिक्षण कौशल होना आवश्यक है और यह हमारे समाज के विकास के लिए महत्वपूर्ण योगदान करता है।

शिक्षण कौशल की परिभाषाएं 

एन० एल० गेज के शब्दों में

‘शिक्षण कौशल वे विशिष्ट अनुदेशात्मक क्रियायें व प्रक्रियाये हैं, जिन्हें शिक्षक कक्षा-कक्ष में अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए उपयोग करता है। ये शिक्षण की विभिन्न अवस्थाओं से सम्बन्धित होती है तथा ये शिक्षक के निरन्तर प्रयोग में आती है।”

डा० बी० के० पासी के अनुसार

“शिक्षण कौशल छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से सम्पन्न की गयी सम्बन्धित शिक्षण क्रियाओं या व्यवहारों का समूह है।”

शिक्षण कौशल की विशेषतायें

उपर्युक्त परिभाषाओं के विवेचना के फलस्वरूप शिक्षण कौशल की निम्नांकित विशेषताये दृष्टिगोचर होती है-

(1) शिक्षण कौशल शिक्षण प्रक्रियाओं तथा व्यवहारों से सम्बन्धित होते हैं।

(2) शिक्षण कौशल कक्षा शिक्षण व्यवहार की इकाई से सम्बन्धित होते हैं।

(3) शिक्षण कौशल शिक्षा के विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होते हैं।

(4) शिक्षण कौशल शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाते हैं।

(5) शिक्षण कौशल के माध्यम से विषय-वस्तु छात्रों को सरलता व सुगमता से सिखा सकते हैं।

(6) शिक्षण कौशलों से समस्त अन्तक्रिया को सक्रिय बनाया जाता है।

शिक्षण कौशल का क्या महत्व है? (Importance of Teaching Skills)

शिक्षण कौशल (Teaching Skills) शिक्षकों को एक सफल और प्रभावी शिक्षा प्रदान करने में मदद करता है। एक अच्छा शिक्षक न केवल ज्ञान को छात्रों तक पहुंचाता है, बल्कि उन्हें समस्याओं का समाधान करने, सक्रिय रूप से संवाद करने, और स्वतंत्रता के साथ सोचने की क्षमता प्रदान करता है। इसलिए, शिक्षण कौशलों का अधिकारिक विकास शिक्षकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

1- छात्रों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका

शिक्षण कौशलों का प्रभावी उपयोग छात्रों के सही और संपूर्ण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षकों के द्वारा दी गई शिक्षा छात्रों को न केवल ज्ञान और अधिकारिक जानकारी प्रदान करती है, बल्कि उन्हें नये सोच के साथ समर्पित करने का मार्ग भी देती है।

2- सक्रियता को प्रोत्साहित करना

शिक्षण कौशल सक्रिय और भाग्यशाली शिक्षा प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है। एक अच्छा शिक्षक छात्रों को जन्मजात क्षमताओं का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करता है और उन्हें शिक्षा के माध्यम से जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करता है।

3- विद्यार्थियों को प्रेरित

अच्छे शिक्षक हमेशा विद्यार्थियों को प्रेरित करते है और उन्हें शिक्षा के माध्यम से सफलता की ओर ले जाते है। एक प्रेरणादायक शिक्षक छात्रों को उच्चतम स्तर की शिक्षा, प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करता है।

शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण कौशल का बहुत महत्व है। यह छात्रों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है उन्हें प्रेरणा प्रदान करता है। एक अच्छा शिक्षक छात्रों को सही मार्गदर्शन देता है और उन्हें एक सफल और सत्यापित जीवन की ओर ले जाता है।

4- शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति

शिक्षण कौशल के माध्यम से वास्तव में शिक्षक के उद्देश्यों की प्राप्ति को बड़ी ही सरलता से हासिल किया जाता है। क्योंकि शिक्षण कौशल से शिक्षकों के कौशल पर बड़ी गहनता के साथ काम किया जाता है और जिसके फलस्वरुप शिक्षण कार्य सार्थकता के साथ संपन्न होता है।

5- शिक्षण प्रक्रिया में रोचकता

शिक्षण कौशल के द्वारा संपूर्ण शिक्षक कार्यों में रोचकता आती है क्योंकि शिक्षण कौशल के फलस्वरुप शिक्षण गतिविधियों को व्यावहारिकता के साथ संपन्न करवाई जाती है।

सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ (Meaning of Micro Teaching)

सूक्ष्म-शिक्षण दो शब्दों से मिलकर बना है – सूक्ष्म तथा शिक्षण। सूक्ष्म से तात्पर्य छोटे (गहन) तथा शिक्षण से तात्पर्य प्रशिक्षण के दौरान कक्षा में दिया जाने वाला शिक्षण से है। सूक्ष्म शिक्षण एक शिक्षक प्रशिक्षण तकनीक है, जिसके द्वारा शिक्षक एक शिक्षण सत्र की रिकॉर्डिंग की समीक्षा करता है, ताकि छात्रों से रचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त की जा सके कि छात्रों ने शिक्षण के दौरान क्या काम किया है? और उनकी शिक्षण तकनीक में क्या सुधार किए जा सकते हैं?

सूक्ष्म-शिक्षण का आविष्कार 1963 में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में ड्वाइट डब्ल्यू एलन द्वारा किया गया था, और बाद में इसका उपयोग शिक्षा के सभी रूपों में शिक्षकों को विकसित करने के लिए किया गया।

सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया (Process of Micro Teaching)

सूक्ष्म शिक्षण एक ऐसी तकनीक है, जिसका उद्देश्य शिक्षक उम्मीदवारों को वास्तविक कक्षा व्यवस्था के लिए तैयार करना है। इस तकनीक की मदद से, शिक्षक उम्मीदवार प्रत्येक शिक्षण कौशल को छोटे भागों में तोड़कर और भीड़-भाड़ वाली कक्षाओं के बिना, सीखने का प्रयास करता है। सूक्ष्म शिक्षण के दौरान, छात्रों में शिक्षण कौशल पैदा करते हुए, छात्रों की पारस्परिक बातचीत को सक्रिय रूप से प्रस्तुत करने और प्रदर्शनों के कौशल को विकसित किया जाता है।

विल्किंसन, इस बात पर जोर देते हैं कि शिक्षक उम्मीदवार इस पद्धति की मदद से वास्तविक शिक्षण और शिक्षण नियमों का अनुभव करता है। यह विधि शिक्षकों को अपनी और दूसरों की शिक्षण शैलियों को खोजने और प्रतिबिंबित करने के अवसर प्रदान करती है और उन्हें नई शिक्षण तकनीकों के बारे में सीखने में सक्षम बनाती है।

सूक्ष्म शिक्षण चक्र Micro learning cycle

सूक्ष्म शिक्षण शिक्षण में वह एक चक्र होता है, जिसमें छात्राध्यापिका या छात्राध्यापक एक चक्र में अपने पाठय विषय का प्रस्तुतीकरण अपने सहपाथियों तथा निरीक्षक के सामने देता है।

सूक्ष्म शिक्षण के चक्र में जो छह चरण एक चक्र का निर्माण करते हैं उन सभी चरणों को ही सूक्ष्म शिक्षण के सोपान कहा जाता है। सूक्ष्म शिक्षण के सोपान निम्न प्रकार से समझाये गए हैं:-

1- योजना बनाना (Make a plan)

यह सूक्ष्म शिक्षण का प्रथम सोपान (Sopaan) माना जाता है, इसके अंतर्गत छात्राध्यापक या छात्राध्यापिका अपने पाठक विषय को तैयार करते हैं, इसके लिए वह अपने पाठ्य विषयवस्तु की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा घर बैठकर योजना तैयार कर सकते हैं।

2- शिक्षण (Teaching)

सूक्ष्म शिक्षण का दूसरा सोपान शिक्षण का होता है, जिसके अंतर्गत छात्राध्यापक या छात्राध्यापिका के द्वारा जो भी पाठक विषय तैयार किया गया है, उसका शिक्षण/प्रस्तुतीकरण छात्राध्यापक और छात्राध्यापिका अपने सहपाठियों, अध्यापक और निरीक्षक के सामने देता है।

3- प्रतिपुष्टि (Feedback)

प्रतिपुष्टि सूक्ष्म शिक्षण का तीसरा सोपान है, जिसमें छात्राध्यापिका या छात्राध्यापक के द्वारा दिए गए अपने पाठक विषय के प्रस्तुतीकरण में क्या-क्या कमियां है? और क्या-क्या उसमें सुधार करने हैं? यह उनके सहपाठी, अध्यापक और निरीक्षक बताते हैं। यदि पृष्ठ पोषण सकारात्मक है तो सूक्ष्म शिक्षण यहीं समाप्त हो जाता है, किन्तु नकारात्मक होने पर चौथा सोपान पुनः योजना आता है।

4- पुनः योजना (R-eplan)

सूक्ष्म शिक्षण का चौथा सोपान पुनः योजना होता है, जिसके अंतर्गत छात्राध्यापिका या छात्राध्यापक पाठक विषय की योजना तथा तैयारी अपने सहपाठियों, अध्यापक तथा निरीक्षक के द्वारा बताए गए सुझावों के आधार पर उसी समय करते हैं।

5- पुनः शिक्षण (Re-Teaching)

पुनः शिक्षण सूक्ष्म शिक्षण का पाँचवा सोपान है, जिसके अंतर्गत छात्राध्यापिका या छात्राध्यापक पुनः योजना में तैयार किए गए अपने पाठय विषय को फिर से सहपाठियों, अध्यापक तथा निरीक्षक के सामने प्रस्तुत करता है।

6 पुनः प्रतिपुष्टि (Re-Feedback)

पुनः प्रतिपुष्टि सूक्ष्म शिक्षण का अंतिम सोपान अर्थात छठवाँ सोपान है, जिसके अंतर्गत छात्राध्यापिका तथा छात्राध्यापक के द्वारा दिए गए पुनः शिक्षण अर्थात पुनः प्रस्तुतीकरण में क्या गलतियाँ हुई है? और क्या सुधार करने हैं? इसका निर्धारण फिर से उनके सहपाठी, अध्यापक और कक्षा निरीक्षक करते हैं।

अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण विधि का अर्थ [Meaning of Simulated social skill Training]

इस विधि के द्वारा कृत्रिम परिस्थितियों में कुछ निश्चित व्यवहारों का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें शिक्षण कौशल का नाटकीय स्वरूप में प्रशिक्षण किया जाता है और अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग रोल अदा करना होता है जिससे संपूर्ण शिक्षण प्रणाली के स्वरूप में यह नाटकीय स्वरूप में संपन्न किया जाता है। छात्रों को कक्षागत कृत्रिम वातावरण में शिक्षक प्रशिक्षण हेतु अनेक प्रकार की भूमिका का निर्वाह करना होता है।

यह वास्तव में एक ऐसी पृष्ठपोषण प्रविधि है, जो भूमिका निर्वाह के द्वारा छात्रों में, शिक्षकों के कुछ निश्चित वांछित सामाजिक कौशलों का कक्षागत कृत्रिम परिस्थितियों में तथा उनके अपने समूह में विकास किया जाता है।

अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण की विशेषताएँ [Characteristics of Simulated social skill Training]

  1. इस विधि की सहायता से छात्राध्यापकों को प्रभावशाली ढंग से पृष्ठपोषण दिया जाता है।
  2. छात्राध्यापकों को कक्षा में भेजने से पहले शिक्षण के लिए पूर्व अभ्यास के लिए अवसर दिए जाते हैं।
  3. इस विधि से सामान्य व्यवहार की जानकारी तथा कौशल का विकास किया जाता है।
  4. इसको अनुसंधान की विधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
  5. छात्राध्यापकों के लिए यह अधिक उपयोगी है। इसमें वे अपनी शिक्षण-कौशल का मौलिक विकास कर सकते हैं।
  6. छात्राध्यापकों को बिना विद्यालय शिक्षण के विद्यालय की भाँति ही (अनुरूपण) शिक्षण के अवसर प्राप्त होते हैं, जिससे वह सीखता है तथा शिक्षण में रुचि लेता है।
  7. वास्तविक शिक्षण में आने वाली समस्याओं का समाधान करने का प्रयास शिक्षक अनुरूपण के माध्यम से सिखाकर करता है।
  8. अनुरूपण शिक्षण में छात्राध्यापक विभिन्न शिक्षण- कौशलों में निपुणता प्राप्त कर लेता है जिससे वास्तविक शिक्षण वह सरलता से कर लेता है।
  9. इस विधि के प्रयोग से छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास जाग्रत होता है। छात्राध्यापकों में पाठ्य-वस्तु को क्रमबद्धं रूप से प्रस्तुत करने की योग्यता का विकास होता है।

अनुरूपण शिक्षण की प्रक्रिया (Process of Simulated Teaching)

  1. सर्वप्रथम छात्राध्यापकों को अलग-अलग विषय के अनुसार छोटे-छोटे समूहों में बाँटा जाता है।
  2. यह सुनिश्चित किया जाता है कि सभी छात्राध्यापक सूक्ष्म-शिक्षण कर चुके हैं तथा शिक्षण के कौशलों को भली-भाँति सीख चुके हैं।
  3. एक समूह में पाँच से आठ तक छात्राध्यापक रखे जाते हैं।
  4. छात्राध्यापक को अपने विषय की पाठ योजना बनाना सिखाया जाता है।
  5. पाठ योजनाओं का निर्माण करने के बाद शिक्षक द्वारा उनका निरीक्षण किया जाता है।
  6. निरीक्षण में निकाली गई त्रुटियों को सही करने के उपरान्त छात्राध्यापक पाठ – योजना तैयार करता है।
  7. पाठ योजना पूर्ण रूप से तैयार करने के बाद प्रत्येक छात्राध्यापक को क्रमवार अनुरूपण शिक्षण करना होता है
  8. शिक्षक द्वारा छात्राध्यापक की पाठ-योजना पर गलतियों को अंकित किया जाता है व ठीक कार्य की प्रशंसा की जाती है।
  9. छात्राध्यापक उन कमियों को सुधारने का अभ्यास करते हैं ।
  10. पुनः शिक्षक की उपस्थिति में छात्राध्यापकों द्वारा बारी- बारी से अनुरूपित शिक्षण किया जाता है तथा शिक्षक द्वारा पर्यवेक्षण किया जाता है।
  11. अनुरूपित शिक्षण का यही क्रम तब तक जारी रहता है। जब तक कि छात्राध्यापक शिक्षण में की जा रही त्रुटियों को दूर नहीं कर लेता है।

अनुरूपण शिक्षण के लाभ (Advantages of Simulated Teaching)

  1. इससे छात्राध्यापक को भविष्य में उसके सामने आने वाली कक्षा स्थिति के बारे में ज्ञान हो जाता है।
  2. छात्राध्यापक अनुरूपित शिक्षण द्वारा यह सीख लेता है कि भविष्य में कक्षा में उसे किन परिस्थितियों में कैसा व्यवहार करना है।
  3. वास्तविक शिक्षण से पहले अनुरूपित शिक्षण कर लेने से छात्राध्यापक के मन में किसी प्रकार का भय या शंका नहीं रहती है।
  4. अनुरूपित शिक्षण में शिक्षक छात्राध्यापक द्वारा किए जा रहे शिक्षण की वीडियों अथवा ऑडियो रिकार्डिंग कर लेता है तथा उस रिकार्डिंग को छात्रों को दिखा कर या सुनाकर छात्र के द्वारा की जा रही त्रुटियों को बता कर उन्हें दूर कर सकता है।
  5. छात्राध्यापक छोटे-छोटे कालांश में शिक्षण कार्य करता है तथा साथ ही उसे पृष्ठपोषण मिलता रहता है जिससे छात्र में सक्रियता बनी रहती है ।
  6. इससे छात्राध्यापक में विभिन्न कौशलों को विकसित करने का अवसर मिलता है।
  7. छात्राध्यापक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।
  8. छात्राध्यापक में समस्या समाधान की क्षमता का विकास होता है।
  9. इस शिक्षण में बालक विभिन्न भूमिकाओं का निर्वहन करता . हुआ चलता है इसलिए वह व्यावहारिक संसार के किसी भी भूमिका एवं कार्य में अपने को सफल बना सकता है।
  10. यह शिक्षण सिद्धान्त एवं व्यवहार के बीच के अन्तर को कम करता है।
  11. ब्रूनर के अनुसार, मस्तिष्क में गहराई तक बोध कराने के लिए अनुरूपण सहायक होता है।

अनुरूपण शिक्षण की सीमाएँ (Limitations of Simulated Teaching)

  1. छोटी कक्षाओं में इस प्रविधि का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
  2. सहयोगी छात्र ही छोटी कक्षा के विद्यार्थियों की भूमिका में रहते हैं जो वास्तविक छात्रों जैसी प्रतिक्रिया नहीं दे पाते हैं।
  3. छात्राध्यापक अपने साथी छात्रों के समक्ष पूर्ण आत्मविश्वास से नहीं पढ़ा पाते हैं।
  4. सक्षम एवं निष्ठावान, शिक्षकों के अभाव के कारण अनुरूपित शिक्षण प्रभावपूर्ण ढंग से नहीं कराया जाता है जिसमें अधिक शिक्षकों की आवश्यकता होती हैं जो उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।

शिक्षक शिक्षा में फीडबैक की अवधारणा (Concept of Feedback in Teacher Education)

फीडबैक’ का अर्थ है किसी विशिष्ट शिक्षण उद्देश्य के सन्दर्भ में विद्यार्थियों को उनके प्रदर्शन की जानकारी देना और इस बारे में उनका मार्गदर्शन करना कि वे किस तरह इसमें सुधार कर सकते हैं या आगे बढ़ सकते हैं।

फीडबैक शिक्षा के क्षेत्र में एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में कार्य करता है, जो सीखने के अनुभवों को आकार देने और उनके शैक्षणिक विकास को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फीडबैक के महत्व को पहचानने और प्रभावी फीडबैक तंत्र को लागू करने से सीखने के परिणामों में वृद्धि, प्रदर्शन में सुधार और छात्रों के बीच प्रेरणा में वृद्धि हो सकती है।

शिक्षक शिक्षा में फीडबैक का महत्व

फीडबैक एक दोतरफा संचार प्रक्रिया है जो छात्रों को उनकी ताकत और सुधार के क्षेत्रों के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करती है। यह एक मार्गदर्शक प्रकाश के रूप में कार्य करता है, जिससे छात्रों को उनकी शैक्षिक यात्रा को अधिक स्पष्टता के साथ आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। समय पर और रचनात्मक प्रतिक्रिया न केवल सीखने को पुष्ट करती है बल्कि छात्रों में जवाबदेही और जिम्मेदारी की भावना भी पैदा करती है, जिससे वे अपनी प्रगति का स्वामित्व लेने में सक्षम होते हैं।

  1. ताकत और कमजोरियों की पहचान करना

फीडबैक छात्रों की ताकत पर प्रकाश डालता है, उन्हें बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित करता है। इसके साथ ही, यह उन क्षेत्रों पर प्रकाश डालता है जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है, और लक्षित सुधार के लिए एक रोडमैप प्रदान करता है।

  1. क्षमताओं का विकास करना

रचनात्मक फीडबैक से छात्रों को उनकी क्षमताओं और विकास की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की गहरी समझ हासिल करने में मदद मिलती है। यह आत्म-जागरूकता उन्हें यथार्थवादी लक्ष्य निर्धारित करने और अपनी सीखने की रणनीतियों को तैयार करने के लिए सशक्त बनाती है।

  1. आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करना

फीडबैक छात्रों को अपने काम का आलोचनात्मक विश्लेषण करने के लिए प्रेरित करता है। वे अपनी विचार प्रक्रियाओं, निर्णय लेने और समस्या सुलझाने के कौशल का मूल्यांकन करना सीखते हैं, जिससे उनकी स्वतंत्र रूप से सोचने की क्षमता बढ़ती है।

  1. निरंतर सीखने के लिए प्रेरित करना

सकारात्मक प्रतिक्रिया छात्रों के प्रयासों और उपलब्धियों को स्वीकार करती है, जिससे उनका आत्मविश्वास और प्रेरणा बढ़ती है। इसके विपरीत, रचनात्मक प्रतिक्रिया चुनौतियों पर काबू पाने और विकास के लिए प्रयास करने के दृढ़ संकल्प को बढ़ावा देती है।

  1. प्रभावी संचार को बढ़ावा देना

फीडबैक प्राप्त करना छात्रों को यह सिखाता है कि सूचना को शालीनता से कैसे प्राप्त किया जाए, सक्रिय रूप से सुना जाए और सार्थक संवादों में कैसे भाग लिया जाए। ये कौशल अकादमिक और वास्तविक दुनिया दोनों संदर्भों में आवश्यक हैं।

  1. सीखने के अनुभवों को अनुकूलित करना

शिक्षक विभिन्न शिक्षण शैलियों और गति को समायोजित करने के लिए फीडबैक के आधार पर निर्देश तैयार कर सकते हैं। यह व्यक्तिगत दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि छात्रों को उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए आवश्यक समर्थन प्राप्त हो।

फ़्लैंडर की अन्तःक्रिया विश्लेषण श्रेणी प्रणाली (Flander’s interaction analysis category system)

अन्तः क्रिया विश्लेषण विधि का प्रारम्भ 1930 से हुआ। नेड ए. फ्लेण्डर्स (1951) ने कक्षागत व्यवहारों का विश्लेषण करने में विशेष योगदान दिया। नेड ए. फ्लेण्डर (1960) ने अन्तः क्रियाओं के आधार पर एक शिक्षण प्रतिमान दिया जिसे अन्त प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान अथवा सामाजिक अन्त प्रक्रिया प्रतिमान भी कहते हैं। फ्लैण्डर ने शिक्षण प्रकिया को एक अन्त प्रक्रिया माना है। इस प्रतिमान में शिक्षण प्रक्रिया को अध्यापक व छात्र के बीच किसी विषय के सम्बन्ध में एक विशेष सामाजिक वातावरण में होने वाली अन्तक्रिया माना गया है।

अध्यापक के व्यवहार का छात्रों के सीखने पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके बाद शिक्षाविदों ने व्यवहार को मापने पर कार्य किया। उनका सोचना था कि अध्यापक व्यवहार का छात्रों के सीखने से कितना सम्बन्ध है यह पता लगा लिया जाये तो अध्यापकों को अधिगम हेतु प्रशिक्षित किया जा सकता है। इस मिशन में फ्लैण्डर का नाम उल्लेखनीय था उन्होंने अध्यापक के व्यवहार को मापने हेतु एक उपकरण निर्मित किया जिसे ‘फ्लैण्डर्स कक्षागत अन्तः क्रिया प्रणाली’ नाम दिया गया। यह कक्षा में शाब्दिक अन्तः क्रिया का प्रतिनिधित्व करता है। उनका कहना है कि यदि शाब्दिक व्यवहार का मापन कर लिया जायेगा तो अशाब्दिक व्यवहार को मापने की कोई जरूरत नहीं। वे कहते हैं कि कक्षा में शिक्षक अथवा शिक्षार्थी ही बोलता है अथवा दोनों मौन रहते हैं।

इस प्रविधि की सहायता से तीन सैकण्ड अथवा इससे भी कम समय में होने वाली घटना का निरीक्षण क्रमबद्ध रूप से किया जाता है। यह एक वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक निरीक्षण विधि है। इसके द्वारा कक्षा के व्यवहार को दो भागों में बांटा गया है, जिसे निम्न रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है।

(अ) अशाब्दिक व्यवहार

यह वह व्यवहार है जिसमें छात्र तथा शिक्षक के मध्य बोलकर विचारों का आदान प्रदान नहीं होता, बल्कि शिक्षक अपने हाव-भाव द्वारा छात्रों को कोई काम करने अथवा न करने के लिए कहता है, यथा, सिर हिलाना अथवा क्रोध में देखना।

(ब) शाब्दिक व्यवहार

यह वह व्यवहार है जिसमें शिक्षक और छात्र किसी विषय पर बोलकर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। शिक्षक कक्षा में छात्रों को किस मात्रा में स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, इस आधार पर शिक्षक का शाब्दिक व्यवहार भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) अप्रत्यक्ष शाब्दिक व्यवहार 

अप्रत्यक्ष शाब्दिक व्यवहार तब होता है जब शिक्षक द्वारा छात्रों की प्रशंसा की जाती है एवं उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है। फ्लैण्डर्स ने इस प्रकार के व्यवहार वाले शिक्षक को अप्रत्यक्ष शिक्षक कहा है। एण्डरसन ने इसे ‘सम्यक् शिक्षक’, लिपिट तथा हाइट ने इसे ‘प्रजातान्त्रिक शिक्षक’ और विदहॉल ने इसे छात्र केन्द्रित शिक्षक’ की संज्ञा दी है। इस व्यवहार में शिक्षक छात्रों को अधिकाधिक बोलने का अवसर प्रदान करते हैं। परीक्षणों द्वारा ज्ञात हुआ है कि अप्रत्यक्ष शिक्षक प्रसन्नचित्त, वीर, विश्वस्त व सलाह देने वाले होते हैं तथा इस तरह का व्यवहार छात्रों के ज्ञानार्जन एवं चरित्र के विकास में अधिक सहायक होता है।

(II) प्रत्यक्ष शाब्दिक व्यवहार

प्रत्यक्ष शाब्दिक व्यवहार तब होता है, जब शिक्षक छात्रों को बोलने का अवसर नहीं देते तथा स्वयं कक्षा में प्रभुत्व बनाये रखते हैं। फ्लेण्डर्स ने इस प्रकार के व्यवहार वाले शिक्षक को ‘प्रत्यक्ष शिक्षक’ लिपिट और हाइट ने इन्हें ‘अप्रजातान्त्रिक शिक्षक’ तथा विदहाल ने ‘शिक्षण केन्द्रित शिक्षक’ की संज्ञा दी है।

फ्लैण्डर्स दस वर्ग अन्तः क्रिया विश्लेषण प्रणाली (Flanders Ten Interaction Analysis Category System)

(1) भावनाओं को स्वीकार करना (Accepts Feelings)

सहज रूप में छात्रों की भावनाओं तथा विचारों को स्वीकार करना, महत्त्व देना। ये विचार, भाव अथवा अनुभूतियाँ नकारात्मक, सकारात्मक, स्मरण तथा भविष्य कथन के रूप में हो सकती हैं।

(2) प्रशंसा एवं प्रोत्साहन (Praises and Encourages)

छात्र व्यवहार तथा क्रियाओं की प्रशंसा करना, उन्हें प्रेरित करना, कक्षा में तनाव दूर करने हेतु बीच-बीच में हास-परिहास करना आदि क्रियाएँ सम्मिलित है।

(3) स्वीकृति या छात्रों के विचारों का उपयोग (Accept or Uses Ideas of Students)

छात्रों द्वारा व्यक्त विचारों का स्पष्टीकरण करना तथा उनको पुनः आवृत्ति करना।

(4) प्रश्न करना (Ask Questions)

पढ़ाई गई विषय-वस्तु पर छात्रों से प्रश्न पूछना।

(5) भाषण देना (Lecturing) 

पाठ्यवस्तु प्रक्रिया पर शिक्षक स्वयं के विचार व्यक्त करता हुआ तथ्यों का स्पष्टीकरण करता है।

(6) निर्देश देना (Giving Direction)

छात्रों को आदेश तथा निर्देश आदि देना, जिनका अनुसरण करने की आशा छात्रों से की जाती है।

(7) आलोचना करना (Criticism)

छात्रों द्वारा किये गये अनुचित व्यवहार पर नियंत्रण करने हेतु आलोचना करना।

(8) छात्र कथन अनुकिया (Student Talk Response)

अध्यापक द्वारा की गई क्रिया तथा दिये गये निर्देशों पर छात्रों द्वारा प्रतिक्रिया करना।

(9) छात्र कथन स्वोपक्रम (Pupil Talk Initiation)

इसमें छात्र प्रश्न पूछकर, जिज्ञासा का समाधान करता है।

(10) मौन/भ्रम या ध्वनि (Silence/Confusion or Noise)

कक्षा में कभी-कभी सभी छात्र तथा अध्यापक बोलते हैं, कभी कक्षा में पूर्ण रूप से शान्ति रहती है।

फ्लैण्डर्स अन्तः क्रिया विश्लेषण की प्रक्रिया (procedure of Flenders Interaction)

इस अन्तःप्रक्रिया में दो प्रमुख प्रक्रियायें की जाती हैं :

  1. अंकन प्रक्रिया

इस प्रक्रिया में निरीक्षण प्रपत्र पर अंकित दसों श्रेणियों का ज्ञान निरीक्षक को भली-भाँति होना चाहिए। इसके लिए अनुभवी निरीक्षक का निर्देशन तथा पर्यवेक्षण भी आवश्यक होता है । इसमें निरीक्षक के अन्दर अभ्यास के साथ-साथ सुझाव देने की क्षमता भी होनी चाहिए। कक्षा में 3 सैकण्ड तक की घटनाओं का अंकन किया जाना आवश्यक है। इसमें निरीक्षक सभी क्रियाओं तथा घटनाओं को अंकित करने में क्रियाशील रहता है । इस प्रविधि में अंकन की शुद्धता पर बल दिया जाता है । पाठ का निरीक्षण कम से कम 20 मिनट तक हो एवं एक निरीक्षण में 400 आवृत्तियों का अंकन किया जाये यह आवश्यक होता है। निरीक्षण आव्यूह का एक नमूना यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।

  1. अंकन अर्थापन प्रक्रिया अथवा व्याख्या प्रक्रिया

अंकन प्रक्रिया से प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण कर व्याख्या की जाती है, जिसके द्वारा शिक्षक के व्यवहार का विश्लेषण होता है। इसके लिए मुख्यतः व्याख्या दो रूपों में की जाती है- परिमाणात्मक तथा गुणात्मक।

(अ) परिमाणात्मक व्याख्या

परिमाणात्मक व्याख्या करने हेतु वर्ग अनुपात, व्यवहार अनुपात तथा अन्तःक्रिया चर का अनुसरण किया जाता है, इसके लिए विभिन्न सूत्रों का सहारा लिया जाता है। यहाँ पर दस श्रेणियों की संख्या के संदर्भ में सूत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

(ब) गुणात्मक व्याख्या

कक्षागत व्यवहार का विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या परिमाणात्मक के साथ-साथ गणात्मक रूप में भी की जाती है। इसके लिए घड़ी के अनुसार प्रवाह-चार्ट, प्रवाह रेखाचित्र तथा अन्त क्रिया प्रतिमान का अनुसरण किया जाता है। जिनका संक्षेप में वर्णन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।

  1. घड़ी के अनुसार प्रवाह चार्ट

परिमाणात्मक व्याख्या से प्राप्त आँकड़ों को घड़ी के अनुरूप चार्ट में अंकित किया जाता है । सर्वप्रथम आव्यूह में अधिकतम आवृत्ति वाली कक्षिका का पता लगाया जाता है । इस कक्षिका की आवृत्ति के चारों ओर एक गोला बना दिया। जाता है । यही कक्षिका प्रवाह का प्रारम्भिक बिन्दु होती है। प्रारम्भिक बिन्दु को निर्धारित करने के बाद घटित होने वाली घटना का पता लगाया जाता है और उस पर गोला बना दिया जाता है। तत्पश्चात् प्रथम गोले से तीर का बिन्दु बनाकर दूसरे गोले से मिला दिया जाता है। अब इस कक्षिका की दूसरी संख्या की पंक्ति में अधिकतम आवृत्ति वाली कक्षिका को देखा जाता है और उस पर वृत्त बनाकर दूसरी कक्षा के वृत्त से तीर द्वारा मिला दिया जाता है।

इस प्रकार से लगभग उन सभी कक्षिकाओं को, जिनमें आवत्तियाँ अधिक हैं: गोला बनाकर प्रवाह में सम्मिलित कर लिया जाता है। इस प्रक्रिया में सामान्यतया यह निश्चित कर लेते हैं कि निम्नतम आवृत्ति क्या हो? यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि निश्चित आवृत्तियाँ उस प्रवाह-चक्र के अन्तर्गत सम्मिलित न हो जायें।

  1. मंजूषा रेखाचित्र

घड़ी के अनुसार प्रवाह चार्ट से शिक्षक के व्यवहार को समझने में कठिनाई होती है, इसलिए मंजूषा प्रवाह चार्ट द्वारा कक्षागत व्यवहार को पृथक्पृथक् अंकित किया जाता है। इसमें वर्ग तथा संकेत छोटे-बड़े, मोटे-पतले बनाये जाते हैं, जैसे, (-> -> ->) छात्र और शिक्षक की परस्पर अनुगामी क्रियाओं को स्पष्ट रूप में अंकित किया जाता है। इसकी रचना में शिक्षक तथा छात्र की स्थिर अवस्था कक्षिकाओं को अलग-अलग दिखाया जाता है- एक को शिक्षक कथन तथा दूसरे को छात्र कथन । प्रत्येक स्थिर अवस्था कक्षिका का वर्ग उसकी आवत्ति को ध्यान में रखकर छोटा या बड़ा बनाया जाता है। इसमें स्थिर अवस्था की कक्षिकाओं की आवृत्तियों की सीमा निर्धारित कर लेनी चाहिये। उससे अधिक की आवृत्ति वाली कक्षिकाओं को प्रवाह चार्ट में सम्मिलित करना चाहिये।

  1. अन्तःक्रिया प्रतिमान

फ्लैण्डर्स ने शिक्षण व्यवहार की गुणात्मक व्याख्या के लिए अन्तःक्रिया प्रतिमान विकसित किया। इसमें शिक्षण व्यवहार की व्याख्या निष्पत्ति के संदर्भ में की जाती है। निर्धारित क्रमानुसार शिक्षण अनुक्रियाओं को प्रवाह सिद्धान्त के अनुरूप आव्यूह (कुल आवृत्तियों) की सहायता से बाह्य शाब्दिक व्यवहार को व्यक्त किया जाता है। अन्तः क्रिया विश्लेषण प्रतिमान अन्तःक्रिया विश्लेषण की वस्तुनिष्ठ प्रविधि है। इसमें तीन सैकण्ड तक की घटनाओं का अंकन एवं विश्लेषण किया जाता है। इसमें शिक्षण स्वरूप तथा शिक्षक व्यवहार के विशुद्ध प्रतिनिधित्व के किया जाता है। रूप में अभिव्यक्ति होती है। अन्तः क्रिया प्रतिमान को मुख्यतः दो भागों में विभाजित फ्लैण्डर्स ने अन्तः क्रिया सम्बन्धी शिक्षण प्रतिमान विकसित किये हैं जो शिक्षण स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं, किन्तु अशाब्दिक अन्तःक्रिया पर बहत बल नहीं देते, जबकि अशाब्दिक अन्तः क्रिया भी शिक्षण में शाब्दिक अन्तः क्रिया के समान ही महत्त्वपूर्ण है।

अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ

(i) इसमें शिक्षण प्रवाह सिद्धान्त के अनुरूप होता है।

(ii) इस शिक्षण प्रतिमान में बाह्य शाब्दिक व्यवहार को स्पष्ट किया जा सकता है।

(ii) निश्चित शैक्षिक निष्पत्तियों से शिक्षण व्यवहार सम्बन्धित होता है।

(iv) शिक्षण की अनुक्रियाओं में एक निश्चित क्रम का अनुसरण किया जाता है ।

(v) विशिष्ट शिक्षण व्यवहार को व्यूह की सहायता से प्रदर्शित कर सकते हैं।

अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान की सीमाएँ 

(i) इस प्रतिमान में पाठ्यवस्तु के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।

(ii) इसमें अशाब्दिक अन्त प्रक्रिया का विश्लेषण तथा निरीक्षण नहीं हो पाता।

(iii) दस श्रेणियों में शिक्षण के व्यवहार को विभाजित करके शिक्षण की प्रकृति को संकुचित किया जाता है।

(iv) इसमें शिक्षण व्यवहार तथा छात्र व्यवहार को दो वर्गों में विभाजित कर असन्तुलन की स्थिति भी देखी जाती है।

(v) इसमें अन्त प्रक्रिया का अंकन कर पाना कठिन है।

इस प्रकार अन्त प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान में शिक्षक अन्त क्रियाओं का विश्लेषण करके अपने व्यवहार अथवा शिक्षण का प्रभाव कक्षा पर कैसा पड़ रहा है, इस बात का पता लगा सकते हैं।

शिक्षण सहायक सामग्री

अध्यापन के दौरान पाठ्य सामग्री को समझाते समय शिक्षक जिन-जिन सामग्रियों का प्रयोग करता है वह शिक्षण सहायक सामग्री कहलाती है।

शिक्षण सहायक सामग्री के प्रकार

(1) प्रिंट सामग्री

प्रिंट सामग्री वह सामग्री होती है जो मुदित स्वरूप में प्राप्त हो। जैसे की पुस्तक, पत्रिका, पंपलेट आदि।

(2) श्रव्य सामग्री

श्रव्य सामग्री वे साधन होते है जिन्हें कानों के द्वारा सुना जा सकता है। जैसे की USB ड्राइव, कैसेट, माइक्रोफोन, टेप रिकॉर्डर, आदि।

(3) दृश्य सामग्री

दृश्य सामग्री, वे साधन होते है जिन्हें हम आंखों के द्वारा देख सकते हैं। जैसे की चार्ट पेपर, वास्तविक वस्तुएं, मानचित्र आदि।

(4) श्रव्य-दृश्य सामग्री

श्रव्य-दृश्य सामग्री, “वे साधन हैं, जिन्हें हम आँखों से देख सकते हैं, कानों से उनसे सम्बन्धित ध्वनि सुन सकते हैं। वे प्रक्रियाएँ जिनमें दृश्य तथा श्रव्य इन्द्रियाँ सक्रिय होकर भाग लेती हैं, श्रव्य-दृश्य साधन कहलाती हैं।” जैसे फिल्में, TV, नाटक, यूट्यूब आदि।

शिक्षण सहायक सामग्री महत्व

शिक्षण सहायक सामग्री का महत्व निम्नलिखित स्वरूप में है-

1- सीखने और समझने में सहायक

जब शिक्षण कार्यों में शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है तो इसे स्वाभाविक है कि विद्यार्थियों की इससे समझ बढ़ती है और उनको अधिगम करने में आसानी होती है।

2- पाठ सामग्री में रोचकता

शिक्षण सहायक सामग्री के द्वारा किसी पाठ को बड़ी ही आकर्षक तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। जिससे संपूर्ण पाठ सामग्री में एक रोचकता आती है।

3- पाठ में प्रभावमयता

जब एक शिक्षक कक्षा में शिक्षण कार्य करवा रहा होता है उसे दौरान यदि उसके द्वारा शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है तो पाठ में प्रभावमयता आती है।

4- पाठ प्रदर्शन में सरलता

शिक्षण सहायक सामग्री के फलस्वरुप पाठ प्रदर्शन में सहूलियत होती है और छात्रों को उसके द्वारा भलीभांति अच्छे से समझ आता है।

5- छात्रों का ध्यान केंद्रित

शिक्षण सहायक सामग्री के द्वारा जब संपूर्ण शिक्षण को बड़ी सार्थकता के साथ संपन्न करवाया जाता है तो इससे शिक्षण के उद्देश्यों को बड़ी आसानी से प्राप्त किया जाता है क्योंकि इसके द्वारा छात्रों का ध्यान शिक्षण की ओर केंद्रित किया जाता है जो वास्तव में एक अच्छे शिक्षण के लिए जरूरी है।

6- सीखने के लिए रुचि जागृत करना

सहायक सामग्री के द्वारा छात्रों को हर समय सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है क्योंकि शिक्षण सहायक सामग्री के द्वारा संपूर्ण शिक्षण प्रणाली को रोचकता पूर्ण संपन्न किया जाता है जिसके द्वारा हर संभव विद्यार्थी सीखने के लिए प्रोत्साहित होता है।

7- अधिगम को क्रियाशील बनाना

शिक्षण सहायक सामग्री के द्वारा शिक्षण को वास्तव में सीखने के लिए इस तरह से उपयोगी बनाया जाता है जिसका क्रियान्वयन वास्तविक जीवन में भी हो सके। विद्यार्थी इन सहायक सामग्री की मदद से जो भी चीज सीखना है उनका वास्तविक स्वरूप के साथ रिलेट करने की कोशिश करता है

प्रभावी शिक्षण के लिए ICT की भूमिका

आईसीटी का शिक्षकों द्वारा शिक्षण पद्धतियों में उपयोग, अनिवार्य रूप से पारम्परिक तरीकों की शिक्षण पद्धतियों में मामूली संवर्धन से लेकर उनके शिक्षण के दृष्टिकोण में अधिक मौलिक परिवर्तन करने के लिए किया जा सकता है। आईसीटी का उपयोग प्रचलित शैक्षणिक पद्धतियों के सुदृढीकरण के साथ-साथ शिक्षकों और छात्रों के बीच संवाद के तरीके को सुदृढ करने के लिए किया जा सकता है।

ICT का मतलब सूचना और संचार प्रौद्योगिकी है। पिछले कुछ दशकों से आईसीटी हमारे जीवन के लिए अपरिहार्य हो गया है जो व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ हमारे समाज को भी प्रभावित करता है। इसने जीवन के कई पहलुओं को बदल दिया है, जिसके कारण शैक्षणिक संस्थानों, प्रशासकों और शिक्षकों की भूमिकाओं, शिक्षण और दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना पड़ा है। शिक्षक शिक्षण और अधिगम को प्रभावी और रोचक बनाने के लिए आईसीटी का उपयोग करते हैं। आधुनिक युग में, शिक्षा शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक के लिए आईसीटी के अधिक ज्ञान और आईसीटी का उपयोग करने के कौशल की मांग करती है। यह पेपर 21वीं सदी की शिक्षक शिक्षा में आईसीटी की भूमिका पर केंद्रित है। आजकल आईसीटी स्कूलों और कक्षाओं को एक नया रूप दे रही है और शिक्षकों और छात्रों को अधिक सुविधाएं भी प्रदान कर रही है। आईसीटी शिक्षकों, छात्रों और अभिभावकों को एक साथ आने में भी मदद करता है। इसलिए, आईसीटी का ज्ञान सेवा-पूर्व और सेवाकालीन दोनों शिक्षकों के लिए बहुत आवश्यक है, जो शिक्षकों को कक्षा शिक्षण में प्रौद्योगिकी को एकीकृत करने में मदद करता है।

प्रभावी शिक्षण में Information and communication technology की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जिसके तहत शिक्षक को और ज्यादा बेहतर किया जा सकता है। ICT की भूमिका या महत्व प्रभावी शिक्षण के तौर पर निम्नलिखित स्वरूप में है-

  1. शिक्षण की गुणवता को बढ़ावा देना
  2. पाठ्यचर्या को अधिगम केन्द्रित बनाना
  3. वैयक्तिकृत और लचीली शिक्षा
  4. शिक्षण में व्यवसायीकरण का समावेश
  5. छात्रों में स्व-अधिगम (Self learning) के लिए प्रोत्साहित
  6. ICT के द्वारा परीक्षा प्रणाली में बदलाव
  7. ICT के द्वारा मूल्यांकन में बदलाव
  8. सूचना और संसाधनों तक पहुंच
  9. आकर्षक शिक्षण विधियों का प्रयोग
  10. सहयोग और वैश्विक संबंध
  11. समावेशी शिक्षा

शिक्षण में नवाचार का अर्थ

“शिक्षा में नवाचार” यह शिक्षा के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव और सुधार के लिए नए और प्रेरित विचारों, उत्पादों, तकनीकों और नवाचारों की शुरुआत के लिए भेजा जाता है। यह सिद्धांत शिक्षण और सीखने के लिए नवीन दृष्टिकोण के विकास और कार्यान्वयन को बढ़ावा देता है।

शिक्षा में नवाचार महज़ एक नारा नहीं है। शिक्षा परिदृश्य में अधिक गतिशील और व्यक्तिगत सीखने के अनुभवों की ओर एक परिवर्तनकारी बदलाव देखा जा रहा है। ये परिवर्तन प्रौद्योगिकी के मिश्रण और मानवीय आवश्यकताओं की गहरी समझ से प्रेरित हैं।

शिक्षण में नवाचार की आवश्यकता

शिक्षा पारंपरिक कक्षा सेटिंग और रटंत शिक्षा से बहुत आगे निकल चुकी है। आज, सीखने का परिदृश्य अभूतपूर्व गति से विकसित हो रहा है, और इन परिवर्तनों के साथ तालमेल बनाए रखना महत्वपूर्ण है। शिक्षा में नवाचार न केवल इस विकास के साथ तालमेल बिठाने की कुंजी है, बल्कि आगे बढ़ने की भी कुंजी है।

1- शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए नवाचार जरूरी है।

2- सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा के नवाचार आवश्यक है।

3- लोगों के आर्थिक विकास के लिए शिक्षा में नवाचार की आवश्यकता है।

4- रूचि पूर्ण शिक्षा के लिए नवाचार होना आवश्यक है।

5- शिक्षक में सकारात्मक व्यवहार लाने के लिए नवाचार जरूरी है।

6- कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए

7- वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति के अनुरूप शिक्षा प्रणाली

8- मानव संसाधन का विकास करने हेतु

9- रोजगार के अवसरों में वृद्धि हेतु

10- पर्यावरण प्रदूषण जनित समस्याओं के समाधान हेतु

11- विशिष्टीकरण की वृद्धि एवं इससे उत्पन्न समस्याओं की पूर्ति हेतु।

शिक्षण में नवाचार का महत्व

शिक्षण में नवाचार का महत्व निम्नलिखित स्वरूप में है-

1- ज्ञान का स्थायित्व

शिक्षा में नवाचारों के प्रयोग से पूर्व छात्रों को प्राप्त ज्ञान कुछ समय के बाद विस्मृत हो जाता था, क्योंकि छात्रों की सक्रिय भूमिका नहीं रहती थी। नवाचारों के प्रयोग से छात्रों को पूर्णरूप से सक्रिय रखा गया जिससे वह प्राप्त ज्ञान को शीघ्र नहीं भूलते हैं। अतः ज्ञान के स्थायित्व के लिए शैक्षिक नवाचारों का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है।

2- शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु

शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नवाचारों का प्रादुर्भाव हुआ और शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का मार्ग सरल हो गया।

3- शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रयोग के लिए

प्राचीन समय में शिक्षण अधिगम प्रणाली प्रक्रिया में नीरसता उत्पन्न हो जाती थी। इसके परिणामस्वरूप यह आवश्यकता अनुभव की जाने लगी की नवाचार का प्रादुर्भाव हो। नवाचारों के प्रयोग से तकनीकी साधनों का प्रयोग शिक्षण अधिगम सामग्री में व्यापक स्तर पर होने लगा है।

4- छात्रों के सर्वांगीण विकास हेतु

छात्रों के सर्वांगीण विकास में नवाचारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्राचीनकाल में शिक्षार्थी के ज्ञानात्मक पक्ष को विकसित करने पर पूर्ण ध्यान दिया जाता था। वर्तमान समय में छात्र के अन्तर्गत निहित प्रतिभाओं को ज्ञात किया जाता है तथा उसके विकास के पूर्ण प्रयत्न किए जाते हैं। यह कार्य पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के माध्यम से किया जाता है। इसमें छात्रों की विभिन्न प्रतिभाओं की क्षमता एवं विकास की सम्भावनाओं को ज्ञात कर लिया जाता है। इसके बाद उनके विकास की व्यवस्था की जाती है।

5- कौशलों का विकास के लिए

सूक्ष्म शिक्षण (Micro Teaching) नवाचार की प्रमुख विधि है। इसमें छात्राध्यापकों में अनेक प्रकार के कौशलों का विकास किया जाता है। इन कौशलों के विकसित होने पर शिक्षक छात्रों को प्रभावी ढंग से शिक्षण करा सकता है। इन कौशलों का प्रयोग प्रायः शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में होते हैं; जैसे-प्रस्तावना कौशल में छात्राध्यापक में प्रस्तावना प्रश्नों के निर्माण एवं उनके प्रस्तुत करने की कला का विकास किया जाता है। व्याख्या कौशल में किसी तथ्य की प्रभावी, सरल एवं बोधगम्य व्याख्या करने का कौशल विकसित किया जाता है।

6- नवीन शिक्षण विधियों के ज्ञान हेतु

नवीन शिक्षण विधियों का ज्ञान नवाचारों के प्रयोग से सम्भव है। शिक्षण व्यवस्था में सूक्ष्म-शिक्षण, अनुदेशन एवं दल शिक्षण आदि सम्प्रत्यों को जन्म देने का श्रेय नवाचारों को ही है। नवाचारों के अभाव में सभी शिक्षक प्राचीन शिक्षण विधियों से शिक्षण कार्य करते थे वे दोषपूर्ण थीं। नवाचारों के द्वारा अब शिक्षकों द्वारा नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाने लगा जिसका लाभ शिक्षक एवं छात्र दोनों को मिलने लगा है।

7- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नवाचारों के द्वारा होता है। नवीन गतिविधियाँ अपनाने से शिक्षक एवं शिक्षार्थी में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है।

8- शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए

शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए नवाचारों का प्रयोग होता है। शिक्षा व्यवस्था में भी समय एवं समाज की माँग के अनुरूपबपरिवर्तन होने चाहिए। पहले छात्र पेड़ों की छाया में आसन पर बैठकर पढ़ाई करते थे, आज वातानुकूलित कक्षाओं में अध्ययन करते हैं। नवाचारों से शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक सुधार किए गए।

9- अनुसन्धान के विकास के लिए

शिक्षा में अनुसन्धान का विकास सिर्फ नवाचारों के प्रयोग से ही सम्भव है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया एवं अन्य शिक्षण व्यवस्था से सम्बन्धित समस्याओं पर शोध कार्य सम्पन्न किए जाते हैं और इससे प्राप्त निष्कर्षों को शिक्षण व्यवस्था में प्रयोग किया जाता है।

10- अनेक समस्याओं का समाधान

भारत में तीव्र आर्थिक विकास एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की दृष्टि से पंचवर्षीय योजनाओं को लागू किया गया। इस योजनाओं के फलस्वरूप हमारे देश में कृषि तथा औद्योगिक प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के कारण देश के समक्ष नई समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। जिसमें तीव्र जनसंख्या वृद्धि, नगरीकरण, औद्योगीकरण, पर्यावरण प्रदूषण, बेरोजगारो प्रमुख हैं जिनकी व्यवस्था में नूतन आयामों, नवीन प्रवृत्तियों या नवाचारों को स्वीकार करने की आवश्यकता का अनुभव किया गया।

11- शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की प्रभावशीलता के लिए

शिक्षण अधिगम की प्रभावशीलता के लिए नवाचारों का प्रयोग आवश्यक है। प्राचीनकाल में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक का स्थान महत्त्वपूर्ण होता था तथा बालक का स्थान गौण होता था। शिक्षार्थी एक भूक श्रोता की भाँति शिक्षक के विचारों को सुनता था। इस व्यवस्था में सुधार के लिए नवाचारों की आवश्यकता का अनुभव किया गया तथा नवाचारों के प्रयोग से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में प्रभावशीलता उत्पन्न हुई।

टीम शिक्षण का अर्थ (Meaning of Team Teaching)

जब दो या दो से अधिक शिक्षक एक दूसरे के साथ सहयोग करते हैं और छात्रों के एक समूह को एक विशेष विषय पढ़ाते हैं, तो इसे समूह शिक्षण या टीम शिक्षण कहा जाता है। शिक्षक अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं। शिक्षकों में से एक शिक्षक पूरी टीम का नेता होता है जो पूरे सिस्टम को चलाता है और बाकी शिक्षक उसके निर्देशन में काम करते हैं। इस शिक्षण की सफलता टीम लीडर पर निर्भर करती है। इस शिक्षण तकनीक में शिक्षक आपसी सहयोग के आधार पर पढ़ाते हैं, इसलिए इसे टीम शिक्षण कहा जाता है।

टीम शिक्षण की विशेषताएं या महत्व (Characteristics of Team Teaching)

1- सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility)

टीम शिक्षण दृष्टिकोण में शामिल सभी शिक्षक निर्देशात्मक कार्यक्रम की सफलता के लिए जिम्मेदारी साझा करते हैं।

उदाहरण : यदि गणित की कक्षा में छात्र किसी विशेष अवधारणा को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो टीम शिक्षण दृष्टिकोण में शामिल सभी शिक्षक इसे केवल एक शिक्षक पर छोड़ने के बजाय समाधान खोजने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।

2- एक साथ निर्देश (Simultaneous Instruction)

टीम शिक्षण में, दो या दो से अधिक शिक्षक एक ही समय में एक ही कक्षा में छात्रों को निर्देश प्रदान करते हैं।

उदाहरण : एक विज्ञान वर्ग में, एक शिक्षक एक व्याख्यान का नेतृत्व कर सकता है, जबकि दूसरा शिक्षक छात्रों को व्यावहारिक गतिविधियों में मदद करता है।

3- पूरी तरह से योजना (Thorough Planning)

टीम शिक्षण के लिए पहले से पूरी तरह से योजना और संगठन की आवश्यकता होती है।

उदाहरण : दो या दो से अधिक शिक्षक पाठों की योजना बनाने, निर्देशात्मक सामग्री बनाने और छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने के तरीके पर चर्चा करने के लिए नियमित रूप से मिल सकते हैं।

4- विजुअल एड्स का उपयोग (Use of Visual Aids)

विजुअल एड्स, जैसे कि मल्टीमीडिया प्रेजेंटेशन, चार्ट्स और डायग्राम्स का उपयोग अक्सर टीम शिक्षण में छात्रों की समझ और जुड़ाव बढ़ाने के लिए किया जाता है।

उदाहरण : शिक्षक छात्रों को जटिल अवधारणाओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करने के लिए वीडियो या छवियों का उपयोग कर सकते हैं।

5- सहयोग का विकास (Development of Cooperation)

टीम शिक्षण शिक्षकों के बीच सहयोग और आपसी समर्थन की संस्कृति को बढ़ावा देता है।

उदाहरण : शिक्षक एक दूसरे की शिक्षण रणनीतियों को बेहतर बनाने के लिए प्रतिक्रिया और संसाधन साझा कर सकते हैं।

6- विभिन्न क्षेत्रों के लिए एक्सपोजर (Exposure to Different Areas)

टीम शिक्षण छात्रों को कई क्षेत्रों और विषयों के लिए एक्सपोजर प्रदान करता है।

उदाहरण : अंग्रेजी और सामाजिक अध्ययन के शिक्षकों की एक टीम अमेरिकी साहित्य और इतिहास पर एक इकाई को पढ़ाने के लिए सहयोग कर सकती है, जिससे छात्रों को इस बात की गहरी समझ मिलती है कि कैसे दो विषय आपस में जुड़े हुए हैं।

7- विशेषज्ञों की भागीदारी (Involvement of Experts)

कुछ मामलों में, टीम शिक्षण में बाहरी विशेषज्ञों की भागीदारी शामिल हो सकती है, जैसे कि अनुभवी शिक्षक या विषय विशेषज्ञ।

उदाहरण : एक विज्ञान शिक्षक एक वैज्ञानिक को अपने शोध के बारे में कक्षा में बात करने के लिए आमंत्रित कर सकता है।

8- समूह कार्य के अवसर (Opportunities for Group Work)

टीम शिक्षण समूह कार्य के लिए अधिक अवसर प्रदान करता है, छात्रों को उनकी क्षमताओं, क्षमताओं और रुचियों के अनुसार काम करने की अनुमति देता है।

उदाहरण :शिक्षक समूह परियोजनाओं को असाइन कर सकते हैं जो विभिन्न कौशल और ज्ञान क्षेत्रों को शामिल करते हैं।

टीम शिक्षण के गुण (Merits of Team Teaching)

1- प्रभावी और गुणात्मक शिक्षण (Effective and qualitative teaching)

टीम शिक्षण प्रभावी और उच्च गुणवत्ता वाला शिक्षण प्रदान करता है क्योंकि इसमें कई शिक्षक शामिल होते हैं जो अपनी विशेषज्ञता और विविध दृष्टिकोणों को कक्षा में ला सकते हैं।

उदाहरण : एक विज्ञान वर्ग में, एक शिक्षक सैद्धांतिक अवधारणाओं को समझाने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है, जबकि दूसरा प्रयोग प्रदर्शित करता है, जिससे छात्रों के लिए अधिक प्रभावी और आकर्षक शिक्षण अनुभव होता है।

2- बेहतर कक्षा प्रबंधन (Improved classroom management)

कई शिक्षकों की उपस्थिति से कक्षा प्रबंधन और अनुशासन की समस्या को कम किया जा सकता है।

उदाहरण : यदि एक शिक्षक एक कठिन छात्र को संभाल रहा है, तो दूसरा शिक्षक यह सुनिश्चित करते हुए पाठ को जारी रख सकता है कि बाकी कक्षा ट्रैक पर रहे।

3- सामाजिक कौशल का विकास (Development of social skills)

टीम शिक्षण उच्च सामाजिक गुणों के विकास को बढ़ावा देता है क्योंकि यह समूह कार्य और छात्रों के बीच सहयोग पर जोर देता है।

उदाहरण : टीम शिक्षण में, छात्रों को समूहों में एक साथ काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इससे उन्हें संचार, सहयोग और नेतृत्व जैसे बेहतर सामाजिक कौशल विकसित करने में मदद मिलती है।

4- श्रव्य-दृश्य साधनों का उपयोग (Use of audio-visual aids)

टीम शिक्षण श्रव्य-दृश्य साधनों के उपयोग की अनुमति देता है जो सीखने के अनुभव को बढ़ा सकते हैं और इसे अधिक आकर्षक बना सकते हैं।

उदाहरण : एक शिक्षक दृश्य प्रस्तुति का उपयोग कर सकता है जबकि दूसरा शिक्षक सामग्री की व्याख्या करता है। इससे छात्रों को विषय को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।

5- प्रतियोगिता को बढ़ावा देना (Promotion of competition)

टीम शिक्षण के माध्यम से छात्रों और शिक्षकों के बीच प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ावा दिया जा सकता है, जो उन्हें बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित कर सकता है।

उदाहरण : एक टीम शिक्षण वातावरण में, शिक्षक अधिक आकर्षक और प्रभावी शिक्षण विधियों को बनाने के लिए एक दूसरे के साथ सहयोग और प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।

6- समूह कार्य को प्रोत्साहन (Encouragement of group work)

टीम शिक्षण छात्रों के बीच समूह कार्य और सहयोग को बढ़ावा देता है, जो उनके संचार और सामाजिक कौशल को बढ़ा सकता है।

उदाहरण : एक इतिहास की कक्षा में, शिक्षक विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं पर शोध करने के लिए छात्रों को समूहों में विभाजित कर सकते हैं और टीम वर्क और सहयोग को बढ़ावा देते हुए बाकी कक्षा के सामने अपने निष्कर्ष प्रस्तुत कर सकते हैं।

7- मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का पालन (Following of psychological principles)

टीम शिक्षण सामाजिक शिक्षा और संज्ञानात्मक विकास जैसे मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है, जिसके परिणामस्वरूप अधिक प्रभावी शिक्षण हो सकता है।

उदाहरण : शिक्षक छात्रों की विभिन्न सीखने की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न शिक्षण शैलियों का उपयोग कर सकते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि हर कोई अपनी गति से सीख रहा है और सीख रहा है।

8- वाद-विवाद के अवसर (Opportunities for debates)

वाद-विवाद को टीम शिक्षण में एक प्रमुख स्थान दिया जा सकता है, जिससे छात्रों और शिक्षकों को नया ज्ञान प्राप्त करने और उनके महत्वपूर्ण सोच कौशल विकसित करने के अवसर मिलते हैं।

उदाहरण : एक सामाजिक अध्ययन कक्षा में, शिक्षक वर्तमान घटनाओं या ऐतिहासिक मुद्दों पर बहस को प्रोत्साहित कर सकते हैं, जिससे छात्रों और शिक्षकों दोनों के लिए विषय की गहरी समझ पैदा होती है।

टीम शिक्षण की सीमाएं/नुकसान (Limitations/Disadvantages of Team Teaching)

1- अतिरिक्त व्यवस्था और धन (Additional arrangements and funds)

टीम शिक्षण के लिए स्कूल की परिस्थितियों में अतिरिक्त व्यवस्था और धन की आवश्यकता होती है, जो स्कूल के बजट पर बोझ हो सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि किसी स्कूल को एक कक्षा के लिए कई शिक्षकों की व्यवस्था करनी पड़ती है, तो यह शिक्षा की कुल लागत को बढ़ा सकता है।

2- पारस्परिक सहयोग और समन्वय (Mutual cooperation and coordination)

टीम शिक्षण की सफलता टीम के सदस्यों के बीच आपसी सहयोग और समन्वय पर आधारित होती है। यदि टीम के सदस्यों के बीच सहयोग की कमी है, तो टीम शिक्षण सफल नहीं हो सकता है।

3- टीम के सदस्यों की अनुपस्थिति (Absence of team members)

टीम शिक्षण में पहले से तैयारी करनी पड़ती है। यदि टीम का कोई एक सदस्य अनुपस्थित हो जाता है, तो यह समूह/टीम शिक्षण में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि एक शिक्षक अनुपस्थित रहता है, तो दूसरे शिक्षक को अनुपस्थित शिक्षक के हिस्से को भरना पड़ सकता है, जो अतिरिक्त कार्यभार बना सकता है।

4- व्यक्तिगत अंतर (Individual differences)

टीम के सदस्यों के बीच व्यक्तिगत मतभेदों के कारण टीम शिक्षण में कठिनाई हो सकती है।

उदाहरण के लिए, यदि एक शिक्षक की शिक्षण शैली या दृष्टिकोण दूसरे शिक्षक से भिन्न है, तो यह टीम में संघर्ष का कारण बन सकता है।

5- अतिरिक्त वित्तीय बोझ (Additional financial burden)

टीम शिक्षण स्कूल प्रबंधकों पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ बढ़ा सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि स्कूल को टीम शिक्षण के लिए अतिरिक्त शिक्षकों को नियुक्त करना पड़ता है या शिक्षकों को अतिरिक्त वेतन देना पड़ता है, तो यह स्कूल के खर्चों को जोड़ सकता है।

शिक्षण पेशे के रूप में

भारत में, शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता माना जाता है क्योंकि शिक्षक माता-पिता की भूमिका निभाते हैं। केवल शिक्षक ही छात्र के विकास, कौशल और रचनात्मकता को बढ़ावा दे सकते हैं। किसी ने खूब कहा है कि हम सभी इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि शिक्षण की कला खोज में सहायता करने की कला है। शिक्षण पेशे का तात्पर्य ज्ञान प्रदान करना और अनुशासन के सभी सामान्य रूपों के साथ एक बेहतर व्यक्ति बनाना है। शिक्षण पेशा कैरियर के अवसरों को मजबूत कर रहा है जो देश के विकास में योगदान देता है।

पेशे के रूप में शिक्षण का महत्व

हम कह सकते हैं कि शिक्षण पेशा सिर्फ एक नौकरी नहीं है। शिक्षण पेशा हमारे देश के भविष्य को आकार देने के बारे में है। इसलिए हमारे युवाओं को सही दिशा में मार्गदर्शन करने और उनके सपने को साकार करने में पेशेवर शिक्षण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

1- शिक्षक की उत्पादकता में वृद्धि

यदि शिक्षण को पेशे के रूप में विकसित किया जाता है तो वास्तव में शिक्षक की उत्पादकता में वृद्धि होती है क्योंकि शिक्षक पूर्ण रूप से अपने शिक्षण कार्य को संचालित करने में लगा रहेगा जिससे प्रत्यक्ष तौर पर लाभ छात्रों को होगा और शिक्षक की जो उत्पादकता है उसमें भी वृद्धि होती है।

2- शिक्षक का पूर्वाग्रह से मुक्त होना

जब शिक्षक पूर्ण रूप से नौकरी के संदर्भ में निश्चित रहेगा और उसे शिक्षण कार्य के बदले में वेतन मिलेगा तो उसके मन में किसी भी तरह की जीवन व्यतीत करने से संबंधित शंका नहीं रहेगी और वह सभी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त रहेगा और शिक्षण कार्य को संचालित करने पर ध्यान देगा।

3- छात्रों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान करना

शिक्षक जॉब के संदर्भ में निश्चिंत होने के बाद वह बिना किसी टेंशन की शिक्षण कार्य को संचालित करता है जिससे वह शत प्रतिशत समय बच्चों के साथ शिक्षण कार्य को संपन्न करने के लिए व्यतीत करता है जिससे यह स्वभाविक है कि शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर होगी और छात्रों को लाभांवित किया जाएगा।

4- शिक्षक द्वारा पूर्ण क्षमता का प्रयोग करना

शिक्षकों नौकरी के बारे में कोई टेंशन ना होने के बाद एक शिक्षक अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग करके शिक्षण के कार्य को संचालित करता है जितनी उसकी स्वयं की क्षमता होती है उन सभी क्षमताओं का प्रयोग सिर्फ और सिर्फ वह शिक्षण कार्य को देता है क्योंकि उसे नौकरी की कोई टेंशन नहीं होती है और उसे शिक्षण कार्य की बदले में वेतन मिलता है और उससे वह अपना जीवन व्यतीत करता है।

5- शिक्षक एवं छात्रों के बीच उचित समन्वय

जब एक शिक्षक अपनी पूर्ण क्षमता के साथ और अपना सत्त प्रतिशत समय शिक्षण कार्य को देते हैं तो इससे शिक्षक और छात्रों के बीच उचित समन्वय स्थापित हो पता है यह सब तब संभव होता है जब शिक्षण को एक पेशे के रूप में विकसित किया जाता है।

6- अन्य छात्रों को शिक्षण व्यवसाय की ओर प्रोत्साहित करना

जब शिक्षण को एक पेशे के रूप में विकसित किया जाएगा तो इससे यह स्वाभाविक है कि किस तरह से अन्य छात्र भी इस पेशे की ओर प्रोत्साहित होंगे। लोगों को इस पेशे की और आने की ललक रहेगी जब वास्तव में शिक्षण पेशा इस रूप में विकसित किया जाएगा।

शिक्षण पेशे के विकास के लिए आवश्यकता

आजकल शिक्षण सबसे वांछनीय पेशा है। शिक्षण पेशे के महत्व में मनोरंजन और एक साथ सीखना शामिल है। शिक्षण पेशे में होने का मतलब यह नहीं है कि आपको अपना ज्ञान साझा करना होगा। कभी-कभी शिक्षक स्वयं शिक्षण अनुभव से कुछ नया सीखते हैं।

शिक्षक विद्यार्थियों को उनके लक्ष्य हासिल करने में मदद करके उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए, टीचिंग प्रोफेशन चुनने से करियर के अनंत अवसर मिलते हैं। हालाँकि, शिक्षण ही एकमात्र पेशा नहीं है; वास्तव में, यह शिक्षा की सेवा करने की गतिविधि है।

यहां हमने शिक्षण पेशे के कुछ महत्व को सूचीबद्ध किया है। इसलिए जो लोग शिक्षक बनने में रुचि रखते हैं उन्हें निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए-

1- संचार कौशल में सुधार करना 

शिक्षण अधिक से अधिक लोगों से संवाद करने की एक व्यवस्थित तकनीक है। इस प्रकार, शिक्षण पेशे में रहने से संचार कौशल में सुधार होगा। परिणामस्वरूप, व्यक्ति दूसरों के साथ अधिक आत्मविश्वास से बातचीत कर सकता है।

2- ज्ञान और कौशल बढ़ाना 

शिक्षक ही वह व्यक्ति है जो अपने ज्ञान और कौशल को युवा पीढ़ी तक पहुंचाता है। इस पेशे के माध्यम से, शिक्षक छात्रों को अपनी प्राकृतिक क्षमताओं पर ध्यान केंद्रित करने और विकसित करने के लिए प्रेरित करते हैं।

3- स्वयं एक शिक्षार्थी के रूप में 

चूंकि सीखने की कोई सीमा नहीं होती, इसलिए कोई भी सीखना कभी बंद नहीं कर सकता। शिक्षण पेशे में भी शिक्षक किसी भी स्तर और उम्र में सीख सकता है। ऐसा तो आरएन टैगोर ने भी कहा है।

4- विभिन्न बच्चों को संभालने का अनुभव

स्कूल या कॉलेज एक ऐसी जगह है जहां अलग-अलग मानसिकता वाले अलग-अलग छात्र पहुंचते हैं। शिक्षक में सामान्य, बुद्धिमान या शारीरिक रूप से अक्षम सभी बच्चों को संभालने की क्षमता होनी चाहिए।

5- उत्कृष्ट संगठन कौशल

शिक्षण पेशा व्यक्ति को बहु-कार्यकर्ता बनाता है; छात्रों, शिक्षकों और संगठनात्मक कौशल को शिक्षा देने के बावजूद। संगठित होने का मतलब है कि व्यक्ति बेहतर उत्पादकता के लिए समय और संसाधनों का कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से प्रबंधन कर सकता है।

6- नैतिक और अनुशासित

शिक्षण पेशे की एक विशेषता में नैतिकता और अनुशासन शामिल है। शिक्षक नैतिक मूल्य सिखाते हैं जो छात्रों को अधिक अनुशासित बनाते हैं। नैतिक व्यवहार छात्रों को यह जानने के लिए प्रोत्साहित करता है कि उनके लिए क्या बुरा या अच्छा है।

7- दूसरों के लिए रोल मॉडल स्थापित करना

शिक्षक बनना ज्यादा जटिल नहीं है लेकिन सबका पसंदीदा होना मायने रखता है। शिक्षकों को छात्रों को उनकी छुपी हुई प्रतिभा को खोजने और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। एक प्रेरित शिक्षक छात्रों को रोल मॉडल स्थापित करके प्रेरित कर सकता है।

शिक्षकों के बिच व्यावसायिक नैतिकता

शिक्षकों के लिए व्यावसायिक नैतिकता दिशानिर्देशों और सिद्धांतों का एक समूह है जो उनके आचरण और व्यवहार को निर्देशित करता है, अंततः शिक्षण पेशे की गरिमा और स्थिति को बढ़ाता है। राष्ट्र-निर्माताओं और शिक्षकों के रूप में, शिक्षक अपने छात्रों और समाज के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए, शिक्षकों को ज्ञान, कौशल, व्यक्तिगत मूल्यों, नैतिकता और अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता को अपनाना चाहिए।

राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) ने शिक्षकों के लिए विशिष्ट सिद्धांतों की रूपरेखा तैयार की है, जिसमें प्रत्येक बच्चे के शिक्षा के अधिकार और अंतर्निहित क्षमता को पहचानने के महत्व पर जोर दिया गया है। शिक्षकों को समग्र संस्कृति और राष्ट्रीय पहचान की भावना को भी बढ़ावा देना चाहिए। शिक्षकों के बीच आत्म-सम्मान और व्यावसायिकता महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे समाज का एक अभिन्न अंग हैं और उन्हें उन लोगों की जरूरतों और आकांक्षाओं को समझना और संबोधित करना चाहिए जिनकी वे सेवा करते हैं।

व्यावसायिक नैतिकता संहिता को एक शपथ की तरह माना जाना चाहिए, जो शिक्षकों को सत्य, उत्कृष्टता, आत्म-निर्देशन और आत्म-अनुशासन का अनुसरण करने के लिए मार्गदर्शन करती है। शिक्षकों का आचरण व्यावसायिक गतिविधियों के पाँच प्रमुख क्षेत्रों के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए:

1- शिक्षकों का छात्रों से संबंध

शिक्षकों को प्रत्येक बच्चे के शिक्षा के मौलिक अधिकार का सम्मान करना चाहिए और उनकी क्षमता और प्रतिभा को पहचानना चाहिए। उन्हें एक पोषणकारी और सहायक शिक्षण वातावरण बनाना होगा।

2- शिक्षकों का पेशे और सहकर्मियों से संबंध

शिक्षकों को शिक्षण पेशे की गरिमा और प्रतिष्ठा को बनाए रखना चाहिए। उन्हें सकारात्मक और कॉलेजियम कार्य वातावरण को बढ़ावा देते हुए अपने सहयोगियों का सहयोग और समर्थन करना चाहिए।

3- शिक्षकों का प्रबंधन/प्रशासन से संबंध

शिक्षकों को नीतियों और विनियमों का पालन करते हुए स्कूल प्रबंधन और प्रशासन के साथ पेशेवर और सम्मानजनक संबंध बनाए रखना चाहिए।

4- शिक्षकों का माता-पिता/अभिभावकों से संबंध

शिक्षकों को छात्रों की बेहतरी के लिए खुले संचार और सहयोग को बढ़ावा देते हुए, शैक्षिक प्रक्रिया में माता-पिता और अभिभावकों को शामिल करना चाहिए।

5- शिक्षकों का समाज और राष्ट्र से संबंध

शिक्षकों को समाज और राष्ट्र के विकास में योगदानकर्ता के रूप में अपनी भूमिका पहचाननी चाहिए। उन्हें जिम्मेदार और जागरूक नागरिकों को आकार देने में अपनी जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक होना चाहिए।

इन पेशेवर नैतिकताओं का पालन करके, स्कूल शिक्षक अपने छात्रों और व्यापक समुदाय की वृद्धि और प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। व्यावसायिकता, नैतिक आचरण और शिक्षकों के रूप में अपनी भूमिकाओं के प्रति प्रतिबद्धता यह सुनिश्चित करती है कि शिक्षण पेशे को अत्यधिक सम्मान दिया जाए।

 BY: TEAM KALYAN INSTITUTE

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